Book Title: 20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Author(s): Narendrasinh Rajput
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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तथा महाभाष्यकार पतञ्जलि द्वारा " महानन्द " काव्य लिखा गया । इसके पश्चात् संस्कृत काव्याकाश में तेजस्वी दिनमणि के समान कालिदास का उदय हुआ । उन्होंने 17 सर्गों में "कुमार सम्भव" की रचना की। इसमें शिव-पार्वती के विवाह की रोचक कथा निबद्ध है । कालिदास कृत " रघुवंश महाकाव्य" भी 19 सर्गों में आबद्ध रामायण के कथानक पर आधारित कृति है । इनके परवर्ती अश्वघोष ने प्रथम शताब्दी में ही सौन्दरनन्द और बुद्धचरि नामक महाकाव्यों की रचना की । सौन्दरनन्द के 18 सर्गों में गौतम बुद्ध द्वारा अपने सौतेले भाई नन्द को उसके पत्नी सुन्दरी के मोहपाश से विरक्त करने की मनोहर कथा प्रस्तुत हुई है । बुद्धचरित के 28 सर्गों में गौतम बुद्ध के सम्पूर्ण जीवन चरित्र को अङ्कित किया गया है । इन कृतियों में दर्शन एवं कवित्व का समन्वय विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता है । अश्वघोष के पश्चात् 3 शताब्दियों तक किसी श्रेष्ठ महाकाव्य का प्रणयन नहीं हुआ । श्री लंका के राजा कुमारदास 520 ई. के लगभग " जानकी हरण" नामक महाकाव्य लिखा । इसमें 20 सर्ग हैं और दशरथ के राज्यवर्णन से रामविजय तक की कथा वर्णित है । 14 महाकाव्य परम्परा की श्रेष्ठ रचना वीं शती में भारवि द्वारा विरचित 18 सर्गों में निबद्ध “किरातार्जुनीयम्” महाकाव्य है । इसमें कौरवों को पराजित करने के लिए अर्जुन द्वारा तपस्या पूर्वक शिवजी से “पाशुपत अस्त्र" प्राप्त करने का मनोहर वर्णन हुआ है । इसमें कलापक्ष की प्रधानता है और अर्थ गौरव के लिए भारवि विख्यात हैं । संस्कृत महाकाव्यों में भट्टी कृत "रावणबध" अपना विशिष्ट गौरव रखता है । इसे " भट्टी काव्य" भी कहते हैं । इसमें 22 सर्ग हैं और रामकथा का विश्लेषण हुआ है । इसमें व्याकरण के नियमों का काव्यमयी भाषा में विवेचन है। वीं शती में महाकवि माघ ने 20 सर्गों में निबद्ध " शिशुपालवध" नामक महाकाव्य का प्रणयन किया । इसमें महा अत्याचारी शिशुपाल का वध श्री कृष्ण द्वारा किये जाने का वर्णन है । इसमें माघ की प्रतिभा का उत्कृष्ट निदर्शन है यह काव्य अर्थ गौरव, पदलालित्य आदि के लिए विख्यात है ।
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1976
इसके पश्चात् 8वीं शती में महाकवि रत्नाकर ने 50 सर्गों में सर्वाधिक विशालकाय "हरविजय" महाकाव्य की रचना की । इसमें कुल 4321 पद्य हैं । शिव द्वारा अंधकासुर के वध का कथानक प्रस्तुत हुआ है । इसमें कथा प्रवाह में गतिहीनता है और अन्य प्रसङ्गों को अनावश्यक विस्तार मिला है। 9वीं शताब्दी में अभिनंद कवि ने " रामचरित " तथा "कादम्बरी कथासार महाकाव्य लिखे हैं । 11वीं शती में महाकवि क्षेमेन्द्र ने “दशावतार चरित, भारत मञ्जरी, रामायण मञ्जरी ग्रन्थों की रचना की । काश्मीर के ही मंख कवि ने 12 शती में 25 सर्गों में आबद्ध " श्रीकण्ठचरित" महाकाव्य का प्रणयन किया। 12वीं शती के उत्तरार्द्ध में कन्नौज महाराज के आश्रित कवि श्रीहर्ष अप्रतिम प्रतिभा के धनी महाकाव्यकार हुए । उनका 22 सर्गों में प्रस्तुत "नैषधीय चरित" महाकाव्य नल और दमयन्ती की प्रणय कथा का सजीव चित्र प्रस्तुत करता है । यह कवि अपने पाण्डित्य, वैदुष्य और कल्पनाशक्ति के कारण विश्रुत है । इस महाकाव्य में उनकी विलक्षणता - प्रतिबिम्बित हुई है । इसी शती में कविकर्णपूर ने “पारिजातहरण" महाकाव्य" की रचना की । कुछ अन्य महाकाव्यों की रचना भी हुई । तत्पश्चात् 16वीं शती में साहित्यसुधा, रघुनाथयूप विजय आदि महाकाव्य मिलते हैं । राजचूडामणि दीक्षित कृत " रुक्मिणी कल्याण " 10 सर्गों में है और " शङ्कराभ्युदय's शङ्कराचार्य के जीवन पर आधारित ( 6 सर्गों में) महाकाव्य है । सत्रहवीं शती में नीलकण्ठ कृत "शिवलीलार्णव" 22 सर्गों में निबद्ध शिव की 64 लीलाओं से ओतप्रोत महाकाव्य है । इनकी दूसरी रचना " गङ्गावतरण" 8 सर्गों में आबद्ध रचना है ।" इसी शती में रामचन्द्रोदय,