________________ केवलज्ञान / 311 . जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं। केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं / नियमसार भा. 159 बृहत्कल्प भाष्य में केवलज्ञान के पांच लक्षण बतलाए गए हैं 1. असहाय- इन्द्रिय मन निरपेक्ष / 2. एक- ज्ञान के सभी प्रकारों से विलक्षण / 3. अनिवरित व्यापार- अविरहित उपयोग वाला। 4. अनंत- अनंत ज्ञेय का साक्षात्कार करने वाला। 5. अविकल्पित- विकल्प अथवा विभाग रहित / तत्त्वार्थभाष्य में केवलज्ञान का स्वरूप विस्तार से बतलाया गया है। वह सब भावों का ग्राहक, सम्पूर्ण लोक और अलोक को जानने वाला है। इससे अतिशायी कोई ज्ञान नहीं है। ऐसा कोई ज्ञेय नहीं है जो केवलज्ञान का विषय न हो। आचार्य जिनभद्रगणी ने 'केवल' शब्द के पांच अर्थ किये हैं जिनकी आचार्य हरिभद्र एवं आचार्य मलधारी ने इस प्रकार व्याख्या की है१. एक-केवलज्ञान मति आदि क्षायोपशमिक ज्ञानों से निरपेक्ष है, अत: वह एक है। : 2. शुद्ध-केवलज्ञान को आच्छादित करने वाली मलिनता से सर्वथा मुक्त होने के कारण केवलज्ञान सर्वथा निर्मल अर्थात् शुद्ध है। _सकल-आचार्य हरिभद्र के अनुसार केवलज्ञान प्रथम समय में ही सम्पूर्ण उत्पन्न हो जाता है, अत: वह सम्पूर्ण अर्थात् सकल है। आचार्य मलधारी के अनुसार सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों को ग्रहण करने के कारण केवलज्ञान को सकल कहा गया है। * 4. असाधारण-केवलज्ञान के समान कोई दूसरा ज्ञान नहीं होता, अत: वह असाधारण है। अनन्त—केवलज्ञान अतीत, प्रत्युत्पन्न एवं अनागतकालीन अनन्तज्ञेयों को प्रकाशित करने के कारण अनन्त है / केवलज्ञान अप्रतिपाति है अत: उसका अन्त न होने से वह अनन्त है। मलधारी हेमचन्द्र ने काल की प्रधानता से तथा आचार्य हरिभद्रसूरि ने ज्ञेय-द्रव्य की अपेक्षा से केवलज्ञान की अनन्तता का प्रतिपादन किया है। अपरिमित क्षेत्र एवं अपरिमित भाव को अवभासित करने का सामर्थ्य मात्र