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________________ मेरे मन की तुम सब जानो, क्यां मुख बहोत कहुं... जिन तेरे... ॥४॥ कहे 'जस' विजय करो त्युं साहिब, जयुं भवदुःख न लहुं ... जिन तेरे ॥५॥ (चैत्यवंदन में बताई बातें स्तवन में भी समजना।) शास्त्रीय शुद्ध राग में पूर्वाचार्यों के द्वारा रचित अथवा स्वयं द्वारा रचित स्तवन मंदस्वरमें, दूसरों को अंतरायभूत न पहोचे इस प्रकार सुमधुर कंठ से भावविभोर होकर गाना चाहिए। मंदिर में प्रभुजी के समक्ष पर्युषण आदि पर्वो के स्तवन (जैसे- सुणजो साजन संत... अष्टमी तिथि सेवो रे...) तथा तीर्थ की महिमा के (जैसे-विमलाचल नितु वंदिए...) वर्णन करनेवाले स्तवन नही गाने चाहिए। प्रभु गुण वैभव का वर्णन तथा स्वयं के दोषों का स्वीकार जिसमें हो, ऐसे अर्थ सहित स्तवन प्रभुजी के समक्ष गाना चाहिए । फिल्मी तर्ज वाले स्तवन गाने ईस तरह अरिहंत चेईयाणं' करे। (94)
SR No.009609
Book TitleSachitra Jina Pooja Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamyadarshanvijay, Pareshkumar J Shah
PublisherMokshpath Prakashan Ahmedabad
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size2 MB
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