________________ परोक्ष प्रमाण की प्रामाणिकता प्रमेय का ज्ञान प्रमाण से होता है। प्रमेय का अस्तित्व स्वभाव सिद्ध है। किंतु उसके अस्तित्व का बोध प्रमाण के द्वारा ही संभव है। ‘मानाधीना हि मेयसिद्धिः' यह न्यायशास्त्र का सार्वभौम नियम है। जब तक प्रमाण का निर्णय नहीं होता तब तक प्रमेय की भी स्थापना नहीं की जा सकती। ___ दार्शनिक जगत् में प्रमेय के संबंध में विचार वैविध्य उपलब्ध हैं / कुछ दार्शनिक प्रमेय की वास्तविक सत्ता स्वीकार करते हैं, कुछ उसका निषेध करते हैं। किंतु प्रमेय की वास्तविकता एवं अवास्तविकता दोनों की सिद्धि प्रमाण से ही की जा सकती है अतः प्रमाण स्वीकृति में किसी की भी असहमति नहीं हैं। जैन दर्शन प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो प्रमाणों को स्वीकार करता है। अप्रत्यक्ष को चार्वाक् सहित सभी भारतीय चिंतकों ने प्रमाण रूप में मान्य किया है। यद्यपि चार्वाक् मात्र इंद्रिय-प्रत्यक्ष को ही स्वीकार करता है। जबकि अन्य दार्शनिक अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष को भी स्वीकृति देते हैं। प्रमाण के क्षेत्र में प्रत्यक्ष सर्वदर्शन सम्मत शब्द है.। किंतु परोक्ष शब्द का प्रयोग मात्र जैन तार्किकों ने किया है। प्रत्यक्ष प्रमाण विशद होता है। प्रत्यक्ष प्रमाण की विशदता का तात्पर्य है इदन्तया प्रतिभास एवं प्रमाणांतर की अनपेक्षा / इसके विपरीत परोक्ष प्रमाण में इदन्तया प्रतिभास नहीं होता तथा अन्य प्रमाण की भी आवश्यकता होती है / This इदन्तया प्रतिभास है, That तद्तया प्रतिभास है। आगमिक परंपरा अनुसार इंद्रिय एवं मन की सहायता से आत्मा को जो ज्ञान होता है, वह परोक्ष है / आगम परंपरा में संव्यवहार प्रत्यक्ष वस्तुतः परोक्ष ही है / दर्शन जगत् में इंद्रिय से होने वाले ज्ञान को सभी दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष स्वीकार किया।जैन तार्किकों ने अपनी सैद्धांतिक अवधारणा को सुरक्षित रखते हुए भी इंद्रिय एवं मानस ज्ञान को संव्यवहार प्रत्यक्ष कहकर प्रत्यक्ष में परिगणित किया। ___मतिज्ञान के दो साधन हैं—इंद्रिय और मन / मन द्विविध धर्मा है-अवग्रह आदि धर्मवान् एवं स्मृति आदि धर्मवान् / इस स्थिति में मति दो भागों में विभक्त हो जाती है-व्यवहारप्रत्यक्षमति एवं परोक्षमति / इंद्रियात्मक और अवग्रह आदि मनरूप मति व्यवहारप्रत्यक्ष एवं स्मृति आदि मन रूप परोक्ष मति होती है। श्रुतं ज्ञान को तो परोक्ष ही स्वीकार किया है।