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Jin Puja Vidhi in Hindi
Written by Pareshkumar.J.Shah Monday, 22 November 2010 11:17 - Last Updated Monday, 22 November 2010 11:23
Jin Puja Vidhi in Hindi
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जिनपूजा विधि
(त्रिकगाल पूजा एवं जिनदर्शन विधि का सविस्तार वर्णन)
संपादक पू. मुनिराज श्री रम्यदर्शनविजयजी म.
सचित्र जिनपूजा विधि
जिनाज्ञा मुताबिक और विधि अनुसार जिन-भक्ति करने की जिज्ञासावाले को यह छोटी सी पस्तिका
अत्यंत उपयोगी मार्गदर्शक बनेंगी। बोधिदर्शन ग्राफिक्स अहमदाबाद मो. ९४२५०७४८८९
संकलक परेशकुमारजे. शाह
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जिनपूजा सामग्री
प्रभुजी के आभूषण
htox-sideriHEORT
कलश
केसर-सुखड
फूल की छाब
धूपीया
दिपक
अक्षत
नैवेध
आईना
पंखा
चामर युग्म
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सचित्र जिन-पूजा विधि
(त्रिकाल पूजा और जिन दर्शन विधि विस्तृत वर्णन)
संपादक शासन-शिरताज, सुविशाल गच्छाधिपति, पूज्यपाद आचार्यदेवेश श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा के विनीत शिष्यरत्न पू. मुनिराजश्री रम्यदर्शनविजयजी म.सा.
संकलक परेशभाई जशवंतलाल शाह
प्रकाशक मोक्ष पथ प्रकाशन, पालडी, अमदावाद-७.
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सचित्र जिनपूजा विधि समर्पण समारोह : वि.सं.२०६३, मुंबई, नकल :२०००/श्रुतभक्ति का अनमोल लाभ : Rs. 35/
-प्राप्ति-स्थानमोक्ष पथ प्रकाशन : Clo परेशभाई जे. शाह जी-२, निर्मित एपार्टमेन्ट, जेठाभाई पार्क के सामने, शांतिवन रोड, पालडी, अहमदाबाद-७. मो. 98240 74889,9228266501 जैन प्रकाशन : 309/4, खतरीनी खडकी, दोशीवालानी पोल, अहमदाबाद-१. फोन : सेवंतीलाल वी. शाह : डी-52, ग्राउन्ड फ्लोर, सर्वोदय नगर, पांजरापोल, पहेली गली, भूलेश्वर, मुंबई-४. फोन : श्री दिलीपभाई. डी. गुढका : आर-111, पहेला माला, पी.जे. मेवावाला चेम्बर,१३, काजी सैयद स्ट्रीट, (शाक गली) मस्जीद बन्दर (वेस्ट) मुंबई-९ मो. 09224433033 मीतेशभाई & मोक्षभाई : 12, पोलाक स्ट्रीट, तीसरा माला, कोलकत्ता-700001. मो. 98300 40578, 93310 11604 खुशालभाई पी. झवेरी : ७, विनायक मन्डली स्ट्रीट, एलीफ्ट गेट के पास, पहेला माला, सोहुकार पेट, चेन्नई-600 079
Designed & Printed by बोधिदर्शन ग्राफिक्स, अहमदाबाद. फोन: ९८२५०७४८८९,९२२८२६६५०१
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रिपूजिताय श्री
राजेन्द्र पद्मावती
ॐ ह्रीं श्री अह घर
की शंखेश्वर पा
बनाथाय नमः
सर्ववांछित-दातारं, मोक्षफल-प्रदायकम् । शंखेश्वर-पुराधीशं, पार्श्वनाथं जिनं स्तुवे॥
( III
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प्रकाशकीया निवेदना
नित्य क्रम में उपयोगी 'जिनपूजा-विधि' को जिनालय जाते समय साथ ले जा सके, ऐसे शुभ आशय से 'आवश्यक क्रिया साधना पुस्तक के अन्तर्गत समाविष्ट इस विषय की अलग छोटी पुस्तिका प्रकाशित करते समय, हम आनंद की अनुभूति कर रह है। जिनाज्ञा अनुसार जिनभक्ति का आलेखन 'सूरिरामचन्द्र' के अन्तेवासी शिष्यरत्न प्रवचनकार पूज्य मुनिराज श्री रम्यदर्शन विजयजी म.सा. ने किया है।
धार्मिक तथा व्यवहारिक प्रसंगो में जिनपूजा-विधि' की यह छोटी सी पुस्तिका को भेंट स्वरूप देने का अवसर छोडने जैसा नहीं है। हम सभी जिन भक्ति से मोक्षपद प्राप्त करने वाले बने, ऐसी शुभेच्छा.....
श्री सम्यग्ज्ञान रम्य पर्षदा संचालित मोक्ष पथ प्रकाशन के ट्रस्टि गण
(VIII)
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मुख्य खाना न
मुख्य दाता
श्रीमति प्रभावती बेन नंदलाल भाई शेट-कोलकत्ता
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आपकी सुनहरी यादे सदा,
हमें आनंदित करती है,। आपकी शौर्य भरी बातें सदा,
हमें रोमांचित करती है। आपकी विरह भरी यादे सदा,
हमे शोकान्वित करती है। आपकी समताभरी बाते सदा,
हमे पुलकित करती है। आपके अस्तित्व मात्र से हम सभी आनंदित
रहते थे। आपके जीवन सुकृत्यो की अनुमोदना व प्रभु भक्ति में तन्मय बनने की
आपकी अभिलाषा को याद करकें, यह प्रस्तुत पुस्तक प्रकाशन मे सहभागी बने है।
चन्द्रकांतभाई, धीरेन्द्रभाई, हेमेन्द्रभाई, परेशभाई
पुत्रवधू मधुबेन, सुरेखाबेन, अनिलाबेन, जागृतिबेन लिः श्री नंदप्रभा परिवार का सादर प्रणाम हाल : मुंबई, कलकत्ता...
(v)
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अनुक्रमणिका क्रम विषय
पृष्टनं प्रस्तावना प्रकाशकीय निवेदन 'आवश्यक क्रिया साधना' पुस्तक परिचय जिन-दर्शन विधि त्रिकाळ-पूजा विधि जिन-पूजा विधि क्रमबद्ध (मध्याह्नकाल पूजा) ८
मंदिर में ले जाने योग्य सामग्री ५. दश-त्रिक वर्णन
स्नान करने की विधि
पूजा वस्त्र परिधान विधि ८. मंदिर में प्रवेश की विधि ९. भाववाही स्तुतियाँ १०. अष्ट-पड मुख-कोश बांधने की विधि ११. केशर तिलक करने की विधि १२. गभारे (गर्भगृह) में प्रवेश करने की विधि १३. निर्माल्य उतारने की विधि १४. अंग-लुंछना करने की विधि
(XI)
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अनुक्रमणिका
क्रम विषय १५. प्रभुजी को विलेपन करने की विधि १६. अंग-रचना (आंगी) की विधि १७. प्रभुजी की केशर-पूजा की विधि १८. पूष्प-पूजा की विधि १९. धूप-पूजा की विधि २०. दीपक-पूजा की विधि २१. दर्पण-दर्शन तथा पंखा डुलाने की विधि २२. चामर पूजा की विधि २३. अक्षत-पूजा की विधि २४. नैवेद्य-पूजा की विधि २५. फल-पूजा की विधि २६. चैत्यवंदन करने से पहले समझने योग्य बातें २७. चैत्य-वंदन विधि २८. प्रभात वसायंकालीन के पच्चक्खाण २९. प्रभुजी को बधाने की विधि ३०. मंदिर से बहार निकलते समय की विधि ३१. न्हवण (नमण)जल लगाने की विधि ३२. बरामदे( ओटले) पर बैठने की विधि
XII
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प्रस्तावना
"जिनः साक्षात् सुरद्रुमः" भवाटवी मे भ्रमण करते जीवो के लिए जिनेश्वर परमात्मा साक्षात् कल्पवृक्ष के समान हैं । संयमी संयम मार्ग को विशेष जवलंत करने में और अविरतिधर गृहस्थ के भवसंताप को हरण करने में परमात्म-भक्ति अमोघ उपाय समान हैं । द्रव्यपूजा और भावपूजा में प्रभुजी के अद्भूत गुणो को आत्मस्थ करने का पुरुषार्थ होता हैं । परंतु उसमें संपूर्ण विधि का पालन और जयणा धर्म का उपयोग रखना उतना ही जरुरी है। सभी आराधक वर्ग सुगमता से समझ सके और आचरण कर सकें, ऐसी सरल भाषा मे वर्णन करने का छोटा सा प्रयास किया गया हैं। बिंदु समान मेरे इस प्रयत्न में सागर समान गहरी परमात्म भक्ति की बातें समाविष्ट करना मुश्किल है। फिर भी बालजीवोंके नित्यक्रम मे जरूर उपयोगी बने, ऐसी शुभेच्छा के साथ प्रयास किया है।
( VI
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हादय
सकल संघ हितचिंतक, सुविशाल-गच्छाधिपति, पूज्यपाद आचार्य देवेश श्रीमद् विजय रामचन्द्र सूरीश्वरजी महाराजा और समता-समर्पण मूर्ति, सुविशाल गच्छआधिनेता, पूज्यपाद आचार्य देवेश श्रीमद् विजय महोदय सूरीश्वरजी महाराजा की अमाप दिव्यकृपा दृष्टि से तथा परम श्रद्धेय, सुविशाल-गच्छनायक, पूज्यपाद आचार्य देवेश श्रीमद् विजय हेमभूषण सूरीश्वरजी महाराजा और परम कृपालु,सूरिमंत्र सन्निष्ठ समाराधक, पूज्यपाद आचार्य देवेश श्रीमद् विजय श्रेयांस-प्रभ सूरीश्वरजी महाराजा की निरंतर बरसती कृपादृष्टि से यह कार्य संपन्न हुआ है। उन्ही को यह समर्पण है।
यह साहित्य जैन शासन के सभी आराधको भवनिर्वेद जगाकरसंसारसागरपारउतरने का सामर्थ्य प्राप्त करे, ऐसी शुभेच्छा केकेसाथ.....
वि.सं. २०६३, निज. ज्येष्ठ सुद-३ मुंबई
सूरि रामचंद का शिष्यरत्न
मुनि रम्यदर्शनविजय
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आवश्यक-क्रिया साधना
जैनशासन के समस्त आराधको की नित्य क्रम अनुसार होती क्रिया द्वारा साधना प्राणवंत बने और द्रव्यक्रिया-भाव क्रिया का कारण बने, इसलिये पुस्तक मे कुछ प्रयत्न किया गया है। उसमें सार्थ पंच प्रतिक्रमण सूत्र के साथ शुद्ध उच्चारण विधि, सचित्र सत्रह संडासा पूर्वक खमासमण, सूत्र की छंद पहेचान व गाने का तरीका, सूत्र अनुप्रेक्षा के साथ संपदा आदि ज्ञान, आवर्त विधियुक्त सचित्र मुहपत्ति पडिलेहण विवरण युक्त,सचित्र दशत्रिक के साथ जिनपूजा-विधि, योगमुद्रा आदि समझूति के साथ और पांचों प्रतिक्रमण की विधि हेतु व रहस्य के साथ बताए गए हैं। उसके अतिरिक्त ओर भी बहुत विषयो का समावेश किया गया हैं।
गुजराती प्रथम आवृत्ति की ५००० प्रतियाँ पंद्रह महीने मे समाप्त हो गई। अब गुजराती मे ओर उतनी ही प्रतियाँ
और हिंदी संस्कारण में ४००० प्रतियॉ अभी प्रकाशित हुई है। धार्मिक तथा व्यावहारीक प्रसंगो में जीवन उपयोगी यह साहित्य भेट प्रदान करने जैसा है।
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आवश्यक-क्रिया साधना
प्रेरक पू.आचार्य श्री विजय श्रेयांसप्रभसूरीश्वरजी म.सा.
संपादक -मार्गदर्शक पूज्यपाद आचर्य देव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा के अन्तेवासी शिष्यरत्न पूज्य मुनिराजश्री रम्यदर्शनविजयजी म.सा.
संकलन पंडित श्री परेशभाई. जे. शाह (शिहोरीवाले)
प्रकाशक 'सम्यग्ज्ञान रम्य पर्षदा' संचालित 'मोक्ष पथ प्रकाशन'
प्राप्ति स्थान परेशभाई जे. शाह, पालडी, अहमदाबाद-७.
किंमत : Rs. 250/
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जिन दर्शन विधि सुयोग्य वस्त्र पहनकर जिनमंदिर में सिर्फ दर्शन करने जाने वाले भाग्यवानों को विधि मुताबिक क्रमबद्ध द्रव्य पूजा औरभाव पूजा करनी चाहिए। बर्मुडा-हाफपेन्ट-नाईटी-मेक्सी-स्लीवलेस आदि उद्भटअनार्य वस्त्र पहनकर दर्शन करने नहीं जाना चाहिए। स्कूल बेग-ओफीस ग-कोस्मेटीक (शृंगारसाधन ) पर्समौजें (Socks), औषध व खाने-पीने की सामग्री लेकर नहीं जाना चाहिए। मोबाईल आदि यांत्रिक साधनो का त्याग करना चाहिए। शायद यह शक्य न हो तो उस की स्वीच ओफ(बंध) रखनी चाहिए। जोगींग आदि अंग कसरत (व्यायाम) से वस्त्र में ज्यादा पसीना हुआ हो, तो वैसी अवस्था में नहीं जाना चाहिए। जूठे मुँहव मैले कपडे पहनकरनही जाना चाहिए। परमात्म भक्ति मे उपयोगी सामग्री लेकर जिनमंदिर में दर्शन-पूजा करने जाना चाहिए । खाली हाथ नहीं जाना चाहिए। घर से जिन मंदिर दर्शन करके वापस घर ही आना हो, तो चंपल-जूतों का त्याग करना चाहिए।
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द्रव्य व भाव पूजा का क्रम बद्ध वर्णन
दूरी से जिनमंदिर की ध्वजा या कोई भी भाग देखते ही, उसके सन्मुख दृष्टि रखकर दो हाथ जोडकर'नमो जिणाणं' बोलना चाहिए। मुख व पैरो की शुद्धि करने के पश्चात् ही जिनमंदिर के प्रवेशद्वार में प्रवेश करना चाहिए। जिनमंदिर के परिसर में प्रवेश करते ही सांसारिक चिंता के त्याग स्वरुप प्रथम-निसीहि' बोलनी चाहिए। (निसीहि = निषेध)। फिर तिलक करके प्रवेश करें। गर्भगृह के बहार रंग मंडप में खडें रहकर प्रभुजी के दर्शन करहृदय में स्थापित करें। प्रभुजी के दाहिनी ओर से जयणा पालन पूर्वक 'काल अनादि अनंतथी....' दहा बोलते हुए तीन प्रदक्षिणा देनी चाहिए। उसका पश्चात् मूलनायक प्रभुजी समक्ष आते ही 'नमो जिणाणं' बोलकर मंदिर संबंधित चिंता के त्याग स्वरूप 'दूसरी निसीहि' बोलनी चाहिए। प्रभुजी के दाहिनी ओर भाईयों और बांई ओर बहनो को एक तरफ खडें रहकर भाववाही स्तुतियाँ अन्यों को अन्तरायभूत न बनें, वैसे एकी संख्या में बोलनी चाहिए। स्वद्रव्य से अग्र-पूजा करने की भावना वाले धूप व दीपक
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को प्रगट करना चाहिए।
• स्वद्रव्य से पूजा करने की भावना होते हुए भी जिनमंदिर मे वह सामग्री लाने मे असमर्थ ऐसे आराधकों शक्ति अनुसार कुछ नगद रुपये भंडार में भरने के बाद मंदिर की सामग्री का उपयोग करना चाहिए ।
भाईयों को और बहनों प्रभुजी की बांई ओर खड़े रहकर धूपकाठी / धूपदानी हृदय के नजदीक स्थिर रखकर धूपपूजा करनी चाहिए।
• भाईयों को दाहिनी ओर और बहनों को बांई ओर खड़े रहकर फानूस युक्त दीपक को प्रदक्षिणाकार नाभि से उपर और नासिका से नीचे रखकर दीपक पूजा करनी चाहिए । • भाईयों को दाहिनी ओर ओर बहनों बांई ओर खड़े रहकर दर्पण को हृदय की बांई ओर स्थापित कर उसमे प्रभुजी का दर्शन होते ही सेवकभाव से पंखे को ढालना चाहिए ।
• भाईयों को दाहिनीं ओर और बहनो बांई ओर खड़े रहकर चामर नृत्य करना चाहिए ।
• आरती मंगलदीपक या शांतिकलश मंदिर मे चलता हों, तो उसमें यथाशक्ति समय का योगदान देना चाहिए ।
मध्याह्न काल की पूजा के मुताबिक अक्षत- नैवेध - फल पूजा अनुक्रम से करनी चाहिए।
हाथ रुमाल से या सुयोग्य वस्त्र से तीन बार भूमि प्रमार्जना करके द्रव्य - पूजा के त्याग स्वरूप 'तीसरी निसीहि' बोलनी
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चाहिए ।
• ईरियावहियं सहित चैत्यवंदन करके पच्चक्खाण लेकर एक खमासमण देकर 'जिन - भक्ति करते समय मुझसें जो कुछ भी अविधि- आशातना हुइ हो, तो वह सभी ही मन-वचन काया से मिच्छामि दुक्कडं' मुठ्ठी लगाकर बोलना चाहिए । • जिनमंदिर से बाहर निकलते समय प्रभुजी को अपनी पीठ न दिखे, वैसे बाहर निकलते हुए घंट के पास आना चाहिए ।
बाए हाथ को हृदय के मध्यस्थान पर स्थापन कर दाहिने हाथ से तीन बार घंटनाद करना चाहिए ।
• जिनमंदिर के चबूतरे के पास आकर, वहाँ बैठकर प्रभुजी की भक्ति से उत्पन्न हुए आनंद को बार-बार याद करना और प्रभुजी का अब विरह होगा, ऐसी हृदय द्रावक अपरंपार वेदना का अनुभव करते हुए, उपाश्रय की ओर निर्गमन करना चाहिए ।
उपाश्रय में पूज्य गुरुभगवंतों को गुरुवंदन करके यथाशक्ति पच्चक्खाण लेना चाहिए।
(विशेष सूचना :- सुबह से दोपहर तक प्रभुजी के दर्शन करने वाले महानुभावों को उपर्युक्त सभी क्रियाएँ करनी चाहिए । शाम को या सूर्यास्त के बाद दर्शन करने जाने वाले महानुभावों को केशर तिलक, तीन प्रदक्षिणा, घंटनाद, दर्पण-अक्षतनैवेध-फल पूजा को छोडकर सभी क्रियाएँ करनी चाहिए।)
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त्रिकाल पूजा-विधि
