________________ 292 / आर्हती-दृष्टि दिशाओं में जाननेवाला अवधिज्ञान मध्यगत अवधिज्ञान है। नन्दी में प्राप्त ये ज्ञान के भेद अन्यत्र दृष्टिपथ में नहीं आते / इन भेदों का अध्यात्म की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रेक्षाध्यान में चैतन्यकेन्द्र की अवधारणा इन भेदों के आधार पर हुई है। ज्ञान बाह्य जगत् में शरीर के माध्यम से प्रकट होता है, वह शरीर को करण बनाता है / इस विवेचन से यह स्पष्ट है / अवधिज्ञान के इन भेदों को देखने से दिगम्बर साहित्य में अवधिज्ञान उत्पत्ति के चिह्नों का जो उल्लेख है उनका स्मरण हो जाता है, इन भेदों के साथ उनकी महत्त्वपूर्ण तुलना हो सकती है। षखण्डागम के एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान की तुलना अन्तगत और मध्यगत के साथ की जा सकती है। जिस अवधिज्ञान का करण जीव के शरीर का एक देश होता है, वह एकक्षेत्र अवधिज्ञान है / जो अवधिज्ञान प्रतिनियत क्षेत्र की वर्जना कर शरीर के सब अवयवों में रहता है वह अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान है। चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने अन्तगत और मध्यगत के बीच भेदरेखा खींचने के लिए दो आधार प्रस्तुत किए हैं अन्तगत - मध्यगत 1. औदारिक शरीर के पर्यंन्तवीं | 1. औदारिक शरीर के मध्यवर्ती आत्मप्रदेशों की विशुद्धि। . आत्मप्रदेशों की विशुद्धि। 2. सब आत्मप्रदेशों की विशुद्धि होने | 2. सब आत्मप्रदेशों की विशुद्धि होने पर पर भी एक पर्यन्त से होने वाला तथा | सब दिशाओं को प्रकाशित करनेवाला। एक दिशा को प्रकाशित करनेवाला। दिगम्बर साहित्य में अवधिज्ञान के करणों का नामोल्लेख मिलता है। अवधिज्ञान की उत्पत्ति आत्मा के उन्हीं प्रदेशों से होती है, जो शंख आदि शुभचिह वाले अंगों में वर्तमान होते हैं तथा मनःपर्याय ज्ञान की उत्पत्ति आत्मा के उन प्रदेशों से होती है जिनका सम्बन्ध द्रव्य मन के साथ है अर्थात् द्रव्य मन का स्थान हृदय ही है, इसलिए हृदय-भाग में स्थित आत्मा के प्रदेशों में ही मनःपर्यव ज्ञान का क्षयोपशम है; परन्तु शंख आदि शुभ चिह्नों का सम्भव सभी अंगों में हो सकता है, इस कारण अवधिज्ञान के क्षयोपशम की योग्यता किसी खास अंग में वर्तमान आत्मप्रदेशों में ही नहीं मानी जा सकती। अपितु सम्पूर्ण शरीर में ही है।