________________ मेवात का तात्विक एवं तार्षिक आर / 143 उत्पाद-स्थिति-भंमवाद चेतन का स्पर्श करता हो ऐसा प्रतीत नहीं होता। इस अवधारणा को यदि स्वीकार किया जाये तो इस दर्शन का अन्तर्भाव सांख्य वाले तीसरे विधाम में होता है / किन्तु उपलब्ध तथ्यों में पूर्व मीमांसा के अनुसार चेतन में परिणाम नहीं होता है, ऐसा उल्लेख प्राप्त नहीं होता अपितु श्लोकवार्तिक में स्वर्ण की अवस्थाओं में भेद की तरह पुरुष की अवस्थाओं में भिन्नता का उल्लेख किया गया है। -मीमांसा श्लोककार्तिक की व्याख्या में दुर्गाधर झा ने लिखा है, 'अनित्यता दो प्रकार की होती है—) विकार स्वरूप एवं (2) स्वरूपोच्छेद स्वरूप / आत्मा में इनमें से प्रथम प्रकार की अनित्यता को स्वीकार करते हैं क्योंकि (आत्मा) पूर्व की अपनी उदासीलावस्था को छोड़कर ही कर्तृत्वावस्था और भोक्तृत्वास्था को प्राप्त होत है। किन्तु उस समय भी उसके स्वरूप का उच्छेद नहीं होता, क्योंकि प्रत्यभिज्ञानी रहती है। अतः आत्मा को विकारी रूप अनित्य तो मानते हैं, किन्तु विनाशी स्वरूप अनित्य नहीं मानते।' 'आत्मा न अपनी अवस्थाओं से सर्वथा भित्र ही है, न सर्वथा अभिन्न ही। कथञ्चिद् भिन्न भी है, कवञ्चिद् अभिन्न भी। जैसे कुण्डल स्वर्ण से न सर्वथा मित्र होता है न / सर्वथा अभिन्न ही। इससे ज्ञात होता है कि चेतन में परिणमन हो रहा है अतः इस दर्शन का समावेश पंचम विभाग में करना युक्तिसंगत प्रतीत होता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सभी भारतीय पाश्चात्य दर्शनों का वर्गीकरण नित्य-अनित्य, अभेद-भेद आदि की तरह ही वस्तु के अन्य धर्म सामान्य-विशेष, एक अनेक, द्रव्य-पर्याय आदि के आधार पर भी किया जा सकता है। जैनदर्शन में वस्तु का स्वरूप ___ अद्वैत वेदान्त ने द्रव्य को पारमार्थिक सत्य मानकर पर्याय को काल्पनिक कहकर उसके अस्तित्व को ही नकार दिया। बौद्धों ने पर्याय को पारमार्थिक सत्य मानकर द्रव्य को काल्पनिक मान लिया / जैन न्याय के अनुसार द्रव्य और पर्याय दोनों पारमार्थिक सत्य हैं। हमारा ज्ञान जब संश्लेषणात्मक होता है तब द्रव्य उपस्थित रहता है और पर्याय गौण हो जाता है और जब ज्ञान विश्लेषणात्मक होता है तब पर्याय प्रधान एवं द्रव्य गौण हो जाता है" / जैन दर्शन के अनुसार वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है। वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। सामान्य एवं विशेष का परस्पर अविनाभाव है। ये एक-दूसरे के बिना रह नहीं सकते अर्थात् एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व हो ही नहीं सकता। विशेष से रहित सामान्य एवं सामान्य से रहित विशेष शशविषाण