Book Title: Aarhati Drushti
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 274
________________ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान / 273 (ग) यह उससे विलक्षण है। (घ) यह उससे छोटा है। * पहले आकार में निर्ग्रन्थ की वर्तमान अवस्था का अतीत के साथ संकलन है, इसलिए यह एकत्व प्रत्यभिज्ञा है। * दूसरे आकार में दृष्ट-वस्तु की पूर्व दृष्ट-वस्तु से तुलना है, अतः यह सादृश्य प्रत्यभिज्ञा है। * तीसरे आकार में दृष्ट वस्तु की पूर्व दृष्ट वस्तु से विलक्षणता है, अतः यह वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञा है। चौथे आकार में दृष्ट वस्तु पूर्व दृष्ट वस्तु की प्रतियोगी है, अतः यह प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञा है। 2. दो प्रत्यक्षों का संकलन—इसमें दोनों ज्ञान प्रत्यक्ष होते हैं--यह इसके सदृश है, यह इससे विलक्षण है, यह इससे छोटा है। 3. दो स्मृतियों का संकलन, इसमें दोनों परोक्ष हैं—वह उसके सदृश है, वह उससे विलक्षण है, वह उससे छोटा है। तुलनात्मक ज्ञान चाहे वह किसी भी प्रकार का क्यों न हो, प्रत्यभिज्ञा के अन्तर्गत समाविष्ट हो जाता है / जैन दर्शन में प्रत्यभिज्ञा को प्रमाण माना गया है। .. तर्क-उपलम्भ, अनुपलम्भ निमित्र व्याप्तिज्ञान तर्क है / - “उपलम्भ का अर्थ है-लिंग के सद्भाव से साध्य के सद्भाव का ज्ञान / धूम लिंग और अग्नि साध्य है। अनुपलम्भ का अर्थ है–साध्य के अभाव में साधन के अभाव का ज्ञान / जहां अग्नि नहीं होती वहां धूम भी नहीं हो सकता / व्याप्ति के लिए तर्क आवश्यक है। तर्क को ऊह भी कहते हैं। ___ अनुमान-साधन से साध्य का ज्ञान होना अनुमान है।" साधन का अर्थ है हेतु या लिंग, साधन को देखकर उसके अविनाभावी साध्य का ज्ञान करना अनुमान है। यथा-धूम से अग्नि का अनुमान करना / प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त, उपनय एवं निगमन ये अनुमान के पांच अंग है। स्वार्थ एवं परार्थ के भेद से अनुमान के दो प्रकार हैं। मतिज्ञान के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष स्वरूप पर विचार-मंथन किया गया। अब श्रुतज्ञान पर विचार-विमर्श प्रस्तुत प्रसंग में वांछित है। श्रुतज्ञान . प्राचीन जैन परम्परा में श्रुतज्ञान का सम्बन्ध मात्र आगमों से था। यद्यपि उसके स्वरूप में बाद में परिवर्तन होता आया है परन्तु आगम युग में जिन प्रवचन को ही होता प्रमाण

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