Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मल्लिनाथ पुराण (आचार्य श्री सकलकीर्ति जी कृत मूल ग्रंथ का हिन्दी रूपान्तरण) प्रकाशक वीतराग वाणी दस्ट रजिस्टर्ड मुहल्ला सैल सागर, टीकमगढ़ (म. प्र.)-472001 For Pilvate & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NO※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※ | MIT刊:|| श्री मल्लिनाथ पुराण (आचार्य श्री सकलकीर्ति जी कृत मूल ग्रंथ का हिन्दी रूपान्तरण) हिन्दी टीका-पं. श्री गजाधरलाल जी न्यायाचार्य Osa米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米30號 MOK※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※ COVE (4 ) प्रकाशक वीतराग वाणी ट्रस्ट (रजिस्टर्ड) 「 MAT, Ab (T. ) पिन- ४७२००१ 53※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※金 Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मल्लिनाथ पुराण (श्री सकलकीर्ति आचार्य कृत ) ० हिन्दी टीका पं. श्री गजाधरलाल जी न्यायाचार्य सम्पादन प्रतिष्ठाचार्य पं. विमलकुमार जैन सोंरया प्रधान सम्पादक- वीतराग वाणी 'मासिक' सैलसागर, टीकमगढ़ (म.प्र.) • महावीर निर्वाण दिवस : २००२ ० द्वितीयावृत्ति १००० ० मूल्य : ४५.०० रुपए ISBN No. 81-88313-14-9 प्रकाशक वीतराग वाणी ट्रस्ट (रजिस्टर्ड ) मुहल्ला सैलसागर, टीकमगढ़ (म.प्र.) ४७२००१ ० मुद्रक पं. बर्द्धमानकुमार जैन सोंरया अरिहंत आफसेट प्रिंटर्स सैलसागर, टीकमगढ़ (म.प्र.) फोन- 07683-42592 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मल्लिनाथ पुराण के मूल रचयिता भगवंत आचार्य श्री सकलकीर्ति जी का (संक्षिप्त जीवन परिचय) विपुल साहित्य निर्माण की दृष्टि से आचार्य सकलकीर्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इन्होंने संस्कृत एवं प्राकृत वांगमय को संरक्षण ही नहीं दिया, अपितु उसका पर्याप्त प्रचार और प्रसार किया । आचार्य सकलकीर्ति ने प्राप्त आचार्य परम्परा का सर्वाधिक रूप में पोषण किया है। तीर्थयात्राएँ कर जनसामान्य में धर्म के प्रति जागरूकता उत्पन्न की और नवमंदिरों का निर्माण कराकर प्रतिष्ठाएँ करायीं । आचार्य सकलकीर्ति ने अपने जीवनकाल में १४ बिम्ब प्रतिष्ठाओं का संचालन किया था । गलिया कोट में संघपति मूलराज ने इन्हीं के उपदेश से चतुर्विंशति जिनबिम्ब की स्थापना की थी । नागद्रह जाति के श्रावक संघपति ठाकुरसिंह ने भी कितनी ही विम्ब प्रतिष्ठाओं में योग दिया । आबू में इन्होंने एक प्रतिष्ठा महोत्सव का संचालन किया था, जिसमें तीन चौबीसी की एक विशाल प्रतिमा परिकर सहित स्थापित की गयी थी। निःसन्देह आचार्य सकलकीर्ति का असाधारण व्यक्तित्व था । तत्कालीन संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी आदि भाषाओं पर अपूर्व अधिकार था। भट्टारक सकलभूषण ने अपने उपदेशरलमाला नामक ग्रन्थ की प्रशस्ति में सकलकीर्ति को अनेक पुराण ग्रन्थों का रचयिता लिखा है। भट्टारक शभचन्द्र ने भी सकलकीर्ति को पुराण और काव्य ग्रन्थों का रचयिता बताया है। आचार्य सकलकीर्ति का जन्म वि.सं. १४४३ (ई. सन् १३८६) में हुआ था। इसके पिता का नाम कमसिंह और माता का नाम शोभा था । ये हूंवड़ जाति के थे और अणहिलपुर पट्टन के रहनेवाले थे । गर्भ में आने के समय माता को स्वप्नदर्शन हुआ था । पति ने इस स्वप्न का फल योग्य, कर्मठ और यशस्वी पुत्र की प्राप्ति होना बतलाया था। बालक का नाम माता-पिता ने पूर्णसिंह या पूनसिंह रखा था । एक पट्टावली में इनका नाम 'पदार्थ' भी पाया जाता है। इनका वर्ण राजहंस के समान शुभ और शरीर ३२ लक्षणों से युक्त था । पाँच वर्ष की अवस्था में पूर्णसिंह का विद्यारम्भ संस्कार सम्पन्न किया गया । कुशाग्रबुद्धि होने के कारण अल्पसमय में ही शास्वाभ्यास पूर्ण कर लिया। माता-पिता ने १४ वर्ष की अवस्था में ही पूर्णसिंह का विवाह कर दिया । विवाहित हो जाने पर भी इनका मन सांसारिक कार्यों के बन्धन में बंध न सका । पुत्र की इस स्थिति से माता-पिता को चिन्ता उत्पन्न हुई और उन्होंने समझाया-“अपार सम्पत्ति है, इसका उपभोग युवावस्था में अवश्य करना चाहिये । संयम प्राप्ति के लिए तो अभी बहुत समय है। यह तो जीवन के चौथे पन में धारण किया जाता है। कहा जाता है कि माता-पिता के आग्रह से ये चार वर्षों तक घर में रहे और १८ वें में प्रवेश करते ही वि. सं. १४६३ (ई. सन् १४०६) में समस्त सम्पत्ति का त्याग कर भट्टारक पद्मनन्दि के पास नेणवां में चले गये । भट्टारक यशः कीर्ति शास्त्रभण्डार की पट्टावली के अनुसार ये २६ वें वर्ष में नेणवां गये थे । ३४ वें वर्ष में आचार्य पदवी धारण कर अपने प्रदेश में वापस आये और धर्मप्रचार करने लगे । इस समय ये नग्नावस्था में थे। . आचार्य सकलकीर्ति ने बागड़ और गुजरात में पर्याप्त भ्रमण किया था और धर्मोपदेश देकर श्रावकों में धर्मभावना जागृत की थी। उन दिनों में उक्त प्रदेशों में दिगम्बर जैन मन्दिरों की संख्या भी बहुत कम थी तथा साधु के न पहुंचने के कारण अनुयायियों में धार्मिक शिथिलता आ गयी थी। अतएव इन्होंने गांव-गांव में विहार कर लोगों के हृदय में स्वाध्याय और भगवद्भक्ति की रुचि उत्पन्न की। Jain Education international Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलात्कारगण इडर शाखा का आरम्भ भट्टारक सकलकीर्ति से ही होता है। ये बहुत ही मेधावी, प्रभावक, ज्ञानी और चरित्रवान थे । बागड़ देश में जहाँ कहीं पहले कोई भी प्रभाव नहीं था, वि. सं. १४९२ में गलियाकोट में भट्टारक गद्दी की स्थापना की तथा अपने आपको सरस्वतीगच्छ एवं बलात्कारगण से सम्बोधित किया । ये उत्कृष्ट तपस्वी और रत्नावली, सर्वतोभद्र, मुक्तावली आदि व्रतों का पालन करने में सजग थे। स्थिति काल- भट्टारक सकलकीर्ति द्वारा वि. सं. १४९० (ई. सन् १४३३) वैशाख शुक्ला नवमी शनिवार को एक चौबीसी मूर्ति; विक्रम संवत् १४९२ (ई. सन् १४३५) वैशाख कृष्ण दशमी को पार्श्वनाथ मूर्ति; सं. १४९४ (ई. सन् १४३७) वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को आबू पर्वत पर एक मन्दिर की प्रतिष्ठा करायी गयी; जिसमें तीन चौबीसी की प्रतिमाएं परिकर सहित स्थापित की गयी थीं । वि. सं. १४९७ (ई. सन् १४४०) में एक आदिनाथ स्वामी की मूर्ति तथा वि. सं. १४९९ (ई. सन् १४४२) में सागबाड़ा में आदिनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा की थी। इसी स्थान में आपने भट्टारक धर्मकीर्ति का पटटाभिषेक भी किया था। भट्टारक सकलकीर्ति ने अपनी किसी भी रचना में समय का निर्देश नहीं किया है, तो भी मुर्तिलेख आदि साधनों के आधार पर से उनका निधन वि. सं. १४९९ पौष मास में महसाना (गुजरात) में होना सिद्ध होता है । इस प्रकार उनकी आयु ५६ वर्ष की आती है । 'भट्टारक सम्प्रदाय' ग्रन्थ में विद्याधर जोहरापुरकर ने इनका समय वि. सं. १४५०-१५१० तक निर्धारित किया है । पर वस्तुत: इनका स्थितिकाल वि. सं. १४४३-१४९९ तक आता है। रचनाएँ- आचार्य सकलकीर्ति संस्कृत भाषा के प्रौढ़ पंडित थे । इनके द्वारा लिखित निम्नलिखित रचनाओं की जानकारी प्राप्त होती है-- १. शान्तिनाथ चरित २. वर्द्धमान चरित ३. मल्लिनाथ चरित ४. यशोधर चरित ५. धन्यकुमार चरित ६. सुकमाल चरित ७. सुर्दशन चरित ८, जम्बूस्वामी चरित ९. श्रीपाल चरित १०. मूलाचार प्रदीप ११. प्रश्नोत्तरोपासकाचार १२. आदिपुराण-वृषभनाथ चरित १३. उत्तर पुराण १४. सद्भाषितावली-सूक्तिमुक्तावली १५. पार्श्वनाथ पुराण १६. सिद्धान्तसार दीपक १७. व्रत कथाकोष १८. पुराणसार संग्रह १९. कर्मविपाक २०. तत्त्वार्थसार दीपक २१. परमात्मराज स्तोत्र २२.आगमसार २३. सारचतुर्विशतिका २४. पंचपरमेष्ठी पूजा २५. अष्टाह्निका पूजा २६. सोलहकारण पूजा २७. द्वादशानुप्रेक्षा २८, गणधरवलय पूजा २९. समाधिमरणोत्साह दीपक । राजस्थानी भाषा में लिखित रचनाएँ- १. आराधनाप्रतिबोधसार २. नेमीश्वर-गीत ३. मुक्तावली-गीत ४. णमोकार-गीत ५. पार्श्वनाथाष्टक ६. सोलहकारण रासो ७. शिखामणिरास ८. रलत्रयरास । निःसन्देह आचार्य सकलकीर्ति अपने युग के प्रतिनिधि लेखक हैं । इन्होंने अपनी पुराण विषयक कृतियों में आचार्य परम्परा द्वारा प्रवाहित विचारों को ही स्थान दिया है । चरित्रनिर्माण के साथ सिद्धान्त, भक्ति एवं कर्मविषयक रचनाएँ परम्परा के पोषण में विशेष सहायक हैं । सिद्धान्तसारदीपक, तत्त्वार्थसार, आगमसार, कर्मविपाक जैसी रचनाओं से जैनधर्म के प्रमुख सिद्धान्तों का उन्होंने प्रचार किया है । मुन्याचार और श्रावकाचार पर रचनाएँ लिखकर उन्होंने मुनि और श्रावक दोनों के जीवन को मर्यादित बनाने की चेष्टा की है । इनकी हिन्दी में लिखित 'सारसीखामणिरास' और 'शान्तिनाथफाग' अच्छी रचनाएँ हैं । इनमें विषय का प्रतिपादन बहुत ही स्पष्ट रूप में हुआ है। __ "तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा" (लेखक स्व. डॉ. नेमिचन्द्र ग्योतिषाचार्य ग्रंथ से साभार) Jain Education international Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प्राक्कथन आज से २६०० वर्ष पूर्व इस भूमण्डल पर तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का अवतरण हुआ था । वह तन और मन दोनों से अद्भुत सुन्दर थे । उनका उन्नत व्यक्तित्व लोक कल्याण की भावना से युक्त था । उन्होंने कामनाओं और वासनाओं पर विजय पाकर प्राणीमात्र के कल्याण के लिए उज्जवल मार्ग प्रशस्त किया । वह कर्मयोग की साधना के शिखर थे । उनके व्यक्तित्व में साहस सहिष्णुता का अपूर्व समावेश था । उन्होंने मानवीय मूल्यों को स्थिरता प्रदान करते हुए, प्राणियों में निहित शक्ति का उदघाटन कर उन्हें निर्भय बनाया । तथा अज्ञानांधकार को दूर कर सत्य और अनेकान्त के आलोक से जन नेतृत्व किया । उनका संवेदनशील हृदय करुणा से सदा द्रवित रहता था । हिंसा, असत्य, शोषण, संचय और कुशील से संत्रस्त मानवता की रक्षा की, तथा वर्वर्तापूर्वक किए जाने वाले जीवों के अत्याचारों को दूर कर अहिंसा मैत्री भावना का प्रचार किया । उनकी तपः साधना विवेक की सीमा में समाहित थी । अतः सच्चे अर्थों में वह दिव्य तपस्वी थे । वह प्राणीमात्र का उदय चाहते थे । तथा उनका सिद्धान्त था, कि दूसरों का बुरा चाहकर कोई अपना भला नहीं कर सकता है । कार्य, गुण, परिश्रम, त्याग, संयम ऐसे गुण हैं जिनकी उपलब्धि से कोई भी व्यक्ति महान बन सकता है। उनका जीवन आत्म कल्याण और लोकहित के लिए बीता । लोक कल्याण ही उनकी दृष्टि और लक्ष्य था । उनका संघर्ष बाह्य शत्रुओं से नहीं अन्तरंग काम क्रोध वासनाओं से था । वह तात्कालीन समाज की कायरता, कदाचार, और पापाचार को दूर करने के लिए कटिवद्ध रहते थे। उनके अपार व्यक्तित्व में स्वावलम्बन की वृत्ति तथा स्वतंत्रता की भावना पूर्णतः थी। उन्होंने अपने ही पुरुषार्थ से कर्मों का नाश किया । उनका सन्देश था कि जीवन का वास्तविक विकास अहिंसा के आलोक में ही होता है। यह कथन अपने जीवन में चरितार्थ कर साकार किया । दया प्रेम और विनम्रता ने महावीर की अहिंसक साधना को सुसंस्कृत किया । उनके क्रान्तिकारी व्यक्तित्व से कोटि कोटि मानव कतार्थ हो गए । भगवान महावीर में बाहय और आभ्यांतर दोनों ही प्रकार के व्यक्तित्वों का अलौकिक गुण समाविष्ट था । उनके अनन्त ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य गुणों के समावेश ने उनके आत्म तेज को अलौकिक बना दिया था। उनके व्यक्तित्व में नि:स्वार्थ साधक के समस्त गुण समवेत थे। अहिंसा ही उनका साधना सूत्र था । अनंत अन्तरंग गुण उनके आभ्यांतर व्यक्तित्व को आलोकित करते थे। वह विश्व के अद्वितीय क्रान्तिकारी तत्वोपदेशक और जन नेता थे । उनका व्यक्तित्व आद्यन्त क्रान्तिकारी त्याग तपस्या संयम अहिंसा आदि से अनुप्रमाणित रहा । भगवान महावीर स्वामी द्वारा प्रबोधित द्वादशांग वाणी ही जैनागम है समस्त जैनागम को चार भागों में विभक्त किया गया है जिन्हें चार अनुयोग भी कहते हैं इनसे सम्पूर्ण श्रुत का ज्ञान जानना चाहिए । श्रुत विभाजन की आंशिक जानकारी निम्नानुसार है:- प्रथमानुयोग- इस अनुयोग अन्तर्गत कथाएँ, चरित्र व पुराण हैं । यह सम्यक् ज्ञान है । इसमें परमार्थ विषय का अथवा, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चार पुरुषार्थों का, त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र का कथन है । दृष्टिवाद के तीसरे भेद अनुयोग में पांच हजार पद हैं । इसके अन्तर्गत Jain Education international Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवान्तर भेदों में वेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र का वर्णन है । मिथ्यादृष्टि, अव्रती, अल्पज्ञानी व्यक्तियों के उपदेश हेतु यह प्रथमानुयोग मुख्य करणानुयोग- कर्म सिद्धान्त व लोक अलोक दिमाग को, युगों के परिवर्तन को तथा चारों गतियों को दर्पण के समान प्रगट कराने वाला ही सम्यज्ञान है । इस अनुयोग से उपयोग लगता है । पापवृत्ति छूटती है । धर्म की वृद्धि होती है तथा तत्व ज्ञान की प्राप्ति शीघ्र होती है। जीव के कल्याण मार्ग पर चलने केलिए विशेष रूप से यह करणानुयोग है। चरणानुयोग- जीव के आचार विचार को दर्शाने वाला सम्यक्ज्ञान है । यह गृहस्थ और मुनियों के चरित्र की उत्पत्ति, वृद्धि, रक्षा के अंगभूत ज्ञान को चरणानुयोग शास्त्र के द्वारा विशेष प्रकार से जाना जाता है । जीव तत्व का ज्ञानी होकर चरणानुयोग का अभ्यास करता है। चरणानुयोग के अभ्यास से जीव का आचरण एक देश या सर्वदेश वीतराग भाव अनुसार आचरण में प्रवर्तता है। द्रव्यानुयोग- इस अनुयोग में चेतन और अचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्वों का निर्देश रूप कथन है । इसमें जीव, अजीव, सुतत्वों को, पुण्य, पाप, बंध, मोक्ष को तथा भाव श्रुत रूपी प्रकाश को विस्तार से प्रस्तुत किया गया है । इस अनुयोग अन्र्तगत शास्त्रों में मुख्यतः शुद्ध-अशुद्ध जीव, पदगल, धर्म, अधर्म, आकाश काल रूप अजीव द्रव्यों का वर्णन है। जिनको तत्व का ज्ञान हो गया है ऐसा भव्य जीव द्रव्यानुयोग का प्रवृत्ति रूप अभ्यास करता है । इसके अतिरिक्त वस्तु का कथन करने में जिन अधिकारों की आवश्यकता होती है । उन्हें अनुयोग द्वार कहते हैं । इस प्रकार भगवान महावीर स्वामी की परम्परा में गणधर आदि महान पुरुषों ने द्वादशांग रूप दिव्य वाणी का परिबोध इन अनुयोगों के माध्यम से प्रतिपादित किया है । परम्पराचार्यों की वाणी के अनुराधक विद्वत् जनों द्वारा अन्य अन्य विद्याओं के माध्यम से उसे प्रस्तुत किया गया है । जन जन के हितार्थ तथा भव्यों की आत्मा के कल्याणार्थ भगवान महावीर स्वामी के दिव्य २६ सौ वें जन्मोत्सव के पावन प्रसंग पर वीतराग वाणी ट्रस्ट द्वारा छव्वीस ग्रंथों को प्रकाशित करते हुए अपने आपको गौरवशाली अनुभव करता हूँ। हम सब अहोभाग्यशाली हैं कि हम सब के जीवन में अपने आराध्य परमपिता देवाधिदेव अंतिम तीर्थेश भगवान महावीर स्वामी का सन् १९७३ में पच्चीस सौ वां निर्वाण महोत्सव मनाने का परम संयोग मिला था। और सन् २००१ में छब्बीस सौ वां जन्मोत्सव अहिंसा वर्ष के रूप में मनाने का सुयोग साकार हुआ। इस महामानव के सम्मान में भारत सरकार ने भी इसे विश्व स्तर पर अहिंसा वर्ष के रूप में चरितार्थ करने का विश्व स्तर पर जो आयोजन साकार किया है वह विश्व जन मानुष को अवश्य अहिंसा, सत्य के सिद्धान्त का परिज्ञान तो देगा ही उसकी महत्ता को प्रतिपादित करने तथा भगवान महावीर के पवित्र आदर्शों पर चलने की प्रेरणाऐं भी प्रदान करेगा । जहाँ संपादक ने सन् १९७३ में भगवान महावीर स्वामी के २५ सौ वें निर्वाण महोत्सव पर एक सौ वर्ष में देश में हुए दिगम्बर जैन विद्वानों, साहित्यकारों, कविगणों, पण्डितों के अलावा समस्त दिगम्बर जैन महाव्रती जनों के सचित्र जीवन वृत्त उनके उन्नत कृतित्व और अपार व्यक्तित्व के साथ लिखकर विद्वत् अभिनंदन ग्रंथ के रूप में प्रकाशित किया था । आज उन्हीं तीर्थेश भगवान महावीर स्वामी के छब्बीस सौ वें जन्मोत्सव पर उनकी पावन स्मृति में भगवान महावीर स्वामी की परम्परा में जन्में हमारे परमाराध्य परम्पराचार्यों तथा उनके ही आधार पर लिखित मूर्धन्य विद्वानों द्वारा प्रणीत २६ प्रकार के आगम ग्रंथों के मात्र हिन्दी रूपान्तर प्रकाशन के संकल्प को साकार किया है। Jain Education international Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने स्वर्गीय पिता श्रीमान् सिंघई पं. गुलजारीलाल जी जैन सोरया एवं माँ स्व. श्रीमती काशीवाई जी जैन की पावन स्मृति में स्थापित वीतराग वाणी टुस्ट रजिस्टर्ड टीकमगढ़ (म.