(१) प्रातः काल की पूजा :- रात्रि-संबंधित पापो का नाश करती है । स्वच्छ सूती वस्त्र (सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण में उपयोग किये जाने वाले वस्त्रो के अतिरिक) धारण करना चाहिए । दो हाथ + दो पैर + मुख = ५ अंगो की सचित निर्मल जल से शुद्धि करनी चाहिए। स्वच्छ थाली मे धूप के साथ धूपदानी, फानूस युक्त दीपक, अखंड चावल, रसवंती मिठाई, ऋतु के मुताबिक उत्तम फल, वास (क्षेप) चूर्ण को रखने के लिए सोना-चांदी या तांबेपीतल की डिब्बी, सुगंधित द्रव्यों से सुवासित वास (क्षेप) चूर्ण और वासचूर्ण को पूजा के समय संग्रहित करने के लिए एक चांदी की कटोरी ग्रहण करें।
जिनमंदिर के परिसर मे प्रवेश करने के पूर्व अल्प जल से पाँवों के तलवों की शुद्धि करें। परिसर में प्रवेश करते ही 'प्रथम निसीहि ' बोलें । प्रभुजी का मुख दर्शन होते ही अर्ध- अवनत होकर 'नमो जिणाणं' बोले । प्रभुजी को अति बारीकाई से निरीक्षण करके अपने हृदय में स्थापित करके जयणा पूर्वक तीन प्रदक्षिणा देनी चाहिए। मूलनायक प्रभुजी के सन्मुख आते ही भाववाही स्तुतियाँ बोलनी चाहिए।
प्रभुजी के दर्शन न हों, ऐसे स्थल पर जाकर आठ पडवाला मुख-कोश बांधकर वासपूर्ण डिब्बी में से चांदी की कटोरी में वासचूर्ण जरुरमुताबिक ग्रहण करें। अपने वस्त्र के स्पर्श से अशुद्ध हुए हाथों को शुद्ध जल से स्वच्छ कर गर्भगृह के पास आना चाहिए ।
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दोनों हाथों में सिर्फ़ वास चूर्ण की कटोरी व थाली ग्रहण कर अंदर प्रवेश करें।
उस समय 'दुसरी - निसीहि' बोलनी चाहिए । प्रभुजी के पबासन से कुछ दूर और यथोचित अंतर रखकर खडे रहें । अंगुष्ठ और अनामिका अंगूली के सहारे वासचूर्ण को लेकर प्रभुजी को स्पर्श करे बिना (पूजा के वस्त्र हो तो भी ) अंगो से थोडी सी दूरी से वासचूर्ण पूजा करे। वासचूर्ण पूजा करते समय उसको छिडकना या जल्दी से एक साथ सभी अंगो में करना, यह एक प्रकार का अनादर है। बहुत धीरज से व बहुमान से भावपूर्वक पूजा करनी चाहिए। वासचूर्ण पूजा करने के बाद या पहले अपने हाथों से प्रभुजी के अंगों पर का वासचूर्ण अपने मस्तक पर डालना, यह घोर आशातना है। प्रभुजी का स्पर्श भी नही करना चाहिए ।
वासचूर्ण पूजा करने के पश्चात् प्रभुजी को अपनी पीठन दिखें, वैसे गर्भगृह से बहार निकलना चाहिए। बाद में रंगमंडप में आकर भाईओ व बहनों को प्रभुजी की बांई ओर खड़े-खडे धूपदानी या धूपकाठी को हृदय के नजदीक स्थिर रखकर धूप पूजा करनी चाहिए । फिर प्रभुजी के दाहिनी ओर भाई और बांई ओर बहनों खड़े-खडे प्रदक्षिणाकार से दीपक पूजा करनी चाहिए। धूप या दीपक पूजा करते समय थाली में धूप या दीपक ही रखना चाहिए, मगर दोनों एक साथ नही रखने चाहिए।
बाद में पाटे पर अक्षत नैवेद्य व फल पूजा ( इसका विस्तृत वर्णन मध्याह्नकाल की पूजा में बताया गया है। ) करनी चाहिए । फिर तीन बार दुपट्टा से भूमि प्रमार्जना करके अंग व अग्र पूजा से
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भाव पूजा में प्रविष्ट होने के लिए तीसरी निसीहि बोलनी चाहिए। उसके बाद इरियावहियं करके चैत्यवंदन करना चाहिए । अन्त में यथाशक्ति पच्चखाण लेना चाहिए।
जिनमंदिर से उपाश्रय जाकर पूज्य गुरुभगवंतो को गुरुवंदन करके उनके पास भी पच्चक्खाण लेना चाहिए। पू. गुरुभगवंत को गोचरी-पानी के लिए विनंति करके अपनी पीठ न दिखे, वैसे उपाश्रय से निर्गमन करना चाहिए। (विशेष सूचना : राइअप्रतिक्रमण करने से पहले मंदिर नहीं जाना चाहिए।मंदिरजाने के बाद राइअप्रतिक्रमण नही करना चाहिए। प्रात: काल की पूजाकासमय अरुणोदय सेमध्याह्न के१२.००बजे तक।)
(२) मध्याह्नकाल की पूजा :- इस भव के पापों का नाश करती है। जिन पूजा-विधिमें इस पूजा का विस्तृत वर्णन किया गया है। यह अष्ट प्रकारी पूजा दोपहर के भोजन से पहले पुरिमड्ढ पच्चक्खाण के आस-पास करने का विधान है।
(३) सायंकाल की पूजा :-सात भव के पापो का नाश करती है।सूर्यास्त से पहले शाम का भोजन लेने के बाद व पानी पी लेने के बाद स्वच्छ सूती वस्त्र धारण करने चाहिए । स्वच्छ थाली मे धूपकाठी व धूपदानी और फानूस युक्त दीपक लेकर जिनमंदिर जाना चाहिए । परिसर मे प्रवेश करते ही 'पहली-निसीहि' बोलनी चाहिए । मुख दर्शन होते ही अर्ध-अवनत होकर 'नमो जिणाणं' बोलना चाहिए । सूर्यास्त के बाद जयणा पालन मुश्किल होने से प्रदक्षिणा नहीं देनी चाहिए । प्रभु के समक्ष खडे रहकर भाववाही स्तुतियाँ बोलनी चाहिए।
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फिर दूसरी-निसीहि' बोलकर प्रातःकाल की पूजा के जैसे ही अनुक्रम से धूप पूजा व दीपक पूजा करनी चाहिए। उसके बाद तीन बार भूमि प्रमार्जना खेस (दुपट्ट) से करके 'तीसरी-निसीहि' बोलकरईरियावहियं सहित चैत्यवन्दन करना चाहिए। सांयकालीन पच्चक्खाण लेकर अपनी पीठ प्रभुजी को न दिखे, वैसे बहार निकलकर उपाश्रय की ओर जाना चाहिए।सूर्यास्त के बाद घंटनाद करना उचित नहीं है । उपाश्रय में पूज्य गुरुभगवंत को गुरुवंदन करके पच्चक्खाण लेकर सायंकालीन देवसिअ आदि प्रतिक्रमण करना चाहिए।
(देवसिअआदि सायंकालीन प्रतिक्रमण से पहले ही यह पूजा की जाती है।)
जिन-पूजा विधि (मध्याह्नकाल की पूजा) । स्वार्थमय संसार से मुक्ति पाने एवं निःस्वार्थ प्रभु की शरण में जाने हेतु मन में भावना करनी चाहिए। स्नान के मन्त्र बोलते हुए उचित दिशा में बैठकर जयणापूर्वक स्नान करें। वस्त्र से सम्बन्धित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए धूप से सुवासित अत्यन्त स्वच्छ वस्त्र, स्वच्छ ऊनी परशाल खड़े होकर धारण करना चाहिए।
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द्रव्यशुद्धि के मन्त्रों से पवित्र किए हुए न्यायोचित वैभव से प्राप्त अष्टप्रकारी पूजा की सामग्री नाभि से ऊपर रहे, इस प्रकार ग्रहण करें। दूरसे जिनालय के शिखर, ध्वजा अथवा अन्य किसी भाग के दर्शन होते ही मस्तक झुकाकर'नमो जिणाणं'बोलना चाहिए। इर्यासमिति का पालन करते हुए प्रभु के गुणों का हृदय से स्मरण करते हुए मौन धारण कर जिनालय की ओर प्रस्थान करना चाहिए। मंदिर के मुख्य प्रवेशद्वार पर प्रवेश करने से पहले तीन बार निसीहि बोलें। मूलनायक भगवान का दर्शन कर 'नमो जिणाणं' कहकर चंदन-घरमें जाना चाहिए। सिलबट्टे,चंदन व कटोरी को धूपसे सुगन्धित करें।
अष्टपद मुखकोष बांधने के बाद ही केसर-चन्दन घिसने के लिए सिलबट्टे को स्पर्श करना चाहिए। केसर-अंबर-कस्तूरी-चन्दन मिश्रित एक कटोरी तथा कपूर चन्दन की एक कटोरी घिसना चाहिए। तिलक करने के लिए एक छोटी कटोरी में अथवा स्वच्छ हथेली में केसर मिश्रित चन्दन लेकर मस्तक आदि अंगो में तिलक करना चाहिए। पूजा के लिए उपयोगी सारी सामग्री हाथ में लेकर मूलनायक भगवान के समक्ष जाकर नमो जिणाणं बोलना चाहिए।
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मूलनायक भगवान की दाहिनी ओर जयणापूर्वक सामग्री के साथ तीन प्रदक्षिणा करनी चाहिए। प्रभु के सामने आधा झुककर योग मुद्रा में भाववाही स्तुतियाँ मन्द स्वर में बोलनी चाहिए। पूजा की सामग्री, दोनों हथेली तथा मुखकोश वस्त्र को धूप से सुगन्धित करनी चाहिए। जहाँ से प्रभुजी दिखाई न दें, वहाँ जाकर अष्टपद मुखकोश बाँधकर स्वच्छ जल से दोनों हाथ धोना चाहिए। शरीर-वस्त्र व अन्य किसी का भी स्पर्श न हो, इस प्रकार ध्यानपूर्वक पूजा की सामग्री के साथ गर्भद्वार के पास जाना चाहिए। गर्भद्वार में दाहिने पैर से प्रवेश करते हुए आधा झुककर दूसरी बार तीन बार निसीहि बोलना चाहिए। मृदु-कोमल हाथों से प्रभुजी के ऊपर पड़े बासी फूल , हार, मुकुट, कुंडल, बाजूबंद, चांदी की आंगी आदि उतारना चाहिए। फिर भी कहीं-कहीं रह गए निर्माल्य को दूर करने के लिए कोमल हाथों से मोरपिच्छ फिराना चाहिए। पबासन में एकत्रित निर्माल्य को दूर करने के लिए स्वच्छ पूंजणी का उपयोग करना चाहिए। गर्भद्वार के फर्श को साफ करने के लिए लोहे के तारों से रहित झाडूका जयणापूर्वक उपयोग करना चाहिए।
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शुद्ध पानी की बाल्टी में से कलश भरके उससे चन्दन आदिको गीला कर दूर करना चाहिए। विशेष शुद्धि के लिए तथा बासी चन्दन को दूर करने के लिए यदि को आवश्यक हो तो कोमलता पूर्वक वाला-कूची का प्रयोग करना चाहिए। सादा पानी आदि के द्वारा एकत्रित निर्माल्य को पबासन पर हाथ फिराकर छेद की तरफ ले जाना चाहिए। गर्भद्वारके बाहरजाकर अस्वच्छहाथों को जयणा पूर्वक स्वच्छ करधूप से सुगन्धित करना चाहिए। पंचामृत को सुगन्धित कर कलश में भरकर मौन पूर्वक मस्तक से प्रक्षाल करना चाहिए। शुद्ध पानी को भी सुगन्धित कर कलश में भरकर मौनपूर्वक मस्तकसे प्रक्षाल करना चाहिए। प्रभु के अंग पोंछने वाले महानुभाव को शुद्ध जल से प्रक्षाल करते समय प्रभुजी के सर्वांग को कोमलता से स्पर्श करना चाहिए। शरीर-वस्त्र-पबासन-नाखून-पसीना आदि के स्पर्श के दोष से बचते हुए कोमलता पूर्वक प्रभुजी के अंगों को अंग-लुंछन से पौंछना चाहिए। अंग-लुंछन करने से पहले पबासन को साफ करने के लिए 'पाटपौंछना' का प्रयोग, इस प्रकार करना चाहिए कि भगवान को स्पर्श न करे।
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पबासन के सिवाय गर्भगृह के फर्श को जमीन-पौंछने से साफ करना चाहिए। अंग-पौंछना, पाट-पौंछना तथा जमीन-पौंछना का परस्पर स्पर्श कभी नहीं करना चाहिए। तीन बार अंग-लुंछना करने के बाद दशांगधूप के द्वारा भगवान को सुवासित करना चाहिए। कपूर-चन्दन मिश्रित कटोरी में से पाँचों ऊँगलियों से प्रभुजी के अंगों में मौन का पालन करते हुए चन्दन पूजा करनी चाहिए। सुयोग्य तथा स्वच्छ वस्त्र से भगवान के सर्वांग को कोमलता पूर्वक विलेपन पूजा के बाद पौंछना चाहिए। मौनपूर्वक मन ही मन दोहा बोलते हुए केशर-चन्दन-कस्तूरी मिश्रित चन्दन से प्रभुजी के नव अंगों में पूजा करनी चाहिए। शुद्ध, अखंडतथा सुगन्धित पुष्प व पुष्पमाल से मौनपूर्वक मन ही मन मन्त्रोच्चार करते हुए पुष्पपूजा करनी चाहिए। दशांग आदि उत्तम द्रव्यों के द्वारा गर्भगृह के बाहर बाँई ओर मन्त्रोच्चारपूर्वक धूपपूजा करनी चाहिए। शुद्ध घी तथा रूई की बाती से पुरुषों को प्रभु की दाहिनी ओर तथा स्त्रियों को बाँई ओर खड़े होकर मन्त्रोच्चार पूर्वक दीपपूजा करनी चाहिए। नृत्य के साथ चामर-पूजा तथा शुभ भाव से दर्पण पूजा करनी चाहिए। दर्पण में प्रभुजी के दर्शन होते ही पंखा धुमाना चाहिए। शुद्ध तथा अखंड अक्षत से अष्टमंगल/नंदावर्त/स्वस्तिक का
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आलेखन मन्त्रोच्चारपूर्वक करना चाहिए। अक्षत से दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्रतिकृति तथा उसके ऊपर सिद्धशिला का आलेखन करना चाहिए। मन्त्रोच्चार करते हुए सुमधुर मिठाईयों के थाल से स्वस्तिक के ऊपर नैवेद्य चढ़ाना चाहिए। ऋतु के अनुसार उत्तम फलों की थाल में से मन्त्रोच्चार करते हुए सिद्धशिला पर फल चढ़ाना चाहिए। अंगपूजा तथा अग्रपूजा की समाप्ति के रूप में तीसरी बार तीन बार निसीही बोलना चाहिए। एक खमासमण देकरईरियावहियं...से लोगस्स तक उच्चारण कर तीन बार खमासमण देना चाहिए। योगमुद्रा में भाववाही चैत्यवन्दन करते हुए भगवान की तीन अवस्थाओं का स्मरण करना चाहिए। शास्त्रीय रागों के अनुसार प्रभुगुणगान तथा स्वदोष गर्भित बातें स्तवन के द्वारा प्रगट करनी चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे भगवान की ओर अपनी पीठ न हो, इस प्रकार बाहर निकलते हुए घंटानाद करना चाहिए। मंदिर के बरामदे में पहुँचकर प्रभुजी की भक्ति के आनन्द का स्मरण करना चाहिए। प्रभुजी की भक्ति का आनन्द तथा प्रभुजी के विरह का विषाद साथ रखकर जयणापूर्वक घर की ओर प्रस्थान करना चाहिए। पू. साधु-साध्वीजी भगवंत तथा पौषधार्थी स्त्री-पुरुष ही निकलते हुए आवस्सही'का उच्चारण करें।
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मंदिर में ले जाने योग्य सामग्री * सोना-चांदी-पीतल अथवा चन्दन की डिब्बी * सोने-चांदी अथवा पीतल की थाली * तीन कलश ऊपरसे ढंके हुए तथा एक वृषभाकार कलश * शुद्ध केशर-कपूर-अंबर-कस्तूरी * गाय का दूध * कुएँ का अथवा बरसात का शुद्ध जल * न्हवण के लिए 'गाय का घी-दूध-दही, शक्कर-पानी'* सुगन्धित फूलों की डलीया (छाबडी)* सोने तथा चांदी के बरख * शुद्ध रेशम के पक्के रंग के डोरे/लच्छी * सुगन्धित धूप* गाय का शुद्ध घी तथा रूई की बाती फानूस युक्त दीपक के साथ * दो सुन्दर चामर * आईना * पंखा * अखंड चावल * स्वादिष्ट मिठाईयाँ * ऋतु के अनुसार स्वादिष्ट उत्तम फल * एक पाटपौंछना * भगवान को बिराजमान करने के लिए योग्य थाली * सोने-चांदी के सिक्के अथवा रुपये * सुन्दर घण्टियाँ * गम्भीर स्वरों से युक्त शंख * पीतल अथवा चांदी की डिब्बी में घी-दूध-पानी (पैर धोने के लिए लोटे में पानी) । इसके अतिरिक्त परमात्मा की भक्ति में उपयोगी वस्तुएँ प्लास्टिक, लोहे अथवा अल्युमिनियम के सिवाय अन्य धातु के बर्तन में ले जाना चाहिए। प्रभुभक्ति के साधनों का उपयोग स्वयं के लिए करने से
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देवद्रव्य के भक्षण का महान दोष लगता है। बटवे का उपयोग टालना चाहिए।
निम्नस्तरीय वस्तुएँ प्रभु के समक्ष नहीं ले जानी चाहिए
बिस्किट, पिपरमिन्ट, चॉकलेट, अभक्ष्य मिठाई, जामुन, बेर जैसे अभक्ष्य फळ, सुगंध से रहित अथवा खंडित फूल, पान-मसाला, व्यसन-उत्तेजक वस्तु, दवा-औषध अथवा पूजा में उपयोगी नहीं हो, ऐसी वस्तुएँ, खाने-पीने की अथवा शृंगार की वस्तुएँ (Cosmatic Items), अथवा अन्य तुच्छ सामग्री मंदिर में नहीं ले जानी चाहिए। ले जाने से अविनय का दोष लगता है। यदि भूल से मंदिर में ले गए हों तो उन वस्तुओं को स्वयं के लिए उपयोग में लाने से पहले प. पू. गुरु भगवंत के पास आलोचना लेनी चाहिए।
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मंदिर मे प्रभुजी की सेवा-पूजा - दर्शन करने जाते समय पाँच प्रकार के अभिगम (विनय ) का तथा दश त्रिक का पालन करना चाहिए ।
पाँच प्रकार के अभिगम (विनय )
:
१. सचित्त त्याग प्रभुभक्ति में उपयोग में न आए, ऐसी खाने-पीने की सचित्त वस्तुओं का त्याग ।
