Book Title: Aarhati Drushti
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 335
________________ 334 / आईती-दृष्टि होनेवाला प्रत्यक्ष, जो शुद्ध वस्तु से पैदा होता है उसको निर्विकल्पक कहा है। बाद में बुद्धि आदि के द्वारा उसका निश्चय हो जाता है अस्ति ह्यालोचनं ज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकं, बालमूकादि विज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम्। / तत: परमपुनर्वस्तु नामजात्यादिभिर्यया, बुद्ध्यावसीयते सापि प्रत्यक्षत्वेन संमता / / कुमारिल्ल भट्ट जब यह निश्चित हो गया कि शब्द के बिना ज्ञान नहीं होता, ज्ञान शब्द के सहारे होता है तो उस ज्ञान को प्रत्यक्ष कैसे कहा जा सकता है वह तो शब्द ही होना चाहिए। जैन ने इस समस्या का समाधान श्रुतनिश्रितत्व के द्वारा दिया ।उन्होंने कहा शब्द से युक्त हो जाने मात्र से कोई ज्ञान-शब्द नहीं हो जाता, वह ज्ञान श्रुत-निश्रित है अर्थात् जो विषय पहले श्रत-शास्त्र के द्वारा ज्ञान हो किन्तु वर्तमान में श्रत का आलम्बन लिए बिना उससे जानना श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान है। वह शाब्द ज्ञान नहीं है। प्रत्यक्षात्मक ही है, इसको श्रुतनिश्रित मतिज्ञान की सम्भावित पृष्ठभूमि मानने में शायद कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। तत्र श्रुतपरिकर्मितमतेरुत्पादकाले शास्त्रार्थपर्यालोचनमपेक्ष्यैव, .. यदुपजायते मतिज्ञानं तत् श्रुतनिश्रितम्-अवग्रहादि। अश्रुत-निश्रित की कल्पना जैन-दार्शनिकों की मौलिक है। व्यवहार में ऐसा अनुभव किया जाता है कि कभी-कभी व्यक्तियों को अपूर्व ज्ञान पैदा होता है जिसके बारे में सुना नहीं, पढ़ा नहीं अथवा जैसा सुन या पढ़ा है उससे विपरीत ज्ञान पैदा होता जैसे पहले Geocenteric की अवधारणा की हजारों सालों से यही बात चली आ रही थी। शास्त्रों में भी ऐसा लिखा हुआ था किन्तु गैलीलियों का ज्ञान इससे भिन्न प्रकार का था। यह औत्पत्तिकी बुद्धि का उदाहरण है / अतएव विशिष्ट क्षयोपशम के द्वारा निसर्ग रूप से जो ज्ञान पैदा होता है उसको अश्रुत-निश्रित मतिज्ञान कहते हैं। अश्रुत-निश्रित की उत्पत्ति का हेतु नैसर्गिक क्षयोपशम है। . संदर्भ 1. अभिधर्म कोश। (1/33 A, B.)

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