________________ कर्म सिद्धान्त और क्षायोपशमिक भाव कर्म को जैन दर्शन वास्तविक द्रव्य स्वीकार करता है / वे मात्र संस्कार-स्वरूप नहीं हैं किन्तु पौद्गलिक अणु-परमाणु रूप होते हैं, जो संसारावस्था में आत्मा में संलग्न रहते हैं। जीव चेतनामय अरूपी पदार्थ है / उसके साथ लगे हुए सूक्ष्म-मलावरण को कर्म कहते हैं / जीव की शुभ-अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा प्रकम्पित आत्म-प्रदेश कर्म प्रायोग्य पुद्गल स्कन्ध को अपनी ओर आकर्षित करते हैं / आकृष्ट पुद्गल स्कन्ध राग-द्वेष के कारण आत्म-प्रदेशों पर चिपक जाते हैं तथा वे ही कर्म कहलाते हैं। छहों दिशाओं से आकर्षित चतुःस्पर्शी कर्म-प्रायोग्य पुद्गल स्कन्धों से ही कर्म की रचना होती है। भगवती-सूत्र में कांक्षा-मोहनीय कर्मबन्ध के प्रसंग में कहा है कि जीव सर्वात्म प्रदेशों से सब ओर से कर्म पुद्गलों को आकर्षित करता है।' - संसार में जीव और अजीव ये दो मूल तत्त्व हैं। अवशिष्ट तत्त्व इन दो का ही विस्तार है। जीव और अजीव दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है। संसारावस्था में जीव अजीव (कर्म) से सम्बद्ध होता है। कर्म जीव के ज्ञान, दर्शन, आनन्द एवं शक्ति रूप सहज स्वभाव को आवृत, विकृत एवं अवरुद्ध करता रहता है। कर्म के संयोग के कारण चेतना का ऊर्ध्वारोहण प्रतिहत हो जाता है। कर्म का उदय जीव के आध्यात्मिक विकास को रोकता है तथा क्षायोपशमिक भाव औदयिक भाव को रोककर जीव को विकास के मार्ग पर प्रतिष्ठित करता है / औदयिक भाव एवं क्षायोपशमिक भाव में निरन्तर संघर्ष चलता रहता है / ये अवस्थाएं जीव में ही होती हैं, अतः जीव का भाव असाधारण धर्म कहा जा सकता है। भाव जीव को अजीव से पृथक् करते हैं / तत्त्वार्थ सूत्र में पांच भावों को जीव का स्वरूप कहा है। ___ भाव का शाब्दिक अर्थ है- होना। भवनं भावः। इसका पारिभाषिक अर्थ है-कर्म के उदय, उपशम, क्षय एवं क्षयोपशम से होनेवाली जीव की अवस्था। जीव का अस्तित्व निरपेक्ष है। उसमें किसी भी प्रकार की उपाधि नहीं है / उसके उपाधि/ विभाग कर्म के उदय अथवा विलय से होती है। जैसे ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जीव अज्ञानी कहलाता है और उसके क्षयोपशम से जीव मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी आदि कहलाता है। ज्ञानावरण के क्षय से वह सर्वज्ञ बन जाता है। औदयिक भाव से व्यक्ति का बाह्य व्यक्तित्व निर्मित होता है / क्षायोपशमिक भाव 4