प्र.) के अन्तर्गत इन ग्रंथों का प्रकाशन साकार किया गया है । भगवान महावीर स्वामी की परम्परा के महानतम आगम आचार्य भगवंत पुष्पदन्ताचार्य, श्रीसकल कीर्ति आचार्य, श्रीवादीभसिंह सूरि, श्री शुभचन्द्राचार्य, श्रीरविषेणाचार्य श्री सोमकीर्ति आचार्य, सिद्धान्त चक्रवर्ति श्री नेमिचन्द्राचार्य जैसे जैन वांगमय के महान आचार्यों के चरणों में त्रिकाल नमोस्तु कर कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं जिनके द्वारा रचित प्रथमानुयोग के मूल ग्रंथों के आधार पर हमारे सुधी विद्वानों ने हिन्दी टीका करके जनसामान्य के लिए सुलभता प्रदान की है । हम उन हिन्दी टीकाकार महान विद्वानों में- श्री पं. भूधरदास जी, श्री पं. दौलतरम जी, श्री पं. परमानंद जी मास्टर, श्री पं. नंदलाल जी विशारद, श्री पं. गजाधरलाल जी, श्री पं. लालाराम जी, श्री पं. श्रीलाल जी काव्यतीर्थ, श्री प्रो. डॉ. हीरालाल जी एवं डॉ. पं. श्री पन्नालाल जी साहित्याचार्य के प्रति कृतज्ञ हैं जिनकी ज्ञान साधना के श्रम के फल को चखकर अनेको भव्यों ने अपना मोक्ष मार्ग प्रशस्त किया । अंत में ट्रस्ट की ग्रंथमाला के सहसम्पादक के रूप में युवा प्रतिष्ठाचार्य विद्वान श्री पं. बर्द्धमानकुमार जैन सोरया, चिं. डॉ. सर्वज्ञदेव जैन सोरया टीकमगढ़, श्रीमती सुनीता जैन एम.एस-सी., एम.ए. बिलासपुर एवं श्रीमती रेखा सोंग्या सम्पादक वीतरागवाणी टीकमगढ़ को आशीर्वाद देता हूँ जिनके निरन्तर अथक श्रम से इन ग्रंथों का शीघ्रता से प्रकाशन सम्भव हो सका । ऐसे अलौकिक समस्त जीवों के उपकारी तीर्थकर महावीर स्वामी के २६ सौ वें जन्म वर्ष की पुनीत स्मृति में उनके ही द्वारा उपदेशित अध्यात्म ज्ञान के अलौकिक ज्ञान पुंज २६ ग्रंथों के प्रकाशन का संकल्प साकार करते हुए अत्यंत प्रमोद का अनुभव कर रहा हूँ। यह ग्रंथ अवश्य भावी पीढ़ियों कों आध्यात्म का मार्ग प्रशस्त करते रहेंगे। आशा है इससे भावी भव्य जन अपना निरन्तर उपकार करते रहेंगे। सैलसागर, टीकमगढ़ (म.प्र.) प्रतिष्ठाचार्य पं. विमलकुमार जैन सोरया "भगवान महावीर निर्वाण दिवस' अध्यक्ष-वीतराग वाणी ट्रस्ट रजि. ४ नवम्बर २००२ प्रधान सम्पादक-वीतरागवाणी मासिक Jain Education international Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (विषय सूची क्रम पद प्रथम परिच्छेद - द्वितीय परिच्छेद - तृतीय परिच्छेद - चतुर्थ परिच्छेद पंचम परिच्छेद - षष्ठं परिच्छेद सप्तम परिच्छेद - रत्नात्रय का वर्णन रत्तात्रय का वर्णन अहमिन्द्र भव का वर्णन भगवान मल्लिनाथ के गर्भ जन्म का वर्णन भगवान मल्लिनाथ की वैराग्य उत्पत्ति वर्णन भगवान मल्लिनाथ का दीक्षाकल्याणक एवं केवलज्ञानकल्याणक का वर्णन भगवान मल्लिनाथ द्वारा धर्मोपदेश एवं निर्वाण गमन का वर्णन 00000 Jain Education international Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. विधान संग्रह (प्रथम भाग ) २. विधान संग्रह (द्वितीय भाग) ३. विधान संग्रह (तृतीय भाग ) ४. वीतराग पूजान्जलि ५. सिद्धचक्र मण्डल विधान ६. चारित्रशुद्धि मंडल विधान ७. अध्यात्म लहरी ( II भाग ) ८. श्री पंचकल्याणक विधान पं. बर्द्धमानकुमार सोरया ६५/ ६५/७५/ " पं. विमलकुमार जी सोंरया ४५/महाकवि श्री सन्तलाल जी ४५/पं. छोटेलाल जी बरैया ५०/श्री सुरेन्द्रसागर प्रचंडिया १५/ब्र. श्री सीतलप्रसाद जी १५/ब्र. श्री शीतलप्रसाद जी १५/पं. ताराचन्द्र जी शास्त्री १५/सम्पादक डॉ. सर्वज्ञदेव जैन १५/अनुवादक आचार्य श्री चन्द्रसागर जी १०/आचार्य श्री चन्द्रसागर जी ३०/आचार्य श्री चन्द्रसागर जी ३०/आचार्य श्री चन्द्रसागर जी २५/आचार्य श्री सोमसेन जी १५/सम्पादक पं. विमलकुमार जी सोरया २०/कवि श्री कुंअरलाल जी ३५/श्री धन्यकुमार जी सुधेश ४०/पं. गोविन्दराय जी शास्त्री ५०/ ९. श्री यागमण्डल विधान १०. श्री शान्तिनाथ विधान ११. भक्तामर संग्रह १२. त्रय छहढाला १३. सहस्वाष्टक चर्चा १४. सन्मति सन्मति दो १५. तास के तेरह पत्ते १६. श्री भक्तामर विधान १७. श्री वास्तु विधान १८. श्री समवशरण विधान १९. परम ज्योति महावीर ( महाकाव्य) २०. कुरल काव्य ( श्री एलाचार्य कृत) २९. मंदिर वेदी मानस्तंभ प्रतिष्ठा विधि २२. त्रिषष्ठि चित्रण दीपिका २३. नन्दीश्वर द्वीप वृहद विधान २४. जैन सिद्धान्त प्रवेशिका वीतराग वाणी ट्रस्ट के लोकोत्तर प्रकाशन ISBN अंतर्गत रजिस्टर्ड समस्त प्रकाशन " पं. विमलकुमार सोरया ४०/प्रतिष्ठा. पं. विमलकुमार सोरया २५/ कविवर श्री जिनेश्वरदास ४०/गुरुणांगुरु श्री गोपालदास जी वरैया १५/ २५. रत्नकरण्ड श्रावकाचार डॉ. पं. पन्नालाल जी ५०/ २६. श्री महावीर पुराण ( स्वामी समन्तभद्र कृत या प्रभाचन्द्र आचार्य की संस्कृत टीका) आचार्य श्री सकलकीर्ति जी ६०/आचार्य श्री सकलकीर्ति जी ७५/आचार्य श्री सकलकीर्ति जी ५५/महाकवि श्री पुष्पदंताचार्य जी ४५/ २७. श्री शान्तिनाथ पुराण २८. श्री कोटिभट श्रीपाल पुराण २९. श्री नागकुमार चरित्र ३०. श्री श्रेणिक चरित्र ३१. श्री प्रद्युम्न चरित्र ३२. श्री पार्श्वनाथ पुराण ३३. श्री मल्लिनाथ पुराण ३४. श्री जीवन्धर चरित्र ३५. श्री पाण्डव पुराण ३६. श्री पदमपुराण जी ३७. श्री विमल पुराण जी ३८. श्री चौवीसी पुराण जी ३९. ज्ञानार्णव आचार्य श्री शुभचंद्र जी ७०/आचार्य श्री सोमकीर्ति जी ६५/आचार्य श्री सकलकीर्ति जी ६५/आचार्य श्री सकलकीर्ति जी ४५/ श्री वादीभसिंह सूरि देव ६५/आचार्य श्री शुभचंद्र जी ८५/आचार्य श्री रविषेण जी ८५/श्री पं. कृष्णदास जी जैन ४५/पं. पन्नालाल जी सा.आ. ७५/आचार्य शुभचन्द्र देव कृत ८५/सम्पा. पं. जवाहरलाल सि. शास्त्री ८५/श्री नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ति ५५/हिन्दी टीका- डॉ. लालचंद्र जैन ५५/गीत सम्राट गोविन्दास पालीवाले ३५/ ४०. श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक ४१. श्री वृहद् द्रव्य संग्रह ४२. कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४३. वीतराग गीतांजलि प्राप्ति स्थान : डा. सर्वज्ञदेव जैन, मंत्री वीतराग वाणी ट्रस्ट (रजिस्टर्ड ) मुहल्ला सैलसागर, टीकमगढ़ (म.प्र.) ४७२००१ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्वाध्याय करते समय इसे पढ़ना आवश्यक है । ॐ नमः सिद्धेभ्यः ओंकार बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव, ओंकाराय नमो नमः ॥१॥ अविरलशब्दघनौघ प्रक्षालितसकलभूतलकलंका । मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥२॥ अज्ञानतिमिरांधानां ज्ञानांजनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ श्रीपरमगुरवे नमः, परम्पराचार्य श्रीगुरवे नमः | संकलकलुषविध्वंसकं श्रेयसां परिवर्धकं धर्म संबंधकं भव्यजीवमनः प्रतिबोधकारकमिदं शास्त्रं “श्री मल्लिनाथ पुराण" नामधेयं, एतन्मूलग्रन्थकर्त्तारः श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रंथकर्त्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचोऽनुसारमासाद्य श्री सकलकीर्ति आचार्येण विरचितम् । मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो जैन धर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ सर्व मंगल्य मांगल्यं सर्व कल्याण कारकं । प्रधानं सर्व धर्माणां जैनं जयतु शासनम् ॥ सर्वे श्रोतारः सावधानतया श्रृण्वन्तु ॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A . 2 ॥ श्री मल्लिनाथाय नमः ॥ श्री मल्लिनाथ पुराण भाषाकार का मंगलाचरण सर्वविघ्न हर्ता प्रभु मल्लिनाथ जिनराज । जिन मंगल कारण नमूं धारि माथ पद आज ॥१॥ ज्ञान योग तप लीन नित रहित परिग्रह धीर । विषय वासना विमुख गुरु मेटो मम भवपीर ॥२॥ बन्दूँ वाणी भगवती स्याद्वादमय शुद्ध । जा प्रसादतें होत हैं भव्यजीव प्रतिबुद्ध ॥३॥ ग्रन्थाकार का मंगलाचरण नमः श्रीमल्लिनाथाय कर्ममल्ल विनाशिने । अनन्तमहिमाप्ताय त्रिजगत्स्वामिनेऽनिशम् ॥१॥ शेषान् सर्वान् जिनान्वन्दे धर्मचक्रप्रवर्तकान् । विश्वभव्यहितोयुक्तान पंचकल्याणनायकान् ॥२॥ गुणाष्टकमयान् सिद्धास्त्रैलोक्याग्रनिवासिनः । ध्येयान् मुन्यादिभव्यौघैः स्मरामि हृदये सदा ॥३॥ आर्हती भारती पूज्या लोकालोकप्रदीपिका । रजोविधूयने नियं तनोतु विपुलं मतिं ॥४॥ आचार्यान् पाठकान् साधून् गुरुनाचारतत्परान् । श्रुताब्धीन शिरसा वन्दे सर्वांश्च योगसाधकान् ॥५॥ रत्नत्रयं नमस्कृत्य कर्मघ्नं शर्मसागरं । रत्नत्रयविधान फलसूचनहे तवे ॥६॥ मल्लिनाथजिनेन्द्रस्य चरित्रं पावनं परं । समासेन प्रवक्ष्यामि स्वान्ययो हितसिद्धये ॥७॥ जिनका जीतना बड़े क्लेश से हो सकता है, ऐसे ज्ञानावरण आदि कर्मरूपी मल्लों को जड़ से नष्ट करनेवाले, अनन्तविज्ञान, अनन्तवीर्य, अनन्तसौख्य एवं अनन्तदर्शन स्वरूप अनन्त चतुष्टय महिमा के धारक एवं Jain Education international Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शि तीनलोक के स्वामी भगवान मल्लिनाथ को मैं ग्रन्थकार (श्री सकलकीर्ति भट्टारक) सदा मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ ।। १।। भगवान मल्लिनाथ से पूर्व जो ऋषभ आदि तीर्थंकर हैं, उन्हें भी मैं ग्रन्थ के आदि में मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि वे समस्त तीर्थंकर भी भगवान मल्लिनाथ के ही सदृश धर्मचक्र के प्रवर्तक हैं । मोक्षाभिलाषी | समस्त जीवों को हितकारी मार्ग (मोक्षमार्ग) में लगानेवाले हैं एवं गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान एवं निर्वाण--इन पाँचों कल्याणकों के नायक हैं ।।२।। ज्ञानावरण-दर्शनावरण आदि घातिया-अघातिया कर्मों के नाश से प्राप्त सम्यक्त्व आदि | आठों गुणों के स्वामी, तीन लोक के अग्रभाग में विराजने वाले एवं मोक्षाभिलाषी भव्य जीव सदा जिनकी आनन्दमयी | मूर्ति का ध्यान करते हैं, उन सिद्ध भगवान का मैं भी अपने हृदय में स्मरण करता हूँ ।।३।। लोक एवं अलोक को स्पष्ट रूप से प्रकाशित करनेवाली एवं अरहन्त भगवान की दिव्य-ध्वनि से प्रकाशवान भगवती सरस्वती की भी मैं ग्रन्थ की आदि में अभिवन्दना करता हूँ तथा उनसे विनयपूर्वक यह प्रार्थना करता हूँ कि वह विघ्नों का नाश करने में मेरी बुद्धि को सदा प्रबल तथा निर्मल बनावें ।।४।। ग्रन्थ की आदि में आचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधुओं को भी मेरा || मस्तक झुकाकर नमस्कार है; क्योंकि ये पवित्रात्मा, ज्ञानाचार आदि आचारों के आचरण करनेवाले हैं-आगम के समुद्र हैं तथा ध्यान के धारण में प्रवीण हैं ।।५।। समस्त कर्मों का नाश करनेवाले तथा अनेक प्रकार के कल्याणकों के समुद्र उस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र स्वरूप रत्नत्रय को भी मैं प्रणाम करता हूँ तथा हृदय में यह तीव्र अभिलाषा रखता हूँ कि वह कल्याणकारी रत्नत्रय मुझे भी प्राप्त हो ।।६।। इस प्रकार कल्याण के कर्ता समस्त इष्ट देवों को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर मैं उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ के चरित्र का संक्षेप में वर्णन करता हूँ जो कि अत्यन्त पवित्र है तथा अपना एवं पराया हित सिद्ध करनेवाला है ।।७।। इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में धर्म का समुद्र अर्थात् जहाँ पर सदा वास्तविक धर्म की प्रवृत्ति रहती है, ऐसा कच्छकावती नाम का प्रसिद्ध देश है ।।८।। इस कच्छकावती देश के गाँव, खेट, पत्तन, पुर, मटम्ब आदि में || २ जगह-जगह जिन-मन्दिर शोभायमान हैं एवं मोक्षाभिलाषी धर्मात्मा लोगों के निवास स्थान बने हुए हैं--उनसे यह देश अत्यन्त मनोहर जान पड़ता है।।६।। इसी कच्छकावती देश के महामनोहर, अविनाशी, ऊँचे एवं नाना प्रकार के फलों से शोभायमान उद्यानों एवं वनों में जगह-जगह मुनिराज दीख पड़ते हैं जो कि घोर परीषहों के सहने में परम धीर-वीर 44444 ॐ ॐ 944 Jain Education international For Privale & Personal use only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ हैं एवं सदा ध्यान में लवलीन हैं ।।१०।। इसी कच्छकावती देश में असंख्यात भगवान जिनेन्द्र उत्पन्न होते हैं । असंख्यात ही चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण एवं कामदेव उत्पन्न होते हैं, जिनका बड़े-बड़े देव पूजा एवं सत्कार करते हैं ।।११।। इस कच्छकावती देश में केवल एक जैन-धर्म ही की प्रवृत्ति रहती है जो सदा दयास्वरूप है, यति एवं श्रावकों की विद्यमानता से जो शाश्वत है--सदाकाल विद्यमान रहता है एवं सारभूत है, किन्तु जैन-धर्म के सिवाय अन्य किसी धर्म की इस देश में प्रवृत्ति नहीं रहती ।।