Book Title: Aarhati Drushti
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 306
________________ मन : पर्यवज्ञान / 305 1. छदस्थ साधर्म्य-अवधि और मनःपर्यवज्ञान छद्मस्थ के ही होते हैं / अतः स्वामी की दृष्टि से उन दोनों में समानता है। 2. विषय साधर्म्य-दोनों ही ज्ञानों का विषय केवलरूपी पदार्थ-पुद्गल है। अरूपी पदार्थ उनके विषय नहीं बनते अतः दोनों में विषयकृत साम्य हैं / 3. भाव साधर्म्य-दोनों ही ज्ञान जैन कर्म मीमांसा के अनुसार अपने-अपने कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं। 2 4 अध्यक्ष का अर्थ है-प्रत्यक्ष / अवधिज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान दोनों ही विकल्प प्रत्यक्ष हैं। इन्हें अपने विषय को ग्रहण करने में इन्द्रिय आदि बाह्य उपकरणों की सहायता की अपेक्षा नहीं होती। आत्मा स्वयं ही विषय को जान लेती है। ये दोनों पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं। मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान में साधर्म्य ___जैसे मनःपर्यवज्ञान अप्रमत्त यति के होता है, वैसे ही केवलज्ञान भी अप्रमत्त यति के होता है। मनःपर्यवज्ञान में विपर्ययज्ञान नहीं होता, केवलज्ञान में विपर्ययज्ञान नहीं होता। ये दोनों पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं / इनमें विषय के साथ आत्मा का सीधा सम्बन्ध होता है। मन:पर्यवज्ञान का विषय : दो अभिमत . - पण्डित सुखलालजी ने मनःपर्याय के दो मतों की चर्चा की है-'मनःपर्याय ज्ञान का विषय मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु है या चिन्तनप्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाएं हैं-इस विषय में जैन-परम्परा में मतैक्य नहीं है / नियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र व्याख्याओं में पहला पक्ष वर्णित है; जबकि विशेषावश्यक भाष्य में दूसरे पक्ष का समर्थन किया गया है। परन्तु योगभाष्य तथा मज्झिमनिकाय में जो परचित्त ज्ञान का वर्णन है उसमें केवल दूसरा ही पक्ष है जिसका समर्थन जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने किया है ।योगभाष्यकार तथा मज्झिमनिकायकार स्पष्ट शब्दों में यही कहते हैं कि ऐसे प्रत्यक्ष के द्वारा दूसरों के चित्त का ही साक्षात्कार होता है, चित्त के आलम्बन का नहीं / योगभाष्य में चित्त के आलम्बन का ग्रहण न हो सकने के पक्ष में दलीलें भी दी गई हैं। परचित्त का साक्षात्कार करनेवाला ज्ञान मनःपर्यवज्ञान है / यह व्याख्या स्पष्ट नहीं है। ज्ञानात्मक चित्त को जानने की क्षमता मनःपर्यवज्ञान में नहीं है। ज्ञानात्मक चित्त अमूर्त है, जबकि मनःपर्यवज्ञान मूर्त वस्तु को ही जान सकता है / इस विषय में सभी . जैन दार्शनिक एकमत हैं / मनःपर्यवज्ञान का विषय है मनोद्रव्य, मनोवर्गणा के पुद्गल स्कन्ध / ये पौद्गलिक मन का निर्माण करते हैं। मन: पर्यवज्ञानी उन पुद्गल स्कन्धों

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