Book Title: Aarhati Drushti
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 311
________________ केवलज्ञान जैनदर्शन द्वैतवादी दर्शन है / उसके अनुसार संपूर्ण जगत् में चेतन और अचेतन दो मूल तत्व हैं / ज्ञान-शक्ति, चेतन और अचेतन तत्त्व की विभाजक रेखा है। ज्ञान चेतना का गुण है, स्वरूप है / ज्ञान के अभाव में आत्मा की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती। आत्मा के केवली होने से पूर्व की अवस्था में ज्ञान अपने आवारक कर्म से आवृत्त रहता है, अत: स्वरूपत: सभी आत्माएं समान होने पर भी उनमें ज्ञान का तारतम्य दृष्टिगोचर होता है। ज्ञान के तारतम्य के आधार पर हम इन्द्रिय चेतना से युक्त आत्माओं को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं-अविकसित, अल्पविकसित एवं विकसित। एकेन्द्रिय जीव अविकसित, दोइन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक के जीव अल्पविकसित एवं संज्ञी पञ्चेन्द्रिय को विकसित विभाग में समाविष्ट कर सकते हैं। यद्यपि ये सारे ज्ञान की आवृत्त दशा के ही भेद हैं, किन्तु जैसे-जैसे आवरण विरल होता जाता है, ज्ञान प्रकाश की मात्रा वृद्धिंगत होती जाती है, तथा आवरण की सघनता में वह ज्ञान मात्रा अत्यल्प हो जाती है किन्तु आवरण कितना ही सघन क्यों न हो जाय वह ज्ञान शक्ति को नष्ट नहीं कर सकता, मेघ समूह सूर्य को कितना ही आच्छादित क्यों न करे किन्तु दिन-रात का विभेद तो बना ही रहता है। वैसे ही कर्म, आत्मा के ज्ञान गुण को सर्वथा नष्ट नहीं कर सकते / जीव का अक्षर के अनन्तवें भाग जितना ज्ञान गुण अवश्य उद्घाटित रहता है / नंदी का यह कथन इसका साक्ष्य है। ___'सव्वजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंततमो भागो णिच्चुग्घाडियो चिट्ठइ। सो विअ जइ आवरिज्जा तेणं जीवा अजीक्तणं पाविज्जा।'' केवलज्ञान की परिभाषा * नंदीसूत्र के अनुसार जो ज्ञान सर्वद्रव्य, सर्वक्षेत्र, सर्वकाल और सर्वभाव को जानता-देखता है, वह केवलज्ञान है। * जो मूर्त और अमूर्त सब द्रव्यों को सर्वथा, सर्वत्र और सर्वकाल में जानता-देखता है, वह केवलज्ञान है। * आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चय और व्यवहारनय के आधार पर केवलज्ञान की परिभाषा की है

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