________________ निक्षेपवाद व्यवहार जगत् में भाषा की अनिवार्यता है। भाषा के अभाव में व्यवहार का संवहन दुष्कर है किन्तु भाषा की अपनी कुछ सीमाएं हैं, विवशताएं हैं / फलस्वरूप वक्ता अपने अभिलषित को अभिव्यञ्जित करने में असमर्थता का अनुभव करता है। भाषा एवं वक्ता की इन समस्याओं का समाधान जैन परम्परा में निक्षेप-व्यवस्था के द्वारा करने का प्रयत्न किया गया है। वस्तु स्वरूपतः अनन्त धर्मात्मक है। उस अनन्त धर्मात्मक वस्तु का अवबोध प्रमाण एवं नय के द्वारा प्राप्त होता है / प्रमेय-बोध प्रमाण एवं नय दोनों के द्वारा ही होता है / प्रमाण एवं नय के विषयभूत जीव आदि पदार्थों का नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव इन चार निक्षेपों से न्यास किया जाता है / तत्त्वार्थ सूत्र में कहा गया- . 'नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्यासः' वस्तु के सम्यक् सम्बोध में प्रमाण, नय एवं निक्षेप का महत्त्वपूर्ण स्थान है / इनके बिना सम्यक् प्रमेय व्यवस्था हो ही नहीं सकती। निक्षेप की आवश्यकता व्यवहार जगत् में भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान है / जहां परस्पर एक-दूसरे से संवाद स्थापित करना होता है वहाँ शब्द अत्यन्त अपेक्षित है और एक ही शब्द एकाधिक वस्तु एवं उनकी अवस्थाओं के ज्ञापक होने से उनके प्रयोग में भ्रम की स्थिति पैदा हो जाती है, वस्तु का यथार्थ बोध दुरुह हो जाता है / निक्षेप के द्वारा भाषा-प्रयोग की उस दुरूहता का सरलीकरणं हो जाता है / निक्षेप भाषा प्रयोग की निर्दोष प्रणाली है / निक्षेप के रूप में जैन परम्परा का भाषा जगत् को महत्त्वपूर्ण अवदान है। . निक्षेप की परिभाषा निक्षेप जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है / निक्षेप का पर्यायवाची शब्द न्यास है जिसका प्रयोग तत्त्वार्थसूत्र में हुआ है / न्यासो निक्षेपः / निक्षेप की जैन ग्रन्थों में अनेक परिभाषाएं उपलब्ध हैं / वृहद् नयचक्र में निक्षेप को परिभाषित करते हुए कहा गया जुत्ती सुजुत्तमग्गे जं चउभयेण होइ खलु ठवणं। . वजे सदि णामादिसु तं णिक्खेवं हवे समये // .