________________ 220 / आर्हती-दृष्टि प्राप्त कर सकता है। क्या बद्ध संसारी जीव मुक्ति की दिशा में प्रयाण कर सकते हैं ? संसार में क्यों है, संसार से छुटकारा मिल सकता है क्या? इन प्रश्नायित जिज्ञासाओं के समाधान स्वरूप दो तत्त्वों का नौ तत्त्वों में विभाजन किया गया है। नव तत्त्व के मूल स्रोत जीव और अजीव हैं / नव पदार्थ की व्यवस्था का उद्देश्य अध्यात्मपरक है / संसारी जीव-बद्ध होता है, वह अजीव से जुड़ा है, अतः जीव-अजीव ये दो मूल तत्त्व हैं / बन्धन शुभ-अशुभ रूप होता है, अतः शुभ बन्धन पुण्य और अशुभ बन्धन पाप है इन कर्मों को आकर्षित करनेवाला भी कोई होता है वह आश्रव है। जीव जब व्याकुल होने लगता है तब वह आते हुए कर्म-प्रवाह को रोकता है तथा लगे हुए कर्मों को तोड़ता है, यही क्रमशः संवर निर्जरा है। जीव के चिपके हुए कर्मबन्ध है तथा जब साधना की अग्नि से जीव सर्वथा कर्म मल-रहित हो जाता है, वही मोक्ष है। यही उनका क्रमिक विकास है। नंव पदार्थ की व्यवस्था तटाक दृष्टान्त से भी समझी जा सकती है। जीव तालाब है, अजीव अतालाब रूप है। पुण्य और पाप तालाब से निकलते हुए पानी के समान हैं। आश्रव तालाब का नाला है। संवर–नाले को रोक देना संवर है। . उलीचकर या मोरी से पानी को निकालना निर्जरा है। तालाब के अन्दर का पानी बन्ध है। खाली तालाब मोह है। षड् द्रव्य की व्याख्या अस्तित्ववाद है एवं नव तत्त्व की व्याख्या उपयोगितावाद