________________ जैनज्ञानमीमांसा का विकास / 263 . हैं—आर्यरक्षित और उमास्वाति / आर्यरक्षित ने अनुयोग का प्रारम्भ पंचविध ज्ञान के सूत्र से किया है। उन्होंने प्रमाण की चर्चा ज्ञान गुण प्रमाण के अन्तर्गत की है। इसका निष्कर्ष है कि प्रमाणमीमांसा का मौलिक आधार ज्ञानमीमांसा ही है / उमास्वाति ने पहले पाँच ज्ञान की चर्चा की है फिर ज्ञान प्रमाण है इस सूत्र की रचना की है। यह निर्विवाद सत्य है कि ज्ञान मीमांसा का जितना विशद निरूपण जैन दर्शन में हुआ है उतना अन्य दर्शनों में नहीं हुआ। नन्दी, विशेषावश्यकभाष्य, आवश्यक नियुक्ति, षट्खण्डागम, कषायपाहुड, ज्ञानबिन्दुप्रकरण आदि ग्रन्थों में जैन ज्ञानमीमांसा का विशद निरूपण हुआ है। जैन ज्ञानमीमांसा में ज्ञान के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ये दो विभाग प्रचलित है। ये विभाग उत्तरकालीन है। प्राचीन काल में ज्ञान के पाँच प्रकार ही किये गये हैं। उनका प्रत्यक्ष, परोक्ष जैसा कोई विभाग नहीं है। प्रमाण के साथ प्रत्यक्ष का प्रयोग प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में मिलता है। परोक्ष शब्द का प्रयोग जैन ज्ञान मीमांसा अथवा जैन प्रमाण मीमांसा के अतिरिक्त किसी अन्य दर्शन में नहीं मिलता है। ज्ञानमीमांसा के सन्दर्भ में 'परोक्ष' शब्द का प्रयोग जैन आगम युग की विशिष्ट देन है। . ___ आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों ज्ञेय को साक्षात् नहीं जानते इसलिए इन्हें परोक्ष माना गया है। दार्शनिक युग प्रमाण मीमांसा के युग में परोक्ष शब्द का प्रयोग अस्पष्ट ज्ञान के अर्थ में हुआ है। आंगम युग में प्रयुक्त परोक्ष के अर्थ का दार्शनिक युग में विस्तार हुआ है। संदर्भ 1. ज्ञानबिन्दु प्रकरण ( भूमिका) 2. आगमयुग का जैनदर्शन .