________________ जैन व्याख्या पद्धति : एक अनुशालीन / 197 क्यों करने चाहिए? इसका समाधान आचार्यों ने उदाहरणों के माध्यम से किया है। जिस प्रकार एक नगरी में यदि प्रवेश द्वार नहीं होता है तो वहाँ प्रवेश करना कठिन हो जाता है, अतः प्रवेशद्वार का होना आवश्यक है। यदि नगरी का एक ही द्वार हो तो मार्ग जनसंकुल हो जाता है जिससे प्रवेश एवं निर्गम कठिन हो जाते हैं। अतः नगरी के चार द्वार बनाए जाते हैं वैसे ही सूत्र के अर्थज्ञान के लिए अनुयोगद्वार का होना आवश्यक है। अनुयोगद्वार प्रमुखतया चार भागों में विभक्त है तथा इन चार प्रमुख द्वारों के प्रतिद्वार अनेक हैं। उपक्रम, निक्षेप, अनुगम एवं नय ये चार प्रमुख अनुयोगद्वार हैं और इनके प्रतिद्वार ये हैं, यथा—उपक्रम के 6, निक्षेप के 3, अनुगम के 2 तथा नय के 1 प्रतिद्वार हैं। इन भेदों के प्रभेद भी अनेक हैं। भेद-प्रभेद के सघन जंगल का पार कुशल मार्गदर्शक के बिना दुरूह है। प्रस्तुत निबन्ध में चार प्रमुख द्वारों की चर्चा करना अभीष्ट है। उपक्रम को स्पष्ट करते हुए मल्लधारी हेमचन्द्र ने कहा 'दूरस्थस्य वस्तुनः तैस्तैः प्रकारैः समीपीकरणं न्यासदेशानयनं निक्षेपयोग्यताकरणं उपक्रमः' विभिन्न प्रतिपादन प्रकारों के द्वारा शास्त्रीय विषयों को निक्षेप योग्य बनाना उपक्रम नाम का प्रथम अनुयोगद्वार है। उपक्रम शास्त्रीय तथा लौकिक भेद से दो प्रकार का है तत्पश्चात् इन दोनों के 6-6 भेद और हो जाते हैं। द्रव्योपक्रम एवं भावोपक्रम के भेद से भी उपक्रम को दो प्रकार का माना गया है / उपक्रम आदि का विशिष्ट ज्ञान करने के लिए विशेषावश्यक भाष्य विशेष मननीय है। आज की भाषा में उपक्रम को भूमिका अथवा शास्त्र का Introduction कहा जा सकता है। किसी भी विषय का प्रतिपादन करने से पूर्व उसकी भूमिका बांधी जाती है। ठीक इसी प्रकार शास्त्र की व्याख्या के पूर्व उपक्रम के द्वारा शास्त्र का परिचय करवाया जाता है। ___ शास्त्र की नाम, स्थापना आदि प्रकारों से व्यवस्था करना निक्षेप है। 'शास्त्रादेर्नाम स्थापनादिभेदैर्व्यसनं व्यवस्थापन निक्षेपः' अर्थसंकीर्णता का अपनयन करने के लिए निक्षेप अत्यन्त उपयोगी है। सूत्रार्थयोगानुरूपनुकूलं सरणं सम्बन्धकरणमनुगमः' सूत्र , और अर्थ का अनुरूप एवं अनुकूल सम्बन्ध करना अनुगम है। जितनी भी वस्तु की सम्भव पर्याएं हैं उनका ज्ञान करवाने वाला नय है। उपक्रम आदि क्रमपूर्वक होतें हैं। उपक्रम वस्तु को समीप लाता है। क्योंकि जो वस्तु समीप नहीं होती उसका निक्षेप नहीं किया जा सकता, निक्षेप के बिना अर्थज्ञान अर्थात् अनुगम नहीं हो सकता