Book Title: Aarhati Drushti
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 365
________________ 364 / आर्हती-दृष्टि संज्ञाओं का उल्लेख जैन-साहित्य में प्राप्त है और उनकी तुलना मूल-प्रवृत्तियों के . साथ बहुलता से होती है। लोक संज्ञा वैयक्तिक या विशिष्ट चेतना है। ओघ संज्ञा अनुकरण ती प्रवृत्ति सामुदायिकता की भावना है। इन 10 संज्ञाओं को तीन वर्गों - में विभाजित कर सकते हैं। 1. आहार, भय, मैथुन और परिग्रह / 2. क्रोध, मान, माया और लोभ / 3. लोक एवं ओघ। प्रथम वर्ग की चार वृत्तियों के कारण दूसरे वर्ग की ये चार वृत्तियां विकसित होती हैं। ये 10 ही संज्ञाएं सम्पूर्ण प्राणी जगत् में उपलब्ध है। कोई भी ऐसा प्राणी नहीं हैं, जिसमें ये न हो / मनुष्य में ये वृत्तियां जितनी विकसित होती हैं उतनी वनस्पति. या छोटे प्राणियों में विकसित नहीं हैं / इन संज्ञाओं को आचरण का स्रोत कहा जा सकता है, किन्तु इतना स्पष्ट है ये मूलस्रोत नहीं है / इनका भी उद्गम-स्थल कर्म शरीर ___जैन-दर्शन में इन संज्ञाओं पर विजय प्राप्त करने का आग्रह है / सन्तुलित व्यक्तित्व . के लिए आवश्यक है इन वृत्तियों पर व्यक्ति का अंकुश रहे। मनोविज्ञान भी इनके / . शोधन एवं मार्गान्तरीकरण की प्रक्रिया को प्रशस्त मानता है। .. दशवैकालिकसूत्र में कहा गया—'कामे कमाही कमियं खु दुक्खं / ' काम का अतिक्रमण करो दुःख स्वतः ही अतिक्रान्त हो जाएगा। क्रोध आदि के विजय के लिए -- प्रतिपक्ष भावना का उल्लेख भी इस सूत्र में प्राप्त है। उवसमेण हणे कोहं माणं मद्दवया जिणे। मायं चज्ज्वभावेण लोहो सन्तोसओ जिणे॥ साधना के पथ पर अग्रसर साधक को पग-पग पर इन संज्ञाओं को जीतने का आदेश है। शरीर जब तक है तब तक क्रिया का सर्वथा परित्याग नहीं किया जा सकता किन्तु क्रिया को सम्यक् बनाया जा सकता है, अतः कहा गया जयं चरे जयं चिढ़े, जयमासे जयं सए, जयं (जंतो भासंतो पावं कम्मं ण बधई। उत्तराध्ययन-सूत्र का प्रारम्भ ही अधिकार भावना की समाप्ति के कथन से होता है- 'संजोगाविष्पमुक्कस्स अणगारस्स भिक्खुणो'।

Loading...

Page Navigation
1 ... 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384