१२।। इस कच्छकावती देश में मोक्षाभिलाषी जीवों को धर्म का उपदेश सुनाने के लिए सदा, मुनिराज, गणधर एवं केवलियों का विहार होता रहता है । कुलिंगी अथवा मिथ्यात्वी । साधुओं का यहाँ पर विहार नहीं होता ।।१३।। इस देश में जहाँ देखो वहाँ ग्राम एवं नगर आदि में ऊँचे-ऊँचे जिन-मन्दिर ही दीख पड़ते हैं, मिथ्यादृष्टि देवों के मन्दिर कहीं भी दिखलाई नहीं पड़ते ।।१४।। इस देश में भगवान जिनेन्द्र के धर्म में सदा लवलीन क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र--तीनों वर्गों की प्रजा निवास करती है, यह प्रजा भगवान जिनेन्द्र एवं गुरुओं में सदा श्रद्धातु है एवं सदा उत्तम आचरण की करनेवाली है ।।१५।। इस देश में जहाँ सुनो वहाँ पर | भगवान जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित बारह अंग एवं चौदह पूर्व ही सत्पुरुषों के द्वारा सुनने में आते एवं पढ़े जाते हैं, मिथ्या शास्त्रों का वहाँ पर सुनना एवं पढ़ना नजर नहीं आता ।।१६।। विशेष क्या ? इस देश में उत्पन्न होनेवाले महानुभाव जप, तप, व्रत एवं दान आदि के द्वारा सुलभरूप से न प्राप्त होनेवाले स्वर्ग एवं मोक्ष को भी प्राप्त कर लेते हैं, तब इससे अधिक उसकी कीर्ति का क्या वर्णन हो सकता है ।। १७।।। इस प्रकार के उत्तम वर्णन के धारक एवं समीचीन धर्म एवं उत्तमोत्तम कुलों के स्थान उस कच्छकावती देश में एक वीतशोका नाम की नगरी है जो कि अपनी शोभा से देवपुरी--स्वर्ग समान जान पड़ती है ।।१८।। विस्तीर्ण खाईयाँ, मनोहर ऊँचे-ऊँचे परकोट, सदर दरवाजे एवं तोरणों (वन्दनमालाओं) से वह नगर अत्यन्त शोभित होता है, सो ऐसा जान पड़ता है मानो वेदी एवं समुद्र से वेष्टित यह जम्बूद्वीप ही है ।।१६।। उत्तमोत्तम धनिकों को अटारियों के अग्रभाग में लगी हुई एवं पवन के झकोरों से दोलायमान जो ध्वजायें हैं, (उनसे ऐसा जान पड़ता था) मानो वे ही उठे हुए हाथ उस नगर की भूमि देवों को यह जतला कर बुला रही है कि भाई देवों ! यदि तुम्हें अपने निजस्थान स्वर्ग से मोक्ष की प्राप्त नहीं होती है तो तुम यहाँ से उसे प्राप्त करो। अतएव वह नगर अत्यन्त शोभायमान जान पड़ता था ।।२०।। Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fb PF उस नगर में यह बड़े ही आनन्द की बात थी कि बहुत से दानी पुरुष आहार की वेला के समय मुनियों को आहारदान देने के लिए अपने-अपने गृहों के द्वार देखते थे अर्थात् द्वाराप्रेक्षण करते थे एवं कोई-कोई मुनिरूप महापात्र (उत्तम पात्र) को भक्तिपूर्वक उत्तम दान देते थे ।।२१।। किन्हीं-किन्हीं पुण्यात्माओं के गृह में इस दान से अर्जित पुण्य से रत्नों की वर्षा होती थी एवं कोई-कोई पुरुष सत्पात्र को न पाकर दुःखित हो पश्चाताप भी करते थे ।।२२।। इस वीतशोका नगरी में दिव्यरूप के धारक स्त्री-पुरुषों के जोड़े जिस समय में जिन-मन्दिरों में भगवान जिनेन्द्र की पूजा में संलग्न होते थे, उस समय वे देव-देवियों के युगल (जोड़े) सरीखे जान पड़ते थे ।।२३।। धर्म की खान के सदृश उस नगर || की ऊँची-ऊँची एवं सुवर्णमयी जिन-मन्दिरों की श्रेणियाँ अपने मणिमयी तोरणों से, ऊँचे-ऊँचे मणिमयी प्रतिबिम्बों से, दैदीप्यमान रत्नमयी उपकरणों से गीत-नृत्य-वाद्य एवं स्तवनों से स्त्रियों एवं उत्तमोत्तम पुरुषों से अत्यन्त शोभायमान जान पड़ती थीं ।।२४-२५।। विशेष क्या ? धर्म की खान स्वरूप उस नगर में मोक्ष की प्राप्ति के लिए बड़े-बड़े ऋद्धि के धारक इन्द्र भी जन्म धारण करने की अभिलाषा करते थे, इसलिए उस नगर का जितना भी अधिक वर्णन किया जाए--वह थोड़ा है ।।२६।। इस प्रकार उत्तम वर्णन के धारक एवं धर्म के प्रधान कारण उस वीतशोका नगरी में वैश्रवण नाम का एक राजा था जो कि अत्यन्त प्रतापी होने पर भी धर्मात्मा था । कमनीय रूप एवं लावण्य से, महामनोहर वस्त्र एवं भूषणों से एवं दानशीलता एवं व्रतोपासना से वह राजा अत्यन्त शोभायमान था तथा इन्द्र के सदृश परम नीतिवान था। प्रधानरूप से वह प्रजाजन के कल्याण का करनेवाला था । वह सदा न्यायमार्ग का अनुसरण करनेवाला था, महान् था । वह समस्त शत्रुओं का विजेता एवं चतुर था तथा अपने राज्य का सुचारु रूप से पालन करता था। उस वैश्रवण राजा को यह सदा ध्यान रहता था कि धर्म से धन की प्राप्ति होती है। धन से काम पुरुषार्थ सिद्ध होता है एवं क्रम से मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि होती है, ऐसा मानकर वह सदा धर्मध्यान में लीन रहता था। वह शीलवान नरपाल प्रतिदिन दान-पूजा आदि को करता था। वह समस्त अष्टमी एवं चतुर्दशी पर्वो में उपवास रखता था एवं श्रावकों के समस्त व्रतों का अच्छी तरह पालन करता था ।।२७-३१।। पुण्य-कर्म के उदय से राजा वैश्रवण को अत्यन्त सुख देनेवाली राज्यलक्ष्मी प्राप्त थी जो कि पवित्र कामों में उपयुक्त (व्यय) होनेवाली थी, सारभूत थी एवं दासी के सदृश राजा वैश्रवण Jain Education international Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की सदा आज्ञाकारिणी थी ।।३।। कदाचित् दैदीप्यमान मुकुट से जिनका मस्तक चमचमा रहा था, ऐसे राजा वैश्रवण अपनी राजसभा में राजसिंहासन पर विराजमान थे कि उसी समय पुष्पों को साथ में लेकर अत्यन्त हर्ष से भरा वनपाल वहाँ पर आया एवं इस प्रकार निवेदन करने लगा--||३३।। 'हे देव ! महामनोहर चन्दन वन में मुनिराज सुगुप्त आकर विराजमान हैं । वे मुनिराज साधारण मुनिराज नहीं, श्रा समस्त मुनियों में श्रेष्ठ हैं। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति--इन तीनों गुप्तियों से उनकी आत्मा विभूषित है। म वे अवधिज्ञानरूपी नेत्र के धारक हैं, समस्त परिग्रह के त्यागी हैं, गुणरूप सम्पत्ति के धारक हैं । मोक्ष प्राप्त करनेवाले भव्यप्राणी समीचीन ज्ञान प्राप्त करें, अर्थात्--संसार में जो पदार्थ सारभूत है उसकी ओर झुके, यही समझाने के लिए ना। वे विशेष रूप से ध्यान एवं अध्ययन में अत्यन्त लीन हैं' ।।३४-३५।। वनपाल के मुख से परमानन्द देनेवाला समाचार | थ|| सुन राजा वैश्रवण की आत्मा मारे आनन्द के गद्गद् हो गई । वह आनन्द से पुलकित हो शीघ्र ही राजसिंहासन से उठा । जिस पवित्र दिशा की ओर मुनिराज सुगुप्त विराजमान थे, वह सात पैंड़ उस दिशा की ओर गया एवं बड़ी भक्ति के साथ उस दिशा में साष्टांग नमस्कार किया ।।३६।। मुनिराज के दर्शनों की तीव्र उत्कण्ठा से उसने शीघ्र ही || नगर में आनन्द भेरी बजवाई । अपने सर्व कुटुम्बीजनों को इकट्ठा किया एवं धर्मोपदेश श्रवण की अभिलाषा से | मुनिराज सुगुप्त के पूजनार्थ वह तत्काल ही चन्दन वन में पहुँच गया ।।३७।। परम हितकारी मार्ग के उपदेश देनेवाले, समस्त परिग्रह के त्यागी, गुणों के समुद्र एवं पूज्य मुनिराज सुगुप्त एक विशाल शिला पर विराजमान थे। राजा वैश्रवण शीघ्र ही उनके समीप जा पहुँचा, तीन प्रदक्षिणा दीं । अपने परिवार के साथ उत्तमोत्तम सामग्री से मुनिराज के चरण कमलों की भक्ति पूर्वक पूजा की एवं पूजा के अन्त में उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम किया ।।३८-३६।। मुनिराज लौकिक शिष्टाचार के विशेष ज्ञाता थे, इसलिये उन्होंने यह आशीर्वाद दिया-'हे समस्त कल्याण के स्थान राजन् ! मोक्षलक्ष्मी को प्रदान करनेवाली तुम्हारी निरन्तर धर्मवृद्धि हो ।।४०।। राजा वैश्रवण को इस प्रकार अपने लिए धर्मवृद्धि का सूचक मुनिराज का वचन सुन कर यथार्थ धर्म के जानने की इच्छा प्रगट हो गई, इसलिए प्रणाम पूर्वक उसने मुनिराज से यह निवेदन किया ।।४।। Jain Education international Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "भगवन ! आपने जो मुझे धर्म-वृद्धि स्वरूप आशीर्वाद दिया है, मैं नहीं समझता कि वह धर्म क्या है, कौन उसे || प्राप्त कर सकता है एवं क्या उसका फल है ? इसलिये आपके ही श्रीमुख से मुझे उस धर्म की प्राप्ति के उपायों की एवं उसके फल जानने की इच्छा हुई है ।।४२।। हे कृपानाथ ! जिस प्रकार रात्रि का प्रबल अन्धकार बिना सूर्य के प्रकाश के नष्ट नहीं होता, उसी प्रकार मेरे अन्दर भी धर्म के विषय में जो संशय या अज्ञान अन्धकार है, वह भी आपके वचनरूपी सूर्य के बिना मिट नहीं सकता' ।।४३।। राजा वैश्रवण की इस प्रकार उत्कट धर्म-जिज्ञासा सुन म|| मुनिराज ने कहा-'राजन् ! तुम्हारे अभीष्ट पदार्थ की सिद्धि हो, इसलिये मैं संक्षेप में धर्म का व्याख्यान करता हूँ, | तुम चित्त को एकाग्र कर ध्यानपूर्वक सुनो-- हे राजन् ! यह संसार अपार है एवं इसमें अगणित एवं अनेक प्रकार का दुःख है । इस अगणित संसार के ना|| दुःख से मुक्त कर जो योगियों को अनन्त सुख-स्वरूप मोक्ष में ले जाकर रक्खे अर्थात् परमानन्दमय सुख का थ|| रसास्वादन करावे उसी को वास्तविक धर्म कहा गया है ।।४४-४५।। इस धर्म की कृपा से जिनकी सेवा करने से बड़े-बड़े चक्रवर्ती आदि भी सन्नद्ध रहते हैं तथा इसी संसार में आश्चर्यकारी उत्तमोत्तम सुखों को प्रदान करते हैं ऐसे | उत्तमोत्तम भोग तथा भाँति-भाँति की सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं, परभव में जिसे समस्त देव मस्तक झुका कर नमस्कार करते हैं तथा जो दिव्यपद माना जाता है, ऐसा वह इन्द्रपद भी धर्म की कृपा से ही प्राप्त होता है एवं अहमिन्द्र पद || रा भी, जो अत्यन्त दुर्लभ है--दूसरे उपाय से प्राप्त नहीं किया जा सकता--वह भी इस पवित्र धर्म की कृपा से सुलभ रूप से प्राप्त हो जाता है ।।४६।। धर्मात्मा लोग धर्म के द्वारा तीनों लोक के समस्त ऐश्वयों को उपार्जित कर कालक्रम से मोक्ष को प्राप्त करते हैं, जिसमें अविनाशी सुख प्राप्ति होता है। व्यवहार तथा निश्चय के भेद से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र दो-दो प्रकार के हैं । गृहस्थों के व्यवहार सम्यग्दर्शन आदि होते हैं तथा निश्चय सम्यग्दर्शन आदि संयमी मुनियों के ही होते हैं । जिस धर्म का ऊपर उल्लेख किया गया है, वह धर्म व्यवहार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र से भी प्राप्त होता है तथा संयमी पुरुषों को निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चरित्र से प्राप्त होता है अर्थात् व्यवहार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र भी धर्म माना जाता है तथा निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्र भी धर्म माना जाता है ।।४८-४६।। व्यवहार सम्यग्दर्शनादि 444444 Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42Fs का स्वरूप इस प्रकार है। जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष--इन सात तत्वों का, जिनेन्द्र भगवान का, उनके आगम का एवं उत्तम तप के भंडार गुरुओं का जो यथार्थ रूप से श्रद्धान करता है, उसे व्यवहार सम्यग्दर्शन माना है। इस सम्यग्दर्शन के निःशंकितादि आठ अंग हैं तथा उनका स्वरूप यह है--श्री जिनेंद्र देव के वचन में किसी प्रकार की शंका न करना निःशंकित अंग है । भोगों के अन्दर आकांक्षा न रखना निःकांक्षित अंग है । मुनि आदि के शरीर में रोगादिक के कारण दुर्गन्धि उत्पन्न हो जाने पर भी किसी प्रकार की घृणा न करना निर्विचिकित्सित अंग है। || लोकाचार के अन्दर जो भी मिथ्यादृष्टियों के साथ मूढ़ता का व्यवहार है, उसका न होना अमूढ़दृष्टि नाम का अंग है। असमर्थ अज्ञानी मनुष्य भगवान जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित सन्मार्ग में यदि किसी प्रकार के दोष लगावें तो उन दोषों को आच्छादित कर देना (ढंक देना), उपगूहन अंग है । किसी कारणवश कोई धर्मात्मा धर्म से चलायमान हो जाए, तो उन्हें मृदुवाणी से समझा-बुझा कर एवं अन्य किसी उपाय से पुनः ज्यों का त्यों धर्म में स्थिर कर देना स्थितीकरण अंग है । जैन-धर्म के धारकों में अत्यन्त प्रेम का रखना वात्सल्य अंग है तथा किसी भी उत्तम उपाय से भगवान जिनेन्द्र के शासन का माहात्म्य प्रगट करना आठवाँ अंग प्रभावना कहा जाता है ।।५०-५४|| भयवान समन्तभद्राचार्य ने इन अंगों का स्वरूप 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में इस प्रकार कहा है-- 'भगवान जिनेन्द्र ने वस्तु का जो स्वरूप कहा है, वह वही है तथा उसी प्रकार का है, अन्य नहीं है तथा न अन्य प्रकार का है, इस प्रकार निश्चल तीक्ष्ण खड्ग की धारा के सदृश जो सन्मार्ग (श्रेष्ठ मार्ग) में संशय रहित निश्चल रूप से रूचि का होना है, वह सम्यग्दर्शन का पहिला अंग निःशंकित नाम का है। कर्मों की क्षा आदि अवस्थाओं के आधीन होने के कारण जो सुख कर्माधीन है, विनाशीक है तथा जिसका उदय सदा दुःख से | मिश्रित है, ऐसे पाप के कारण सुख में जो किसी प्रकार के विश्वास का न रखना है अर्थात् ऐहिक विषयवासना जनित सुख में जो किसी प्रकार लालसा नहीं रखना है, वह दूसरा निःकांक्षित अंग है । रक्त, माँस आदि निन्दित धातुउपधातुओं का स्थान होने से स्वभाव से अपवित्र फिर भी रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) से पवित्र अर्थात् स्वभाव से निन्दित पर सम्यग्दर्शन आदि से पवित्र मुनियों के शरीर में किसी प्रकार की घृणा न कर जो उनके 44444 Jain Education international Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F गुणों में प्रीति करना है, वह तीसरा निर्विचिकित्सित अंग है। मिथ्यामार्ग दुःखों को देनेवाला है तथा उसके अनुगामी किसी प्रकार के उत्तम मार्ग पर चलनेवाले नहीं, इसलिये जब कभी उस मिथ्यामार्ग एवं मिथ्यामार्ग पर चलनेवालों की प्रशंसा का अवसर प्राप्त हो उस समय अपनी ओर से किसी प्रकार से सम्मति नहीं देना, न सम्बन्ध रखना एवं न उनके चकमे में आकर किसी प्रकार की प्रशंसा करना, चौथा अमूढदृष्टि अंग है । यद्यपि भगवान जिनेन्द्र द्वारा बतलाया गया मार्ग स्वयं शुद्ध है तथापि अत्यन्त कठिन होने से धारण न कर सकने के कारण यदि कोई अज्ञानी तथा असमर्थ पुरुष उसकी निन्दा कर बैठे तो किसी भी उपाय से उस निन्दा को दूर करना--निन्दा न होने देना, पाँचवा उपगूहन अंग है । किसी भी तीव्र दुःख आदि कारण से धर्मात्मा मनुष्यों की परिणति सम्यग्दर्शन या सम्यक्चारित्र के पथ से विचलित हो उठी हो एवं वे उनसे विमुख रहना चाहते हों, तो जैनागम के वास्तविक ज्ञानियों का कर्त्तव्य उन धर्मात्माओं को सम्यग्दर्शन तथा सम्यक्चारित्र के अन्दर फिर से दृढ़ कर देना है, यह छट्ठा स्थितीकरण अंग है। हृदय में उत्तम भाव रख कर अपने साधर्मी भ्राताओं का जो निश्चलरूप से यथायोग्य आदर-सत्कार करना है, वह सातवाँ वात्सल्य अंग है तथा संसार में जो बहुलरूप से अज्ञान अन्धकार फैल रहा है, उसे यथायोग्य किसी न किसी उपाय से दूर कर जो भगवान जिनेन्द्र के शासन का माहात्म्य प्रकट करना है, वह प्रभावना अंग कहा जाता है। इन आठ अंगों के पालक अन्जन चोर आदि महापुरुषों ने अनुपम फल प्राप्त किया है एवं इन अंगों का माहात्म्य वर्णन करते-करते यहाँ तक कहा गया है कि जिस प्रकार एक भी अक्षर की कमी रखनेवाला मन्त्र विष की वेदना को दूर नहीं कर सकता, उसी प्रकार इन आठ अंगों में एक भी अंग से रहित सम्यग्दर्शन भी जन्म की सन्तति (संसार-चक्र) को नष्ट नहीं कर सकता । ग्रन्थकार सम्यग्दर्शन की महिमा दिखलाते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार बलवान राजा शत्रुओं के समूह को देखते-देखते ही तितर-बितर कर नष्ट कर देता है, उसी प्रकार सारभूत एवं उत्कृष्ट जिन आठ अंगों का ऊपर वर्णन ||८ किया गया है, उनसे युक्त सम्यग्दर्शन जिस समय भी बलवान हो जाता है, उस समय वह क्षण भर में कर्मरूप बैरियों को जड़ से उखाड़ कर दूर फेंक देता है ।। ५५।