२. अचित्त अत्याग : निर्जीव वस्त्र-अलंकार आदि तथा प्रभुभक्ति में उपयोगी वस्तुओं का त्याग नहीं
करना ।
३. उत्तरासन
४. अंजलि
५. एकाग्रता
: दोनों छोर सहित एक परत वाला स्वच्छ चादर धारण करना चाहिए ।
: प्रभुजी के दर्शन होते ही दोनों हाथों को जोड़कर अंजलि करनी चाहिए ।
: मन की एकाग्रता बनाए रखनी चाहिए ।
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दश-त्रिक (दस प्रकार से तीन-तीन वस्तुओं का पालन) १. निसीही त्रिक : पहली निसीही - मंदिर के मुख्य दरवाजे में
प्रवेश करते समय संसार के त्यागस्वरूप। दूसरी निसीही- गर्भगृह में प्रवेश करते समय जिनालय से सम्बन्धित त्याग स्वरूप। तीसरी निसीही-चैत्यवन्दन प्रारम्भ करने से पूर्व द्रव्यपूजा के
त्यागस्वरूप। २. प्रदक्षिणा त्रिक : प्रभुजी के दर्शन-पूजन करने से पहले
सम्पूर्ण जिनालय को/मूलनायक भगवान को/ त्रिगडे में स्थापित भगवान को सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति के लिए 'काल अनादि अनंत थी...'दोहा बोलते हुए तीन
प्रदक्षिणा देनी। ३. प्रणाम त्रिक
(१) अंजलिबद्ध प्रणाम : जिनालय के शिखर का दर्शन होते ही दोनों हाथों को जोड़कर मस्तक पर लगाना चाहिए। (२) अर्द्ध अवनत प्रणाम : गर्भद्वार के पास पहुँचते ही दोनों हाथों को जोड़कर मस्तक पर लगाकर आधा झुक जाना चाहिए।
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(३) पंचांग-प्रणिपात प्रणाम : खमासमण देते समय पांचों
अंगों को विधिवत् झुकाना चाहिए। ४. पूजा त्रिक
(१)अंग पूजा : प्रभुजी के स्पर्श करके होनेवाली पक्षाल, चंदन, केसर तथा पूष्प पूजा। (२) अग्र पूजा : प्रभुजी के आगे खड़े होकरकी जानेवाली धूप, दीप,चामर, दर्पण,अक्षत, नैवेद्य,फल तथा घंटपूजा। (३) भाव पूजा : प्रभुजी की स्तवना स्वरूप चैत्यवन्दन
आदि करना। (नोट : अन्य प्रकार से भी पूजा त्रिक होती है। पाँच प्रकारी पूजा : चंदन, पुष्प,धूप, दीप तथा अक्षत पूजा। अष्ट प्रकारी पूजा : न्हवण, चंदन, पुष्प, धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य तथा फल पूजा। सर्वप्रकारी पूजा : उत्तम वस्तुओं के द्वारा प्रभुजी की विशिष्ट
भक्ति करना। ५.अवस्था त्रिक (१) पिंडस्थ अवस्था : प्रभुजी की समकित प्राप्ति से अन्तिम भव युवराज पद तक की अवस्था का चिंतन करना। (२)पदस्थ अवस्था : प्रभुजी के अन्तिम भव में
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राज्यावस्था से केवलीवस्था तक का चिंतन करना। (३) रूपातीत अवस्था : प्रभुजी के अष्टकर्म नाश के द्वारा प्राप्त सिद्धावस्था का चिंतन करना। (नोट: प्रक्षाल तथा द्रव्य पूजा के द्वारा प्रभुजी की (१) जन्म-अवस्था : प्रक्षाल। (२) राज्य-अवस्था : चन्दन, पुष्प, अलंकार, आंगी (३)श्रमण-अवस्था : केश रहित मस्तक मुख देखकर भाव से तथा आठप्रातिहार्य द्वारा प्रभुजी की केवली अवस्था के भाव से तथा प्रभुजी को पर्यंकासन में काउस्सग्ग मुद्रा में
देखते हुए सिद्धावस्था की भावना। ६. तीन दिशाओं के निरीक्षण त्याग स्वरूपदिशि त्याग त्रिक
प्रभुजी के सम्मुख स्थापित दृष्टि से युक्त होकर तथा अपने पीछे, दाहिनी तथा बाई दिशा में देखने का त्याग करना। ७. प्रमार्जना त्रिक
प्रभुजी की भावपूजा स्वरूप चैत्यवन्दन प्रारम्भ करने से
पहले भूमिका तीन बार प्रमार्जन करना। ८. आलंबन त्रिक
(१)सूत्र (वर्ण)आलंबन : अक्षर पद-सम्पदा व्यवस्थित बोलना।
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(२) अर्थ - आलंबन : सूत्रों के अर्थ हृदय में विचारना । (३) प्रतिमा - आलंबन : जिन प्रतिमा अथवा भाव अरिहन्त के स्वरूप का आलंबन करना ।
९. मुद्रा त्रिक
(१) योगमुद्रा : दोनों हाथों की ऊँगलियों को परस्पर जोड़ना ।
(२) जिनमुद्रा : जिनेश्वर की भांति कायोत्सर्ग की मुद्रा । (३) मुक्ताशुक्ति मुद्रा : मोती के शीप के समान आकृति
करना ।
१०. प्रणिधान त्रिक
(१) चैत्यवन्दन प्रणिधान : 'जावंति चेइआइं' सूत्र के द्वारा चैत्यों की स्तवना ।
(२) मुनिवन्दन प्रणिधान : 'जावंत के वि साहू' सूत्र के द्वारा मुनि भगवंतों की वन्दना ।
(३) प्रभु प्रार्थना प्रणिधान : 'जय वीयराय' सूत्र के द्वारा प्रभुजी को प्रार्थना करना ।
(नोट : मन की स्थिरता, वचन की स्थिरता तथा काया की स्थिरता स्वरूप तीन प्रणिधान भी कहलाते हैं । )
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स्नान करने की विधि
सुगन्धित तेल तथा आमला आदि के
चूर्ण को एकत्र कर विधिपूर्वक
तेलमर्दन
(मालिश) आदि
प्रक्रिया कर स्वस्थ
बनना । उसके बाद
पूर्व दिशा के
सामने बैठकर
अपने नीचे पीतल
आदि का कठौता
( थाल) रखकर
दोनों हाथों को अंजलिबद्ध कर स्नान के मन्त्र बोलने चाहिए । ॥ ॐ अमले विमले सर्व तीर्थ जले पाँ पाँ वाँ वाँ अशुचिः शुचीर्भवामि स्वाहा ॥
अंजलि में सर्व तीर्थों का जल है, ऐसा विचार कर ललाट से
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लेकर पैरों के तलवे तक मैं स्नान करता हूँ, ऐसा सोचना । यह क्रिया मात्र एक बार करनी चाहिए। उसके बाद थोडे स्वच्छसुगंधित द्रव्यों से मिश्रित निर्मल सचित्त जल से स्नान करना चाहिए। स्नान में प्रयुक्त जल गटर आदि में नहीं जाना चाहिए । स्नान करने के बाद अतिस्वच्छ तौलिये से शरीर पौंछना चाहिए । (मूल विधि के अनुसार स्नान करने के बाद शरीर पौंछने की विधि नहीं है, मात्र पानी गारना होता है । )
पूजा के कपड़े पहनने की विधि
दशांगादि आदि धूप से सुवासित शुद्ध रेशम के पूजा के वस्त्र पहनने चाहिए ।
धोती पहनते समय गांठ नहीं बांधनी चाहिए । यह विधि किसी योग्य भाग्यशाली के पास सीख लेनी चाहिए। धोती को आगे तथा पीछे व्यवस्थित रूप से पहनना चाहिए । धोती के ऊपर सोने-चांदी अथवा पीतल का कंदोरा अवश्य पहनना चाहिए ।
दुपट्टा के दोनों छोरों में प्रमार्जन हेतु उपयोगी रेशम के डोरेवाली किनारी अवश्य रखनी चाहिए ।
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ऐसे गांठ लगाए बीना धोती पहने
कंदोरा पहनना जरुरी है
इस तरह आगे की इस तरह पीछे की ओर पहने
ओर पहने।
दुपट्टा पहनते समय दाहिना कंधा खुला रखना चाहिए । स्त्रियों की भांति दोनों कंधे नहीं ढंकने चाहिए। दुपट्टा लम्बाई तथा चौड़ाई में पर्याप्त तथा आठ तहोंवाला मुखकोश बांधा जा सके, वैसा होना चाहिए। प्रभुजी की भक्ति करने जाते समय वैभव के अनुसार दसों ऊँगलियों में अंगूठियाँ होनी चाहिए। उसमें अनामिका तोअलंकृत होनी ही चाहिए।
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वीरवलय- बाजूबंद - नौ सेर सोने का हार, मुकुट आदि अलंकार पहनने चाहिए।
स्त्रियों को भी सोलह शृंगार सज़कर रूमाल सहित चार वस्त्र पहनने चाहिए ।
स्त्रियों को आर्य मर्यादा के अनुकूल सुयोग्य वस्त्र पहनने चाहिए । शिर हमेंशा ढंके रहना चाहिए ।
स्त्रियों के पूजा का रुमाल छोटा नहीं बल्कि स्कार्फ के समान बड़ा होना चाहिए ।
में सिलाई रहित अखंड, स्वच्छ तथा
पुरुषों को पूजा निर्मल दो वस्त्र पहनना चाहिए।
• पूजा के वस्त्रों से नाक, पसीना, मैल आदि साफ करने जैसा अपवित्र कार्य नहीं करना चाहिए ।
पूजा के वस्त्रों का प्रयोग मात्र पूजा के लिए ही करना चाहिए । सामायिक आदि में इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए ।
पूजा के वस्त्र प्रतिदिन स्वच्छ निर्मल जल से धोने चाहिऐ । बिना धुला हुआ वस्त्र नहीं पहनना चाहिए ।
पूजा के वस्त्रों में कुछ भी खाना-पीना, अशुचि कर्म,
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लघुनीति आदि भी नहीं करनी चाहिए। यदि ऐसा हो जाए तो उन वस्त्रों को पूजा में नहीं पहनना चाहिए ।
पूजा के वस्त्र स्वयं के ही पहनने चाहिए ।
पुरुषों को कुर्ता-पायजामा, गंजी - शाल, पेन्ट - शर्ट, टीशर्ट आदि पहनकर पूजा नहीं करनी चाहिए ।
जाड़े (ठंडी ) के दिनों में सिले हुए वस्त्र पहनने के बदले गर्म शाल की व्यवस्था अलग से रखनी चाहिए। गर्भगृह के प्रवेश पूर्व उसका भी त्याग करना ।
घर से स्नान कर सामान्य वस्त्र पहनकर मंदिर आकर पुनः स्नान किए बिना पूजा के कपड़े पहनकर पूजा करने से दोष लगता है।
पूजा करने जाते समय घड़ी, चाबी, टोकन आदि कुछ भी साथ में नहीं रखना चाहिए ।
व्यस्त दिनचर्या के कारण मोबाईल आदि दर्शन करने जाते समय यदि रखना पड़े तो स्वीच ऑफ रखना ।
• पूजा के वस्त्र अनेक प्रकार से लाभदायी होने के कारण शुद्ध १००% सिल्क (रेशम) के वस्त्रों का ही प्रयोग करना चाहिए।
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जयणा पालन के साथ मंदिर की ओर गमन
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जयणा पूर्वक पैंरो का शुद्धीकरण
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पूजा के वस्त्र पहनते समय 'ॐ ह्रीँ आँक्रौँ नमः' यह मन्त्र बोलकर वस्त्र के ऊपर हाथ फिराना चाहिए । उसके बाद विधिपूर्वक वस्त्र पहनना चाहिए। अपने वैभव तथा शानो शौकत के अनुसार आडंबरपूर्वक ऋद्धि के साथ सुयोग्य नयन रम्य पूजा की सामग्री लेकरही मंदिर जाना चाहिए। दर्शन करने जाने वाले को भी सुयोग्य सामग्री साथ में रखनी चाहिए। अपने घरसे लाए हुए लोटे के जल से खुली जगह में पैर धोने चाहिए। संस्था में रखे हुए पानी से पैरधोने से पहले 'जमीन जीव-जंतु से रहित हैया नहीं इस बात का निश्चय कर लेना चाहिए। पैरों को धोते समय एक पैर के पंजे को दूसरे पैर के पंजे पर कभी नहीं घिसना चाहिए। ऐसा करने से अपयश फैलता है। पैरधोया हुआ पानीगटर-निगोद आदि में नहीं जाना चाहिए। थोड़ेसे पानी का ही पर्याप्त उपयोग करना चाहिए। जयणापूर्वक की गई सारी क्रियाएँ कर्म-निर्जरा में सहायक बनती हैं।
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मंदिर में प्रवेश करते समय की विधि
पूजा की सामग्री के साथ मंदिर में प्रवेश करते समय प्रभुजी की दृष्टि पड़ते ही सिर झुकाकर, दोनों हाथ जोड़कर मंद स्वर में 'नमो जिणाणं' का उच्चार करना चाहिए। विद्यार्थी स्कूल बैग तथा ऑफिस जानेवाले व्यक्ति पर्श, सूटकेस आदि किसी भी प्रकार की वस्तु तथा अन्य
दर्शनार्थी खानेपीने की वस्तु, शृंगार की वस्तु आदि मंदिर के बाहर ही रखकर प्रवेश करें । उन्हें भी मस्तक झुकाकर 'नमो जिणाणं' बोलना चाहिए।
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'प्रता के साथमा
मंदिर में प्रवेश
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पहली निस्सीहि
पहली निसीहि बोलते समय की विधि
मंदिर के मुख्य द्वार में प्रवेश करते समय तीन बार निसीहि बोलना चाहिए । (निसीहि निषेध,मनाई) इस निसीहि में मंदिर में प्रवेश करते समय आधा झुककर दोनों हाथों को
जोड़कर सम्मान का भाव है प्रगट करना चाहिए।
'पहली निसीहि' बोलने से संसार की सभी प्रकार की वस्तुओं का मन-वचन-काया
से त्याग किया जाता है। मंदिर सम्बन्धी किसी भी प्रकार के सूचन तथा स्वयं सफाई
आदि कार्य करने की छूट होती है। • अधिकृत व्यक्ति आज्ञा करे तो वह उचित कहलाता है।
आराधकवर्ग अत्यन्त कोमलता पूर्वक निर्देश करें। मंदिर की शुद्धि-रक्षण-पोषण-पालन का कार्य स्वयं करने से अनन्त गुना लाभ मिलता है।
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वश करते समय
गमंडप में
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प्रदक्षिणा देने की विधि
मूलनायक प्रभुजी की दाहिनी ओर से (प्रदक्षिणा देनेवाले की बांई ओर से) इया समिति के पालन पूर्वक तीन
प्रदक्षिणा करनी जयणा पूर्वक
चाहिए। प्रदक्षिणा त्रिक
हो सके तो मंदिर के
पूरे परिसर की अथवा मूलनायक प्रभुजीकी अथवा त्रिगड़े में बिराजमान प्रभुजी की प्रदक्षिणा करनी चाहिए। शत्रुजयतीर्थ का दोहा बोलने के बदले 'काल अनादि अनंतथी...'दोहे तीन प्रदक्षिणा में बोलने चाहिए। दोहा मन्दस्वरमें, गम्भीर आवाज में तथा एक लय में सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र'की प्राप्ति के लिए बोलना चाहिए। प्रदक्षिणा देते समय कपड़े व्यवस्थित करना व इधर-उधर देखना, वह दोष कहलाता है।
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पूजा की सामग्री साथ में रखकर ध्यान पूर्वक जयणा का पालन करते हुए प्रदक्षिणा देनी चाहिए। प्रदक्षिणा नहीं देनी, एक ही प्रदक्षिणा देनी, अधूरी प्रदक्षिणा देनी अथवा पूजा करने के बाद प्रदक्षिणा देनी, यह अविधि कहलाती है।
प्रदक्षिणा का दोहा काल अनादि अनंतथी, भव भ्रमण नो नहि पार, ते भव भ्रमण निवारवा, प्रदक्षिणा दऊंत्रण वार . १ भमती मां भमता थकां, भव भावठ दूर पलाय, दर्शन ज्ञान चारित्र रूप, प्रदक्षिणा त्रण देवाय .२ जन्म मरणादि सवि भय टळे, सीझे जो दर्शन काज, रत्नत्रयी प्राप्ति भणी, दर्शन करो जिनराज .३ ज्ञान वडुं संसारमा, ज्ञान परमसुख हेत, ज्ञान विना जग जीवडा, न लहे तत्त्व संकेत . ४ चय ते संचय कर्मनो, रिक्त करे वळी जेह, चारित्र नियुक्तिए कह्यु, वंदो ते गुण गेह .५ दर्शन ज्ञान चारित्र ए, रत्नत्रयी शिवद्वार, त्रण प्रदक्षिणा ते कारणे, भवदुःख भंजनहार .६
प्रदक्षिणा देने के बाद प्रभुजी सन्मुख मंदस्वर में भाववाही स्तुति बोलनी चाहिए।
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भाववाही - स्तुतियाँ १. दर्शनं देव-देवस्य, दर्शनं पाप-नाशनम् । दर्शनं स्वर्ग-सोपानं, दर्शनं मोक्ष-साधनम् ॥ २. जेना गुणोना सिंधुना, बे बिंदु पण जाणुं नही, पण एक श्रद्धा दिल महि, के नाथ सम को छे नही; जेना सहारे क्रोडो तरीया, मुक्ति मुज निश्चय सही, एवा प्रभु अरिहंतने, पंचांग भावे हुं नमुं .... ३. संसार घोर अपार छे, तेमां डूबेला भव्यने, हे तारनारा नाथ ! शुं भूली गया निजभक्तने ; मारे शरण छे आपर्नु, नवि चाहतो हुं अन्य ने, तो पण प्रभु मने तारवामां, ढील करो शा कारणे ? ४. जे द्रष्टि प्रभ दरिसण करे, ते द्रष्टिने पण धन्य छे, जे जीभ जिनवरने स्तवे, ते जीभने पण धन्य छे ; पीवे मुदा वाणी सुधा, ते कर्ण युगने धन्य छे, तुज नाम मंत्र विशद धरे, ते हृदय ने पण धन्य छे. ५. सुण्या हशे, पूज्या हशे, निरख्या हशे पण को क क्षणे, हे जगत बंधु ! चित्तमां, धार्या नहि भक्ति पणे; जनम्यो प्रभु ते कारणे, दुःखपात्र आ संसारमां, आ भक्ति ते फलती नथी, जे भाव शून्य आचारमां.
