________________ 266 / आर्हती-दृष्टि बुद्धियां / चार बुद्धियों की उत्पत्ति में मन एवं इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं है / यह प्रातिभज्ञान मतिज्ञान के भेद-प्रभेद आगमों में मतिज्ञान को अवग्रह आदि चार भेदों में या श्रुतनिश्रित आदि दो भेदों में विभक्त किया है तदनन्तर उनके प्रभेद प्राप्त हैं / वाचक ने स्थानांग और नन्दी सूत्र में प्राप्त श्रुत-निश्रित एवं अश्रुत-निश्रित"ये भेद नहीं किये हैं तथा दिगम्बर परम्परा में भी ये भेद उपलब्ध नहीं होते। इससे स्पष्ट होता है कि मति के ये भेद प्राचीन नहीं है। उमास्वाति ने अवग्रह के बहु-बहुविध आदि भेद किए हैं जो नन्दी आदि में नहीं है तथा स्थानांग में बहु आदि का परिगणन क्रम भेद से है। जबकि तत्त्वार्थ में बहु-बहुविध आदि के प्रतिपक्षी भेदों का भी संग्रहण है। विशेषावश्यकभाष्य में मति के आगम में आगत श्रुत-निश्रित, अश्रुत-निश्रित तथा तत्त्वार्थगत बहु-बहुविध आदि भेदों का भी उल्लेख है। इससे ज्ञात होता है कि भाष्यकाल तक पहुंचते-पहुंचते मतिज्ञान के ये दोनों प्रकार के भेद प्रतिष्ठित हो गये थे अतः क्षमाश्रमण जी ने दोनों . परम्पराओं का उल्लेख अपने भाष्य में कर दिया है। , . - मतिज्ञान के मौलिक भेदों का कथन वाचक ने उत्पत्ति के निमित्त के आधार पर किया है।२६ .. मतिज्ञान के दो भेद-इन्द्रिय निमित्त, अनिन्द्रिय निमित्त विशेषावश्यक में भी इन्द्रिय और मन को मति की उत्पत्ति में कारण माना है।" अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा–ये मति के चार भेद हैं। विशेषावश्यक में मति के श्रुत-निश्रित एवं अश्रुतनिश्रित भेद करके उनके अवग्रह आदि चार-चार भेद किये हैं। इन्द्रिय निमित्त मतिज्ञान के चौबीस भेद होते हैं 1. स्पर्शनेन्द्रिय के 5 + व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा आदि 2. रसनेन्द्रिय के 5 + व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा आदि 3. घाणेन्द्रिय के 5 + व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा आदि 4. श्रोत्रेन्द्रिय के 5 + व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा आदि 5. चक्षुरिन्द्रिय के 4 = 24 / अनिन्द्रिय (मन) के 4 + = 28 / चक्षु एवं मन ये दो अप्राप्यकारी हैं, अतः इनके व्यंजनावग्रह नहीं हैं। चार इन्द्रियां ही प्राप्यकारी मतिज्ञान के इन अठाईस भेदों से बहुविध क्षिप्र, अनिश्चित, असंदिग्ध एवं ध्रुव इन छः भेदों से गुणित करने पर (28 46) = 128 / भेद होते हैं तथा इन छः के