भगवान जिनेन्द्र ने सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र का मूल कारण सम्यग्दर्शन को ही कहा है, क्योंकि बिना सम्यग्दर्शन के वे मिथ्याज्ञान तथा मिथ्याचारित्र माने जाते हैं। सम्यग्दर्शन 446454 Jain Education interational For Privale & Personal use only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JE Fb PF को ही मोक्षरूपी अनुपम महल की पहिली सीढ़ी एवं धर्म का बीज बतलाया गया है । ग्रन्थकार सम्यग्दर्शन के लिए यहाँ तक अपने पवित्र भाव प्रकट करते हैं कि जिस महानुभाव पुरुष ने सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लिया है, वही पुरुष मोक्षमार्ग में स्थित है एवं वही तीन लोक की लक्ष्मी का भोगनेवाला है, ऐसा मैं मानता हूँ तथा जिस महापुरुष के हृदय में अमूल्य सम्यग्दर्शनरूपी रत्न विराजमान है, वही महानुभाव इहलोक एवं परलोक में विद्वानों की दृष्टि में महाधनवान है । उससे बढ़कर अन्य कोई धनवान नहीं ।।५६-५८।। धन तो केवल इसी लोक में सुख एवं दुःख का ||श्रा देनेवाला है, परन्तु सम्यग्दर्शनरूपी चिन्तामणि रत्न ऐसा है, जिससे तीनों लोक में सुख ही सुख मिलता है। सम्यग्दर्शन || से श्रेष्ठ न तो कोई संसार में बन्धु है एवं न सदा हित करनेवाला स्वामी है, क्योंकि यह सम्यग्दर्शन जीवों को स्वर्ग एवं मोक्ष के सुखों को प्रदान करनेवाला है, समस्त पापों का जड़ से नाश करानेवाला एवं धर्म को प्राप्त करानेवाला है ।।५६-६०।। इसलिये ग्रन्थकार इस बात पर बल देते हैं कि जीवों को चाहिये कि ऐसे परम उपकारी एवं सर्वदा हितकारी सम्यग्दर्शन को सबसे पहिले प्राप्त करें, क्योंकि इस सम्यग्दर्शन की सामर्थ्य से मुक्तिरूपी लक्ष्मी वश हो जाती है तथा मिथ्यात्व की सन्तान को जड़ से उखाड़ कर यही सम्यग्दर्शन तीर्थंकर आदि की अनुपम विभूति को प्रदान करता है। ___ जिस ज्ञान के द्वारा जीवादि पदार्थ आगम एवं गुरुओं का यथार्थ रूप से जानना (ज्ञान) होता है तथा यह देव है तथा यह कुदेव है--इस बात की भी अच्छी तरह पहचान होती है, वह व्यवहार नाम का सम्यग्ज्ञान है तथा व्यंजनोर्जित १, अर्थसमग्र २, शब्दार्थोपूर्ण ३, कालाध्ययन ४, उपाध्यानसमृद्धक ५, विनय ६, गुर्वाद्यनपह्नव ७ एवं बहुमानससमृद्धक ८--ये आठ प्रकार के आचार माने हैं । जहाँ पर शुद्ध अक्षरों का निरूपण है, वह 'व्यन्जनोर्जित' नाम का आचार माना है । जहाँ पर शुद्ध अर्थ का प्रतिपादन हो वह ‘अर्थसमग्र' नाम का आचार है, जहाँ पर शब्द एवं अर्थ दोनों का सूचन हो, वह 'शब्दार्थोभयपूर्ण' नाम का आचार है । जहाँ पर समस्त काल अध्ययन का निषेध हो, अर्थात्--जहाँ पर नियत समय में अध्ययन का प्रतिपादन हो, वह 'कालाध्ययन' नाम का आचार है । जहाँ पर तप आचरण के साथ-साथ अध्ययन का विधान हो, वह 'उपाध्यानसमृद्धक' नाम का आचार है । जहाँ पर विनयपूर्वक पाठ का पढ़ना हो, वह 'विनय' नाम का आचार है । जहाँ पर अपने गुरु आदि की कीर्ति का गान किया 4444444 Jain Education interational Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाय वह 'गुर्वाद्यनपह्नव' नाम का आचार है एवं जहाँ पर गुरु आदि की स्तुति तथा पूजा आदि का समारोह हो, वह 'बहुमानससमृद्धक' नाम का आठवाँ आचार भेद है। विद्वानों के द्वारा इन आठ प्रकार के आचारों के साथ जो ज्ञान पढ़ा जाय, वह 'ज्ञानाचार' कहा जाता है। यह ज्ञानाचार समस्त संसार का प्रकाश करनेवाला दीपक है एवं मोक्ष को प्रदान करनेवाला है ।।६२-६७।। इस सम्यग्ज्ञान के द्वारा ही समस्त संसार का ज्ञान होता है। कौन तत्व हितकारी है एवं कौन अहितकारी है ? यह पता भी इसी ज्ञान से लगता है । यह पदार्थ त्यागने योग्य है एवं यह पदार्थ नहीं त्यागने योग्य है, यह बात भी ज्ञान ही बतलाता है तथा यह बन्ध तत्व है, यह मोक्ष तत्व है, यह धर्म है, यह पाप || म है, यह कृत्य है, यह अकृत्य है; देव, गुरु एवं शास्त्र का स्वरूप यह है--सम्यग्ज्ञान कहा जाता है । पात्र को दान देना 'दान' एवं कुपात्र को दान देना 'कुदान' कहलाता है तथा आत्मा का स्वरूप चैतन्य है, यह सब बात भी सम्यग्ज्ञान के द्वारा ही प्रगट होती है ।।६८-६६।। भगवान जिनेन्द्र ने लोक एवं अलोक के देखने में बाह्य अन्तरंग तत्वों को परखने के लिए ज्ञान को ही नेत्र कहा है; जिसके यह ज्ञानरूपी नेत्र नहीं है, वह इस संसार में सर्वथा अन्धा ही है-- केवल नेत्रों के रहते वह सूझता नहीं कहा जा सकता ।।७०।। मछलियों के बाँधने के लिए जिस प्रकार जाल रहता है, उसी प्रकार स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियाँ मछलियाँ हैं एवं उनके बाँधने के लिए यह सम्यग्ज्ञान जाल है, अर्थात पाँचों इन्द्रियों का दमन सिवाय सम्यग्ज्ञान के दूसरे से नहीं हो सकता तथा जिस प्रकार गजराजों के विघात करने के लिए सिंह समर्थ होता है, उसी प्रकार कामरूपी मदोन्मत्त गजराज को सर्वथा नष्ट करनेवाला यह सम्यग्ज्ञान ही बलवान सिंह है ।।७१।। यह संसारी जीवों का मन बन्दर के सदृश अत्यन्त चन्चल है अर्थात् बन्दर की जिस प्रकार प्रतिक्षण क्रिया होती रहती है, उसी प्रकार इस मन की भी प्रतिक्षण क्रिया होती रहती है एवं उससे निरन्तर कर्मबन्ध होता रहता है, उस मनरूपी बन्दर को बाँधने के लिए यह सम्यग्ज्ञान पाश है तथा जिस प्रकार सूर्य समस्त अन्धकार को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार समस्त अज्ञानरूप अन्धकार को नष्ट करने के लिए भी यह सम्यग्ज्ञान प्रखर सूर्य है ||१० ।।७२।। मूल में शुभ एवं अशुभ के भेद से कर्म दो प्रकार माना है, उसके फल का भोग ज्ञानी भी करते हैं एवं अज्ञानी भी करते हैं; परन्तु आश्चर्य इस बात का है कि समानरूप से भोग करने पर भी अज्ञानी के तो कर्मों का बन्ध होता | है एवं ज्ञानी के कर्मों की निर्जरा होती है तथा एक अन्य विलक्षण बात यह है कि तीव्र तप तपने पर भी जिस कर्म 444444 Jain Education international For Privale & Personal use only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FFFF को अज्ञानी जीव करोड़ों भव में खपा सकता है; उसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्तिरूप तीनों गुप्तियों का धारक एवं संवर से भूषित ज्ञानी जीव आधे ही क्षण में मूल से उखाड़ कर फेंक देता है ।।७३-७४।। ग्रन्थकार सम्यग्ज्ञान की सर्वोच्च प्रशंसा करते हुए कहते हैं--यह सम्यग्ज्ञान ऐसा अनुपम मन्त्र है कि इसके द्वारा खिंची (आकर्षित) हुई मोक्षरूपी स्त्री भी आप-से-आप आकर प्राप्त हो जाती है, फिर अन्य देवांगनाओं की प्राप्ति हो जाना यह तो अत्यधिक सुलभ कार्य है । इसलिये सम्यग्ज्ञान तत्व हमारा परम कल्याणकारी है, ऐसा अच्छी तरह जान कर जो महानुभाव मुमुक्षु हैं--मोक्ष प्राप्त करने की पूरी-पूरी अभिलाषा रखते हैं--उन्हें चाहिये कि वे निःप्रमादरूप यन्त्र से || अर्थात् किसी प्रकार का मन में प्रमाद न रख कर भगवान जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित विनय आदि रूपी ज्ञान का प्रतिदिन आराधन करें, कभी भी उसे चित्त से न बिसारें ।।७६।। मन-वचन-काय की क्रियाओं के द्वारा जो हिंसादि समस्त पापों का त्याग कर देना है, वह व्यवहार चारित्र कहा | जाता है । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील एवं परिग्रह --ये पाँच पाप हैं एवं इन पाँचों पापों का त्याग, अहिंसा, आदि 'व्रत' कहे जाते हैं। उन अहिंसा आदि व्रतों का स्वरूप इस प्रकार है-- ____समस्त जीवों की रक्षा करना अहिंसा महाव्रत कहा जाता है । झूठ आदि का त्याग करना सत्यमहाव्रत है । चोरी | आदि का सर्वथा त्याग अचौर्य महाव्रत है। स्व-स्त्री, पर-स्त्री आदि समस्त स्त्रियों का सर्वथा त्याग कर देना ब्रह्मचर्य महाव्रत है तथा बाह्य आभ्यन्तर समस्त प्रकार के परिग्रह का सर्वथा नाश कर देना आकिंचन्य--निष्परिग्रह महाव्रत है। गुप्ति का अर्थ रक्षा करना है एवं वह मनोगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति के भेद से तीन प्रकार की है। किसी भी पदार्थ में अच्छे-बुरे संकल्पों का होना मन का विषय है, जहाँ पर समस्त संकल्प-विकल्पों का त्याग हो, वह मनोगुप्ति है। सदा मौन रखना वचनगुप्ति है, इसका पालन करने से संवर की प्राप्ति होती है तथा शरीर की समस्त क्रियाओं का अभाव हो जाना अन्तिम कायगुप्ति है ।।७८-८१।। जूरा प्रमाण भूमि को शोध कर चलना ईर्यासमिति है, निर्दोष हितकारी एवं परिमित वचन बोलना भाषासमिति है । जहाँ पर कृत, कारित एवं अनुमोदना से किए गए आहार का त्याग है, आहार में आनेवाले अन्तरायों का टालना है तथा उद्गम आदि छयालीस (४६) दोषों का रहितपना है, वह एषणासमिति है । पुस्तक, पीछी, कमण्डलु आदि को दयापूर्वक अच्छी तरह देख-भाल कर ग्रहण Jain Education international For Privale & Personal use only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना तथा रखना आदान निक्षेपणसमिति है तथा नेत्रों से अच्छी तरह देख-भाल कर भूमि पर मल-मूत्र आदि का क्षेपण करना प्रतिष्ठापन नाम की समिति है, इसका दूसरा नाम उत्सर्ग भी है । पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति तथा पाँच समिति-इस प्रकार यह तेरह प्रकार का चारित्र संसार के समस्त भोगों को प्रदान कर अन्त में मोक्ष सुख प्रदान करनेवाला है--परम धर्म का कार्य है तथा निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यकूज्ञान तथा सम्यकचारित्र स्वरूप रत्नत्रय का साधक है। इस सम्यक्चारित्र के बिना सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान के अन्दर यह सामर्थ्य नहीं कि वे मोक्ष की प्राप्ति करा सकें, इसलिये सम्यक्चारित्र की जितनी भी प्रशंसा की जाए थोड़ी है ।।८२-८७।। ग्रन्थकार सम्यक्चारित्र की | वास्तविक प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि सम्यक्चारित्र से युक्त हो एक मुहूर्त ही जीवित रहना अच्छा है, परन्तु उसके ||लि बिना करोड़ों वर्ष पर्यंत भी जीवित रहना अच्छा नहीं । अर्थात् सम्यक्चारित्र के बिना जीवन की सफलता नहीं हो सकती, इसलिये जीवन में सफलता पाने के लिए सम्यक्चारित्र सहित मुहूर्तमात्र भी जीवन अच्छा है, परन्तु उसके || ना बिना करोड़ों वर्ष तक भी जीता रहना अच्छा नहीं ।।८८।। जो महात्मा दृढ़व्रतात्मा हैं अर्थात् जिनकी आत्मा | सम्यक्चारित्र के अन्दर दृढ़ है, उन महानुभावों को जो कर्म पुरातन है अर्थात् पहिले से आत्मा के साथ बन्ध को प्राप्त है, वह हर एक क्षण में नष्ट होता चला जाता है एवं उस महापुरुष की आत्मा के साथ नवीन कर्मों का || पु बन्ध भी नहीं होता, इसलिये धीरे-धीरे समस्त कर्मों के नष्ट हो जाने से उन्हें बहुत जल्दी मोक्षलक्ष्मी का समागम प्राप्त | हो जाता है। जो महानुभाव चारित्ररूपी सिंहासन पर विराजमान हैं, अर्थात् दृढ़रूप से सम्यक्चारित्र को पालता है, उसे बड़े-बड़े इन्द्र आदि भी सेवक की तरह आकर नमस्कार करते हैं; फिर इस सम्यक्चारित्र का जितना भी वर्णन किया जाय थोड़ा है ।।६।। जो पुरुष निश्चितरूप से चारित्ररूपी रत्न का धारण करनेवाला है, वह इसी संसार में सर्वप्रकार के द्वन्द्वों से रहित, अपनी आत्मा से जायमान अगणित सुख का लाभ करता है; ऊर्ध्व, मध्य तथा पाताल लोक के ||१२ लोग आकर उसे नमस्कार करते हैं, उसकी पूजा अभ्यर्थना करते हैं तथा अत्यन्त सम्मान की दृष्टि से देखते हैं तथा उस सम्यक्चारित्र को पालन करनेवाले पुरुष को परभव में भी महाकल्याण का कर्ता स्वर्ग-मोक्ष आदि का सुख निश्चय से प्राप्त होता है ।।६१-६२।। इस प्रकार भिन्न-भिन्न रूप से सम्यग्दर्शन आदि का स्वरूप तथा प्रयोजन बतला कर FFF Jain Education international Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकार अब सामान्यरूप से रत्नत्रय की प्रशंसा करते हैं कि यह परमपावन रत्नत्रय जीवों को समस्त प्रकार के कल्याणरूपी फलों का प्रदान करनेवाला है । अनन्त पुण्य की परम्परा का कारण है एवं इस रत्नत्रय को पालन करनेवाले पुरुषों को अविनाशी सुखसागर में मग्न होने का अवसर प्राप्त होता है । इसी अनुपम चमत्कार के धारक रत्नत्रय से जिनकी आत्मा विभूषित है, वे वचन से न कहे जानेवाले सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त सुख का अच्छी तरह रसास्वादन कर अन्त में अचिंत्य अविनाशी मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं; इसलिये ग्रन्थकार यह तात्विक उपदेश देते हैं कि हे मोक्षाभिलाषी जीवों ! इस प्रकार रत्नत्रय की सर्वोच्च महिमा जान कर तुम्हें चाहिये कि तुम सम्यग्दर्शनरूपी || म हार को शीघ्र ही अपने हृदय में धारण करो, ज्ञानरूपी कुण्डलों को अपने दोनों कानों में पहिनो एवं चारित्ररूपी मुकुट को अपने मस्तक पर धारण करो; क्योंकि वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र रूप तीनों रत्न ही मोक्षरूपी स्त्री को वश करने में कारणभूत हैं, अर्थात् इसी अद्भुत रत्नत्रय की कृपा से मोक्षरूपी लक्ष्मी वश होती है, इसी रत्नत्रय की कृपा से तपरूपी लक्ष्मी का भी संचय होता है एवं नाना प्रकार के कर्म मलों से मलिन आत्मा का निर्मलपना भी इसी रत्नत्रय के द्वारा होता है । जिस महानुभाव पुरुष के पास सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूपी निर्मल अलंकार मौजूद है, उसी ज्ञानवान महानुभाव पर मोक्षरूपी स्त्री स्वयं आकर रीझती है एवं जिस प्रकार कोई खास स्त्री खास पुरुष को वरती है, उसी प्रकार मुक्तिरूपी स्त्री भी उसे स्वयं आकर वरती है। किन्तु जिनके पास यह अनुपम रत्नत्रय नहीं, वे कितना भी प्रयत्न करें, मोक्षरूपी स्त्री उनकी ओर ताक कर भी नहीं देखती ।।