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अष्टपड मुखकोष बांधने की विधि
इस तरह आठ परत वाला
मुखकोश तैयार करें।
इस तरह मुखकोश को बांधे ।
• प्रभुजी की दृष्टि न गिरे ऐसी जगह पर खड़े रहकर पूर्णतया आठ परत का मुखकोश बांधें, फिर पानी से हाथ धो लें।
• पुरुषों को खेस से ही मुखकोश बांधना चाहिए । तथा महिलाओं को भी पूरी लम्बाई तथा चौड़ाई वाले स्कार्फ रुमाल से अष्टपड मुखकोश बांधना चाहिए ।
• मुखकोश के आठ परत से नाक के दोनों छिद्र तथा दोनों होंठ सम्पूर्ण रूप से ढंक जाने चाहिए।
• मुखकोश एक बार व्यवस्थित रूप से बांधने के बाद बारबार मुखकोश का स्पर्श करे अथवा उसे ऊपर-नीचे करे तो दोष लगता है।
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खेस अथवा रुमाल एक ही हाथ से मुँह पर रखकर केसरपूजा, पुष्पपूजा करने से अथवा प्रभुजी को स्पर्श करने से दोष लगता है। मुखकोश बांधकर ही चन्दन घिसा जाता है, पूजा की जाती है, आंगी की जाती है तथा प्रभुजी का खोखा, मुकुट आदि परआंगी की जाती है।
चन्दन घिसते की विधि कपूर-केसर-अंबर-कस्तूरी आदि घिसने योग्य द्रव्य साफ हाथों से स्वच्छ कटोरी में निकाल लेने चाहिए । सुखड को पानी से धोना चाहिए। अष्टपड मुखकोश बांधने के बाद ओरसिया का स्पर्श करना चाहिए तथा शद्ध जल एक स्वच्छ कटोरी में लेना चाहिए। ओरसिया स्वच्छ हो जाए, उसके बाद कपूर में पानी मिलाकर सुखड को ओरसिया पर घिसना चाहिए और घिसा हुआ चन्दन ले लेना चाहिए। उसके बाद केशर आदि में पानी का मिश्रण कर सुखड घिसना चाहिए तथा तैयार केशर को स्वच्छ हथेली से कटोरी में ले लेना चाहिए। केसर-चन्दन कटोरी में लेते समय तथा घिसते समय शरीर
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इस तरह चंदन-केशर घिसा जाता है। का पसीना अथवा नाखून उसमें स्पर्श नहीं करना चाहिए तथा तिलक करने के लिए एक अलग कटोरी में घिसा हुआ केशर ले लेना चाहिए। केशर आदि घिसते समय तथा ओरसिया के आस-पास रहते समय सम्पूर्ण मौन धारण करना चाहिए। प्रभुजी की भक्ति के अतिरिक्त शारीरिक रोग-उपशान्ति के सांसारिक कार्यों के लिए चन्दन आदि घिसने से देव-द्रव्य - भक्षण का दोष लगता है।
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तिलक करने की विधि
कपाल पर
कानों पर
हृदय पर
गलें पर
नाभि पर
कपाल पर
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• पुरुषों को दीपक की ज्योति के आकारका तथा महिलाओं को बिन्दी के समान गोलाकार तिलक करना चाहिए। प्रभुजी की दृष्टि न गिरे, वैसी जगह पर पद्मासन में बैठकर अथवा खड़े होकर दोनों भ्रमरों के मध्य स्थान में तिलक करना चाहिए। पुरुषों को दोनों कानोंपर, गलेपर, हृदय पर तथा नाभि परभी तिलक करना चाहिए तथा महिलाओं को कंठ तक तिलक करना चाहिए। तिलक करने से पहले ॐ आँ ह्रीं क्लौँ अर्हते नमः' मन्त्र सात बार
बोलकर केशर को अभिमन्त्रित करना चाहिए। • 'मैं भगवान की आज्ञा शिरोधार्य करता हूँ,'ऐसी भावना रखते हुए कपाल पर' आज्ञाचक्र के स्थान परतिलक करना चाहिए।
प्रक्षाल हेतु पंचामृत तैयार करने की विधि • गाय का दूध-५०% निर्मल पानी-२५% दही-१०% तथा
गाय का घी-५%= १००% पंचामृत । प्रक्षाल के लिए पंचामृत मुखकोश बांधकर स्वयं ही मौन पूर्वक बनाना चाहिए। कुआँ, तालाब अथवा बरसात का पानी छानकर प्रयोग करना चाहिए। परन्तु नल का पानी अथवा बिना छाने हुए पानी का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यदि मात्र दूध से ही पक्षाल करना हो तो दूध में मात्र एक चम्मच पानी डालकर पक्षाल के लिए तैयार करना चाहिए।
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पंचामृत अथवा इक्षु के रस (अखातीज)का प्रक्षाल करने के बाद उसकी चिकनाहटसम्पूर्ण रूप से साफ हो जाए, इस बात का खास ध्यान रखना चाहिए। प्रक्षाल के तैयार किया गया पंचामृत-दूध-पानी आदि, कलश कटोरी आदि ढंककर रखना चाहिए। प्रक्षाल में थूक-पसीना-खखार आदि न पड़े, इसका खास ध्यान रखना चाहिए।
ऐसे
शुद्ध जल प्रक्षाल
के लिए
ग्रहण करें।
ऐसे अभिषेक के लिए पंचामृत आदि को तैयार करें।
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गर्भद्वार में प्रवेश
करने की विधि गर्भगृह में प्रवेश करने से पूर्व मंदिर से सम्बन्धित कार्यों के त्याग स्वरूप दूसरी निसीहि तीन बारबोलनी चाहिए। अंगपूजा में उपयोगी सामग्री ही साथ में रखनी चाहिए । बटुआ, डिब्बी, बैग, थैला आदि गर्भगृह में नहीं ले जाए। गर्भगृह में प्रवेश करते समय राग-द्वेष रूपी सिंह के मस्तक
गर्भगृह में प्रवेश करते समय पर दाहिना पैर रखकरअन्दर प्रवेश करना चाहिए। अतिस्वच्छ हाथों को तथा पूजा की सामग्री को गर्भगृह में जहाँ-तहाँ परस्पर्श नहीं कराना चाहिए। अंगपूजा के ध्येय से ही गर्भगृह में प्रवेश करना चाहिए। वहाँ सम्पूर्ण मौन रखना चाहिए । दुहा आदि भी मन में ही दुहराना चाहिए। आठ परतवाले मुखकोश बांधे बिना गर्भद्वार में प्रवेश नहीं करना चाहिए।
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निर्माल्य उतारने की विधि स्वच्छ थाल प्रभुजी के आगे रखकर खूब कोमलता पूर्वक धैर्य के साथ जीव-जंतु की जयणा पूर्वक फूल आदि उतारना चाहिए। बासी फूलवाली थाली को योग्य स्थान पर रखकर खोखामुकुट-कुंडल आदि एक के बाद एक उतारना चाहिए। खोखा-मुकुट-कुंडल आदि जमीन पर न रखकरशुद्ध पीतल की थाल में सम्मान पूर्वक रखना चाहिए। सुकोमल मोरपंख से प्रभुजी के अन्य अंगों में रहे हुए निर्माल्य को धैर्य पूर्वक उतारना चाहिए। बासी चंदन-केशर आदि को दूर करने के लिए तथा सोनाचांदी के बरख-बादला आदि को दूर करने के लिए कटोरे में स्वच्छ पानी लेना चाहिए। स्वच्छ पानी से गीला कर हल्के हाथों से केसर-चंदन-बरकबादला आदि उतारकर कटोरे में संग्रह करना चाहिए। कटोरे में स्वच्छ पानी लेकर स्वच्छ सूती वस्त्र के टुकड़े को भिगोकर उससे बाकी रहे चंदन आदि को दूर करना चाहिए। स्वच्छ पानी के कलश के अभिषेक कर निर्माल्य आदि को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। फिर भी प्रभु के अंग-उपांग में यदि केशर आदि रह जाएँ तो खूब कोमलता से वाला-कूची का उपयोग करना चाहिए।
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प्रक्षाल की विधि
अष्टपड मुखकोश बाँधकर दोनों हाथों में कलश पकड़कर प्रभुजी के मस्तक से पंचामृत- दूध आदि का प्रक्षाल करना चाहिए ।
प्रक्षाल करते समय सम्पूर्ण मौन धारण करना चाहिए । तथा अपना शरीर निर्मल हो रहा है, ऐसी भावना भानी चाहिए । प्रक्षाल करते समय यदि सम्भव हो तो अन्य भाविक घंटनाद-शंखनाद-नगारा आदि वाद्य लय में बजाए ।
• पंचामृत अथवा दूध का अभिषेक यदि चल रहा हो तो उस समय पानी का अभिषेक नहीं करना चाहिए।
• अभिषेक करते समय अपने वस्त्र, कोई भी अंग, नाखून आदि कर्कश वस्तु प्रभुजी को स्पर्श नहीं करना चाहिए।
●
• प्रक्षाल करने के लिए अन्य भाविकों को जोर-जोर से आवाज देकर बुलाने से प्रभुजी की आशातना लगती है । • प्रभुजी की सुन्दर आंगी की गई हो तथा उससे भी विशिष्ट आंगी करने की क्षमता यदि हो तो ही सुबह प्रक्षाल किए गए प्रभुजी को सम्मान पूर्वक बिराजमान कर पुन: दूसरी बार प्रक्षाल की जा सकती है, अन्यथा नहीं ।
यदि प्रक्षाल हो गये हो अथवा अंगपौंछना चल रहे हो या
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सम्पन्न हो गये हो अथवा केशरपूजा आदि भी चल रही हो अथवा स्वयं चैत्यवन्दन आदि भावपूजा कर रहे हों, उस समय भगवान के अंगूठे पर भी प्रक्षाल नहीं किया जा सकता। वृषभाकार कलश से प्रभुजी का प्रक्षाल किया जा सकता है। प्रक्षाल करते समय पबासन में एकत्रित 'नमण'को स्पर्श भी
नहीं करना चाहिए। • प्रक्षाल अथवा पूजा करते समय मुखकोश, वस्त्र व शरीरका
कोई भी भाग प्रभुजी को स्पर्श नही करना चाहिए। कलश नीचे नही गिरना चाहिए । गिर जाए तो उपयोग नही करना चाहिए। न्हवण जल पर किसी का भी पैर न लगे, वैसी व्यवस्था करनी चाहिए। न्हवण जल का विसर्जन प्रभुजी की भक्ति मे उपयोगी बागबगीचे मे नहीं करना चाहिए । शायद वही पर करना जरुरी हो, तो उसमे से उत्पन्न हुए फूल आदि निर्माल्य देव-द्रव्य' होने से यथोचित द्रव्य देवद्रव्य में भरकर ही प्रभु-भक्ति में लेना चाहिए। न्हवण जल का विसर्जन हेतु ८ फुट गहरी व ३-४ फुट लंब
चोरस कुंडी ढक्कन के साथ बनानी चाहिए। • पंचामृत व दुध से प्रक्षाल करते समय गर्भगृह से बहार योग्य
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मोर पींछ से वासी शुद्धीकरण करें।
पूंजणी से सिर्फ पबासण।
इस तरह वासी केशर को उतारें। इस तरह पंचामृत-दूध-जल' का
प्रक्षाल मस्तक से करें। 43
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पक्षाल पश्चात् जल से शुद्धीकरण करें।
इस तरह २७ डंके बजाये।
अंतर मे खडे हुए महानुभाव प्रक्षाल करनेवाले भाग्यशाली की अनुमोदना करते हुए बोले..... (सिर्फ पुरुषो नमोऽर्हत्.....'बोले) मेरु शिखर न्हवरावे, हो सुरपति! मेरु शिखर न्हवरावे... जन्मकाल जिनवरजी को जाणी,पंचरुपेकरी आवे...हो... रत्न प्रमुख अडजातिना कलशा,औषधि चूरण मिलावे... हो.. खीर-समुद्र तीर्थोदक आणी,स्नात्र करी गुण गावे... हो...
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एणि परे जिन-पडिमा को न्हवण करी,
बोधि-बीज मानुं वावे ... हो ... अनुक्रमे गुण रत्नाकरफरसी,जिन उत्तम पद पावे...हो... (प्रक्षाल करनेवाले खुद ही 'सुरपति' बनकर जन्माभिषेक करते होने से अपने आप के लिए 'सुरपति आए' ऐसा संबोधन करे, यह उचित नही हैं। प्रक्षाल करते समय अपने कर्म मल इस से दूर हो रहे, ऐसी भावना जरुर भाए । अन्य भाग्यवान प्रक्षाल करनेवाले को 'सुरपति'का संबोधन कर सकते है।) निर्मल जल से अभिषेक करते समय करने वाले मन मे और गर्भगृह के बहार खडे महानुभाव उच्चारपूर्वक दुहा बोले.... (सिर्फ पुरुष पहले नमोऽर्हत्'बोलें) ज्ञानकलश भरी आतमा, समता रस भरपूर। श्री जिन ने नवरावतां, कर्म थाये चकचूर॥१॥ जल-पूजा जगते करो, मेल अनादि विनाश। जल-पूजा फल मुज होजो, मांगुएम प्रभु पास ॥२॥ ॐ ह्रीँ श्री परम पुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय जलं यजमहे स्वाहा॥ (२७ डंका बजाएँ)
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अंगलुंछन करते समय ध्यान रखने योग्य बातें
अंगलुंछन दशांग आदि सुगन्धित धूप से सुगन्धित करना चाहिए तथा अपने दोनों हाथों को सुगन्धित करना चाहिए। प्रभुजी का इसी समय साक्षात जन्म हुआ हो, ऐसे भावों के साथ कोमलता पूर्वक अंगलुंछन करना चाहिए। पहला लुंछन थोड़ा मोटा, दूसरा उससे थोड़ा पतला (पक्के मलमल का) तथा तीसरा लुंछण सबसे अधिक पतला (कच्चे मलमल का) रखना चाहिए। अंगलुंछन शुद्ध सूती, मुलायम, स्वच्छ, दाग तथा छिद्र से रहित रखना चाहिए। अंगलुंछन करते समय अपने वस्त्र-शरीर-मुखकोश-नाखून आदि किसी का भी स्पर्श न होने पाए, इस का खास ध्यान रखना चाहिए। अगर हो जाए तो हाथ पानी से शुद्ध करने चाहिए। काफी ध्यानपूर्वक अंगलुंछना करने पर भी यदि अंगलुंछना अपने शरीर-वस्त्र-पबासन अथवा भूमि को स्पर्श कर जाए तो उसका उपयोग प्रभुजी के लिए कभी नहीं करना चाहिए। यदि उसका स्पर्श पाटलुंछना-जमीनलुंछना आदि के साथ हो जाए तो उसका उपयोग नहीं किया जा सकता है। उसी प्रकार
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पबासन को साफ करने में उपयोगी पाटलुंछना का स्पर्श यदि फर्श को साफ करने के लिए उपयोगी लुंछना से हो गया हो तो उसका उपयोग पाटलुंछन के रूप में नहीं किया जा सकता। पहली बार अंगलुंछना करते समय प्रभुजी के ऊपर रहे हुए विशेष पानी को ऊपर-ऊपर से साफ करना चाहिए तथा दूसरी बार अंगलुंछना करते समय सम्पूर्ण शरीर को साफ करने के बाद अंग-उपांग, पीछे, हथेली के नीचे, कन्धे के नीचे आदि अंगों पर अंगलुंछना की ही लट बनाकर उसके आर-पार विवेकपूर्वक साफ करना चाहिए। यदि उस लट से साफ होना सम्भव न हो तो सुयोग्य-स्वच्छ सोने-चांदी-तांबा अथवा पीतल अथवा चन्दन के सूए से हल्के हाथों से साफ करना चाहिए। तीसरी बार अंगलुंछना करते समय सम्पूर्ण रूप से स्वच्छ हो चुके प्रभुजी को हल्के हाथों से सर्वांग को स्पर्श कर विशेष रूपसे स्वच्छ करना चाहिए। अष्ट प्रातिहार्य सहित परमात्मा को अंगलुंछना करते समय प्रभुजी की अंगलुंछना करने के बाद अष्ट पातिहार्य आदि परिकर (देव-देवी-यक्ष-यक्षिणी-प्रासाददेवी आदि) की भी अंगलुंछना की जा सकती है। यदि परिकर रहित सिद्धावस्था के प्रभुजी हों तथा मूलनायक प्रभुजी के अधिष्ठायक देव-देवी तथा प्रासाददेवी को अलग
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से प्रतिष्ठित किया गया हो तो उनकी अंगलुंछना करते समय प्रभुजी में प्रयुक्त अंगलुंछना का प्रयोग नहीं करना चाहिए। अंगलुंछना का उपयोग करने से पहले उसे रखने के लिए उपयोगी एक थाल साथ में रखना चाहिए और उसी में उसे रखना चाहिए। पबासन, दरवाजा, पाईप आदि में अंगलुंछना को करने के बाद या पहले नहीं रखना चाहिए। अंगलुंछना करते समय एक हाथ को प्रभुजी से, दीवाल से, परिकरसे या अन्य किसी वस्तु से नहीं टिकाना चाहिए। पाटलुंछणा करने वाले को अंगलुंछना का स्पर्श नहीं करना चाहिए । प्रभुजी के पीछे का हिस्सा अथवा पबासन साफ करते समय प्रभुजी के किसी भी अंग से पाटलुंछना का स्पर्श हो जाए तो महान आशातना का पाप लगता है। प्रक्षाल करने के बाद अंगलुंछना करने से पहले पंचधातु के प्रभुजी अथवा सिद्धचक्रजी आदि यन्त्रों में से पानी निचोड़ने के लिए उसे आड़ा-टेढ़ा, ऊँचा-नीचा अथवा एक दूसरे के ऊपर नहीं रखना चाहिए । ऐसा करने से घोर आशातना का पाप लगता है। अंगलुंछना करते समय स्तुति-स्तोत्रपाठ करने से अथवा एक दूसरेको इशारेआदि करने से आशातना लगती है। अंगलुंछना का कार्य पूर्ण होने के साथ ही सम्पूर्ण स्वच्छ तथा अंगलुंछना सुखाने के लिए टॅगी हुई रस्सी पर इस प्रकार
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दुसरा अंगलुंछन, ऐसे करें।
पहला अंगल्छन, ऐसे करें।
सुए से अंगल्छन, ऐसे करें।
अंगलुंछना को सुवासित करे।
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तीसरा अंगलुंछन, ऐसे करें।
प्रभुजी के परिकर को पबासनको पाटलुंछना सें।
EF
नीचे जमीन को जमीन लुंछना सें।
