________________ 316 / आर्हती-दृष्टि का निरोध करता है। प्रथम समय के उत्पन्न सूक्ष्म पनक जीव के जघन्य काययोग के असंख्येय गुणहीन काययोग के पुद्गल और व्यापार का प्रति समय निरोध करते-करते तथा शरीर की अवगाहना के तीसरे भाग को छोड़ते (पोले भाग को पूरित करते) हुए असंख्य समयों में काययोग का (श्वासोच्छ्वास सहित) पूर्ण निरोध करता है। पूर्ण योगनिरोध होते ही अयोगी या शैलेशी अवस्था प्राप्त हो जाती है। ___'अ इ उ ऋ लु'-इन पांच ह्रस्वाक्षरों के उच्चारणकाल तक केवली शैलेशी अवस्था में रहता है। यह उच्चारण न अतिशीघ्र होता है, न प्रलम्ब, किन्तु मध्यम भाव में होता है। काययोग के निरोध के प्रारंभ समय में सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती रूप शुक्लध्यान होता है और शैलेशी अवस्था के समान समुच्छिन्नक्रिया अनिवृत्ति रूप शुक्लध्यान होता है। केवलज्ञान और केवलदर्शन जैन दर्शन में उपयोग के दो प्रकार हैं-साकार और अनाकार / साकार उपयोग का अनाकार उपयोग के साथ क्या सम्बन्ध है ? कौन से ज्ञान से पूर्व कौन-सा दर्शन होता है आदि जैन ज्ञानमीमांसा के महत्त्वपूर्ण विषय हैं / केवलज्ञान और केवलदर्शन के विषय में जैन ज्ञानमीमांसा में तीन मत मुख्य रूप से प्रचलित हैं, जो संक्षेप में इस प्रकार हैं 1. क्रमपक्ष–इम मत के अनुसार केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों उपयोग भिन्न-भिन्न हैं। वे एक साथ नहीं होते क्योंकि आगमों में बताया गया है कि जिस समय केवली आकार, हेतु, उपमा, दृष्टान्त आदि से युक्त रलप्रभा पृथ्वी को जानता है उस समय देखता नहीं क्योंकि ज्ञान साकार होता है और दर्शन अनाकार / ऐतिहासिक दृष्टि से यह पक्ष आगमिक होने के कारण सबसे प्राचीन है, पर दार्शनिक युग में अन्य पक्षों का खण्डन कर इसकी स्थापना करने का श्रेय जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण को है जिन्होंने विशेषावश्यकभाष्य तथा विशेषणवती में अन्य दोनों पक्षों का खण्डन कर इसका युक्ति पुरःसर प्रतिपादन किया है। जिनदासगणी, हरिभद्रसूरि तथा मलयगिरि ने भी उन्हीं का अनुसरण कर क्रमपक्ष की प्रतिष्ठा की है। क्रमिक पक्ष न मानने पर मुख्यत: ये दोष आते हैं(क) ज्ञान और दर्शन को आवत करने वाली कर्मप्रकृतियां भिन्न-भिन्न हैं। अत: यदि दोनों को अभिन्न माना जाएगा तो या एक गुण का आवरण दो कामों से मानना होगा अथवा उनमें से एक आवरण के अभाव का प्रसंग आएगा।