________________ 276 / आहती-दृष्टि से, वर्ण रूप है तो चक्षु से, गन्ध रूप है तो घाण से, रस रूप है तो रसन से, स्पर्श रूप है तो स्पर्शन से उत्पन्न होता है / ये सारे अक्षर श्रुत हैं / उच्छ्वासित, निःश्वसित, निष्ठभूत, कासित आदि अनक्षर श्रुत हैं / भाष्य में श्रुतज्ञान के इन भेदों का विस्तार से वर्णन हुआ है। मति एवं श्रुत की सहगामिता ___ आचार्य उमास्वाति के अनुसार श्रुत निश्चित रूप से मतिपूर्वक होता है। अतः जहां श्रुत है वहां मति आवश्यक है। किन्तु जहां मतिज्ञान हो वहां श्रुत हो ही यह आवश्यक नहीं है। नन्दीकार ने मति और श्रुत को अन्योन्यानुगत माना है। जहां मति है वहां श्रुत है एवं जहां श्रुत है वहां मति अवश्यमेव है। पूज्यपाद देवनन्दि एवं अकलंक भी नन्दी के विचारों से सहमत हैं / प्रश्न है कि मत्युपयोग और श्रुतोपयोग का सहभाव है या लब्धि का। दो उपयोग एक साथ नहीं हो सकते हैं / लब्धि एक साथ हो सकती है / डॉ. टाटिया ने सम्भावित समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा है-संभव . है उमास्वाति का कथन उपयोग एवं नन्दी का कथन लब्धि पर आधारित है। मति एवं श्रुत का भेदाभेद .. अभेद-मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान का सहभाव माना गया है। उन दोनों में कई अपेक्षाओं से अभिन्नता है / मति तथा श्रुतज्ञान स्वामी, कारण, काल, विषय एवं परोक्षता के कारण परस्पर तुल्य है। "मति एवं श्रुतज्ञान का स्वामी एक है / नन्दी में कहा भी है—'जत्थ मइनाणं तत्थ सुयनाणं। दोनों की स्थिति भी समान है। नाना जीवों की अपेक्षा इनका उच्छेद कभी नहीं होगा तथा एक जीव की अपेक्षा 66 सागर से कुछ अधिक कालमान इन दोनों का है / इन्द्रिय एवं मनोलक्षण तथा स्वावरण क्षयोपशम स्वरूप दोनों का कारण भी एक जैसा है। मति एवं श्रुतज्ञान का विषय परिमित पर्यायों से युक्त सब द्रव्य है।११ परनिमित्त से होने से ये दोनों परोक्ष हैं। ये तथ्य इनकी परस्पर अभिन्नता के हेतु हैं / पंच ज्ञान क्रम में इन दोनों का प्रथम न्यास इसलिए किया गया है कि संसार का कोई भी प्राणी, अतीत में न ऐसा हुआ, वर्तमान में न है और भविष्य में न होगा जिसको मतिश्रुत से पहले ही अवधि आदि ज्ञान प्राप्त हो गये हों। इन दोनों ज्ञानों का सद्भाव होने पर ही अन्य ज्ञान हो सकते हैं / 12 श्रुत से पूर्व मति न्यास के हेतुओं का विवेचन करते हुए आचार्य कहते हैं कि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही होता है / इन्द्रिय अनिन्द्रिय निमित्त से उत्पन्न सारा ही मतिज्ञान है केवल परोपदेश एवं आप्तवचन से उत्पन्न श्रुतज्ञान मति का ही भेद है। मति मूलंभूत है अतः उसका ही आदि में न्यास उचित है। इसी प्रकार अन्य उचित कारणों के द्वारा अन्य ज्ञानों के