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फैलाना चाहिए कि किसी के मस्तक आदिका स्पर्श न हो। अंगलुंछना, पाटलुंछना तथा जमीनलुंछना के लिए डोरी अलग-अलग सुरक्षित रखनी चाहिए। अंगलुंछना को धोते समय योग्य थाल में अन्य वस्त्रों का स्पर्श न हो, इसका ध्यान रखना चाहिए। पाटलुंछना को धोते समय भी यही सावधानी रखनी चाहिए। जमीनलुंछना उचित रूप से अलग ही धोना चाहिए। यदि हो सके तो प्रभुजी की भक्ति में प्रयुक्त वस्त्र-बर्तन आदि को धोया हुआ पानी गटर या नाले में न जाए, इस बात का ध्यान रखना चाहिए। अंगलुंछना सूख जाने के बाद दोनों हाथों को स्वच्छ कर मौन धारण करते हुए मात्र दो हथेलियों के स्पर्श से उसे मोड कर रखना चाहिए। पाटलुंछना भी उसी प्रकार मोडकर तथा जमीनलुंछना को भी यथायोग्य तरहसे रखना चाहिए। अंगलुंछना को सुरक्षित रखने के लिए अलग से एक स्वच्छ थैली रखनी चाहिए। पाटलुंछना उससे अलग सुरक्षित रखना चाहिए। जमीनलुंछना का स्पर्श अन्य किसी भी वस्त्र अथवा उपकरण से न हो, इसका ध्यान रखते हुए, उसे मोड़कर रखना चाहिए।
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विलेपन करने की विधि
अंगलुंछना हो जाने के बाद सुगन्धित धूप को प्रभुजी के समक्ष ले जाकर उन्हें सुगन्धित करना चाहिए। देशी कपूर तथा चंदन मिश्रित सुगन्धित विलेपनको सुयोग्य थाली में धूप देकर गर्भगृह में ले जाना चाहिए। आठ-पड-मुखकोश का सम्पूर्ण उपयोग करते हुए दाहिने हाथ की पाँचों
ऊँगलियों से, नाखून न प्रभुजी को सर्वांग पर विलेपन करें। लगे, इस प्रकार प्रभुजी के
सर्वांग में विलेपन करना चाहिए । (विलेपन करने से पहले दोनों हाथों को सम्पूर्ण स्वच्छ करना जरूरी है।) विलेपन पूजा में नव-अंग के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता है। समस्त अंगों का विलेपन करना होता है। विलेपन करनेवाले एक व्यक्ति के अतिरिक्त अन्य भाविकों को एक दूसरे के स्पर्श दोष से बचने के लिए थोड़ी सी प्रतीक्षा करनी चाहिए।
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विलेपन करनेवाला भाग्यशाली मन में दुहा बोलते हुए तथा गर्भगृह के बाहर खड़े भाविक बोलें..(सिर्फ पुरुष 'नमोऽर्हत् सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व-साधुभ्यः'बोलें) 'शीतल गुण जेहमां रह्यो,शीतल प्रभु मुखरंग।
आत्म शीतल करवा भणी, पूजे अरिहा अंग..॥१॥' "ॐ ही श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्युनिवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय चंदनं यजामहे स्वाहा" (२७ डंका बजाएँ) अर्थ- जो प्रभुजी शीतल गुणों से युक्त हैं तथा जिनका मुख भी शीतल रंग से परिपूर्ण है, ऐसे श्री अरिहंत परमात्मा के अंग की अपनी आत्मा की शीतलता के लिए चंदन-कपूरआदिशीतल द्रव्यों से पूजा करें। विलेपन (चंदन ) पूजा पूर्ण होने के बाद अंगलुंछना के सिवाय अत्यन्त स्वच्छ वस्त्र (पक्के मलमल के कपड़े) से प्रभुजी के सर्व-अंग में विलेपन दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। विलेपन करने के बाद तुरन्त ही यदि किसी भाग्यशाली को सोने-चांदी के वरख से भव्य अंगरचना करने की भावना हो
तो विलेपन दूरकरने की आवश्यकता नहीं है। • विलेपन उतारने के लिए जिन वस्त्रों का उपयोग किया जाता
है, उसे उपयोग के बाद तुरन्त योग्य स्थान पर सूखने के लिए रख देना चाहिए। विलेपन वस्त्र को स्वच्छ पानी से धोने के बाद अंगलुंछना के साथ धोकर व सुखाकर रखना चाहिए।
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अंग-रचना (आंगी) विधि • चांदी आदि के खोखा, मुगट, पांखडे आदि के उपर आंगी करते समय मुखकोश बांधना जरूरी है।• सुवर्ण, चांदी, हीरा, माणेक, मोती आदि उत्तम द्रव्यो से आंगी हो सकती है। सवर्ण-चांदी व ताँबे के टीके से भी हो शकती है। मगर क्रोम-लोहा आदि हलकी धातु से नहि।.शुद्ध सुखड का पावडर, सुवर्ण व चांदी के बदले और शुद्ध रेशम के दागे (लच्छी) से कर सकते है। • सुवर्ण व चांदी के शुद्ध वरख भी लगा शकते है। वरख को डहाने वाला कापूस (Cotton) शुद्ध व स्वच्छ होना जरुरी है। वह Cotton केशरवाला हो जाए,गीला हो जाए, अपने शरीर को छु जाए, नीचे गिर जाए तो उसका त्याग करना चाहिए।.केशर के प्रमाणोपेत तांतणे से तैयार घीसा हुआ केशर व देशी कपूर से हो शकती है। किसीने नहि पहेने हो ऐसे सुवर्ण-चांदी के अलंकार प्रभुजी को चढ़ा सकते है। वह अलंकार वापस लेने की संकल्पना के साथ चढाया हो, तो उसे अपने लिए वापस ले सकते है। संपूर्ण स्वच्छ थाली में अथवा स्वच्छ वस्त्र पर प्रभुजीको बीराजमान करके आंगी कर सकते है। पूजा की थाली आदि को उलटी करके उसमे प्रभुजी को नहीं बिठाना चाहिए । बांदला लगाने हेतु प्रभुजी को आगे या पीछे झकाना नही चाहिए।.रुई (Cotton), मखमल (Welwet),उणे दागे (Woolen Thread),सूत्ती दागे (Cotton Thread), या मखमल के टीके आदि अतिजघन्य कोटि की चीजों से और खाने लायक सामग्री से कभी भी आंगी नही करनी चाहिए। बिना सुगंध के पुष्प, पुष्प की कलियाँ व पर्ण केशरवाले गिले पुष्प, पूर्ण अविकसित पुष्प औरपुष्पो के पीछे वरख की पीछे का कागज़ लगाकर आंगी नही करनी चाहिए। दसरे दिन आंगी उतारने के बाद उसमें से 'निर्मल देवद्रव्य'का संचय हो, एसी भव्य आंगी करनी चाहिए।
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केशरपूजा की विधि हृदय के साथ सीधा सम्बन्ध रखनेवाले तथा नामकर्म को दूर करने की इच्छा रखनेवाली अनामिका ऊँगली से ही प्रभुजी की केशर पूजा करनी चाहिए । नाखून का स्पर्श नही होना चाहिए। अंबर-कस्तूरी-केशर मिश्रित चंदन की कटोरी कुछ चौड़े मुंहवाली होनी चाहिए। केशर न तो अधिक पतला और न ही अधिक गाढा होना चाहिए, बल्कि मध्यम कक्षा का
(पानी नहीं छूटे ऐसा)केशर होना चाहिए। • प्रभु के नव अंगों में पूजा करते समय दाहिने बांए अंगों में
(पैर, घुटना, कुहनी, कंधा ) ऊँगली को एक बार केशर में भिगोकर दोनों स्थलों पर पूजा हो सकती है। परन्तु दाहिने अंगों पर पूजा होने के बाद केसर नहीं बढ़े तो बांए अंगों पर पूजा करते समय केसर में ऊँगली भिगोई जा सकती है। प्रत्येक अंग में अपना केसर होना जरूरी है। दोनों पैरों के अंगूठों पर एक ही बार पूजा हो सकती है। बारबारअथवा अन्य ऊँगली में पूजा नहीं की जा सकती है। पूजा करते समय सम्पूर्ण मौन धारण करना चाहिए।यहाँ तक कि किसी के साथ इशारे में भी बातें नहीं करनी।
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प्रभुजी पंचधातु के हों या बिल्कुल छोटे हों अथवा सिद्धचक्र का गट्टा हो, पूजा करते समय वह बिल्कुल नहीं हिलना चाहिए। अधिक भगवान की पूजा संक्षिप्त रूप से करने की बजाय थोड़े भगवान की पूजा विधिपूर्वक करने से विशेष लाभ होता है। केशर लालघूम नही होना चाहिए। अत्यन्त धैर्यपूर्वक, गम्भीरता से , स्थिर चित्त से तथा कोमलता पूर्वक प्रभुजी की पूजा करनी चाहिए। यदि किसी भाविक ने प्रभुजी की भव्य आंगी की हो तो केशर पूजा का आग्रह नहीं रखना चाहिए, बल्कि उसकी अनुमोदना करनी चाहिए। मंदिर में मूलनायक की पूजा की देरी हो तथा अन्य प्रभुजी की पूजा करनी हो तो थोड़ा सा केशरअलग से एक कटोरी में रख कर पूजा करनी चहिए। केशर पूजा करते समय यदि परमात्मा के अंगों में केसर बह रहा हो तो उसे स्वच्छ वस्त्र से पोंछ कर उसके बाद पूजा करनी चाहिए। पूजा के क्रम में सर्व प्रथम मूलनायकजी, उसके बाद अन्य परमात्मा, उसके बाद सिद्धचक्रजी यन्त्र-गट्टा, वीशस्थानक यन्त्र-गट्टा, प्रवचनमुद्रा में गणधर भगवंत तथा अन्त में
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इस तरह प्रभुजी के अंगुष्ठ में पूजा करें। गुरु गौतम स्वामीजी की केशर पूजा।
शासन के अधिष्ठायक सम्यग्दृष्टि देव-देवियों के मस्तक पर अँगूठेसे तिलक करना चाहिए। प्रभुजी की पूजा करने के बाद सिद्धचक्रजी की तथा सिद्धचक्रजी की पूजा करने के बाद प्रभुजी की पूजा कर शकते है। प्रवचन मुद्रा वाले गणधर भगवंतों की करने के बाद उसी केशर से सिद्धावस्था वाले गणधर भगवंतों की तथा सिद्धचक्रजी की पूजा नहीं करनी चाहिए। शासनदेव-देवी
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को अँगूठे से मस्तक के ऊपर तिलक करने के बाद उस केशर से किसी की भी पूजा नहीं करनी चाहिए ।
शासनरक्षक देव-देवी की पूजा 'धर्मश्रद्धा में सहायक बने तथा किसी भी प्रकार के विघ्न में भी श्रद्धा अडिग बनी रहे ' ऐसा आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ही पूजा की जा सकती है। इसके अतिरिक्त अन्य आशय से नही ।
• प्रवचन मुद्रा में अथवा गुरु अवस्था में स्थित चरम भवी श्री को गणधर भगवंतो की प्रभुजी के समक्ष वंदना कर सकते है। • प्रभुजी के नव अंगों में क्रमशः पूजा करने से पहले उन उन अंगों के दोहे मन में दुहराकर उसके बाद उन अंगों की पूजा करनी चाहिए ।
(१) दो अँगूठें की पूजा :
:
जल भरी संपुट पत्रमां, युगलिक नर पूजंत । ऋषभ चरण अँगूठडे, दायक भवजल अंत ॥ १ ॥ (२) दो घुटनों की पूजा :
जानुबले काउस्सग्ग रह्या, विचर्या देश-विदेश । खडा-खडा केवल लह्युं, पूजो जानु नरेश ॥ २ ॥ (३) दो हाथों की पूजा :
लोकांतिक वचने करी, वरस्या वरसी दान । कर कांडे प्रभु पूजना, पूजो भव बहुमान ॥ ३ ॥
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(४) दो कन्धों की पूजा :--
मान गयुं दोय अंशथी , देखी वीर्य अनंत।
भुजा बले भवजल तर्या, पूजो खंध महंत ॥४॥ (५) शिरशिखा मस्तक की पूजा :
सिद्धशिला गुण ऊजली,लोकांते भगवंत। वसिया तिणे कारण भवि, शिरशिखा पूजंत ॥५॥ ललाटकी पूजा :तीर्थंकरपद पुण्यथी, त्रिभुवन जनसेवंत।
त्रिभुवन तिलकसमाप्रभु,भाल तिलकजयवंत॥६॥ (७) कंठकी पूजा :
सोल पहोरप्रभु देशना, कंठेविवर वर्तुल। मधुरध्वनि सुरनरसुने,तेणेगले तिलक अमूल ॥७॥ हृदय की पूजा :हृदय कमल उपशम बले,बाल्या राग ने रोष।
हिम दहे वन खंडने, हृदय तिलक संतोष ॥८॥ (९) नाभि की पूजा :
रत्नत्रयी गुण ऊजली, सकल सुगुण विश्राम।
नाभिकमल नी पूजना, करतांअविचल धाम॥९॥ (१०) दोनों हाथ जोड़करगाने योग्य नव-अंग पूजा का उपसंहार:
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श्रीधर
सम्यग्दष्टि देव-देवी को अंगुष्ठ से कपाल पर तिलक करें ।
उपदेशक नवतत्त्वना, तेणे नव-अंग जिणंद ।
पूजो बहुविध रागशुं, कहे शुभवीर मुनिंद ॥ १० ॥
( अधिष्ठायक देव - देवियों को अक्षत (चावल) चढाने या खमासमण देने का भी विधान नहीं है। उनके भंडार में उनके नाम से नगद रुपये पैसे आदि डाला जा सकता है | )
(परमात्मा की आशातना हो, इस प्रकार अधिष्ठायक देवदेवी की आराधना-उपासना नहीं करनी चाहिए तथा प्रभुजी की दृष्टि गिरे, इस प्रकार सुखड़ी आदि न चढ़ाना चाहिए व न बाँटना चाहिए । )
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与事
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पुष्पपूजा की विधि सुगंधि, अखंड, जीवजंतु रहित, धूल, मलिनता आदि से रहित
तथा ताजा फूल चढ़ाना चाहिए। • मूलविधि के अनुसार सहज भाव से योग्य स्वच्छ वस्त्र में
(जमीन से ऊपर स्थित) फूलों को चढ़ाना चाहिए। यदि फूल तोड़ना पड़े तो खूब कोमलता पूर्वक ऊँगलियों के ऊपर सोने, चांदी अथवा पीतल की खोल चढ़ाकर तोड़ना चाहिए। मलिन शरीरतथा दुर्गन्ध युक्त हाथों से तोड़े हुए पुष्प जहाँ तक सम्भव हो, प्रभु पूजा में प्रयोग नहीं करना चाहिए। स्नानादि से स्वच्छ हुए शरीर वाले खुले पैर (जूते-चप्पल आदि पहने बिना) फूल तोड़ना चाहिए। फूल तोड़ने के बाद छाने हुए स्वच्छ पानी हल्के हाथों से छिड़ककर उसके ऊपर जमी हुई धूल साफ करनी चाहिए। फूलों को सोने-चांदी अथवा पीतल की स्वच्छ डलिया में खुले रखने चाहिए। बांस या बेंत की बनी डलिया का प्रयोग नहीं करना चाहिए। स्वच्छ वस्त्र धारण कर, मौन रहकर, सुन्दर भावना से युक्त हृदय के साथ, योग्य मनोहर फूलों को धागे में गूंथकरमाला
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shaa
इस तरह कुसुमांजली द्वारा पुष्प पूजा करें। बनानी चाहिए । सूई-धागे से गूंथी हुई माला अयोग्य तथा हिंसक होती है। माला गूंथते समय सूत के धागे या फूलों का शरीर-वस्त्र अथवा अन्य किसी से स्पर्श न हो, इसका ध्यान रखना चाहिए। यदि स्पर्श हो जाए तो उन फूलों का त्याग करना चाहिए। प्रभुजी को चढाया हुआ पुष्प दुबारा नहीं चढाना चाहिए।दिन में चढाए हुए फूलों को एकत्र कर आंगी चढाते समय पुनः उसी ढेर में से चुनकर प्रभुजी के अंग पर नहीं चढाना चाहिए। प्रभुजी की शोभा के लिए उन फूलों का प्रभुजी का स्पर्श न
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हो, इस प्रकार आगे रख सकते है ।
• प्रभुजी का मुखकमल ढँक जाए अथवा भाविकों को नवांगी पूजा करने में असुविधा हो, इस प्रकार फूल नहीं चढाना चाहिए । यदि ऐसे अनुचित स्थानों पर फूल चढाए गए हों तो उन्हें वहाँ से उठाकर यथोचित स्थान पर चढाया जा सकता है । परन्तु
दूसरी बारचढाने के लिए उन्हें संग्रह नहीं करना चाहिए । • फूल अपने शरीर - वस्त्र, पबासन, भूतल अथवा अयोग्य स्थानों से स्पर्श हो गए हों अथवा नीचे गिर गए हों तो उन फूलों को प्रभुजी को चढाने से बहुत बड़ी आशातना लगती है । • फूलों को कभी भी प्लास्टिक की थैली में, अखबार में, रद्दी कागज में, अन्य अयोग्य साधन में अथवा डिब्बी के अन्दर बन्द करके भी नहीं लाना चाहिए। ऐसे फूल चढाना अयोग्य हैं । • फूलों की पंखुड़याँ अथवा केशर-चंदन मिश्रित चावल, पुष्पपूजा अथवा कुसुमांजलि में प्रयोग नहीं करना चाहिए । • यदि फूल मिलना सम्भव न हो तो सोने-चांदी के फूलों से पुष्पपूजा की जा सकती है।
• प्रभुजी को एक-दो फूल चढाने के बदले दोनों हाथों की अंजलि में फूल लेकर चढाना चाहिए । ( कुसुम - पुष्प, अंजलि - अंजलि - कुसुमांजलि ।)
• प्रभुजी की पुष्पपूजा करते समय मन में गाने योग्य तथा
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प्रभुजी से थोड़ी दूरी पर खड़े भाविकों के द्वारा सुमधुर स्वरों में गाए जाने योग्य दोहे:-(पुरुष पहले 'नमोऽर्हत्..' बोले) सुरभि अखंड कुसुम ग्रही, पूजे गत संताप। सुमजंतु भव्य ज परे, करीए समकित छाप॥१॥ 'ॐ ह्रीँ श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्युनिवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय पुष्पाणि यजामहे स्वाहा' (२७ डंका बजाए) अर्थ :- जिनके संताप मात्र नष्ट हो गए हैं, ऐसे प्रभुजी की आप सुगन्धित अखंड पुष्पों से पूजा करो । प्रभुजी के स्पर्श से फूलों का जीव भव्यता को प्राप्त करता है, उसी प्रकार आप भी समकित की प्राप्ति करनेवाले बनो। यहाँ गर्भगृह के अन्दर प्रभुजी के बिल्कुल नजदीक में उतारने योग्य निर्माल्य से लेकरपुष्प पूजा तक की पूजा को अंगपूजा कही जाती है। उसमें सर्वथा मौन का पालन करना चाहिए
