Book Title: Aarhati Drushti
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 349
________________ प्रामाण्य : स्वतः या परतः यथार्थ ज्ञान प्रमाण है। किन्तु उसकी यथार्थता का ज्ञान कैसे होता है ? ज्ञान स्वसंवेदी होता है। ज्ञान को अपना ज्ञान तो हो जाता है पर मैं सम्यक् हूँ अथवा असम्यक हूँ, इसकी अनुभूति ज्ञान को किस माध्यम से होती है? स्वतः होती है अथवा परतः / प्रामाण्य अप्रामाण्य के स्वतस्त्व एवं परतस्त्व की अवधारणा दार्शनिक क्षेत्र की प्रमुख चर्चा रही है। प्रामाण्य के स्वतस्त्व एवं परतस्त्व की चर्चा का उद्गम स्रोत वेदों को प्रमाण एवं अप्रमाण माननेवाले दो पक्ष हैं। जब जैन, बौद्ध आदि विद्वान वेदों के प्रामाण्य का निषेध करने लगे हैं। तब न्याय-वैशिषिक मीमांसक आदि विद्वानों ने वेदों के प्रामाण्य का समर्थन करना शुरू कर दिया। प्रारम्भ में प्रामाण्य के स्वतः-परतः की चर्चा शब्द प्रमाण तक ही सीमित थी किन्त एक बार दार्शनिक क्षेत्र में प्रवेश करने के पश्चात् यह चर्चा सम्पूर्ण प्रमाणों के सन्दर्भ में स्थापित कर दी गई। ... वेदों के प्रामाण्य को स्वीकार करनेवाले विद्वानों ने भी वेदों के प्रामाण्य का समर्थन भिन्न प्रकार से किया है। नैयायिक-वैशेषिक ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं। अतएव उन्होंने वेद का प्रामाण्य ईश्वरमूलक स्थापित किया। जब वेदों का प्रामाण्य स्वीकृत हुआ तो वैसे ही अन्य प्रमाणों का प्रामाण्य भी परतः माना गया। प्रामाण्य की तरह अप्रामाण्य को भी परतः स्वीकार किया। निषकर्षतः प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य को न्याय-वैशेषिक दर्शन में परतः स्वीकार किया गया। न्याय-वैशेषिक दर्शन के अनुसार अर्थ-क्रिया के ज्ञान से अर्थात् प्रवृत्ति साफल्य से प्रमाण के प्रामाण्य का निश्चय होता है / उनका अभ्युपगम है-'प्रमाणतोऽर्थप्रतिपतौ प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत् प्रमाणम्।' प्रमाण से अर्थ प्रतिपति होने पर प्रवृत्ति साफल्य के द्वारा प्रमाण का प्रामाण्य निश्चित होता है अर्थात् नैयायिक-वैशेषिक का प्रामाण्य का नियामक तत्त्व-प्रवृत्ति साफल्य है / जलज्ञान होने के पश्चात् प्रमाता उसमें प्रवृत्ति करता है उसके द्वारा यदि उसकी पिपासा, उदन्या शान्त हो जाती है तो इससे ज्ञात होता है कि उसका जलज्ञान सत्य था यदि पिपासा, दाह शान्त नहीं होते हैं तो पूर्व-उपलब्ध जलज्ञान असत्य हो जाता है / इस प्रकार प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य दोनों की ज्ञप्ति प्रवृति साफल्य से होने के कारण परतः हुई।

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