________________ द्वादशार नयचक्र में नय का विश्लेषण / 123 प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती। अतः इन सबका ज्ञान निरर्थक है। यह नय अज्ञानवाद का उत्थान करता है। किसी पुरुष विशेष के लिए अतीन्द्रिय तत्त्वों को प्रथमतः तो जानना ही अशक्य है तथा जान लेने पर भी उनसे कोई प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती। अतः इन सबका ज्ञान निरर्थक है / यह नय अज्ञानवाद का उत्थान करता है / कोई पुरुष विशेष अतीन्द्रिय तत्त्वों का ज्ञाता नहीं हो सकता है अतः वेद वाक्यों से ही ज्ञान किया जा सकता है / विधि वाक्यों को ही यह प्रमाण रूप मानता है / आचार्य मल्लवादी ने इस नय का उत्स जिन-प्रवचन में भगवती सूत्र के आया भन्ते ! णाणे अण्णाणे पाठ को स्वीकार किया है। मल्लवादी का मानना है कि आगम में प्राप्त दार्शनिक बीजों का प्रस्फुटन एवं अनुकरण ही अन्य दर्शनों का अस्तित्व है। 2. विधिनय के अभ्युपगम के दोष को उपदर्शित करता हुआ दूसरा विधि विधिनय समुत्थित होता है। इसका मानना है कि यदि लोक तत्त्व सर्वथा अज्ञेय ही है तो सामान्य विशेष आदि एकान्तवादों का निराकरण किस आधार पर किया गया क्योंकि जाने बिना निरास होता नहीं तथा जान लेने से निराकरण करने पर स्ववचन विरोध पैदा होता है। अग्निहोत्रं जुहूयात् स्वर्गकामः' इत्यादि वाक्य अज्ञानवाद के कारण विधि वाक्य के रूप में भी सिद्ध नहीं हो सकते हैं। इस प्रकार पूर्व अर में प्रतिपादित अज्ञानवाद और क्रियोपदेश का निराकरण करके पुरुषार्थाद्वैतवाद की स्थापना की गयी है। फिर क्रमशः एक दूसरे का निरास करते हुए, काल, स्वभाव, नियति आदि सारे ही अद्वैतवादों का अन्तर्भाव इस नय में हो जाता है। - 3. विध्युभय अर में अद्वैतवाद को निरास करके प्रथमतः तो सांख्य के प्रकृति पुरुषरूप द्वैत की स्थापना की है। इसी अर में सांख्य के प्रधान कारणत्व में दोष का उद्भावन होने से उसका निरास हो जाता है। तब इसी अर में ईश्वर अधिष्ठित द्वैतवाद की स्थापना की गयी है। तथा इस नय का सम्बन्ध आचार्य ने ठाणं एवं पण्णवणा के वाक्यों से जोड़ा है / 'लोएति पवुच्चति', 'जीवा चेव अजीवा चेव जीव पण्णवणा अजीव पण्णवणा।' ___4. चतुर्थ विधि नियम अर में ईश्वरवाद का निरास करके कर्मवाद की स्थापना की गई है। कर्म पुरुषकृत है। कर्म के कारण पुरुष की नाना अवस्थाएं होती हैं अतः वे परस्पर सापेक्ष हैं। दोनों में ऐक्य है। इस तर्क के आधार पर 'सर्वं सर्वात्मकं' सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है तथा उसके समर्थन में 'जे एगं णामे से बहुनामे' इस आचारांग सूत्र के वाक्य को उद्धृत किया है। 5. पंचम (उभयम्) अर में चतुर्थ अर में प्रतिपादित 'सर्वं द्रव्यमात्रम्' अभ्युपगम . का निराकरण करके मात्र द्रव्य ही भाव रूप नहीं है अपितु क्रिया भी भाव रूप है।