तथा दोहेआदि मन में ही गाना जरुरी है। • प्रभुजी से कम से कम साढे तीन हाथ दूर( अवग्रह) में रहकर
करने योग्य अग्रपूजा है। स्वद्रव्य से अष्ट-प्रकारी पूजा करनेवाले भाग्यशाली भी प्रभुजी से साढ़े तीन हाथ की दूरी पर रहकर ही अग्रपूजा करें।
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धूप-पूजा की विधि
• मालती - केशर-चंपा आदि उत्तम जाति की सुगन्धसे मिश्रित दशांगधूप प्रभुजी के समक्ष करना चाहिए ।
• सुगंधरहित अथवा जिसके जलाने से आँखें जलने लगे, ऐसे धूप का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।
• मंदिर की धूपदानी में यदि धूप सुलग रहा हो तो दूसरा धूप नहीं सुलगाना चाहिए। यदि स्वद्रव्यवाला धूप हो तो उसे जलाया जा सकता है।
• स्वद्रव्य से धूपपूजा करने वाला धूपकाठी के छोटे-छोटे टुकड़े कर जलाने की बजाय यथाशक्ति बड़ी धूपकाठी जलानी चाहिए ।
• धूप प्रभुजी के नजदीक नहीं ले जाना चाहिए । थाली में धूपदीप आदि रखकर प्रभुजी की अंगपूजा ( = पक्षाल, केशर, पुष्पपूजा) नहीं करनी चाहिए।
• धूप जलाते समय उसका अग्रभाग घी में नहीं डुबाना चाहिए तथा धूपकाठी की लौ को फूँक से बुझानी नहीं चाहिए।
धूपपूजा करते समय उसी थाली में दीपक भी साथ नहीं रखना चाहिए। उसी प्रकार दीपपूजा मे भी ।
• पुरुषों को धूपपूजा प्रभुजी की बाई ओर तथा महिलाओं को भी बाईं ओर खड़े रखकर करनी चाहिए।
• धूपकाठी जलाने के बाद उसे प्रदक्षिणा के समान गोलाकार घुमाने के बजाय अपने हृदय के नजदीक रखकर धूम्रसेर को
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उर्ध्वगति की ओर जाती देखनी चाहिए। धूपकाठी हाथ में न रखकर ठीक तरह से धूपदानी में रखकर पूजा करनी चाहिए। धूपपूजा करते समय बोलने योग्य दुहा : (पुरुष पहले नमोऽर्हत्... बोले) अमे धूपनी पूजा करीएरे,ओमनमान्या मोहनजी। अमे धूपघटा अनुसरीएरे,ओमनमान्या मोहनजी। प्रभु नहि कोई तमारी तोले रे,ओ मनमान्या मोहनजी। प्रभु अंते छेशरण तमाकैरे,ओमनमान्या मोहनजी। "ध्यान घटा प्रगटावीए, वाम नयन जिन धूप। मिच्छत्त दुर्गन्ध दूर टले, प्रगटेआत्म स्वरूप॥" "ॐ ह्रीँ श्री परम पुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु-निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा"(२७ डंका बजाएँ) अर्थ : प्रभुजी की बांई आँख की ओर धूप को रखकर उस धूप में से निकलनेवाले धुएँ की घटा के समान हम सब ध्यान की घटा प्रगट करें, जिससे ध्यान घटा के प्रभाव से मिथ्यात्व रूपी दुर्गन्ध नष्ट हो तथा आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रगट हो।(धूपपूजा करते समय नवकार-स्तुति-स्तोत्र आदिकुछ भी नहीं बोलना चाहिए।) धूपपूजा करने के बादधूपदानी को प्रभुजी से उचित दूरी पर रखे।
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दीप-पूजा की विधि गाय के शुद्ध घी तथा स्वच्छ रूई से तैयार किया गया दीपक योग्य फानूस में रखना चाहिए। अशुद्ध वस्त्र धारण कर अथवा अपवित्र हाथों से तैयार किये गए दीपक तथा बोए का प्रयोग जहाँ तक हो सके, नहीं करना चाहिए। मंदिर में बारह मास जलनेवाले दीपक अथवा स्वद्रव्य से पूजा करनेवाले भाविकों के दीपक को चारों ओर तथा ऊपर-नीचे से बंद फानूस में जयणा पालन के हेतु से रखना चाहिए। जैनधर्म अहिंसा प्रधान है, अतः प्रभुजी की पूजा में अयोग्य विराधना से बचते हुए प्रभुजी की भक्ति करनी चाहिए। मंदिर के रंगमंडप तथा नृत्यमंडप में घी अथवा दीवेल का दीपक योग्य हांडी में ढंककर रखना चाहिए। कांच के ग्लास में स्वच्छ छाना हुए पानी तथा देशी रंग के साथ घी अथवा दीवेल का दीपक उचित स्थान पर ढंककर रखना चाहिए। मंदिर में विधिवत् स्थापित अखंड दीपक को अधिकृत
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व्यक्ति के अतिरिक्त किसी को भी स्पर्श नहीं करना चाहिए । • स्वद्रव्य से अष्टप्रकारी
पूजा करनेवालो को गर्भगृह के बाहर उचित दूरी पर खड़े होकर दीपक - पूजा
करनी चाहिए । दीपक- पूजा पुरुषों
को प्रभुजी की
दाहिनी ओर तथा
महिलाओं को बांई
फानूस युक्त दिपक पूजा ।
ओर खड़े होकर ३ करनी चाहिए ।
एक हाथ में दीपक रखकर तथा दूसरे हाथ से घंट बजाते हुए कभी भी दीपक - पूजा नहीं करनी चाहिए ।
• दीपक- पूजा करते समय प्रदक्षिणाकार में नाक से नीचे तथा नाभि से ऊपर दीपक रखकर पूजा करनी चाहिए। • दीपक- पूजा करते समय घंटी बजाने का कोई नियम नहीं है ।
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अन्य स्तुति-स्तोत्र आदि भी नहीं बोलना चाहिए। अग्रपूजा (धूप-दीप-अक्षत-नैवेद्य-फल आदि) करते समय मुखकोश बांधने की आवश्यकता नहीं है। प्रभजी के प्रति विनय का प्रदर्शन करते हुए आरतीमंगलदीप करनेवालों को सिर पर पगड़ी, टोपी तथा कन्धे पर दुपट्टा अवश्य रखना चाहिए। मूलनायक प्रभुजी के समक्ष आरती-मंगलदीपक उतारने के बाद घंटनाद करते हुए जिनालय में बिराजमान अन्य प्रभुजी के समक्ष भी आरती उतारना चाहिए । अन्त में उसे उचित स्थान पर जालीदार ढक्कन से ढंककर रखना चाहिए। दीपक-पूजा करनेवाले पुरुषों के साथ मात्र हाथ लगाकर महिलाओं को दाहिनी ओर से दीपक-पूजा नहीं करनी चाहिए। उसी तरह पुरुषो को भी नही करना चाहिए। मंदिर में दीपक-पूजा करते समय बोलने योग्य दोहे : (पुरुष'नमोऽर्हत्...'बोले) "द्रव्यदीपसुविवेकथी, करतांदुःख होय फोक। भाव प्रदीप प्रगट हुए,भासित लोकालोक..॥१॥" 'ॐ ह्रीँ श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय दीपं यजामहे स्वाहा.'
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इस तरह आरती- मंगल दीपक उतारें ।
अर्थ : उचित रूप से विवेकपूर्वक प्रभुजी के आगे द्रव्य दीपक प्रगट करने से दुःख मात्र नष्ट हो जाता है तथा उसके प्रभाव से लोक- अलोक जिसमें प्रकाशित होता है, ऐसा भावदीपक रूप केवल ज्ञान प्रगट होता है ।
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आरती जय जय आरती, आदि जिणंदा;
नाभिराया मरूदेवी को नंदा....१ पहेली आरती, पूजा कीजे; नरभव पामीने लाहो लीजे। दूसरी आरती दीन दयाळा,
धूळेवा मंडपमांजग अजुवाळा ॥ तीसरी आरती त्रिभुवनदेवा,
सुरनर किन्नर करे तोरी सेवा; चोथी आरती, चउगति चूरे,
मनवांछित फल शिव सुख पूरे॥ पांचमी आरती पुण्य उपाया,
मूलचंद्रे ऋषभ गुण गाया॥
मंगल-दीवो दीवो रे प्रभु मंगलिक दीवो,
आरती उतारण, बहु चिरंजीवो, सोहामणो घेर, पर्व दिवाली
अंबर खेले, अमरा बाली, दिपाल भणे, एणे कुल अजुवाले
आरती उतारी राजा कुमारपाले अम घेर मंगलिक, तुम घेर मंगलिक,
मंगलिक चतुर्विध, संघ ने होजो.....
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दर्पण दर्शन तथा पंखे डुलाने की विधि
• एल्युमिनियम, तुच्छ कागज के गत्ते अथवा लोहे के स्क्रू-नट तथा प्लास्टिक से मढे हुए दर्पण नहीं रखना चाहिए। सोना-चांदी अथवा पीतल के गत्ते तथा नक्काशीदार दर्पण रखना चाहिए। प्रभुजी के मुखदर्शन के लिए उपयोगी दर्पण में कभी भी अपना मुख नहीं देखना चाहिए ।
•
दर्पण व पंखा पूजा
यदि भूल से देख लिया हो तो उस दर्पण का त्याग कर देना चाहिए। • यदि सम्भव हो तो मंदिर तथा स्वद्रव्यवाले दर्पण पर योग्य कवर ढंककर रखें।
• सुयोग्य दर्पण को अपने हृदय के नजदीक पीछे का भाग रखकर आगे के भाग से प्रभुजी का दर्शन करना चाहिए ।
• प्रभुजी के दर्शन होने के साथ ही उचित रूप से चारों ओर सरलता से घूम सके, ऐसा पंखा झलना चाहिए ।
सेवक के हृदयकमल में प्रभुजी का वास है तथा प्रभुजी की करुणापूर्ण दृष्टि की सेवक तरसता है, इस आशय से प्रभुजी को दर्पण में अपने हृदय के पास दर्शन करें तथा तुरन्त सेवक बनकर पंखा झुलना चाहिए ।
• दर्पण तथा पंखे का उपयोग करने के बाद दर्पण को उलटकर रख देना चाहिए तथा पंखे को उचित स्थान पर लटका देना चाहिए । • दर्पण - दर्शन तथा पंखा झुलते समय बोलने योग्य भाववाही स्तुतियाँ : प्रभु- -दर्शन करवा भणी, दर्पण-पूजा विशाल । आत्मदर्शनथी जुए दर्शन होय तत्काल ॥ १ ॥
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चामर-पूजा करते समय ध्यान रखने योग्य बातेंदोनों हाथों में एक-एक चामर रखकर चामर के साथ आधा झुककर' नमो जिणाणं ' कहना चाहिए ।
स्वद्रव्य का चामर बहुत छोटा न हो तथा उसके बाल गंदे नहीं होने चाहिए। बड़े चामर से विशेष भाव प्रगट होता है । अन्य आराधकों को असुविधा न हो, इस प्रकार उचित दूरी पर तथा उचित स्थान पर खड़े होकर चामर डुलाना चाहिए। चामर डुलाते समय दोनों पैरों को नचाते हुए तथा शरीर को थोड़ा झुकाते हुए प्रभुजी के सेवक बनने की लालसा के साथ ताल के अनुसार लयबद्ध होकर उचित रूप से नृत्य करना चाहिए । चामर - नृत्य के समय ढोल-नगारा - तबला- हारमोनियम- शंखबांसुरी आदि वाजंत्र भी बजाया जा सकता है ।
चामर नृत्य करते समय प्रभुजी के समक्ष नाग-मदारी का नृत्य करना उचित नहीं है ।
चामर- नृत्य करने में संकोच नहीं रखना चाहिए। दो चामर सुलभ न हो तो एक चामर तथा एक हाथ से नृत्य करना चाहिए। जब मंदिर में मात्र महिलाओं की ही उपस्थिति हो, उसी समय महिलाओं को रागविनाशक चामर नृत्य करना चाहिए। परन्तु पुरुषों की उपस्थिति में दोनों हाथों में अथवा एक हाथ में चामर लेकर दोनों पैरों को सीमित थिरकन के साथ सामान्य नृत्य करना चाहिए ।
चामर - नृत्य करते समय सुमधुर स्वर से बोलने योग्य स्तोत्र :
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कुन्दा-वदात-चल-चामर-चारु - शोभं, विभ्राजते तव वपुः कलधौत- कान्तम् ।
उद्यच्छ शाङ्क- शुचि-निर्झर-वारि-धार, मुच्चै - स्तटं सुर- गिरे-रिव-शात कौम्भम् ॥३०॥ अर्थ : हे प्रभुजी ! उदित होते हुए चन्द्रमा के समान निर्मल, झरने के पानी की धाराओं से शोभित, मेरु पर्वत के ऊँचे स्वर्णमय शिखर की भांति, मोगरा के पुष्प के समान उज्ज्वल हिलते हुए चामरों की शोभायुक्त
चामर नृत्य-पूजा आपका कान्तिमय शरीर सुशोभित हो रहा है । ३०
श्री पार्श्वपंचकल्याणक पूजा की ढाल बे बाजू चामरढाले, एक आगळ वज्र उलाळे । जई मेरु-धरी उत्संगे, इन्द्र चौसठ मळिया रंगे ॥ प्रभु पार्श्वनुं मुखडुं जोवा, भवोभवना पातिक खोवा... मंदिर की अथवा प्रभुजी की भक्ति के लिए लाए गए चामरों से पूज्य गुरु- भगवंत के समक्ष नृत्य नहीं करना चाहिए तथा वे चामरडुलाने भी नहीं चाहिए ।
स्नात्र - महोत्सव में राजा-रानी अथवा इन्द्र-इन्द्राणी को भी वे चामर नहीं डुलाने चाहिए। यदि चामरडुलाने अथवा नृत्य करने की आवश्यकता पड़े तो देव-द्रव्य में यथायोग्य रुपये-पैसे रखकर ही उसका उपयोग करना चाहिए ।
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अक्षत-पूजा करने की विधि उत्तम प्रकार के स्वच्छ-शुद्ध तथा दोनों ओर धारवाले अखंड चावल का अक्षत के रूप में उपयोग करना चाहिए। यदि सम्भव हो तो सोने अथवा चांदी के चावल बनाकर लाना चाहिए। तेल-रंग-केशर आदि से मिश्रित चावल का उपयोग नहीं करना चाहिए । पूजन आदि में भी वर्ण के अनुसार धान्य का उपयोग करना चाहिए। अक्षत पूजा करने के लिए उपयोगी अखंड चावल को स्वच्छ थाल में रखकर दोनों हाथों में थाल को धारण कर, दोनों घुटने जमीन पर रखकर, प्रभुजी के समक्ष दृष्टि रखकर मधुर स्वरमें ये दोहे बोलने चाहिए : (पुरुष पहले नमोऽर्हत्...बोले) शुद्ध अखंड अक्षत ग्रही, नंदावर्त विशाल। पुरी प्रभु सन्मुख रहो, टाली सकल जंजाल...॥१॥ 'ॐ ह्रीँ श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय अक्षतान्यजामहेस्वाहा...'(२७ डंका बजाएँ) अर्थ : शुद्ध तथा अखंड अक्षत लेकर प्रभुजी के पास विशाल नंदावर्त बनाना चाहिए तथा सब प्रकार के जंजाल का त्याग कर प्रभुजी के समक्ष शुभ भाव रखना चाहिए। दोहे-मन्त्र बोलने के बाद अक्षत को दाहिनी हथेली में रखकर हथेली के नीचे के भाग से क्रमशः मध्य में सम्यग् दर्शन-ज्ञान
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तथा चारित्र का ढेर करना चाहिए। ऊपर सिद्धशिला के लिए एक ढेर और अन्त में नीचे नंदावर्त अथवा स्वस्तिक के लिए एक ढेर करना चाहिए। । सर्व प्रथम बीचवाले तीन ढेर को व्यवस्थित करते हुए निम्नलिखित दोहे मधुर स्वर में बोलने चाहिए'दर्शन-ज्ञान-चारित्र्यना
आराधन थी सार...' • उसके बाद ऊपर के ढेर में
अष्टमी के चन्द्रमा के समान इस तरह अक्षत पूजा करे।
सिद्धशिला की रचना करते हुए मध्यभाग में मोटा तथा दाहिनी और बांई ओरपतला करते हुए दोनों कोनों पर मक्खी के पंख के समान पतला करना चाहिए। उनके ऊपर स्पर्श न करे, इस प्रकार (सिद्धशिला के उपर) एक पतली छोटी सी रेखा करनी चाहिए। सिद्ध भगवंतों का निवास
सिद्धशिला
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इसकी रचना करते समय मधुर स्वर में बोलना चाहिए : 'सिद्धशिलानी ऊपरे, हो मुज वास स्वीकार...'। सबसे नीचे स्थित ढेरवाले चावल को अनामिका ऊँगली से चौकोर आकार में फैलाना चाहिए । परन्तु ढेर के बीच में गोलाकार कर चूड़ी के समान कभी नहीं बनाना चाहिए। ऐसा करने से भवभ्रमण बढ़ता है। यदि सम्भव हो तो नंदावर्त प्रतिदिन करना चाहिए। क्योंकि यह अत्यन्त लाभदायी तथा मंगलकारी कहलाता है। साथिया (स्वस्तिक) करने की भावना हो तो चावल का चौकोर ढेर करने के बाद चारों दिशाओं में एक-एक रेखा कर साथिया का आकार बनाना चाहिए । उसमें पहली पंखुड़ी दाहिनी ओरऊपर की ओरमनुष्य गति की करनी चाहिए। दूसरी बांई ओर उपर की ओर देवगति की करनी चाहिए । तीसरी बांई ओर नीचे की ओरतिर्यंचगति की और चौथी दाहिनी ओर नीचे की ओर नरकगति की करनी चाहिए। मात्र स्वस्तिक बनाने की भावनावाले महानुभाव साथिया के चारों दिशाओं की पंखुड़ियों को किसी भी प्रकार से मोड़ना नहीं चाहिए।卐 इस प्रकार करना उचित नहीं है। इस प्रकार करना चाहिए। साथियाअथवानंदावर्तकी रचना करते समयदोहे बोलने चाहिए: "अक्षत पूजा करता थकां, सफल करुं अवतार। फल मागूंप्रभुआगळे,तार तार मुज तार।
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सांसारिक फल मांगीने, रडवडीयो बहु संसार । अष्टकर्म निवारवा, मांगू मोक्ष-फळ सार ॥ चिहुं गति भ्रमण संसारमां, जन्म-मरण - जंजाल । पंचमी गति विण जीवने, सुख नहि तिहुं काल ॥ देव गति
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मनुष्य गति
