Book Title: Aarhati Drushti
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 324
________________ केवलज्ञान / 323 उनके अनुसार प्रत्यक्ष, उपमान, अनुमान, आगम, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि किसी भी प्रमाण से सर्वज्ञत्व की सिद्धि नहीं हो सकती। न्याय और वैशेषिक ईश्वरवादी दर्शन हैं / वे ईश्वर को सर्वज्ञ मानते हैं / कालक्रम से उनमें योगी-प्रत्यक्ष की अवधारणा प्रविष्ट हुई है पर जैन दर्शन में केवलज्ञान या सर्वज्ञत्व मोक्ष की अनिवार्य शर्त है / न्याय और वैशेषिक का मत है कि ज्ञान मुक्त अवस्था में नहीं रहता। ईश्वर का ज्ञान नित्य है और योगि-प्रत्यक्ष अनित्य / शांतरक्षित ने कुमारिल के तर्कों का उत्तर दिया। किन्तु शांतरक्षित के उत्तर सर्वज्ञत्व की सिद्धि में बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकते / बौद्ध दर्शन सर्वज्ञत्व के विरोध में अग्रणी रहा है। उत्तरवर्ती बौद्धों ने सर्वज्ञत्व का जो स्वीकार किया है, वह अस्वीकार और स्वीकार के मध्य झूलता दिखाई देता है। सर्वज्ञत्व की सिद्धि में सर्वाधिक प्रयल जैन दार्शनिकों का है। इस प्रयत्न की पृष्ठभूमि में दो हेतु हैं 1. सर्वज्ञता आत्मा का स्वभाव है। 2. मोक्ष के लिए सर्वज्ञत्व अनिवार्य है। बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने सर्वज्ञता का खण्डन किया। उसका उत्तर आचार्य समंतभद्र, अकलंक, विद्यांनन्द, प्रभाचन्द आदि ने दिया है / यदि तर्क-जाल को सीमित करना चाहें तो वह सत्र पर्याप्त है-ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। ज्ञानावरण के क्षीण होने पर सकल ज्ञेय को जानने की उसमें क्षमता है। केवलज्ञान या सर्वज्ञत्व की इतनी विशाल अवधारणा किसी अन्य दर्शन में उपलब्ध नहीं है। पण्डित सुखलालजी ने 'निरतिशयं सर्वज्ञबीजम' योगदर्शन के इस सूत्र को सर्वज्ञ सिद्धि का प्रथम सूत्र माना है। जैन आचार्यों ने इस युक्ति का अनुसरण किया है किंतु सर्वज्ञता की सिद्धि का मूलसूत्र भगवती में विद्यमान है। वह प्राचीन है तथा योगदर्शन के सूत्र से सर्वथा भिन्न है / सर्वज्ञता की सिद्धि का हेतु है-अनिन्द्रियता / इन्द्रिय ज्ञान स्पष्ट है / उसका प्रतिपक्ष अवश्य है / सर्वज्ञता इन्द्रिय और मन से सर्वथा निरपेक्ष है। वह अतीन्द्रिय ज्ञान है। संदर्भ 1. आचार्य महाप्रज्ञ, नंदी सभाष्य सू. 26-33 /

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