________________ 312 / आर्हती-दृष्टि केवलज्ञान में है। अनन्त द्रव्यों की अपेक्षा अनन्त पर्यायों को क्षायोपशमिक ज्ञान भी जान सकते हैं पर प्रतिद्रव्य के अनन्तानन्त पर्यायों का साक्षात्कार करना केवलज्ञान का वैशिष्ट्य है। केवल' शब्द का अनन्त—यह अर्थ एवं इसकी बहुविध दृष्टिकोणों से विभिन्न व्याख्याएं मात्र जैन साहित्य में ही उपलब्ध होती हैं, अन्यत्र नहीं होती हैं, इससे यह स्पष्ट होता है कि अनन्तज्ञान-सर्वज्ञता की मौलिक अवधारणा मुख्यत: जैन का ही अभ्युपगम है। उक्त व्याख्याओं के संदर्भ में सर्व द्रव्य, क्षेत्र-काल और भाव की व्याख्या इस प्रकार फलित होती हैसर्वद्रव्य का अर्थ है- मूर्त और अमूर्त सब द्रव्यों को जानने वाला। केवलज्ञान के अतिरिक्त कोई भी ज्ञान अमूर्त का साक्षात्कार अथवा प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। सर्वक्षेत्र का अर्थ है- सम्पूर्ण आकाश (लोकाकाश और अलोकाकाश) को साक्षात् जानने वाला। सर्वकाल का अर्थ है- वर्तमान व अनन्त (सीमातीत) / अतीत और भविष्य को जानने वाला। शेष कोई ज्ञान असीमकाल को नहीं जान सकता। सर्वभाव का अर्थ है- गुरुलघु और अगुरुलघु सब पर्यायों को जानने वाला अर्थात् केवलज्ञान सर्वत्र, सर्वदा, सर्वथा रूप से सर्व पदार्थों का साक्षात्कार करता है। केवलज्ञान के भेद केवलज्ञान आत्मा का स्वभाव है / स्वभाव में वस्तुत: भेद नहीं होता / वह क्षायिक ज्ञान है / क्षयोपशम से उत्पन्न अवस्थाओं में न्यूनाधिकता होती हैं पर क्षायिकभाव पूर्ण, अखण्ड एवं सकल होता है, अत: उसमें भेद नहीं होता। केवलज्ञान क्षायिक होता है अत: उसमें भेद नहीं हो सकता परन्तु नंदी, प्रज्ञापना, स्थानांग आदि सूत्रों में केवलज्ञान के भी भेद किये गये हैं। इस संदर्भ में यह मननीय है कि वस्तुत: ये भेद केवलज्ञान के न होकर केवलज्ञानी के हैं क्योंकि ज्ञान और ज्ञानी में ज्ञान का उपचार करने से केवलज्ञान के दो प्रकार होते हैं-१. भवस्थ केवलज्ञान और 2. सिद्ध केवलज्ञान / भवस्थ केवलज्ञान भवस्थ केवलज्ञान वह है, जो मनुष्यभव में अवस्थित व्यक्ति के ज्ञानावरणीय