तिर्यंच गति
नरक गति
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नोट : साथिया दर्शन-ज्ञान- चारित्र के तीन ढेर के ऊपर कितने भी संख्या में करनी हो, तो भी नहीं करना चाहिए। विशेष विधि के लिए साथिया करने वाले नित्यक्रम के अनुसार एक साथिया अतिरिक्त करें ।
अष्टमंगल : १. स्वस्तिक, २. दर्पण, ३. कुंभ, ४. भद्रासन, ५. श्रीवत्स, ६. नंदावर्त, ७. वर्धमान तथा ८. मीनयुगल । • मूलविधि के अनुसार प्रभुजी के समक्ष अष्टमंगल का आलेखन प्रतिदिन करना चाहिए। यदि यह सम्भव न हो तो अक्षत पूजा के समय अष्टमंगल की पाटली प्रभुजी के समक्ष रखकर अष्टमंगल के आलेखन का संतोष मानना चाहिए । पाटली की केसर-चंदन पूजा नहीं की जा सकती है । अक्षतपूजा के दरम्यान अन्य कोई भी क्रिया अथवा अन्यत्र दृष्टि भी नहीं करनी चाहिए ।
मंदिर में अनिवार्य कारण के बिना कटासणा बिछाकर अथवा बिना कटासणा के पालथी मारकर बैठना, यह आशातना है ।
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चाहिए।
नैवेद्य-पूजा की विधि • शुद्ध द्रव्यों से निर्मित स्वादिष्ट मिठाइयों से नैवेद्य-पूजा की
जाती है। घर में किसी भी प्रकारी की मिठाई बनाई गई हो तो सबसे पहले प्रभुजी के समक्ष चढानी चाहिए । परन्तु घर में जिन मिठाईयों का उपयोग हो चुका हो अथवा मिठाई बनाए हुए बहुत दिन बीत गए हों, ऐसी मिठाईयां प्रभुजी के समक्ष नहीं चढ़ानी चाहिए। बाजार की अभक्ष्य मिठाईयाँ, पिपरमिन्ट, चॉकलेट, शक्कर की गोलियाँ,लॉलीपॉप आदि नहीं चढानी चाहिए। यदि ताजी मिठाईयाँ ले जाना सम्भव न हो तो शक्कर, बताशे आदि भक्ष्य मीठी वस्तु ले जाई जा सकती है। नैवेद्य एक-दो रखने के बजाय थाल भर जाए, इस प्रकार शक्ति के अनुसार रखना चाहिए। सुयोग्य नैवेद्य के ऊपर सोने-चांदी के वरख आदि लगा सकते है। नैवेद्य से चावल, पाट, बाजोट आदि में चिकनाई न आए, इस हेतु से स्वच्छथाल में ही मिठाई चढाना चाहिए। पारदर्शी कागज़ अथवा जाली से मिठाईयों को ढंककर मँखी आदि से बचाना चाहिए। श्री वीशस्थानक तप, वर्धमान तप, ओली आदि के दरम्यान
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क्रिया में बतलाई गई विधिके अनुसार प्रत्येक साथिया पर कम से कम एक नैवेद्य-फल अवश्य चढाना चाहिए। स्वादिष्ट मिठाई को स्वच्छ थाल में रखकर दोहे बोले : ( पुरुष पहले 'नमोर्हत्... 'बोले )
"न करी नैवेद्य पूजना, न धरी गुरुनी शीख । लेशे परभव अशाता, घर-घर मांगशे भीख ॥ अणहारी पद में कर्या, विग्गह गई अनन्त । दूर करी ते दीजिए, अणहारी शिवसंत ॥"
'ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म- जरा - मृत्यु निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय नैवेद्यानि (एक हो तो नैवेद्यं) यजामहे स्वाहा. ' (२७ डंका बजाएँ) अर्थ : हे प्रभु! एक भव से दूसरे भव में जाने के क्रम में एक-दो-तीन-चार समय के लिए विग्रह गति में मैंने अनंत बार आहार का त्याग स्वरूप अणाहारीपन (उपवास) किया है । परन्तु उससे मुझे कोई कार्य सिद्धि (मोक्षपद की प्राप्ति) नहीं हुई । अतः इस नैवेद्य के द्वारा आपकी पूजा करके मैं चाहता हूँ कि ऐसे क्षणिक नाशवंत अणाहारीपन को दूर कर मुझे अक्षय ऐसे अणाहारीपद स्वरूप मोक्ष सुख प्रदान करें।
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उत्तम मिठाईयों से नैवेद्य पूजा ।
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फल-पूजा की विधि • उत्तम तथा ऋतु के अनुसार श्रेष्ठ फल चढाना चाहिए ।
श्रीफल उत्तम है। निम्नकोटि के, सड़े हुए,गले हुए तथा छिद्र युक्त अथवा बेरजामुन आदि फल नहीं चढाने चाहिए। सुयोग्य फलों में गाय के घी लगाकर तथा उसके ऊपर सोने-चांदी के वरख लगाकर उसे सुशोभित करना चाहिए। यदि सम्भव हो तो एक-दो केले के बजाय केले का पूरा समूहचढाना चाहिए। शत्रुजय तीर्थ आदि में जय तलेटी मंदिर के नजदीक फल बेचनेवालों के पास से खरीदकर फल नहीं चढाना चाहिए। सिद्धशिला के ऊपर की पंक्ति पर सिद्धभगवंतों को फल चढाना चाहिए।बदाम भी चल सकती है। फलपूजा करते समय बोलने योग्य दोहें: (पुरुष पहले 'नमोर्हत्...'बोले।) "इन्द्रादिक पूजा भणी,फल लावे धरी राग। पुरुषोत्तम पूजी करी, मांगे शिवफल त्याग...॥" 'ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय फलानि (एक हो तो 'फलं') यजामहे स्वाहा।'(२७ डंका बजाएँ)
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अर्थ : हे, प्रभु ! ऊपर के भक्तिराग से इन्द्रादि देव प्रभुजी की फल पूजा करने के लिए अनेक प्रकार के उत्तम फलों से पूजा कर मोक्ष की प्राप्तिरूप फल को पाने में सहायभूत ऐसे त्यागधर्म अर्थात् चारित्रधर्म की याचना
करते हैं । अर्थात् मोक्षफल उत्तम फलों से फल-पूजा। का दान मांगते हैं।
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अक्षत-नैवेद्य-फल-पूजा के बाद ध्यान रखने योग्य बातें
• प्रभुजी के समक्ष चढाए हुए अक्षत (चावल), नैवेद्य (मिठाई आदि), फल तथा रुपए-पैसे, वह निर्माल्य देवद्रव्य कहा जाता है।
• निर्माल्य देवद्रव्य की सारी सामग्रियों के द्वारा उपार्जित रुपए-पैसे देवद्रव्य के भंडार में भरपाई करना चाहिए । • यदि श्रीसंघ अथवा पेढी ऐसी व्यवस्था करने में समर्थ न हो तो निर्माल्य देवद्रव्य की यथायोग्य प्राप्त आय अपने हाथो से देवद्रव्य के भंडार में रखने के बाद चैत्यवन्दन आदि भावपूजा प्रारम्भ करनी चाहिए ।
घर के प्रत्येक व्यक्ति में भी ऐसे संस्कार डालने का प्रयत्न करना चाहिए ।
• स्वयं चढाई हुई सामग्री की नगद राशि देवद्रव्य के भंडार में रखने से वे श्रावक दर्शनाचार के अतिचार स्वरूप देवद्रव्य की उपेक्षा के महान दोष से बच सकता है।
• मंदिर की कोई भी सामग्री उपयोग में लेने से पहले स्वद्रव्य से करने की भावना वाले श्रद्धालु भंडार में कुछ न कुछ द्रव्य
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अवश्य डाल देना चाहिए। मंदिर में उपयुक्त सामग्री का उपयोग पुजारी, उपाश्रयआयंबिलशाला के कर्मचारी, चौकीदार, साफ-सफाई करनेवाले मजदूर, पेढी के कर्मचारी आदि यदि करते हों तो उन्हें अपना कोई भी कार्य नहीं सौंपना नहीं चाहिए। मंदिर में यदि पुजारी रखना ही पड़े तो वह श्रावक के बदले में कार्य करता है, अतः उसे सर्व साधारण खाते में से ही
वेतन देना चाहिए । देवद्रव्य में से नहीं देना चाहिए। श्रीसंघ के उदारदिल वाले भाग्यशालियों के द्वारा महीना प्रारम्भ होने से पहले निर्माल्य देवद्रव्य के खाते में योग्य रशी श्रीसंघ की ओर से देवद्रव्य की उपेक्षा के दोष से श्रीसंघ को बचाने के लिए देवद्रव्य में डाली जा सकती है।
इस तरह तीन बार भूमि प्रमार्जना करे।
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•
चैत्यवन्दन करने से पहेले
समझने योग्य बाते पुरुषों को अपनी चादर के छोर पर स्थित झालर से तथा स्त्रियों को सुयोग्य रेशमी साड़ी के छोर से तीन बार भूमि का प्रमार्जन करना चाहिए। चैत्यवन्दन शुरु करने से पहले द्रव्यपूजा के त्याग स्वरूप तीसरी निसीहि तीन बार कहनी चाहिए। यह निसीहि बोलने के बाद पाटले पर की गई अक्षतादि द्रव्यपूजा के साथ सम्बन्ध नहीं रहता है। अतः उस पाटला का संरक्षण आदि करने से अथवा ऊँगलियों से उसे सीधा करने से निसीहि का भंग होता है। चैत्यवन्दन शुरु करने से पहले योगमुद्रा में 'ईरियावहियं' अवश्य करनी चाहिए। मंदिर में एक चैत्यवन्दन करने के बाद तुरन्त ही दूसरा चैत्यवन्दन या देववन्दन करने की भावना हो तो मंदिर में आने-जाने से पानी-फूल आदि की विराधना नहीं हुई हो तो दूसरी बार ईरियावहियं करने की आवश्यकता नहीं रहती है। यदि विराधना हुई हो अथवा १०० कदम से अधिक आना
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जाना हुआ हो तो अवश्य ईरियावहियं करनी चाहिए। 'ईरियावहियं' की शुरुआत करने के बाद पच्चक्खाण न तो लेना चाहिए, न देना चाहिए तथा बीच में से खड़े होकर प्रक्षाल आदि द्रव्यपूजा करने के लिए भी नहीं जाना चाहिए। चैत्यवन्दन पूर्ण होने के बाद प्रभुजी को स्पर्श करने हेतु गर्भगृह आदि में नहीं जाना चाहिए। यदि चैत्यवन्दन करने के बाद प्रक्षाल आदि द्रव्यपूजा करने की अत्यन्त भावना हो तो प्रक्षाल आदि किए गए प्रभुजी को दूसरी बार पुनः अनुक्रम से अंग-अग्र-भाव पूजा करनी चाहिए। मन को स्थिर कर चैत्यवन्दन के सूत्र तथा अर्थ के ऊपर विशेष ध्यान देना चाहिए तथा उसका चिन्तन करना चाहिए।
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चैत्यवंदन विधि एक खमासमण सत्तर संडासा पूर्वक देना चाहिए।
•खमासमण सूत्र. इच्छामि खमासमणो !॥१॥ वंदिउं जावणिज्जाए निसिहिआए ॥२॥
मत्थएण वंदामि ॥३॥
• खमासमण देने की विधि. • 'इच्छामि खमासमणो वंदिउँ' बोलते हुए आधे अंग को
झुकाना चाहिए। • फिर सीधे होकर जावणिज्जाए निसीहिआए'बोलकर दोनों पैर
तथा घुटने रखने की भूमि को प्रमार्जन कर नीचे झुककर बैठना चाहिए तथा उसके बाद दोनों हाथों का प्रमार्जन तथा मस्तक रखने की जगह का
प्रमार्जन करना चाहिए। इस तरह पंचांग-प्रणिपात दे।
• उसके बाद दो पैर, दो हाथ तथा मस्तक रूप पंचांग को सुयोग्य रीति से जमीन पर स्थापित
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करने के साथ ही मत्थएण वंदामि' बोलना चाहिए। उस समय पीछे का भागऊँचा न हो, इसका ध्यान रखना चाहिए। यदि सम्भव हो तो मंदिर में विराजमान प्रत्येक प्रभुजी को तीन-तीन खमासमण देना चाहिए। उसके बाद ईरियावहियं करनी चाहिए।
• ईरियावहियं सूत्र. इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! ईरियावहियं
पडिक्कमामि ? इच्छं, इच्छामि पडिक्कमिउं ॥ १ ॥ ईरियावहियाए विराहणाए॥२॥गमणागमणे ॥३॥ पाणक्कमणे, बीयक्कमणे,हरियक्कमणे,
ओसा-उत्तिंग पणग दग, मट्टी-मक्कडा संताणा, संकमणे ॥४॥जे मे जीवा विराहिया ॥५॥एगिदिया, बेईंदिया, तेइंदिया, चउरिदिया, पंचिंदिया॥६॥ अभिहया, वत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया ठाणाओ ठाणं संकामिया, जीवियाओ ववरोविया तस्स मिच्छा मि दुक्कडं॥७॥ (88)
ऐसे 'ईरियावहियं' करें।
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तस्स उत्तरी सूत्र •
तस्स उत्तरी- करणेणं, पायच्छित्त-करणेणं, विसोही-करणेणं, विसल्ली - करणेणं, पावाणं- कम्माणं, निग्घायणट्ठाए ठामि काउस्सग्गं ॥१॥
अन्नत्थ सूत्र •
अन्नत्थ ऊससिएणं नीससिएणं, खासिएणं, छीएणंजंभाईएणं, उड्डएणं, वायनिसग्गेणं, भमलिए, पित्तमुच्छाए ॥ १ ॥ सुहुमेहिं अंग-संचालेहिं, सुहुमेहिं खेल-संचालेहिं, सुहुमेहिं दिट्ठि-संचालेहिं ॥ २ ॥ एवमाइ एहिं आगारेहिं, अभग्गो, अविराहिओ हुज्ज मे काउस्सग्गो ॥ ३ ॥ जाव अरिहंताणं, भगवंताणं, नमक्कारेणं न पारेमि ॥ ४ ॥ ताव कायं ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि ॥ ५ ॥
"
('जिनमुद्रा' में एक लोगस्स 'चंदेसु निम्मलयरा' तक न आता हो तो चार बार श्री नवकार मंत्र का काउस्सग्ग करके 'नमो अरिहंताणं' बोलकर पार के प्रगट लोगस्स सूत्र बोलना चाहिए । )
• लोगस्स (नामस्तव ) सूत्र •
लोगस्स उज्जोअगरे, धम्म तित्थयरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्सं, चडविसं पि केवली ॥ १ ॥ उसभमजिअं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमइं च । पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥ २ ॥ सुविहिंच पुप्फदंतं, सीअल सिज्जंस वासुपुज्जं चं । विमलमणतं च जिणं, धम्मं संतिं च वंदामि ॥ कुंथुं अरं च मल्लिं, वंदे
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मुणिसुव्वयं नमिजिणंच।वंदामि रिटुनेमि, पासंतह वद्धमाणंच ॥ ४ ॥ एवं मए अभिथुआ, विहुयरयमला पहीणजरमरणा । चउवीसं पिजिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥५॥कित्तिय वंदिय महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा।आरुग्ग बोहिलाभं,समाहि -वर मुत्तं किंतु ॥६॥ चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियंपयासयरा ।सागर वर गंभीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु॥७॥ (फिर वापस तीन बार खमासमण देने चाहिए।)
•खमासमण सूत्र. इच्छामि खमासमणो! ॥१॥वंदिउं जावणिज्जाए निसिहिआए ॥२॥ मत्थएण वंदामि ॥३॥
-: चैत्यवंदन के प्रारंभ मे बोलने योग्य स्तोत्र :सकल-कुशल-वल्ली, पुष्करावर्त- मेघो; दुरित-तिमिर-भानुः कल्पवृक्षोपमानः । भवजल-निधि-पोतः, सर्व संपत्ति हेतुः, स भवतु सततं वः; श्रेयसे शान्तिनाथः ॥ ('श्रेयसे पार्श्वनाथः आदि बोलना अनुचित है।)
सामान्य जिन चैत्यवंदन. तुज मुरतिने निरखवा, मुज नयणा तरसे; तुम गुणगणने बोलवा, रसना मुज हरखे ॥१॥ काया अति आनंद मुज, तुम युग पद फरसे; तो सेवक तर्या विना, कहो किम हवे सरसे ॥२॥
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एम जाणीने साहिबाए, नेक नजर मोहे जोय; 'ज्ञानविमल' प्रभु नजरथी ते शुंजे नवि होय?॥३॥ (जो भगवान हो उसका अथवा जिस भगवान के पांच मे से कोई भी कल्याणक हो उसका अथवा सुद-१ से दिन वृद्धि के हिसाब से संख्या गिनते हुए, उस संख्यावाले (वद-१=१५+१=१६ में भगवान, वद-९,१०,११ को= २३वे भगवान और १२ से अमावस्या तक २४ मे भगवान )प्रभुजी का चैत्यवंदन बोलना चाहिए । सामान्य जिन चैत्यवंदन किसीभी प्रभुजी के समक्ष बोला जा सकता है।)
•जं किंचि सूत्र जं किंचि नाम तित्थं, सग्गे पायालि माणुस्से लोए, जाइ जिण-बिंबाइ, ताइं सव्वाइं वंदामि ॥१॥
• नमुत्थुणं सूत्र. नमुत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं ॥१॥ आइगराणं, तित्थयराणं, सयं-संबुद्धाणं ॥ २ ॥ पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं, पुरिसवरपुंडरिआणं, पुरिसवर-गंधहत्थीणं ॥३॥ लोगुत्तमाणं, लोगनाहाणं, लोगहिआणं, लोगपईवाणं, लोगपज्जोअ-गराणं ॥४॥ अभयदयाणं, चक्खुदयाणं, मग्गदयाणं शरणदयाणं, बोहिदयाणं, ॥५॥धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्म- सारहीणं, धम्मवर-चाउरंत चक्कवट्टीणं ॥ ६ ॥ अप्पडिहयवरनाण - दंसणधराणं विअट्ट-छउमाणं ॥ ७ ॥
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जिणाणं जावयाणं, तिन्नाणं - तारयाणं, बुद्धाणं-बोहयाणं, मुत्ताणं मोअगाणं ॥ ८ ॥ सव्वन्नूणं, सव्वदरिसीणं, सिवमयल-मरुअ - मणंत - मक्खय - मव्वाबाह-मपुण-रावितिसिद्धिगइ-नामधेयं ठाणं संपत्ताणं नमो जिणाणं जिअभयाणं ॥९॥ जे अ अईया सिद्धा, जे अ भविस्संति णागए काले, संपइ अ वट्टमाणा, सव्वे तिविहेण वंदामि ॥१०॥
• जावंति चेइआई सूत्र.
