Book Title: Aarhati Drushti
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 353
________________ 352 / आईती-दृष्टि समानता नहीं है / ऐसी स्थिति में किसको प्रमाण माने, किसको अप्रमाण ? इस समस्या का समाधान-क्षेत्र की दृष्टि से चिन्तन करने से प्राप्त हो सकता है / पृथ्वी से देखनेवाला की अपेक्षा चन्द्रमा दूर है इसलिए उसका ज्ञान चन्द्रमा के बारे में भिन्न प्रकार का है तथा चन्द्रलोक से देखनेवाला चन्द्रमा को निकटता से देख रहा है, अतः उसका ज्ञान पृथ्वीवाले से भिन्न प्रकार है। इसी प्रकार दैनिक जीवन में अनेक कारणों से प्रत्यक्षों द्वारा परस्पर विरोध ज्ञान मिलता है। उदाहरण के लिए एक ही वस्तु समीप से बड़ी और दूर से छोटी दिखाई पड़ती है। वस्तु दिन के प्रकाश में रंगीन रात्रि में रंगविहीन लगती है / इसी तरह वस्तुएं अन्य वस्तुओं की तुलना में हल्की भारी होती है / एक ही वस्तु किसी कोण से वर्गाकार और अन्य कोण से आयताकार दिखलाई पड़ती है। प्रश्न उपस्थित होता है इनमें से किस अनुभव को सही माना जाना चाहिए। स्वतः-परतः से इसका समाधान सम्भव नहीं लगता। ऐसी स्थिति में प्रामाण्य की व्यवस्था द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के अवलम्बन के बिना सम्भव नहीं / अतएव प्रामाण्यअप्रामाण्य की अवगति के लिए अनेकान्त अत्यावश्यक है। - नैयायिक वैशेषिकों ने प्रवृत्ति साफल्य को प्रामाण्य का नियामक तत्त्व स्वीकार . किया है। किन्तु उनका यह अभ्युपगम प्रामाण्य प्राप्ति का कहीं पर तो निमित्त बन सकता है किन्तु सर्वथा नहीं। क्योंकि प्रवृत्ति साफल्य होने पर भी वह ज्ञान सच्चा हो कोई आवश्यक नहीं है। उदाहरणतः ज्योतिष शास्त्र के ज्ञाता सूर्य पृथ्वी के चारों तरफ घूमता है। इसको आधार मानकर गणना करते हैं और उनकी वह गणना ठीक भी होती है किन्तु आज यह सिद्ध हो चुका है कि सूर्य पृथ्वी के चारों तरफ चक्कर नहीं लगाता किन्तु पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है। ___ अतएव प्रवृत्ति साफल्य एवं वैफल्य के द्वारा प्रामाण्य और अप्रामाण्य का निर्णय करना सम्भव नहीं है / बौद्ध आचार्य धर्मकीर्ति ने प्रवृत्ति साफल्य प्रामाण्य का नियामक तत्त्व है इसका निराकरण करते हुए कहा मणिप्रदीपप्रभयोः मणिबुड्याभिधावतः मिथ्याज्ञानाविशेषेऽपि विशेषोऽर्थक्रियां प्रति। इस प्रकार अबाधित तत्त्व, अप्रसिद्ध अर्थख्यापन, अविसंवादित्व या संवादीप्रवृत्ति, प्रवृति साफल्य ये सत्य की कसौटियां भिन्न-भिन्न आचार्यों के द्वारा स्वीकृत

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