६७।। आजतक जिन महानुभावों ने मोक्षरूपी लक्ष्मी को प्राप्त किया है एवं अनादि अनन्त संसार में आगे जाकर उसे प्राप्त करेंगे, वह केवल इसी रत्नरूपी तप की आराधना का फल है--रत्नत्रयरूप तप के आचरण से.ही मोक्षलक्ष्मी प्राप्त हो सकती है ।।६।। आश्चर्य इस बात का है कि जिस प्रकार निर्बल होने पर भी धनवान पुरुष पर ही स्त्री आसक्त हो जाती है, जब कि बलवान होने पर भी निर्धन पुरुष पर वह नहीं रीझती; उसी प्रकार कोई जीव कितना भी निर्बल क्यों न हो यदि वह सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रये से विभूषित है--सम्यग्दर्शन आदि रत्न उसके पास है तो वह नियम से कालक्रम में मोक्ष को प्राप्त करता है; किन्तु जो पुरुष उक्त रत्नों से रहित है, वह कितना भी प्रचण्ड बलवान क्यों न हो, मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता ६६'समय' शब्द का अर्थ आत्मा भी है एवं शास्त्र भी है एवं ग्रन्थकार रत्नत्रय 444 १३ Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FE Fb की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि यह रत्नत्रय ही आत्मा या शास्त्र का सर्वस्व है, अर्थात् आत्मा का सारभाग रत्नत्रय ही है; क्योंकि कर्मरहित अवस्था में स्व-स्वरूप में लीन होती हुई आत्मा रत्नत्रय के अन्दर ही आकर लीन होती है तथा शास्त्र का सारभाग ही रत्नत्रय है; क्योंकि जिस शास्त्र में रत्नत्रय का वर्णन है, वही शास्त्र सु-शास्त्र है; किन्तु जिसमें रत्नत्रय का वर्णन नहीं वह शास्त्र नहीं, कु-शास्त्र है तथा यही रत्नत्रय सिद्धान्त का प्राण है, क्योंकि सिद्धान्त का अर्थ शास्त्र का निचोड़ भाग है, जो निचोड़ भाग रत्नत्रय स्वरूप न हो, वह सिद्धान्त नहीं हो सकता तथा यह रत्नत्रय ही मोक्षरूपी वृक्ष का उत्पन्न करनेवाला बीज है एवं मोक्षस्थान में ले जानेवाला रत्नत्रय ही उत्तम मार्ग है।' इस प्रकार व्यवहार रत्नत्रय का संक्षेप से स्वरूप वर्णन कर राजा वैश्रवण से मुनिराज सुगुप्त ने कहा--'हे राजन! ऊपर कही गई रीति के अनुसार व्यवहार रत्नत्रय का स्वरूप अच्छी तरह समझ कर तुम्हें परम धर्म की सिद्धि के लिए अवश्य इस रत्नत्रय को धारण करना चाहिए, क्योंकि यह व्यवहार रत्नत्रय ही संसार में सार पदार्थ है तथा इस व्यवहार रत्नत्रय की पूर्णता के बाद निश्चय रत्नत्रय धारण करना चाहिए । अब हे नरनाथ ! मैं निश्चय रत्नत्रय का भी स्वरूप वर्णन करता हूँ, तुम ध्यानपूर्वक सुनो--क्योंकि सम्यग्दर्शन आदि निश्चय रत्नत्रय साक्षात् मोक्ष का कारण है, समस्त कर्म आदि को मूल से उखाड़ कर नष्ट करनेवाला है एवं परम उत्तम है ।। १००-१०२।। ____ अपनी यह आत्मा ही तीन लोक की नाथ है, अनन्त अविनाशी गुणों की समुद्र है । ध्यान मार्ग से उसका स्वरूप जाना जाता है एवं जिस प्रकार समस्त कर्मों से रहित सिद्धों का स्वरूप शुद्ध है, उसी प्रकार हमारी आत्मा भी शुद्ध है। इस प्रकार अपने अन्तरंग परमात्मा में जो श्रद्धान होता है, वह निश्चय सम्यग्दर्शन है। यह निश्चय सम्यग्दर्शन परम उत्कृष्ट है एवं मोक्षलक्ष्मी का संगम करानेवाला है ।।१०३-१०४।। परमात्मा (उत्कृष्ट आत्मा) ज्ञानस्वरूप है तथा वह लोक एवं अलोक के समस्त पदार्थों का प्रकाश करनेवाला है, इस उत्कृष्ट आत्मा को छोड़ कर ज्ञान कोई पदार्थ नहीं; किन्तु वह उत्कृष्ट आत्मा ही ज्ञान है, ऐसा विचार कर जो स्व-संवेदन स्वरूप आत्मा का ज्ञान करता है, वही | ||१४ निश्चय सम्यग्ज्ञान है एवं यह निश्चय सम्यग्ज्ञान केवलज्ञान को प्राप्त करानेवाला है ।।१०५-१०६।। यह निजात्मा सम्यक्चारित्र स्वरूप है। हलन-चलन आदि क्रिया से रहित होने के कारण स्वभाव से ही निष्क्रिय है। कर्मजनित कालिमा से रहित होने से निरंजन है एवं कर्मों के आवागमन से रहित है। ऐसा वास्तविक रूप से जान कर अन्तरंग Jain Education international Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री म ल्लि ना ध्यान के द्वारा जो स्वयं अपना आचरण करना है, वह परमाश्चर्यकारी निश्चय चारित्र माना गया है ।। १०७ - १०८ ।। ग्रन्थकार रत्नत्रय की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि जिस रत्नत्रय का ऊपर वर्णन किया गया है, वह रत्नत्रय बाह्य क्रियाओं की चिन्ता आदि से रहित है, अर्थात् जबतक चित्त में बाह्य क्रियाओं की चिन्ता का समावेश रहेगा, तबतक कभी भी रत्नत्रय का पालन नहीं हो सकता । समस्त प्रकार के राग आदि भावों से रहित है एवं जिस भव में रत्नत्रय की प्राप्ति हुई, उसी भव में वह मोक्ष प्रदान करनेवाला है ।। १०६ ।। यह निश्चय रत्नत्रय अनन्त कल्याण का प्रदान करनेवाला है । ध्यान के द्वारा जाना जाता है, महान् अमूल्य है तथा वीतरागी मुनियों के ही होता है, रागियों के कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता ।। ११० ।। जिस प्रकार सूर्य के उदय से प्रगाढ़ अन्धकार भी क्षणभर में तितर-बितर होकर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार इस संसार में रत्नत्रय का आराधन करने से योगियों के ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय तथा अन्तराय नामक चार घातिया कर्म भी क्षणमात्र में नष्ट हो जाते हैं || 999 ।। जो महानुभाव उत्कृष्ट आत्मा परमात्मा का ध्यान धरते हैं, उन सबको यह पवित्र रत्नत्रय प्राप्त होता है, इसलिये जो पुरुष इस परम हितकारी रत्नत्रय के वाँछक हैं, उन्हें चाहिये कि वे अवश्य चैतन्यस्वरूप परमात्मा का ध्यान करें, क्योंकि जिस प्रकार अग्नि की तीव्र ज्वाला से अपार काष्ठ भी देखते-देखते राख हो जाता है, उसी प्रकार ध्यानरूपी अग्नि से अनन्त कर्मपिण्ड भी देखते-देखते भस्म हो जाते हैं। इसलिए हे राजन् ! तुम्हारे लिए यह उपदेश है कि तुम मोहरूपी महायोद्धा को नष्ट कर चैतन्य स्वरूप आत्मा के ध्यान के साथ व्यवहार तथा निश्चय के भेद से जो दो प्रकार का रत्नत्रय ऊपर बतलाया है, उसका अवश्य सेवन करो, बिना उसका सेवन किए कभी भी संसार से उद्धार नहीं हो सकता ।।११३ - ११४।। थ पु रा ण श्री. म ल ना थ पु रा ण १५ इस प्रकार परिच्छेद के अन्त में ग्रन्थकार प्रेरणा करते हैं कि हे आर्यों ! मोक्षाभिलाषी सज्जनों ! तुम्हें अवश्य प्रयत्नपूर्वक रत्नत्रय का आराधन करना चाहिए ; क्योंकि यह रत्नत्रय निरूपम पदार्थ है, कोई भी पदार्थ संसार में इसकी तुलना नहीं कर सकता । धर्मरूपी मनोहर उद्यान का उत्पादक कारण है; क्योंकि रत्नत्रय के सेवन से ही धर्मरूपी आश्रय फलता-फूलता है । जिस प्रकार का अन्धकार मेटनेवाला सूर्य है, उसी प्रकार यह रत्नत्रय भी पापरूपी अन्धकार के नाश करने के लिए सूर्य समान है । दावानल को जिस प्रकार मेघ शान्त कर देता है, उसी प्रकार यह Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नत्रय दुःखरूपी दावानल को बुझानेवाला है । समस्त प्रकार के दोषों से रहित निर्दोष है । मोक्षाभिलाषी भव्यजीव सदा इसकी सेवा करते हैं एवं असाधारण है, हर एक को प्राप्त नहीं हो सकता । मैं भगवान मल्लिनाथ को मस्तक झुका कर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि भगवान मल्लिनाथ समस्त प्रकार के अनर्थों को जड़ से उखाड़ कर फेंकनेवाले हैं । उत्कृष्ट प्रयोजन को प्रदान करनेवाले हैं, स्वर्ग एवं मोक्ष को देनेवाले हैं । उत्कृष्ट हैं, अनन्त गुणों के समुद्र हैं, संसार के समस्त भयों को सर्वथा नष्ट करनेवाले हैं । विश्वास के प्रधान कारण हैं एवं आठों कर्मों के जीतनेवालों में प्रथान हैं तथा भगवान मल्लिनाथ ने जिस मार्ग का अनुसरण किया है, उसी मार्ग एवं उसी स्वरूप को प्रदान करनेवाले सर्वोत्कृष्ट रत्नत्रय को मैं भी मस्तक झुका कर नमस्कार करता हूँ; क्योंकि यह रत्नत्रय ही समस्त प्रकार के अनर्थों का सर्वथा नाश करनेवाला है; उत्कृष्ट प्रयोजन का उत्पादक है; स्वर्ग एवं मोक्ष को प्रदान करनेवाला है; उत्कृष्ट है; अनन्त गुणों का भण्डार है; समस्त संसार के भय को नष्ट करनेवाला है एवं आस्था का एक प्रधान कारण | है ।।११५-११६।। ___इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति द्वारा विरचित मल्लिनाथ पुराण में रत्नत्रय का वर्णन करने वाला पहिला परिच्छेद समाप्त हुआ ॥॥ द्वितीय परिच्छेद संसार में मोहनीय-कर्म अत्यन्त बलवान है । जिन्होंने बलवान बैरी मोहनीय-कर्मरूपी मल्ल को सर्वथा नष्ट कर | दिया है, जो भयंकर शत्रु कामदेव एवं इन्द्रियों का पूर्णरूप से घात करनेवाले तथा तीर्थंकर हैं, ऐसे श्री मल्लिनाथ स्वामी को उन्हीं के तुल्य समस्त शक्ति प्राप्त करने के लिए मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ ।।१।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रय के स्वरूप को जतलानेवाले वैराग्य के उत्पादक मुनिराज सुगुप्त के वचन सुन राजा वैश्रवण ने उक्त प्रकार के रत्नत्रय के पालन करने में अपने को असमर्थ समझा, इसलिये विनयपूर्वक वह यह १६ कहने लगा--'कृपानाथ ! मुझ सरीखे मनुष्य सदा आर्तध्यान में लीन रहनेवाले हैं, सदा हम लोगों की बुद्धियाँ विनष्ट सरीखी रहती हैं । धन, कुटुम्ब आदि में सदा मोही रहते हैं । पाँचों इन्द्रियों के विषयों की ओर सदा हमारी परिणति झुकी रहती है तथा गृहस्थी के क्रियाकलापों में सदा संलग्न रहते हैं, इसलिए भगवन ! जब व्यवहार रत्नत्रय के पालन Jain Education international For Private & Personal use only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने की भी हमारी सामर्थ्य नहीं हैं, तब हम अत्यन्त कठिन निश्चय रत्नत्रय का पालन तो कर ही नहीं सकते; क्योंकि यह एक सुनिश्चित बात है कि जिस महा भार को गजेन्द्र उठा सकता है, उसे कितना भी प्रयत्न क्यों न किया जाए पर बैल नहीं उठा सकता। उसी प्रकार जिस चारित्र के महा भार को बड़े-बड़े मुनीन्द्र उठा सकते हैं, उसे मेरे समान असमर्थ पुरुष नहीं उठा सकते । अर्थात् निश्चय रत्नत्रय का पालन करना बड़े-बड़े मुनियों का काम है, मुझ सरीखा असमर्थ पुरुष उस निश्चय रत्नत्रय का पालन नहीं कर सकता । इसलिए हे कृपानाथ ! मेरे कल्याण के निमित्त मुझे उस रत्नत्रय की प्राप्ति हेतु कृपा कर ऐसा उपदेश दीजिए, जिससे पूजा तथा उपवास आदि के द्वारा मुझे वह क्रम से प्राप्त हो जाए; क्योंकि मेरे समान पुरुष पूजन आदि के द्वारा ही बड़ी भक्तिपूर्वक तथा ठाट-बाट से उस रत्नत्रय की उपासना कर सकता है ।।२-७।। राजा वैश्रवण के ऐसे भक्ति से गद्गद् वचन सुनकर परम संयमी मुनिराज सुगुप्त ने कहा_ “राजन ! यदि तुम ऊपर कहे गए व्यवहार तथा निश्चय रत्नत्रय का पालन नहीं कर सकते, तो जो आम्नाय (परिपाटी) में प्रचलित है तथा शास्त्रों के अन्दर कहा गया है, उस रत्नत्रय की जो कुछ विधि है, उस विधि को ही तुम करो । सुनो, उस रत्नत्रय की पूजा आदि के क्रम का विधान जिस तरह का है, मैं उसे बतलाता हूँ। उस || विधि के आचरण करने से ही तुम्हें नियम से व्रतों की प्राप्ति होगी। वह विधि इस प्रकार है-- ___कल्याणकारी भादों मास में धर्म के स्थान स्वरूप शुक्ल पक्ष की द्वादशी के पवित्र दिन से मोक्षाभिलाषी भव्य को रत्नत्रय व्रत का पालन करना चाहिए । जो महानुभाव रत्नत्रय व्रत का आचरण करें, उसे चाहिए कि वह उस दिन पवित्र स्वच्छ वस्त्र धारण करे । अपने चित्त में प्रतिक्षण भगवान श्री जिनेन्द्र का ही ध्यान रक्खे एवं पूजा की महामनोहर सामग्री लेकर भक्तिपूर्वक भगवान श्री जिनेन्द्र के मन्दिर में जाए ।।८-११।। मन्दिर में जाकर भगवान श्री जिनेन्द्र आगम तथा गुरुओं को उसे भक्तिपूर्वक प्रणाम करना चाहिए तथा पूजा करनी चाहिए, वहाँ से अपने गृह ||१७ आकर मुनियों के लिए निर्दोष प्रासुक, शुद्ध, मधुर तथा तृप्ति प्रदान करनेवाला पवित्र आहारदान देना चाहिए; उसके बाद जो आहार बचे वह अपने प्राता, बन्धु आदि कुटुम्बियों के साथ सानन्द खाना चाहिए ।।१२-१३।। आहार आदि के आरम्भ में अनेक दोषों का होना सम्भव है; इसलिए उन दोषों के प्रत्याख्यान की अभिलाषा से आहार करने के Jain Education international For Privale & Personal use only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाद पुनः जिन मन्दिर में जाना चाहिए । वहाँ जाकर अच्छी प्रकार गुरुओं को नमस्कार करना चाहिए तथा तीन दिन रात्रि पर्यन्त बड़े हर्ष के साथ अनशन व्रत का पालन करना चाहिए। उस रात्रि को उसे मन्दिर में ही रहना चाहिए तथा सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय का हृदय में चिन्तवन करना चाहिए। प्रातःकाल उठ कर सामायिक करना चाहिए तथा फिर भगवान श्री जिनेन्द्र आदि की पूजा के समारोह में लग जाना चाहिए। जिस समय भगवान श्री जिनेन्द्र आदि की पूजन करना समाप्त हो चुके उसके बाद गुरु के पास आना चाहिए. तथा भक्तिपूर्वक उनके सामने खड़ा होकर | व्रती को उनसे यह पूछना चाहिए-हे भगवन् ! मैं रत्नत्रय व्रत की पूजा का आचरण करना चाहता हूँ, आप आज्ञा || म दीजिए । रत्नत्रय व्रत की पूजा के लिए जब सर्वथा हितकारी मार्ग का उपदेश देनेवाले गुरु की आज्ञा मिल जाए, उस समय व्रती को चाहिए कि वह बड़े आनन्द के साथ रत्नत्रय व्रत की परमोत्कृष्ट पूजा को आरम्भ कर दे ।।१४-१७।। जो महानुभाव रत्नत्रय व्रत की पूजा का प्रारम्भ करना चाहे उन्हें चाहिए कि वे सबसे पहिले तीर्थंकर भगवान थ| श्री जिनेन्द्र की पूजा का प्रारम्भ करें तथा उन्हीं के सामने भक्तिपूर्वक बैठ कर किसी थाल आदि में या शिला के | मध्य में अष्ट (आठ) दल (पाँखुड़ी) का कमल बनायें । चन्दन का द्रव बना कर सुवर्णमयी लेखनी से उस कमल की | कली के मध्य भाग में ॐ ह्रीं बीजाक्षरों के साथ 'सम्यग्दर्शन' शब्द लिखें तथा उस कमल की आठों पाखुड़ियों में | | पहिले विस्तार से कहे गए निःशंकित आदि आठों अंगों को बीजाक्षरों के साथ पूजा के लिए लिखें। जिस समय वह || रा कमलाकार यन्त्र तैयार हो चुके उस समय ॐ ह्रां ह्रीं हूँ ह्रौं ह्रः अष्टांग-सम्यग्दर्शन ! अत्रावतर, अवतर स्वाहा! ॐ ह्रां ह्रीं हूँ ह्रौं ह्रः अष्टांगसम्यग्दर्शन ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । इस प्रकार आगम में कहे गए मन्त्रों का सानन्द उच्चारण कर विपुल आयोजन के साथ विधिपूर्वक सम्यग्दर्शन की पूजा करना प्रारम्भ कर दे ।।