(ललाट प्रदेश मे हाथों को मोती इस तरह
की शीप की आकृति समान चैत्यवंदन करे।
करके मुक्तासुक्ति मुद्रा में यह
सूत्र बोले।) जावंति चेइआइं, उड्डे अ अहे अतिरिअ लोए ए। सव्वाइं ताइं वंदे, इह संतो तत्थ संताई ॥१॥ (एक खमासमण खडे होकर देना चाहिए।)
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मुक्ता सुक्ति मुद्रा
• जावंत के वि साहू सूत्र (मुक्तासुक्ति मुद्रा में यह सूत्र बोले) जावंत केवि साहू, भरहेरवय-महाविदेहे। सव्वेसिंतेसिंपणओ, तिविहेण तिदंड विरयाणं ॥१॥ • पंच परमेष्ठि नमस्कार सूत्र
(योग मुद्रा में) (यह सूत्र सिर्फ पुरूष ही बोले) नमोऽर्हत्-सिद्धाचार्यो-पाध्याय-सर्व
साधुभ्यः॥
सामान्य जिन स्तवन (योग मुद्रा में). चरण की सरण ग्रहुं... जिन तेरे.... चरण की सरण ग्रहुं.... हृदयकमल में ध्यान धरत हुं, शिर तुज आण वहुं....जिन तेरे ॥१॥
तुम सम खोळ्यो देव खलक में, पेख्यो नाहि कबहुं... जिन तेरे... ॥२॥
तेरे गुणो की जपुंजपमाला, अहनिश पाप दहुं.... जिन तेरे ॥३॥
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मेरे मन की तुम सब जानो, क्यां मुख बहोत कहुं... जिन तेरे... ॥४॥
कहे 'जस' विजय करो त्युं साहिब,
जयुं भवदुःख न लहुं ... जिन तेरे ॥५॥ (चैत्यवंदन में बताई बातें स्तवन में भी समजना।) शास्त्रीय शुद्ध राग में पूर्वाचार्यों के द्वारा रचित अथवा स्वयं द्वारा रचित स्तवन मंदस्वरमें, दूसरों को अंतरायभूत न पहोचे इस
प्रकार सुमधुर कंठ से भावविभोर होकर गाना चाहिए। मंदिर में प्रभुजी के समक्ष पर्युषण आदि पर्वो के स्तवन (जैसे- सुणजो साजन संत... अष्टमी तिथि सेवो रे...) तथा तीर्थ की महिमा के (जैसे-विमलाचल नितु वंदिए...) वर्णन करनेवाले स्तवन नही गाने चाहिए। प्रभु गुण वैभव का वर्णन तथा स्वयं के दोषों का स्वीकार जिसमें हो, ऐसे अर्थ सहित स्तवन प्रभुजी के समक्ष गाना चाहिए । फिल्मी तर्ज वाले स्तवन गाने
ईस तरह अरिहंत चेईयाणं' करे।
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योग्य नहीं हैं। मंदिर में पूजन, पूजा-मंडल अथवा संध्याभक्ति आदि कार्यक्रमों में उपदेशप्रद गीत (जैसे- एक पंखी आवीने उडी गयु. मा-बापनो उपकार.. शोकगीत..) कभी नहीं गाने चाहिए।
•जय वीयराय सूत्र (मुक्ताशुक्ति मुद्रा में). जय वीयराय ! जग-गुरु ! होउ ममं तुह पभावओ, भयवं भवनिव्वेओ मग्गाणुसारिया इट्ठफलसिद्धि ॥ १ ॥ लोग विरुद्धच्चाओ, गुरुजणपूआ परत्थकरणं च, सुहगुरुजोगो तव्वयण सेवणा आभवमखंडा ॥२॥
(अब यह शेष योग मुद्रा में) वारिज्जइ जइ वि, नियाण बंधणं वीयराय ! तुह समए, तह वि मम हुज्ज सेवा, भवे भवे तुम्ह चलणाणं ॥ ३ ॥ दुक्खक्खओ कम्मक्खओ समाहिमरणं च बोहिलाभो अ, संपज्जउ मह एअं, तुह नाह ! पणाम करणेणं ॥ ४ ॥ सर्व मंगल मांगल्यं, सर्व कल्याण कारणम् । प्रधानं सर्व धर्माणां,जैनं जयति शासनम्॥५॥
(अब खडे होकर योगमुद्रा में अरिहंत-चेइयाणं सूत्र) अरिहंत-चेइआणं करेमि काउस्सग्गं ॥१॥ वंदण-वत्तियाए, पुअण-वत्तियाए, सक्कार-वत्तियाए, सम्माण-वत्तियाए, बोहिलाभ-वत्तियाए, निरुवसग्ग-वत्तियाए ॥ २ ॥ सद्धाए,
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मेहाए, धिइए, धारणाए, अणुप्पेहाए, वड्ढमाणीए ठामि काउस्सग्गं ॥३॥
अन्नत्थ सूत्र •
अन्नत्थ उससिएणं, नीससिएणं खासिएण छीएणं, जंभाईएणं, उड्डुएणं, वायनिसग्गेणं, भमलिए पित्तमुच्छाए ॥१॥ सुहुमेहिं अंग संचालेहिं, सुहुमेहिं-खेल संचालेहिं, सुहुमेहिं दिट्ठि संचालेहिं ॥ २ ॥ एवमाइ एहिं आगारेहिं, अभग्गो, अविराहिओ हुज्ज मे काउस्सग्गो ॥ ३ ॥ जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेणं न पारेमि ॥ ४ ॥ ताव कायं मोणेणं, ठाणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि ॥५ ॥
(जिन मुद्रा में नीचे बताई विधि अनुसार एक बार श्री नवकार मंत्र का काउस्सग्ग पूर्ण करके (पुरुष नमोऽर्हत् बोल के ) थोय बोलनी चाहिए।)
काउस्सग्ग करने की विधि
• काउस्सग्ग १९ दोष रहित तथा शरीर को एकदम स्थिर रखकर, दृष्टि प्रभु के समक्ष अथवा नाक की नोंक की ओर रखनी चाहिए । होठ सहज ही एक दूसरे को स्पर्श करे, इस प्रकार बंद रखना चाहिए। जीभ को बीच में अथवा तालु में स्थिर रखना चाहिए। दांतों की दोनों पंक्तियाँ एक दूसरे को स्पर्श न कर सके, इस प्रकार रखकर काउसग्ग करना चाहिए।
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काउसग्ग करते समय उच्चारण करते हुए, गुनगुनाते हुए अथवा संख्या आदि गिनने के लिए ऊँगलियों की गांठ को स्पर्श नहीं करना चाहिए। • श्री पार्श्वनाथ जिन स्तुति
(= थोय). शंखेश्वर पार्श्वजी पूजीए, नरभवनोल्हावो लीजीए। मन-वांछित पूरण सुरतरु, जय वामा सुत अलवेसरूं ॥१॥ (थोय में भी चैत्यवंदन के अनुसार उस-उस-प्रभुजी की थोय बोलनी चाहिए ।) फिर वापस एक खमासमण देना चाहिए। फिरखडे होकर योग मुद्रा में अपनी शक्ति अनुसार पच्चक्खाण लेना
चाहिए। इस तरह कायोत्सर्ग करें ।
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प्रभात के पच्चक्खाण नवकारशी : उग्गए सूरे, नमुक्कारसहिअं मुट्ठिसहिअं, पच्चक्खाइ ( पच्चक्खामि) चउव्विहंपि आहारं , असणं, पाणं, खाइमं, साइमं अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागाणेणं, सव्वसमाहि-वत्तिया-गारेणं, वोसिरई ( वोसिरामि।)
पोरिसि-साढपोरिसि-पुरिमड्ड-अवड्ढ उग्गए सूरे नमुक्कारसहिअं, पोरिसिं, साढपोरिसिं, सूरे उग्गए पुरिमहूं, अवढे मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाइ, (पच्चक्खामि), उग्गए सूरे चउव्विहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहूवयणेणं, महत्तरागारेणं, सव्व-समाहि-वत्तिया-गारेणं, वोसिरह (वोसिरामि)।
आयंबिल-निवि-एकासj-बियासणुं उग्गए सूरे नमुक्कारसहिअं, पोरिसिं, साढपोरिसिं सूरे उग्गए पुरिमटुं, अवटुं मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाइ (पच्चक्खामि), उग्गए सूरे चउव्विहंपि आहारं, असणं,पाणं, खाइम, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहूवयणेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं,
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आयंबिलं, निव्विगइओ - विगइओ पच्चक्खाइ ( पच्चक्खामि ), अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्थसंसद्वेणं, उक्खित्तविवेगेणं, पडुच्चमक्खिएणं, पारिट्ठाव - णियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि-वत्तियागारेणं एगासणं, बियासणं, पच्चक्खाइ (पच्चाक्खामि ), चउव्विहंपि तिविहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, सागरियागारेणं, आउंटेण-पसारेणं, गुरुअब्भुट्ठाणेणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, पाणस्स लेवेण वा, अलेवेण वा, अच्छेण वा, बहुलेवेण वा, ससित्थेण वा असित्थेण वा, वोसिरइ (वोसिरामि । )
चउविहार उपवास
सूरे उग्गए अब्भुत्तङ्कं पच्चक्खाइ (पच्चक्खामि ), चउव्विहंपि आहारं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अन्नत्थाणभोगेणं, सहसागारेणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ ( वोसिरामि ) ।
तिविहार उपवास
सूरे उग्गए अब्भत्तङ्कं पच्चक्खाइ ( पच्चक्खामि ), तिविहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पारिट्ठावणियगारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि
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वत्तियागारेणं, पाणहार, पोरिसिं, साढपोरिसिं, सूरे उग्गए पुरिमड्डुं, अवड्डुं मुट्ठिसहिअं, पच्चक् खाइ ( पच्चक् खामि ), अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहू - वयणेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि-वत्तियागारेणं, पाणस्स लेवेण वा, अलेवण वा, अच्छेण वा, बहुलेवेण वा, ससित्थेण वा, असित्थेण वा वोसिरइ ( वोसिरामि ) ।
धारणा अभिग्रह
धारणा अभिग्गहं पच्चक्खाइ ( पच्चक्खामि ) अरिहंतसक्खियं, सिद्ध-सक्खियं साहु-सक्खियं, देव-सक्खियं, अप्प - सक्खियं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि-वत्तियागारेणं वोसिरइ ( वोसिरामि ) ।
देशावगासिक
देसावगासियं, उवभोगं परिभोगं, पच्चखाइ ( पच्चक्खामि ) अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरइ ( वोसिरामि ) ।
मुट्ठिसहिअं
मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाइ ( पच्चक्खामि ) अन्नत्थणा - भोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि-वत्तियागारेणं, वोसिरइ (वोसिरामि) ।
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शाम कां पच्चक्खाणो
पाणहार
पाणहार दिवसचरिमं, पच्चक् खाइ, ( पच्चक्खामि ) अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरइ ( वोसिरामि ) ।
चउविहार- तिविहार- दुविहार
"
दिवसचरिमं पच्चक्खाइ, ( पच्चक्खामि ), चउव्विहंपि, तिविहंपि, दुविहंपि आहारं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरइ (वोसिरामि ) ।
( पच्चक्खाण करनेवाले को 'पच्चक्खामि व वोसिरमि' अवश्य बोलना चाहिए )
उसके बाद खमासमण देने के बाद प्रभुजी की भक्ति से उत्पन्न आनन्द को व्यक्त करने के लिए स्तुति बोलनी चाहिए। (जैसे- आव्यो शरणे तमारा, भवोभव तुम चरणोनी सेवा...., जिने - भक्तिर्जिने भक्ति..., अद्य मे सफलं जन्म..., पाताले यानि बिम्बानि..., अन्यथा शरणं नास्ति... अन्त में उपसर्गाः क्षयं यान्ति तथा सर्व मंगल मांगल्यं बोलना चाहिए । )
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अन्त में जमीन पर घुटनों को रखकर दाहिने हाथ की हथेली की मुट्ठी बनाकर "प्रभुभक्ति करते हुए यदि कोई भी अविधि-अशातना हुई हो, उन सब के लिए मैं मन-वचनकाया से मिच्छा मि दुक्कडं मांगता हूँ," ऐसा अवश्य बोलना चाहिए। चैत्यवन्दन पूर्ण होने के बाद पाटला पररखी हुई सारी सामग्री तथा पाटला को योग्य स्थान पर स्वयं व्यवस्थित रख देना चाहिए।
प्रभुजी को वधाने की विधि चैत्यवन्दन स्वरूप भावपूजा की समाप्ति होने के बाद सोनाचांदी-हीरा-माणेक-मोती आदि से प्रभुजी के दोनों हाथों
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को वधाया जाता है। वधाने के लिए उपरोक्त मँहगी सामग्री लाना सम्भव न हो तो चांदी अथवा सोने के रंग का वरख चढाए हुए कमल के आकार के फूल तथा सच्चे मोती व चावल से वधाया जा सकता है। साथिया आदि के चावल में से (पाटला पर से) चावल लेकर नहीं वधाया जा सकता है।
दोनों हाथों में वधाने योग्य इस तरह प्रभुजी को सामग्री लेकर बोलने योग्य बधाया जाता है। भाववाही दोहे: • "श्री पार्श्व पंचकल्याणक पूजा के गीत". "उत्सव रंग वधामणां, प्रभु पार्श्वने नामे ॥ कल्याण उत्सव कियो, चढ़ते परिणामे, शत वर्षायु जीवीने अक्षय सुख स्वामी ॥
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तुम पद सेवा भक्ति मां, नवि राखुं खामी, साची भक्ते साहिबा, रीझो एक वेळा ॥ श्री शुभवीर हुवे सदा, मनवांछित मेला " • वधाते हुए दोहे बोले
तीरथ पद ध्यावो गुण गावो, पंचरंगी रयण मिलावो रे ॥ थाल भरी भरी मोतीडे वधावो, गुण अनंत दिल लावो रे ॥ भलुं थयुं ने अमे प्रभु गुण गाया, रसना नो रस पीधो रे ॥ रावण राये नाटक कीधो, अष्टापद गिरि उपर रे ॥ थैया थैया नाटक करतां, तीर्थंकर पद लीधुं रे ॥ मंदिर के बाहर निकलते समय की विधि • प्रभुजी के सम्मुख दृष्टि रखकर हृदय में प्रभु का वास कराते हुए, प्रभुजी को अपनी पीठ नहीं दिखाई पड़े, इस प्रकार आगे-पीछे तथा दोनों ओर भली-भांति ध्यान रखते हुए पूजा की सामग्री के साथ पीछे की ओर चलते हुए प्रवेश द्वार के पास स्थित मनोहर घंट के पास आना चाहिए।
• प्रभुजी की भक्ति करने से उत्पन्न असीम आंतरिक आनन्द तथा शान्ति के अनुभव को प्रगट करने के लिए अन्य आराधको को अंतराय न हो, इस प्रकार तीन बार घंटनाद
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घण्टनाद
इस तरह प्रभुजी से पीछे मुडते समय चलना चाहिए।
करना चाहिए। घंटनाद के बाद बिना पलक झपकाए अनिमेष दृष्टि से प्रभु की नि:स्पृह करुणादृष्टि का अमीपान करते करते अत्यन्त दुःखपूर्वक प्रभु का सान्निध्य छोड़कर पाप से भरे संसार में वापस जाना पड़ रहा हो, इस प्रकार खेद प्रगट करते हुए पीछे पैर रखते हुए प्रवेशद्वार की ओर जाना चाहिए। मौन-धारण, जयणापालन, दुःखार्त हृदय आदि का सहजता से अनुभव करते हुए आराधक के नेत्र अश्रुपूर्ण हो जाएँ, यह भी
सम्भव है। (105)
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न्हवण जल लगाने की विधि
मंदिर में प्रवेशद्वार के पास किसी भी दिशा से प्रभु की दृष्टि न पड़े, ऐसी जगह पर स्वच्छ कटोरे में ढक्कन के साथ न्हवण जल रखना चाहिए। अपने शरीर को न्हवण जल का स्पर्श कराने के कारण, उस समय प्रभुजी की दृष्टि पड़े, तो अनादर होता है। साधन छोटा हो तो उस
साधन के नीचे भी एक पांचो अंगो में न्वहण जल लगाए। थाली रखनी चाहिए।
न्हवणजल को अनामिका ऊँगली से स्पर्श कर क्रमश: प्रत्येक अंग पर लगाना चाहिए। प्रभुजी के अंग को स्पर्श कर परम पवित्र हुआ न्हवण जल
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जमीन पर नहीं गिरना चाहिए। न्हवण जल को दाहिनी तथा बांई आँख को स्पर्श करते समय यह भावना रखनी चाहिए कि "मेरी आँखों में रहनेवाली दोष दृष्टि तथा काम विकार इसके प्रभाव से दूर हो।" उसके बाद दोनों कानों में स्पर्श करते हुए ऐसी भावना रखनी चाहिए कि "मेरे अन्दर रहनेवाली परदोषश्रवण तथा स्वगुणश्रवण के दोष दूर होकर जिनवाणी के श्रवण मे मेरी रुचि जाग्रत हो।" उसके कंठ में स्पर्श करते हुए यह भावना रखनी चाहिए कि "मुझे स्वाद पर विजय प्राप्त हो, परनिन्दा-स्वप्रशंसा के दोष को निर्मूल होने के साथ गुणीजनों के गुण गाने की सदा तत्परता मिले।" उसके बाद हृदय में स्पर्श करते हुए ऐसी भावना रखनी चाहिए कि “मेरे हृदय में सभी जीवों के प्रति मैत्रीभाव उत्पन्न हो तथा हे प्रभुजी ! आपका तथा आपकी आज्ञा का सदैव वास बना रहे।" तथा अन्त में नाभिकमल में स्पर्श कराते हुए यह भावना रखनी चाहिए कि "मेरे कर्ममल मुक्त आठ रुचक प्रदेश की भांति सर्व-आत्मप्रदेश सर्वथा सर्व कर्म मल मुक्त हो।" ऐसी भावना केशर तिलक अपने अंगो मे करते समय भी रखनी चाहिए। न्हवण जल नाभि के नीचे के अंगों में नहीं लगानी चाहिए।
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________________ चबूतरे पर बैठने की विधि प्रभुजी अथवा मंदिर की ओर पीठ न रहे, इस प्रकार बैठना चाहिए। * रास्ता अथवा सीढी छोड़कर एक ओर मौन धारण कर बैठना चाहिए। आँखें बंद करमन में तीन बार श्री नवकार मन्त्र का जाप कर हृदय में प्रभुजी का दर्शन करना चाहिए। मेरा दुर्भाग्य है कि प्रभुजी को छोड़कर घर जाना पड़ रहा है, ऐसा भाव रखकर खड़ा होना चाहिए। (108)