________________ समाज-व्यवस्था में अनेकान्त / 165 करता है? इस मानवीय एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण से इच्छाओं को सीमित करना आवश्यक है। अर्थशास्त्रीय एवं अध्यात्म शास्त्रीय दृष्टिकोण को पृथक-पृथक सन्दर्भ में देखना होगा / आवश्यकता कम करो' यह प्रतिपादन मानसिक अशान्ति की समस्या को सामने रखकर किया गया है / 'आवश्यकताओं का विस्तार करो' यह प्रतिपादन मनुष्य की सुख-सुविधाओं को ध्यान में रखकर किया गया है। महावीर ने सामाजिक व्यक्ति के लिए अपरिग्रह का सिद्धान्त नहीं दिया। वह मुनि के लिए सम्भव है। सामाजिक मनुष्य इच्छा और आवश्यकताओं को समाप्त करके अपने जीवन को नहीं चला सकता और उनका विस्तार कर शान्तिपूर्ण जीवन नहीं जी सकता। अतः अनेकान्त जीवन-शैली का प्रथम सूत्र होगा—इच्छा परिमाण / इच्छा के आधार पर तीन प्रकार के वर्गीकरण बनते हैं-महेच्छा, अल्पेच्छा एवं अनिच्छा। पहला वर्ग उन लोगों का है जिनमें इच्छा का संयम नहीं होता। इस वर्ग वाले महेच्छु एवं महान् परिग्रह वाले होते हैं / दूसरा वर्ग जैन श्रावक अथवा अनेकान्त शैली वालों का है। जिनमें इच्छा का परिमाण होता है। वे अल्पेछु एवं अल्पपरिग्रही होते हैं। जहाँ अनिच्छा वहाँ अपरिग्रह होता है यह मुनि का वर्ग है / भगवान् महावीर ने मुनि के लिए अपरिग्रह के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया किन्तु समाज अपरिग्रह से नहीं चलता। अतः सामाजिक मनुष्य के लिए इच्छा परिमाण का व्रत दिया। स्वस्थ समाज संरचना का यह महत्त्वपूर्ण सूत्र है / व्यक्तिगत स्वामित्व का सीमाकरण आवश्यक है। व्यक्ति का जीवन अल्प इच्छा, अल्प संग्रह एवं अल्प भोग से युक्त होना चाहिए। समाज-व्यवस्था में इच्छा परिमाण एवं वैयक्तिक स्वामित्व की सीमा को चरितार्थ करने वाला एक अनूठा प्रयोग पश्चिम में श्री अर्नेष्ट बेडर ने 'स्कोट बेडर कम्पनी' को 'स्कोट बेडर कामनवेल्थ' में बदलकर प्रस्तुत किया। इसका विस्तृत विवरण शुमारखर ने 'Small is Beautiful में प्रस्तुत किया है। जिसका सारांश यही है कि अत्यधिक वैयक्तिक लाभ अर्जन करने की स्थिति में भी श्री अर्नेष्ट बेडर ने सभी श्रमिकों को कम्पनी का शेयरहोल्डर बनाकर अपने वैयक्तिक स्वामित्व का विसर्जन किया और त्याग द्वारा इच्छाओं एवं सञ्चय को सीमित करने का सफल प्रयोग प्रस्तुत किया। श्रावक की आचारसंहिता में आगत भोगोपभोग वेरमण व्रत भी स्वस्थ समाज का घटक तत्त्व है / जब इच्छा सीमित होती है और भोगोपभोग का भी परिसीमन होता है तब प्रमाणिकता, अर्थार्जन के साधनों में शुद्धि आदि अपने आप फलित होते हैं। ये दो व्रत अनेकान्त दृष्टि के फलित है। समाज एवं व्यक्ति