१८-२१।। इस प्रकार सम्यग्दर्शन की पूजा के बाद व्रती को आठों द्रव्यों से भक्तिपूर्वक श्रुतज्ञान की पूजाका प्रारम्भ करना चाहिए । सम्यग्दर्शन के सदृश किसी थाल आदि में आठ पाँखुड़ियों का कमल लिखना चाहिए । चन्दन का द्रव बनाकर सुवर्ण की कली के मध्यभाग में ॐ एवं ह्रीं बीजाक्षरों के साथ 'सम्यग्ज्ञान' शब्द लिखना चाहिए एवं उसकी आठों पाँखुड़ियों में बीजाक्षर मन्त्रों के साथ व्यन्जनोर्जित आदि आठ आचारों को लिखना चाहिए। इस प्रकार जिस समय सम्यग्ज्ञान का मन्त्र तैयार हो जाए उस समय जल से लेकर फल पर्यन्त निर्मल एवं उत्कृष्ट अष्ट द्रव्यों Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री म थ से विधिपूर्वक उस मन्त्र की पूजा करनी चाहिए ।। २२-२३ ।। जिस समय सम्यग्ज्ञान के यन्त्र की पूजा समाप्त हो चुके उस समय भक्तिपूर्वक उत्तम तप के स्थान परम गुरुओं की उत्तमोत्तम पूजा की सामग्री से अर्चना कर ऊपर विस्तार से बतलाए गए तेरह प्रकार चारित्र का भक्तिपूर्वक यन्त्र लिखना चाहिए तथा जब वह यन्त्र लिख कर समाप्त हो जाए, उस समय रत्नत्रय पूजा के विधान में जो भी उस सम्यक्चारित्र के यन्त्र की पूजा की विधि कही गई है, उसके अनुसार भक्तिपूर्वक विपुल आयोजन के साथ उस यन्त्र को पूजा करनी चाहिए ।। २४-२५।। इस प्रकार रत्नत्रय विधान के बाद अन्त में भाँति-भाँति के फल तथा पक्व अन्नों से शोभित अर्ध-- आरती उतारनी चाहिए तथा रत्नत्रय यन्त्रों की तीन बार प्रदक्षिणा देकर रत्नत्रय विधान में जो जाप शास्त्र में कहे गए हैं, उन जापों को जपना चाहिए ।। २६ ।। इस प्रकार ल्लि भक्तिपूर्वक बड़े समारोह से रत्नत्रय की पूजा कर रत्नत्रय व्रत को धारण करनेवाले महापुरुष को गुरु के समीप जाना ना चाहिए तथा उनके श्रीमुख से आत्म का कल्याण करनेवाला आगम का स्वरूप आनन्दपूर्वक सुनना चाहिए । इस रीति से जो पुरुष रत्नत्रय व्रत को पालन करनेवाला है, उसे तीनों दिन अर्थात् त्रयोदशी, चतुर्दशी तथा पूर्णमासी के दिन प्रातःकाल, मध्यान्हकाल तथा सायंकाल रत्नत्रय यन्त्रों तथा जिनेन्द्र देव आदि की बड़े समारोह से शुभ तथा उत्कृष्ट पु पूजन करनी चाहिए । इस प्रकार पूजा के बाद व्रतधारियों को जिन मन्दिर के अन्दर अपने संघ को साथ ले महान् उत्सव के साथ महा अभिषेक भी करना चाहिए ।। २७ - २६ ।। रत्नत्रय व्रत धारण करनेवालों का यह विशेष कर्तव्य रा है कि वे तीन दिन तक समस्त गृह सम्बन्धी आरम्भों का त्याग कर लगातार जिन - मन्दिर के अन्दर रहें तथा वहाँ पूजा तथा आवश्यक कृत्यों में दत्तचित्त हो धर्मध्यान से काल व्यतीत करें ||३०|| समस्त प्राणियों को अभयदान आदि देकर गीत, नृत्य आदि कराकर व्रती को इस महान् पर्व में अपनी शक्ति के अनुसार नाना प्रकार का उत्सव करना चाहिए ।।३१।। जो पुरुष रत्नत्रय व्रत का आचरण करनेवाला है, उसे चाहिए कि वह रत्नत्रय व्रप्त के बाद उस रत्नत्रय के स्मरण के लिए अपने दक्षिण हाथ में तीन मोतियों को धारण करे ||३२|| इस प्रकार रत्नत्रय के यन्त्र तथा श्री जिनेन्द्र आदि की त्रयोदशी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा -- इन तीन दिन पर्यन्त भक्तिपूर्वक पूजा कर प्रतिपदा के दिन भी पैंतीस (छत्तीस) प्रकार के व्यन्जनों से आनन्दपूर्वक उनकी पूजा करे ।। ३३ ।। उसके बाद वह व्रती निवास गृह आवे तथा उत्तम, मध्यम, जघन्य-- तीनों प्रकार के पात्रों को यथायोग्य दान देकर प्रसन्नता से प्रासुक तथा मधुर भोजन से रा ण १९ श्री म ल्लि ना 555 पु ण Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारणा करे । उसके बाद शुद्ध रत्नत्रय की तीव्र भक्ति तथा प्रेम से जिसकी आत्मा गद्गद् है, ऐसा वह रत्नत्रय का व्रत का आचरण करनेवाला व्रती पारणा के दिन के अवशिष्ट समय को तथा समस्त रात्रि का जिन-मन्दिर में ही जाकर व्यतीत करे ।।३४-३५।। इस प्रकार हे राजन् ! तुम्हारे सामने यह रत्नत्रय की पूजा का विधान विस्तार से कहा है। तम्हारे से भिन्न दसरे परुष के लिए वह संक्षेप से कहा जा सकता है। वह संक्षेप से कहा जानेवाला रत्नत्रय का विधान इस प्रकार है । तुम भी ध्यान से सुनो-- जो पुरुष रत्नत्रय व्रत का पालन करनेवाला है, उसे भगवान अरहनाथ, मल्लिनाथ एवं मुनिसुव्रतनाथ--इन तीनों तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का जिस रूप से शास्त्र में अभिषेक का विधान लिखा हआ है. उस विधान से भक्तिपूर्वक || अभिषेक करना चाहिए तथा इन तीनों प्रतिमाओं के सामने पहिले के समान भक्तिपूर्वकरत्नत्रय यन्त्रों को लिख कर रख देना चाहिए एवं एक साथ सबका पूजन करना चाहिए । इस रूप से भी रत्नत्रय का विधान संक्षेप से माना गया हैं । रत्नत्रय का विधान भाद्रपद मास में बतलाया गया है । इसलिए ग्रन्थकार भाद्रपद मास की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार मनुष्यों में श्रेष्ठ राजा माना जाता है, उसी प्रकार समस्त मासों के अन्दर भाद्रपद मास ही श्रेष्ठ | है; क्योंकि वह अनेक प्रकार के व्रतों का स्थान स्वरूप है एवं धर्म प्रधान कारण है ।।३६-३६।। इसलिए समस्त गृहारम्भ का परित्याग कर इस भाद्रपद मास में व्रती पुरुष पूजा, व्रत एवं उपवास आदि के द्वारा तथा धर्म के आचरण से पापों के नाश में प्रवृत्त होते हैं ।।४०।। जिस रूप से भाद्रपद मास में रत्नत्रय व्रत का विधान बतलाया है, उसी विधि से उसे माघ मास एवं चैत मास में भी आचरण करना चाहिए। क्योंकि यह अनुपम रत्नत्रय व्रत संसार के उत्तमोत्तम भोग प्रदान कर अन्त में मोक्षसुख को प्रदान करनेवाला है।॥४१।। जो महानुभाव तीन दिन पर्यंत उपवास करने के लिए असमर्थ हैं; किन्तु रत्नत्रय व्रत के पालन करने में पूरी-पूरी भक्ति एवं श्रद्धा रखते हैं, वे शक्ति के अनुसार एक प्रोषध आदि से ही रत्नत्रय व्रत के पालक माने जाते हैं । अर्थात् उनके लिए त्रयोदशी, चतुर्दशी एवं ||२० पूर्णिमा--इन तीनों दिन तक उपवास करने की कोई आवश्यकता नहीं । वे ऐसा भी कर सकते हैं कि त्रयोदशी के दिन एक बार भोजन कर सारा दिन एवं रात्रि का समय मन्दिर में ध्यान आदि कार्यों में व्यतीत करें । चतुर्दशी के दिन पूरा उपवास करें एवं मन्दिर के अन्दर ही स्वाध्याय आदि में दत्तचित्त होकर अपना समय व्यतीत करें। । ण भी Jain Education international For Privale & Personal use only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | के दिन पूजा आदि आवश्यक कर्मों के समाप्त हो जाने पर एक बार भोजन करें एवं फिर मन्दिर में ही जाकर दिन | का एवं रात्रि का समस्त समय स्वाध्याय आदि में लगावें, प्रतिपदा के दिन घर आयें तथा जो भी विधि ऊपर कही गई है, उसे करें । यहाँ पर यह शंका नहीं करनी चाहिए कि व्रत की जो पूरी विधि बतलाई है, उसी से अभीष्ट फल की सिद्धि हो सकती है तथा न्यूनता होने से वह फल प्राप्त नहीं हो सकता; क्योंकि शक्ति के अनुसार किए जानेवाले दान तथा तप भी संसार में अनेक अभीष्ट फलों के प्रदान करने में कारण माने गए हैं-उनसे भी संसार में अनेक प्रकार के अभीष्ट तथा उत्तमोत्तम फलों की प्राप्ति होती है ।।४२-४३।। जिस रत्नत्रय व्रत का ऊपर खुलासा रूप से वर्णन किया गया है, वह व्रत श्रावक, श्राविका, मुनि तथा आर्यिका सबों को पालन करना चाहिए; क्योंकि वह पवित्र | व्रत पापों का सर्वथा नाश करनेवाला है एवं नाना प्रकार के सुखों की इससे प्राप्ति होती है ।।४४।। यह परमोत्तम रत्नत्रय व्रत तीन वर्ष पर्यंत बराबर पालना चाहिए, जिस समय तीन वर्ष समाप्त हो जाए तथा व्रत भी पूरा हो जाए, उस समय जिसकी जैसी शक्ति हो भक्तिपूर्वक उद्यापन करना चाहिए ।।४५।। उद्यापन की विधि इस प्रकार है--खूब ऊँचे-ऊँचे विशाल तथा रत्नों की दीप्ति से दैदीप्यामान जिन चैत्यालय बनावे तथा उनमें अरहनाथ, मल्लिनाथ आदि की प्रतिमाओं की ठाट-बाट से प्रतिष्ठा कर उन्हें उन चैत्यालय में विराजमान करें। तत्पश्चात् श्रावक श्राविका एवं || मुनि तथा आर्यिका-इस चार प्रकार के संघ को साथ लेकर जिन-मन्दिरों में सबों को अभिभूत करनेवाला महा | अभिषेक करावे तथा बड़े समारोह के साथ महा पूजा आदि का उत्सव करना प्रारम्भ करे । घण्टा, चमर, चाँदनी, झाड़ी तथा आरती आदि जितने भी धर्म के अनेक प्रकार के उपकरण हैं, उनमें हर एक को तीन-तीन कर दे ।।४६-४८।। पक्व अन्न, लाडू, घेवर, फेनी आदि जो भी पूजा के द्रव्य हैं, अपनी शक्ति के अनुसार भक्तिपूर्वक उन्हें प्रदान करे तथा महामनोहर नारियल, केला आदि के उत्तमोत्तम फलों को दे ।।४६।। इस प्रकार पक्व अन्न तथा नारियल के फल आदि पूजा के कारणों को तथा घण्टा, चमर, चाँदनी आदि शोभा के कारणों को जिन-मन्दिर में प्रदान ||२१ कर उत्तमोत्तम वाद्य, गीत तथा नृत्य आदि के विपुल आयोजन से जिन-मन्दिर में महान् उत्सव भी करे ।।५०।। जो महानुभाव रत्नत्रय व्रत से विभूषित हैं, उन्हें अपनी शक्ति के अनुसार यथायोग्य धर्म के प्रधान कारण ग्रन्थ भी आचार्यों को भक्तिपूर्वक भेंट करने चाहिए । श्रावक, श्राविका तथा मुनि, आर्यिका के भेद से जो ऊपर चार प्रकार का संघ Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा गया है, उन्हें विशिष्ट सम्मान के साथ भक्तिपूर्वक बुला कर अत्यन्त हर्ष से आहार, औषध आदि दान देना चाहिए ।।५१-५२।। प्रभावना अंग का स्वरूप ऊपर जहाँ, पर सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का स्वरूप कहा है, वहाँ विस्तार से कह दिया है, इसलिए जो महानुभाव रत्नत्रय व्रत के पालक हैं, उन्हें भगवान जिनेन्द्र के शासन का माहात्म्य प्रकट कर एवं मन्दिरों के अन्दर भी अनेक प्रकार के बहुविध उत्सव करा कर सम्यग्दर्शन के प्रधान अंग प्रभावना का पालन करना चाहिए ।।५३।। यह तो हुई अत्यन्त व्यवसाध्य उद्यापन की बात, किन्तु जो महानुभाव इतना व्यय कर उद्यापन करने में असमर्थ हैं--उद्यापन के लिए इतना अधिक व्यय नहीं उठा सकते, उन्हें चाहिए कि वे अपनी शक्ति के अनुसार भक्ति एवं हर्ष के साथ थोड़ा ही उद्यापन करें-उन्हें उतने ही उद्यापन से अभीष्ट फल की प्राप्ति होगी; परन्तु जो महानुभाव इतने में भी असमर्थ हैं कि थोड़ा-सा भी उद्यापन का विधान नहीं कर सकते, उन्हें चाहिए कि वे रत्नत्रय व्रत का जो विधान बतलाया गया है, विशुद्ध भावों से उसका दूना विधान करें अर्थात् तीन वर्ष की जगह वे छः वर्ष || तक रत्नत्रय का विधान लगातार करें, ऐसा होने से उन्हें उद्यापन करने की फिर आवश्यकता नहीं ।।५४-५५।। यह || रत्नत्रय व्रत असीम पुण्य के अर्जन का कारण है । स्वर्ग का कारण है, संसार के समस्त पापों का सर्वथा नाश करनेवाला है एवं मुक्तिरूपी महादुर्लभ लक्ष्मी को वश में करनेवाला है ।।५६।। रत्नत्रय व्रत की प्रशंसा करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि परम सुख का स्थान स्वरूप एवं समस्त व्रतों में सार इस रत्नत्रय व्रत को जो महानुभाव | धारण करते हैं, वे सोलहवें स्वर्ग के सुख का लाभ करते हैं एवं धीरे-धीरे अनुक्रम से वे अविनाशी मोक्ष सुख का भी रसास्वादन करते हैं ।।५७।।" मुनिराज सुगुप्त के मुख से रत्नत्रय का माहात्म्य सुन कर राजा वैश्रवण को परमानन्द प्राप्त हुआ। भक्तिपूर्वक उसने रत्नत्रय व्रत धारण किया एवं विनयपूर्वक मुनिराज को नमस्कार कर वह अपने राज-मन्दिर में आ गया ।।५८।। || राज-मन्दिर में आकर राजा वैश्रवण में परम भक्ति एवं श्रद्धा के साथ मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति के लिए रत्नत्रय व्रत का | २२ प्रारम्भ किया एवं वास्तविक रीति से उसे पूरा किया ।।५६।। व्रत के अन्त में उद्यापन के समय राजा वैश्रवण ने भगवान श्री जिनेन्द्र के अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया तथा महान् उत्सव का समारम्भ किया ।।६०।। तब राजा वैश्रवण ने अन्य जिन-मन्दिरों में तथा राज-परिसर के जिन-मन्दिरों में समस्त प्रकार के ऐश्वर्यों को प्रदान करनेवाली 4441ख Jain Education interational Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा महापूजा का प्रतिदिन करना प्रारम्भ कर दिया। वह नरपाल मोक्षलक्ष्मी की प्रचुर लालसा से प्रतिदिन उत्तम पात्रों को आहार, औषध आदि चारों प्रकार का दान देने लगा, किसी भी दीन अवस्था में जैन-धर्म पालन करनेवालों का वह निरीह एवं निर्मल वृत्ति से बड़े हर्ष से उपकार करने लगा एवं साधर्मी भ्राताओं में गाय-बछड़े के समान प्रेम दर्शा कर परिपूर्ण वात्सल्य अंग का उसने पालन करना आरम्भ कर दिया ।।६१-६२।। वह महानुभाव राजा वैश्रवण अष्टमी, चतुर्दशी आदि समस्त पर्यों में ऊपर कही गई विधि के धारक प्रोषध व्रत का आचरण करने लगा एवं निर्मल भावों से गृह के कार्यों से सर्वथा विमुख हो वह पवित्र आचरण कर शुभ आचरण करनेवाले यति के समान हो गया ॥६३।। अहिंसा, अचौर्य, सत्य, स्वदारा-सन्तोष एवं परिग्रह परिमाण--ये पाँच अणुव्रत, दिग्वत, भोगोपभोग परिमाणव्रत एवं अनर्थदण्डव्रत--ये तीन गुणव्रत एवं देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास तथा वैयावृत्य--ये चार शिक्षाव्रत इस प्रकार श्रावकों के बारह व्रत हैं । राजा वैश्रवण मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक पाँचों अणुव्रत, तीनों गुणव्रत तथा चारों प्रकार के शिक्षाव्रतों का निर्दोषरूप से बड़े यत्न के साथ पालन करने लगा ।।६४।। वह महानुभाव उस दिन से अज्ञान की सर्वथा निवृत्ति के लिए तथा ज्ञान सम्पादन करने के लिए भगवान अहंत (जिनेन्द्र) के मुख से उत्पन्न जैन शास्त्रों का श्रवण तथा मनन करने लगा तथा उससे मुक्ति प्राप्ति की अभिलाषा चित्त में करने लगा ।।६।। हितकारी तथा परिमित वचनों का बोलनेवाला वह वाग्मी राजा वैश्रवण सभा में रहनेवाले समस्त प्राणियोंको उनका उपकार हो-- इस पवित्र अभिलाषा से प्रतिदिन दिव्य तथा मनोहर वचनों में धर्मोपदेश देने लगा।।६६।। जहाँ से अगणित आत्माओं से मोक्ष प्राप्त किया है; ऐसे तीर्थों की यात्रा करना, जिनेन्द्र आदि की पूजा करना, उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम करना, उत्तम पात्रों का आहार आदि दान देना तथा भक्तिपूर्वक शीलव्रत आदि का पा इस प्रकार के पुण्य को उत्पन्न करनेवाले पवित्र कार्यों से वह राजा सदा ही धर्म का आचरण करने लगा ।।६७। वह राजा चित्त में जिस किसी भी पदार्थ के बारे में विचार करता था, उस समय केवल धर्म का ही विचार करता, २३ धर्म के विचार के सिवाय अन्य किसी विचार को उसके हृदय में जगह नहीं मिलती थी। जब कभी वह मनुष्यों के सामने कुछ वचन बोलता था, उस समय धर्म से सम्बन्ध रखनेवाला ही वचन बोलता था, उसके मुख से सिवाय | धर्म सम्बन्धी वचन के अन्य वचन नहीं निकलता था । शरीर से भी वह धर्म की क्रियाओं का ही आचर करता Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शि था । अन्य किसी प्रकार की क्रियाओं का उसके शरीर से आचरण नहीं होता था; इसलिए वह राजा साक्षात् धर्मस्वरूप था ।।