Book Title: Aarhati Drushti
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 314
________________ केवलज्ञान / 313 आदि चार घातिकर्मों के क्षीण होने पर उत्पन्न होता है / जब तक शेष चार अघाति-कर्म क्षीण नहीं होते, तब तक वह भवस्थ केवलज्ञान कहलाता है। भवस्थ केवलज्ञान के दो भेद किए गये हैं—१. सयोगिभवस्थ केवलज्ञान / 2. अयोगिभवस्थ केवलज्ञान / केवलज्ञान शरीरधारी मनुष्य के होता है। शरीर की प्रवृत्ति और केवलज्ञान में कोई विरोध नहीं है / उपाध्याय यशोविजयजी ने वात, पित्त आदि शारीरिक दोष और सर्वज्ञत्व में विरोध बताने वाले तीन मतों का उल्लेख कर उनका निरसन किया है। शरीर की प्रवृत्ति से मुक्त अयोगि अवस्था में उसके विरोध का प्रश्न ही नहीं है। भवस्थ केवलज्ञान और सिद्ध केवलज्ञान—केवलज्ञान के ये दो भेद सापेक्ष हैं / मीमांसक दर्शन का अभिमत है कि मनुष्य सर्वज्ञ नहीं हो सकता। वैशेषिक दर्शन का अभिमत है कि मुक में ज्ञान नहीं होता। ये दोनों अभिमत जैनदर्शन को स्वीकार्य नहीं हैं। .. केवलज्ञान इस स्वीकार का सूत्र है कि मनुष्य सर्वज्ञ हो सकता है। सिद्ध केवलज्ञान इस स्वीकृति का सूचक है कि मुक्त आत्मा में केवलज्ञान विद्यमान रहता सिद्ध केवलज्ञान ___जब केवली के भव प्रत्ययिक कर्म क्षीण हो जाते हैं, तब वह सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है। सिद्ध का केवलज्ञान सिद्ध केवलज्ञान कहलाता है / सिद्ध केवलज्ञान के दो भेद किए गये हैं—अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान और परम्पर सिद्ध केवलज्ञान / ये दो भेद काल-सापेक्ष किए गये हैं। अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान के पन्द्रह भेद सिद्ध होने की पूर्व अवस्था के आधार पर किए गये हैं / यह सूत्र जैनधर्म की विशुद्ध आध्यात्मिकता का प्रतिपादक है / इसमें लिंग, वेश आदि बाह्य परिस्थिति से मुक्त होकर केवल आत्मा के आन्तरिक विकास की स्वीकृति है। वे पन्द्रह भेद हैं .1: तीर्थ सिद्ध-जो श्रमणसंघ में प्रवजित होकर मक्त होता है। 2. अतीर्थ सिद्ध-चातुर्वर्ण श्रमणसंघ के अनस्तित्व काल में जो मुक्त होता है। चूर्णिकार ने मरुदेवी आदि का उदाहरण प्रस्तुत किया है / हरिभद्रसूरि ने बताया है—जो जातिस्मरण के द्वारा मोक्षमार्ग को प्राप्त कर सिद्ध होते हैं वे अतीर्थसिद्ध कहलाते हैं। चूर्णिकार ने जातिस्मरण का उल्लेख स्वयंबुद्ध के प्रसंग में किया है। स्वयंबुद्ध दो प्रकार के होते हैं—तीर्थंकर और तीर्थंकर से इतर / प्रस्तुत प्रंसग में तीर्थंकर से इतर विवक्षित है। 3. तीर्थंकर सिद्ध-ऋषभ आदि-जो तीर्थंकर अवस्था में मुक्त होते हैं। 4. अतीर्थंकर सिद्ध-जो सामान्य केवली के रूप में मुक्त होते हैं। .

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