Book Title: Aarhati Drushti
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 334
________________ श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित : उत्पत्ति एवं विकास / 333 करने की आवश्यकता क्यों हुई? इस विभाग के पीछे क्या पृष्ठभूमि रही होगी। इसका स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं है। यशोविजयजी ने भी इसका कोई समाधान नहीं दिया है। अन्यान्य भारतीय दर्शन के अध्ययन से ही इनकी उत्पत्ति के कारण का ज्ञान हो सकता है / सविकल्पक एवं निर्विकल्पक ज्ञान की चर्चा भारतीय दर्शन का विमर्शनीय बिन्दु रहा है और सम्भव यही लगता है कि सविकल्पक एवं निर्विकल्पक ज्ञान निरूपण के सन्दर्भ में किसी के मन में श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित की अवधारणाओं की उत्पत्ति ___शब्दाद्वैतवाद के अनुसार कोई भी ज्ञान बिना शब्द के पैदा ही नहीं हो सकता। उनका कहना है कि न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके य शब्दानुगमादृते / अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्व शब्देन भासते॥ न्याय-दर्शन में प्रत्यक्ष की परिभाषा देते हुए कहा गया'इन्द्रियार्थसन्निकर्वोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्' यहां व्यवसायात्मक और अव्यपदेश्य ये दो शब्द विमर्शनीय हैं। उनके अनुसार इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष के पश्चात् अव्यपदेश्य वस्तु का ज्ञान होता है अर्थात् पदरहित पदार्थ का ज्ञान होता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उस समय शब्द नहीं होता किन्तु उस समय शब्द और अर्थ के सम्बन्ध के उपयोग के बिना ही ज्ञान होता है, अस्य शब्दस्य इदं वाच्यमस्ति' इस प्रकार का ज्ञान नहीं होता तथा वह ज्ञान व्यवसायात्मक होता है / विकल्प के बिना ज्ञान में व्यवसायात्मकता नहीं हो सकती। ___बौद्ध-दर्शन का अभिमत है कि प्रत्यक्ष ज्ञान निर्विकल्पक होता है, उसमें किसी भी प्रकार का विकल्प सम्भव नहीं है परन्तु उनका यह अभ्युपगम स्वयं उनके सिद्धान्त से ही निराकृत हो जाता है। . बौद्ध-दर्शन में तीन प्रकार के विकल्प माने गए हैं। स्वभाव, अभिनिरूपण और अनुस्मरण / इनमें से प्रथम स्वभाव विकल्प सारे ज्ञानों में रहता है, इसके बिना कोई ज्ञान हो ही नहीं सकता। अभिनिरूपण और अनुस्मरण विकल्प के अभाव में ज्ञान को निर्विकल्प कह दिया जाता है ठीक ऐसे ही स्वभाव विकल्प से युक्त ज्ञान को भी निर्विकल्पक कह दिया जाता है / वस्तुतः वह ज्ञान सविकल्पक ही है। ' मीमांसा दर्शन में भी सविकल्पक और निर्विकल्पक ज्ञान की चर्चा है। प्रथम

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