६८।। वह राजा वैश्रवण सर्वदा धर्म का आचरण करता था, इसलिए यद्यपि वह समस्त इन्द्रियों को तृप्त करनेवाले भोगों का भोग तो करता था; परन्तु धर्मानुकूल उत्कृष्ट भोगों का ही भोग करता था, धर्म विरुद्ध मर्यादा से अतिक्रान्त भोगों का भोग नहीं करता था ।।६६।। कदाचित वर्षा ऋतु का पूर्ण प्रारम्भ हो चुका था तथा उसके निमित्त से वन की वृक्षावली फल-फूलों से युक्त म हरी-भरी शोभित हो रही थी। उस समय राजा वैश्रवण को वन की वृक्षावली देखने का कौतूहल हुआ; इसलिए वह || म अपने वशवर्ती अनेक राजाओं के साथ वन की शोभा निरखने चल दिया ।।७०।। मार्ग के समीप में ही एक बड़ का वृक्ष था, जो कि अत्यन्त ऊँचा था, महामनोहर था, पत्तों तथा डालियों से आच्छादित था, गोलाकार था एवं सैकड़ों पक्षियों से भरा था ।।७१।। मार्ग में जाते हुए राजा ने वह बड़ का वृक्ष देखा एवं आश्चर्य से युक्त होकर इस प्रकार थ। कहने लगा--'देखो ! देखो ! यह वृक्ष कितना चौड़ा है, कितना ऊँचा है, इसका मूलभाग कैसा जकड़ा हुआ है एवं कैसा सुन्दर एवं सघन है।' ऐसा कह कर एवं साथ में रहनेवाले लोगों के सामने उस वृक्ष के विषय में अत्यन्त आश्चर्य प्रगट कर वह मार्ग में और भी आगे को चल दिया एवं क्रम से चलता-चलता वन के मध्य भाग में आ पहुँचा ।।७२-७३।। वन में जाकर वहाँ राजा वैश्रवण उत्तमोत्तम स्त्रियों के साथ एवं राजपूत्रों के साथ अपनी इच्छा से अनेक प्रकार की क्रीड़ा करने लगा। जब क्रीड़ा समाप्त हो गई एवं नगर को लौटने लगा तो जिस मार्ग से गया था, उसी मार्ग से नगर को बड़े आनन्द से लौटा । मार्ग में क्या देखता है कि वह आश्चर्यकारी लम्बाई-चौड़ाई वाले जिस वट-वृक्ष को छोड़ गया था, वही क्षणभर में विद्युत के गिरने से खाक हुआ पड़ा है ।।७४-७५।। बस ! कुछ ही क्षणों में वृक्ष की यह विस्मित करनेवाली दुर्दशा देख कर उसे संसार से एकदम वैराग्य हो गया एवं वह मन में इस प्रकर की चिन्ता करने लगा । संसार में बद्धमूलता--मजबूत जड़ सदा किसी की भी नहीं रहती । न किसी का विस्तार--फलना-फूलना सदा रहता है एवं न तुगंत्व-अभिमान किसी का सदा स्थिर रहता है |॥७६।। बड़े आश्चर्य की बात है कि देखो ! कुछ देर पहिले यह वृक्ष कितना विशाल एवं विस्तृत था, सो जब आधे ही क्षण में ऐसी विलक्षण अवस्था को प्राप्त हो गया, अर्थात भस्म में मिल गया, तब किसी का जीवन, यौवन, सुन्दरता आदि स्थिर रहेंगे--यह २४ Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 क्या निश्चय है ? मेरा तो यह निश्चय है कि जिस प्रकार यह बड़ वृक्ष मूल से लेकर शीर्ष पर्यंत विद्युत की तीव्र || ज्वाला से जल कर भस्म हो गया है, उसी प्रकार यमराजरूपी अग्नि से ये समस्त जीव--उनके शरीर भस्मीभूत हो जायेंगे, अर्थात् किसी जीव की पर्याय सदा काल स्थिर नहीं रह सकती ।।७७-७८|| जिस राज्य को पाकर लोग मद में मत्त हो जाते हैं, वह राज्य धूल के समान है, महा निन्द्य है, दुःख तथा चिन्ता आदि का समुद्र है । इसके निमित्त से अनेक प्रकार के आरम्भ करने पड़ते हैं एवं उनसे जायमान पापों की उत्पत्ति होती है तथा सदा इसके लिए निन्दित ध्यान ही बना रहता है; इसलिए ऐसे निन्दित राज्य का कोई बुद्धिमान पालन नहीं कर सकता ||७६।। लक्ष्मी का || घमण्ड लोगों को पागल कर देता है, सो यह लक्ष्मी छाया के समान चन्चल है। अर्थात् जिस प्रकार वृक्ष की छाया कभी पश्चिम की ओर तो कभी पूर्व की ओर हो जाती है, उसी प्रकार यह लक्ष्मी आज किसी की है, तो कल किसी की है तथा यह समस्त चिन्ताओं को उत्पन्न करनेवाली है, अर्थात् लक्ष्मी के सम्बन्ध से ही अनेक प्रकार की चिन्ता लगी रहती है, निर्धन को विशेष चिन्ता नहीं व्यापती तथा यह लक्ष्मी महा दुष्ट है एवं रागद्वेष, अहंकार, तथा उन्माद सबको उत्पन्न करनेवाली है; इसलिए जो पुरुष सज्जन हैं, वास्तविक रूप से हित-अहित के जानकार हैं, उन्हें यह लक्ष्मी कभी भी रन्जायमान नहीं कर सकती ।।८।। मोह के तीव्र जाल में जकड़ कर लोग भ्राता, पिता, पुत्र, स्त्री आदि बाँधवों को अपना मानते हैं; परन्तु वे बाँधव सर्वथा बन्धन स्वरूप ही हैं; क्योंकि स्त्री तो बेड़ी के समान है, | अर्थात् जिस पुरुष के पैर में बेड़ी पड़ी हुई है, वह पुरुष जिस प्रकार कहीं नहीं जा सकता एवं जाता है, वहाँ बेड़ी। सहित ही जाता है, उसी प्रकार जिस परुष की स्त्री मौजद है, वह परुष भी कहीं नहीं जा सकता तथा जहाँ जाता है, वहाँ स्त्री को भी साथ ही रखना पड़ता है, इसलिए दीक्षा आदि शुभ कर्मों में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती तथा गले में जिस प्रकार श्रृंखला (तोक) पड़ी रहती है, उसके समान पत्र हैं एवं समस्त कटम्ब पाश के समान है। यह गृहस्थाश्रम कारागार--कैद के समान है, घोर कष्टदायी है। नाना प्रकार की चिन्तायें एवं उनसे जायमान दुःख शोक ||२५ आदि से व्याप्त है, समस्त पापों का स्थान है। वास्तविक धर्म को जड़ से उखाड़ कर फेंक देनेवाला है एवं काम, कध, तीव्र मोह, रागद्वेष आदि का समुद्र है । साथ ही अनंत भवों का प्रदान करनेवाला है, अर्थात गृहस्थाश्रम का सम्बन्ध रहना अनन्तकाल पर्यंत मोक्ष सुख में बाधक है; इसलिए ऐसे महादुःखदायी पापी गृहस्थाश्रम से कोई बुद्धिमान Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम नहीं कर सकता ।। ८२-८३।। श्री श्री म जिनके जाल में निरन्तर यह जीव फँसा रहता है, ऐसे ये योग काले भुजंग के समान हैं, क्योंकि जिस प्रकार भुजंग ऊपर अच्छा जान पड़ता पर भीतर से महादुष्ट है, उसी प्रकार ये भोग भी भोगते समय तो मधुर जान पड़ते हैं, परन्तु अन्त में ये महादुःखदायी होते हैं । भुजंग जिस प्रकार महादुष्ट होता है, उसी प्रकार ये भोग भी महादुष्ट हैं । भुजंग भी जिस प्रकार काटते ही शीघ्र प्राणों का नाश करनेवाला है, उसी प्रकार ये भोग भी प्राणों का नाश करनेवाले हैं । भुजंग का संयोग जिस प्रकार महान् कष्टपूर्वक होता है, उसी प्रकार विषय-भोगों की प्राप्ति भी अनेक प्रकार के दुःखों को झेल कर ही होती है । भुजंग का काटना जिस प्रकार अनेक प्रकार के दुःखों का कारण ल्लि होता है, उसी प्रकार ये विषय भोग भी अनन्त दुःखों के कारण हैं । सर्प जिस प्रकार अत्यन्त चन्चल होता है, उसी प्रकार ये भोग भी अत्यन्त चन्चल हैं, क्षणभर में आने-जानेवाले हैं । भुजंग जिस प्रकार किसी को सन्तोष प्रदान नहीं कर सकता, उसी प्रकार ये भोग भी किसी प्रकार का सन्तोष उत्पन्न नहीं कर सकते। जितने-जितने अधिक भोग भोगे जाते हैं, उतनी-उतनी ही अशान्ति बढ़ती चली जाती है । भुजंग जिस प्रकार क्रूर होता है एवं सदा क्रूर कर्मों पु का करनेवाला होता है, उसी प्रकार ये विषय-भोग भी अत्यन्त क्रूर हैं एवं इनको भोगने से सर्वदा महा क्रूर कर्मों का पु आनव होता रहता है । भुजंग जिस प्रकार शरीर के कदर्थन से उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार ये विषय भोग भी शरीर के कुत्सित ं आचरण से पैदा होते हैं । इनके भोगने से शरीर का सर्वनाश होता है; इसलिए ऐसे महा दुःखदायी भोगों का बुद्धिमान कभी सेवन नहीं कर सकता ।। ८४-८५।। यह शरीर रूपी झोपड़ा माता के रज तथा पुरुष के वीर्य से उत्पन्न हुआ है । हड्डी, मज्जा आदि सात धातु स्वरूप है । महा अशुभ है। भूख, प्यास, काम, वृद्धावस्था, क्रोध एवं अनेक प्रकार के रोगों का ज्वालाओं से व्याप्त है तथा विष्टादि महा अपवित्र पदार्थों का घर है, अत्यन्त निन्दनीय है । पीव सरीखी सड़ी इससे दुर्गन्धि छूटती रहती है, यमराज का आश्रम है -- जिस समय यमराज का प्रकोप होता है, तत्काल इसे खाक में मिल जाना होता है एवं क्षणभर में विनाशीक है । ऐसे इस शरीररूपी झोपड़े में विद्वान कभी ठहरने की लालसा नहीं कर सकता तथा न वह शरीर को ही सर्वस्व मान कर इत्र, तेल आदि से उसकी सेवा कर सकता है ।।८६-८७।। यह संसार जिसका न आदि है, न अन्त है, ऐसा विशाल समुद्र है; क्योंकि जिस प्रकार रा रा ण ण ल्लि ना थ Cbs ना थ २६ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FEEFFFF समुद्र में बड़वानल होती है, उसी प्रकार इस संसार में घोर नर्करूपी बड़वानल मौजूद है--नरकों में जाकर नारकी सदा अग्नि के भयानक कुण्डों में जलते-उछलते रहते हैं। अतएव यह संसार समुद्र के समान सम्भीर है तथा जिस प्रकार समुद्र में अथाह जल होता है, उसी प्रकार यह संसार भी समस्त प्रकार के अकल्याणरूपी जल से भरा हुआ है । जिस प्रकार समुद्र में बड़े-बड़े मत्स्य होते हैं; उसी प्रकार यह समुद्र भी भयंकर रोगरूपी मत्स्यों से खचाखच भरा हुआ है । जिस प्रकार जहाजों को लूटने के लिए समुद्र में चोर-डाकुओं का जमघट रहता है, उसी प्रकार इस संसार में भी समस्त जीवों को लूटनेवाले पाँचों इन्द्रियरूपी पाँच चोर हैं, इनके जाल में फँस कर जीव निरन्तर ठगे जाते हैं । जिस प्रकार समुद्र भयंकर पवन से व्याप्त रहता है, उसी प्रकार यह संसार भी जन्म-मरण एवं वृद्धावस्था रूपी तीव्र पवन के झकोरों से व्याप्त है । समुद्र जिस प्रकार महाभयानक होता है, उसी प्रकार यह संसार भी महाभयानक है। समुद्र जिस प्रकार महाचन्चल, महाविषम, महाघोर, एवं असार होता है, उसी प्रकार यह संसार भी महाचन्चल, महाविषम महाघोर एवं निस्सार है। जिस प्रकार समुद्र का पार पाना कठिन है,उसी प्रकार इस संसार समुद्र का भी जल्दी पार नहीं पाया जा सकता एवं समुद्र जिस प्रकार अगम्य है, उसी प्रकार यह संसार भी महा अगम्य || है। संसार में रुलनेवाले जीव कभी शुभगति को प्राप्ति नहीं कर सकते । ऐसे इस महाभयानक संसार में धर्मरूपी जहाज में न बैठनेवाले ये दीन जीव निरन्तर डूबते एवं उछलते रहते हैं ।। ६५-६०।। प्रातःकाल में दर्भ-दाभ की अनी पर लगी हुई ओस की बूंद जिस प्रकार चन्चल है, थोड़ी ही देर में विनष्ट हो जानेवाली है, उसी प्रकार यह मनुष्यों का जीवन भी विनाशीक है, जल्द नष्ट हो जानेवाला है, जिस प्रकार विद्युत अत्यन्त चन्चल पदार्थ है, क्षणभर में विनष्ट हो जानेवाला है, उसी प्रकार मनुष्यों की सामर्थ्य शरीर, इन्द्रियों की क्षमता अत्यन्त चन्चल है--देखते-देखते विनष्ट हो जानेवाली है तथा अशुभ-कर्म का कारण होने से यह अशुभ है ।।६।। समय आदि काल के भेदों से प्रतिक्षण मनुष्यों की आयु क्षीण होती रहती है तथा जिस प्रकार छिद्रयुक्त हाथ में रक्खा हुआ जल प्रतिक्षण गिरता रहता है, उसी प्रकार मनुष्यों के यौवन आदि भी प्रतिक्षण विनष्ट होते रहते हैं ।।६। इसलिए जो पुरुष मोक्षाभिलाषी हैं--मोक्ष के अविनाशी सुख का अनुभव करना चाहते हैं, उन्हें जब तक आयु क्षीण नहीं हो जाए, लगातार कार्य करने की सामर्थ्य भी रहे, यौवन अवस्था भी शरीर में जाज्वल्यमान रहे, अपने-अपने विषयों का ज्ञान कराने में इन्द्रियाँ भी Jain Education interational For Privale & Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FFFF सबल रहें तथा जब तक वृद्धावस्था शरीर पर अपना प्रभाव न डाले उसके पहिले ही गृहरूपी पाप का सर्वथा त्याग | कर देना चाहिए एवं परम दिगम्बरी जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर मोक्षरूपी लक्ष्मी के चित्त को आनन्द प्रदान करनेवाला घोर तप तपना चाहिए ।।६३-६४।। राजा वैश्रवण को वटवृक्ष के अकस्मात् जल जाने से संसार, शरीर, भोग तथा गृह आदि से वैराग्य तो हो ही गया था; परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से उनके स्वरूप का विचार करने से अब उसे वैराग्य दूना भी हो गया । संसार, शरीर श्रा आदि पदार्थों से उसका सर्वथा ममत्व छूट गया एवं दिगम्बरी दीक्षा धारण करने के लिए उसने पूर्णरूप से चित्त में || म ठान ली ।।६।। वह राजा अपने राज्य आदि से निराकांक्ष--विमुख हो गया एवं मुक्ति-लक्ष्मी को सिद्ध करने के लिए उसकी पूरी-पूरी अभिलाषा हो गई। बड़ के वृक्ष के समीप से वह प्रतिक्षण अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओं का ही बारम्बार चिन्तवन करता हुआ राजमहल तक पहुँचा ।।६६।। राजमहल में पहुँच कर राजा वैश्रवण ने सज्जनों द्वारा सर्वथा त्यागने योग्य राज्य-शासन को अपने पुत्र को प्रदान किया एवं जीर्ण तृण के समान अपने समस्त ऐश्वर्य का सर्वथा परित्याग कर वह श्रीनाग पर्वत की ओर चल दिया । श्रीनाग पर्वत पर समस्त कषाय एवं इन्द्रियों के बाँधने में सर्वथा नागपाश के समान अर्थात् जिनके पास कषाय एवं इन्द्रियों के विषय की लोलुपता फटकने तक नहीं पाती थी, ऐसे श्रीनाग नाम के मुनिराज विराजमान थे। अनेक बड़े-बड़े राजाओं के साथ राजा वैश्रवण उनके समीप गया एवं भक्तिपूर्वक तीन प्रदक्षिणा देकर मस्तक झुका कर नमस्कार किया। मुनिराज के मुखरूपी चन्द्रमा से झरनेवाला धर्मरूपी अमृत पिया, जिससे उसकी मोहरूपी अग्नि शान्त हो गई एवं वह अपने को सुखी अनुभव करने लगा। उसी समय उसने मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक बाह्य-अभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग कर दिया एवं अनेक राजाओं के साथ उसने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली ।।६७-१००।। ___ जिन मुनिराज वैश्रवण ने पहिले तो तीव्र पुण्य के उदय से समस्त उत्तम सुख के समुद्र स्वरूप सारभूत धर्म ||२८ कार्यों को किया, पीछे से "अविनाशी अनुपम मोक्ष सुख प्राप्त हो जाए" इस अभिलाषा से समस्त सुखों की स्थान स्वरूप जैनेश्वरी दीक्षा धारण की, वे मुनियों के शिरोमणि मुनिराज वैश्रवण चिरकाल इस संसार में जयवन्त हो कर वृद्धि को प्राप्त हों ।।१०१।। जिन पवित्र भगवान मल्लिनाथ ने पहिले तो 'रत्नत्रय' नाम का परम पावन व्रत पालन 46 FEB Jain Education interational For Private & Personal use only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EF किया, तदुपरान्त रात्रि-दिन मनुष्य लोक के उत्तमोत्तम भोग भोगे, तीर्थंकर पद प्राप्त किया एवं बाल्य अवस्था में ही | घोर तप के द्वारा मोक्षरूपी रमणी को स्वीकार किया, वे मल्लिनाथ जिनेन्द्र हमें अपनी दिव्य शक्ति प्रदान करें ।।१०२।। भट्टारक सकलकीर्ति कृत संस्कृत मल्लिनाथ चरित्र की पं. गजाधरजी न्यायतीर्थ विरचित वचनिका में रत्नत्रय का दूसरा परिच्छेद सम्पूर्ण हुआ ।।२।। तृतीय परिच्छेद ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय नामक चार घातिया-कर्मरूपी बैरियों को जड़ से उखाड़ कर फेंक देनेवाले, अनन्त गुणों के समुद्र एवं तीनों लोक के जीव भक्तिपूर्वक जिनकी सेवा तथा पूजा करते हैं ऐसे भगवान श्रीमल्लिनाथ को मैं उनके अनुपम गुणों की प्राप्ति के लिए भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ ।।