Book Title: Aarhati Drushti
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 297
________________ मन : पर्यवज्ञान जैन दर्शन के अनुसार विशिष्ट योगी अपनी साधना के द्वारा मनोगत भावों को साक्षात् जानने की क्षमता का विकास कर लेता है / मनोगत भावों को जाननेवाला यह अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष जैन ज्ञान मीमांसा में मनःपर्याय अथवा मनःपर्यवज्ञान कहलाता है। जब कोई व्यक्ति चिन्तन-मनन आदि मानसिक क्रियाओं में प्रवृत्त होता है तब वह एक विशेष प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण करता है जिन्हें जैन दर्शन में मनोवर्गणा के पुद्गल कहा जाता है। चिन्तनकाल में उन पुद्गलों की भी विचारानुरूप परिणितियाँ होती हैं, आत्मा उस परिणमन के द्वारा इन्द्रिय, मन, प्रकाश आदि बाह्य साधनों की सहायता के बिना भी मनोगत भावों को जान लेता है / आत्मा की उस क्षमता को ही मनःपर्यवज्ञान कहा जाता है। मनःपर्यवज्ञान की परिभाषा . अतीन्द्रिय ज्ञान अथवा प्रत्यक्षज्ञान के तीन भेदों में दूसरा भेद है-मनःपर्यवज्ञान। यह ज्ञान मनोवर्गणा के माध्यम से मानसिक भावों को जाननेवाला ज्ञान है। व्यक्ति जो सोचता है उसी के अनुरूप चिन्तन प्रवर्तक पुद्गल द्रव्यों के पर्याय-आकार निर्मित हो जाते हैं। मन के उन पर्यायों का साक्षात् करनेवाला ज्ञान मनःपर्यवज्ञान है। मनःपर्यवज्ञान की व्युत्पत्ति करते हुए क्षमाश्रमण जिनभद्रगणि ने लिखा है पज्जवणं पज्जयणं पज्जावो वा मणम्मि मणसों वा। तस्स व पज्जादिन्नणं मणपज्जवं नाणं / पर्यव और पर्यय दोनों का अर्थ है-सर्वतोभावेन ज्ञान / पर्याय शब्द का अर्थ है सर्वतः प्राप्ति / मनोद्रव्य को समग्रता से जानना अथवा बाह्य वस्तुओं के चिन्तन के अनुरूप मनोद्रव्य की पर्यायों की समग्रता से प्राप्ति ही मनःपर्यवज्ञान है। इसको मनःपर्यव, मनःपर्यय एवं मनःपर्याय ज्ञान कहा जाता है। जिस ज्ञानोपयोग में मन (दीर्घकालीन संज्ञा) की पूर्णरूपेण प्राप्ति हो वह मनःपर्यायज्ञान है / मन सूक्ष्म जड़ द्रव्य से बना हुआ है। विभिन्न मानसिक व्यापारों में वह मनोद्रव्य भिन्न-भिन्न आकारों में प्रकट होता है अर्थात् अमूर्त विचारों का जो मूर्तीकरण होता है, उस आधार पर

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