9।। समस्त प्रकार के प्रमादों को त्याग कर विनयपूर्वक मुनिराज वैश्रवण ने अंगों का अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया तथा थोड़े ही दिनों में वे मुनिराज अपनी श्रेष्ठ बुद्धि से ग्यारह अंग स्वरूप सिद्धान्त समुद्र के पार को प्राप्त हो गए, अर्थात् उन्हें ग्यारह अंगों का परिपूर्ण ज्ञान हो गया ।।२।। वे परम धीर-वीर मुनिराज अपनी सामर्थ्य को न छिपा कर प्रतिदिन बारह प्रकार के तपों को तपने लगे, जो तप निर्दोष थे तथा दुष्कर्मरूपी वन को भस्म करने के लिए दावानल के समान थे ।।३।। वे मुनिराज शून्य खण्डहरों में, श्मशान भूमियों में, पर्वत की गुफाओं में तथा जनशून्य वृक्षों की कोटरों में सिंह के समान निर्भय होकर निवास करते थे ।।४।। स्पर्शन आदि इन्द्रियों पर परिपूर्ण रूप से विजय पानेवाले तथा प्रमाद रहित वे मुनिराज सदा उत्तम ध्यान तथा अध्ययन में प्रवृत रहते थे तथा स्वप्न के दौरान भी वे राजकथा आदि विकथाओं का उल्लेख नहीं करते थे ।।५।। आर्त, रौद्र, धर्म तथा शुक्ल के भेद से ध्यान के चार भेद माने जाते हैं इनमें आदि के ध्यान निन्दित हैं; क्योंकि उनसे निन्दित गतियों की प्राप्ति होती है तथा अन्त के धर्म्य तथा शुक्ल--ये दो ध्यान प्रशस्त हैं; क्योंकि उनसे स्वर्ग-मोक्ष के सुख प्राप्त होते हैं । वे मुनिराज वैश्रवण मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा से सदा चित्त को स्थिर कर उत्तम-ध्यान (धर्म्य-ध्यान तथा शुक्ल-ध्यान) का ही चिन्तवन करते थे; आर्त-ध्यान तथा रौद्र-ध्यानरूप अशुभ ध्यानों का कभी भी अपने चित्त में विचार न लाते थे ।।६।। जिस प्रकार पवन सर्वत्र अकेल विचरता रहता है, उसी प्रकार वे धीर बुद्धि के धारक मुनिराज ग्राम, खेट, मटम्ब, उद्यानों के प्रदेश, पर्वत तथा वन 444449 प Jain Education international For Privale & Personal use only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 449 आदि में अकेले ही विहार करते फिरते थे, अपनी निर्भय वृत्ति के कारण किसी का भी संग नहीं चाहते थे ।।७।। | १. दर्शनविशुद्धि, २. विनयसम्पन्नता, ३. अतीचार रहित शीलव्रतों का पालना, ४. सर्वदा ज्ञानाभ्यास करना, ५.संवेग रखना, ६. शक्ति के अनुसार दान करना, ७. शक्ति के अनुसार तप करना, ८. साधुसमाधि, ६. वैयावृत्य करना, १०. अर्हन्त भगवान की भक्ति करना, ११. आचार्य भगवान की भक्ति करना, १२. शास्त्रों के मर्मज्ञ (जानकार) उपाध्यायों की भक्ति करना, १३. प्रवचन में भक्ति करना, १४. छः आवश्यकों का पालन करना, १५. मोक्षमार्ग की प्रभावना करना तथा १६. वात्सल्य भाव रखना, यह सोलह भावना हैं । इन सोलह प्रकार की भावनाओं के भाने से तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है । मुनिराज वैश्रवण ने भी इस प्रकार सोलह भावनाओं का भाना प्रारम्भ कर | दिया। मुनिराज वैश्रवण का जीवादि पदार्थों का श्रद्धान शंका-कांक्षा आदि दोषों से रहित था एवं निःशंकित तत्व तथा निकांक्षितत्व आदि गुणों से विभूषित था; इसलिये सदा सम्यग्दर्शन के अन्दर विशुद्धता रहने के कारण उनके दर्शनविशुद्धि भावना थी ।।८।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा तप--इन चारों आराधनाओं का तथा इन | चारों प्रकार की आराधनाओं को पालन करनेवालों की वे अच्छी तरह विनय करते थे, इसलिये उनके विनय भावना का पालन था ।।६।। किसी प्रकार शीलव्रतों में अतीचार नहीं लग जाय, इस रूप से वे शीलव्रतों का पालन करते थे; इसलिये उनके अतीचार रहित शीलव्रतों का पालन रूप भावना थी, वे श्रुतज्ञान का निरन्तर अध्ययन करते थे तथा दूसरों को अध्ययन कराते थे; इसलिये उनके सर्वदा ज्ञानाभ्यास करना रूप भावना थी ।।१०।। शरीर भोग एवं स्त्री-पुत्र आदि समस्त संसार के पदार्थों से उन्हें प्रतिकाल संवेग भाव रहता था, इसलिये वे संवेग भावना का पालन करते थे। अन्य मुनियों को सिद्धान्त का रहस्य प्रदान करते थे, इसलिये शक्ति के अनुसार दान देना रूप उनके भावना थी। ज्ञानावरण आदि समस्त कर्मों को जड़ से नष्ट करने के लिये वे शक्ति को न छिपा कर समस्त तप तपते थे, इसलिये उनके शक्ति के अनुसार तप भावना का पालन था । मुनियों के तप में किसी प्रकार का विघ्न आकर उपस्थित हो जाए तथा उससे उनके आवश्यक कर्म में किसी प्रकार की रुकावट उपस्थित हो जाए, तो उनका समाधान कर देना समाधि है । मुनिराज वैश्रवण अच्छी तरह साधुओं को समाधि कराते थे; इसलिये वे पूर्णरूप से ३० Jain Education international Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु समाधि नामक भावना के पालक थे ।।११-१२।। १.आचार्य २. उपाध्याय ३. तपस्वी ४. शैक्ष्य ५. ग्लान ६. गण ७. कुल ८. संग ६. साधु तथा १०. मनोज्ञ--इस प्रकार ये दश भेद साधुओं के होते हैं । इन दश प्रकार के साधुओं को दुःख उपस्थित होने पर उस दुःख को दूर करने की इच्छा से जो टहल-चाकरी करनी होती है, उस वैयावृत्यकरण नाम की भावना का भी उनके अखण्ड रूप से पालन था । वे मुनिराज मन-वचन एवं काय की शुद्धि रख कर अर्हन्त तथा आचार्यों की पूर्ण भक्ति करते थे; इसलिये उनके अर्हन्त भगवानकी भक्ति तथा आचार्य भगवान की भक्ति--ये दोनों भावनायें भी अखण्ड रूप से थीं। वे मुनिराज श्रुतज्ञान की प्राप्ति के लिए बहुत शास्त्रों के जानकार उपाध्यायों की एवं शास्त्रों की भी मन-वचन-काय रूप योगों की शद्धता से मोक्षरूप स्त्री की सखी स्वरूप अखण्ड भक्ति करते थे, इसलिये उनके बहुश्रुतभक्ति तथा प्रवचनभक्ति नाम की भी दोनों भावनाओं का अखण्डरूप से पालन था ।।१४।। १.सामायिक २.चतुर्विंशतिस्तव ३.वन्दना ४.प्रतिक्रमण ५.प्रत्याख्यान तथा ६. कायोत्सर्ग--ये छः भेद आवश्यक क्रियाओं के माने गए हैं । जहाँ पर हिंसादि समस्त पापयोगों की निवृत्ति है, वह सामायिक नाम का | आवश्यक है। चौबीसों तीर्थंकरों के गुणों का कीर्तन करना, चतुर्विंशतिस्तव नाम का आवश्यक है। मन-वचन-काय की शुद्धि रखना, दोनों प्रकार के आसनों का उपयोग में लाना, चारों दिशाओं में चार बार मस्तक का झुकाना तथा प्रत्येक दिशा में तीन-तीन के भेद से बारह आवर्त करना वन्दना है, भूतकाल में लगे हुए दोषों का परिहार करना | प्रतिक्रमण, भविष्यत में लगनेवाले दोषों का परिहार करना प्रत्याख्यान एवं कुछ परिमित काल का संकल्प कर “यह मेरा है" इस रूप से शरीर से ममत्व बुद्धि का त्याग कर देना कायोत्सर्ग है । वे मुनिराज प्रमाद को सर्वथा दूर कर जिस आवश्यक क्रिया का जिस समय में विधान था, उसी समयमें उसे परिपूर्ण रूप से किया करते थे; किन्तु किसी आवश्यक क्रिया की हानि वे कभी नहीं करते थे, इस रूप से छहों आवश्यकों का पालन होने से वे 'छह आवश्यकों का नियम से पालना' नाम की भावना को भी अच्छी तरह पालते थे ।।१५।। वे मुनिराज नाना प्रकार के उग्र तपों | को तप कर भगवान श्री जिनेन्द्र के शासन का माहात्म्य भी अच्छी तरह प्रदर्शित करते थे; इसलिए मार्ग प्रभावना नाम भावना का भी उनके अच्छी तरह पालन होता था। वे मुनिराज साधर्मी भ्राताओं में गौ-बछड़े के समान अत्यन्त प्रेम रखते थे; इसलिए प्रवचन वात्सल्य नाम की भावना का भी उनके अखण्ड रूप से पालन था ।।१६।। इस प्रकार वे Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि मुनिराज वैश्रवण 'तीर्थंकर' नाम की प्रकृति के असाधारण कारण दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाओं को | मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक सदा अपने मन में भाते रहते थे। दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाओं के भाने से उनके अनन्त कल्याणों का करनेवाली एवं तीनों लोक को कम्पायमान कर डालनेवाली 'तीर्थंकर' प्रकृति का बन्ध हो गया ।।१८।। सर्वथा अतीचारों से रहित समस्त मूल-गुणों का पालन करनेवाले मुनिराज वैश्रवण के सम्यग्ज्ञानपूर्वक उत्तम तप तपने से अनेक प्रकार की ऋद्धियों का समूह प्रकट हो गया । दीर्घ काल तक तप करते-करते मुनिराज वैश्रवण को ज्ञान हो गया कि उनकी आयु बहुत ही कम रह गई है तथा इस प्रकार की उत्तम आयु का पाना दुर्लभ | है। अतः उन्होंने अन्तकाल में समाधि आदि की सिद्धि के लिए निर्मल परिणामों से सन्यास धारण कर लिया ||१६-२०|| ____उन मुनिराज ने समस्त पापों के नाश के लिए साक्षात् मोक्ष प्रदान करनेवाली सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा तप--इन चारों आराधनाओं की भक्तिपूर्वक बड़े उत्साह से भावना भाई ।।२१।। क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण आदि समस्त परीषहों को उत्साह तथा बल से जीतने के कारण यद्यपि उन मुनिराज का शरीर नितान्त कृश हो गया था तथापि भूख-प्यास आदि के कारण उनके चित्त में रन्चमात्र भी क्लेश न था, परमात्मपद की प्राप्ति की अभिलाषा से सदा उनका चित्त प्रसन्न रहता था ।।२२।। मनिराज वैश्रवण के चित्त से आर्त तथा रौद्रध्यान सर्वथा नष्ट हो चुके थे, सदा धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान का ही चिन्तवन था; इसलिए चित्त को स्थिर कर वे सदा इन्हीं दोनों प्रशस्त ध्यानों का चिन्तवन करते रहते थे, निन्दित ध्यान की ओर स्वप्न में भी उनकी दृष्टि नहीं जाती थी ।।२३।। अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओं का चिन्तवन करनेवाले वे मुनिराज मन की विशुद्धता के लिए सबसे पहिले अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधु--इन पाँचों परमेष्ठियों का ध्यान करते थे, तत्पश्चात् जीव-अजीव आदि तत्वों का ध्यान करते थे ।।२४।। पाँचों परमेष्ठी तथा तत्वों के चिन्तवन के बाद वे मुनिराज मन को सर्वथा | निश्चल कर चिदानन्द चैतन्य स्वरूप एवं अनन्त गुणों के स्थान अपनी आत्मा का भली प्रकार ध्यान करते थे ।।२५।। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत--पाँच इन्द्रियाँ; मनोबल, वचनबल, कायबल--तीन बल; एवं श्वासोच्छ्वास तथा आयु--ये कुल मिलाकर दश प्राण हैं । इस प्रकार ध्यान करनेवाले योगियों के इन्द्र सदृश मुनिराज वैश्रवण ने प्रसन्न 449404 ||३२ Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FFFF चित्त होकर अन्त में समाधि के द्वारा समस्त लोगों के हितकारी इन दश प्राणों का परित्याग किया ।।२६।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा तप के सम्बन्ध से मुनिराज वैश्रवण के महा पुण्य का उदय हो चुका था; इसलिये उस तीव्र पुण्य के उदय से उन्होंने विजय, वैजयन्त,जयन्त, अपराजित तथा सर्वार्थसिद्धि--ये जो पाँच अनुत्तर विमान हैं, उनमें चौथे अपराजित विमान में जन्म लिया तथा वहाँ पर शिला के मध्यभाग में एक अत्यन्त दिव्य कोमल शैय्या बनी हुई है, जो कि अपने महा उज्ज्वल श्वेत रत्नों की प्रभा से समस्त अन्धकार को नष्ट करनेवाली है, उस कोमल शैय्या ||श्रा पर उत्पन्न होकर अहमिन्द्र पद का लाभ किया ।।२७-२८।। अपनी उत्पत्ति काल के दो घढ़ी बाद उस अहमिन्द्र ने द्रिव्य अनुपम तथा महान ऐसी पूर्ण दिव्यमाला, वस्त्र तथा यौवन अवस्था को प्राप्त भूषणों से स्वयं को भूषित लि किया । इसके बाद महान ऋद्धि का धारी वह अहमिन्द्र देव उस अनुपम शैय्या से उठा तथा आश्चर्य से विस्मित हो उसने समस्त दिशाओं में तथा अहमिन्द्रों के विमानों को बड़े ध्यान से देखा । उसके बाद उसे क्षणभर में अवष्टि ज्ञान प्राप्त हो गया एवं “पहिले जन्म में मैंने रत्नत्रय व्रत तथा उत्तम तप का आचरण किया था, उसका यह फल है"--ऐसा अवधिज्ञान के बल से जान लिया, जिससे उसका समस्त आश्चर्य दूर हो गया ।।२६-३१।। ग्रन्थकार उपदेश देते हैं कि व्रत का माहात्म्य बड़ा ही आश्चर्यकारी है । देखो ! कहाँ तो राजा वैश्रवण का जीव मुनि अवस्था में था || तथा कहाँ जाकर अपराजित नाम के अनुत्तर विमान में महान् ऋद्धि का धारक अहमिन्द्र हो गया, इसलिये सत्पुरुषों || को चाहिये कि वे इस परम आश्चर्यकारी व्रत का माहात्म्य अच्छी तरह विचार कर सदा अपनी उत्कृष्ट बुद्धि को धर्म के अन्दर ही लगावें-- किसी भी अवस्था में धर्म के स्वरूप को न बिसारें ।।३।। जिस समय उस अहमिन्द्र को अपने स्वरूप का पर्णरूप से ज्ञान हो गया. तब वह सबसे पहिले श्री भगवान जिनेन्द्र के मन्दिर में गया तथा वह स्मरण करते ही सामने आनेवाले अनुपम मनोहर ऐसे जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप तथा फल रूपी दिव्य सामग्री से बड़ी-बड़ी ऋद्धियों के धारक अन्य अहमिन्द्रों के साथ भगवान श्री जिनेन्द्र की भक्तिपूर्वक महापूजा ||३३ की ।।३३-३४।। महापजा के बाद बडी भक्ति से भगवानको नमस्कार किया. ललित शब्दों में स्तति की एवं अत्यन्त आश्चर्य करनेवाला उत्सव किया, जिससे उसे बहुत प्रकार के पुण्य की प्राप्ति हुई; तत्पश्चात् वह अपने स्थानस्वरूप विमान में आ गया ।।३५।। वह अहमिन्द्र का जीव निर्मल स्फटिकमय रिझानेवाले अत्यन्त सुन्दर, समस्त प्रकार की Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि ऋद्धियों से व्याप्त उत्कृष्ट तथा संख्यात योजन चौड़े अपने विमान में स्थित, उत्तमोत्तम वन तथा उपवन आदि में, पर्वतों में तथा ऊँचे-ऊँचे महलों में अहमिन्द्रों के साथ मनमानी आनन्द क्रीड़ा करता था, कभी-कभी बिना बुलाये स्वयं आये हुए अन्य अहमिन्द्रों के साथ महान 'जैन-धर्म' पर विचार करने गोष्ठी आयोजित करता था १३६-३८।। स्वभाव से ही सुन्दर अतएव मनोहर उस विमान में जितना उन अहमिन्द्रों का घनिष्ठ प्रेम था, उतना पृथ्वी के अन्य किसी स्थान पर उनका प्रेम नहीं था ॥३६।। वहाँ पर 'अहमिन्द्रः, अहमिन्द्रः' अर्थात् 'मैं इन्द्र हूँ, मैं इन्द्र हूँ', मुझसे बढ़कर कोई भी इन्द्र नहीं, सदा ऐसा विचार हृदय में उछलता रहता है-- इसलिए सर्वदा ऐसा मन के अन्दर विचार रखने से वे अपनी उन्नति से उत्पन्न स्वाधीन सुख का भोग करते हैं ।।४०।। समस्त इन्द्रों के भोग तथा उपभोग समान रूप से होते हैं-- रन्चमात्र कमी-बेशी नहीं होती। उनकी दिव्य मूर्ति भी समान होती है--जो एक की मूर्ति होगी, वही दूसरे की होगी, रन्चमात्र भी उसमें भेद नहीं हो सकता। समस्त अहमिन्द्रों का ज्ञान भी समान रहता है । कला, प्रताप, कीर्ति, कल्याण एवं उत्तम गुण भी सबों के समान ही होते हैं । सबों का प्रेम भी समान ही होता है । महान ऋद्धिओं का स्वामीपन भी सबों का एक-सा है। धर्म में तत्परता भी सबों की एक समान है। सदा शुद्ध आशय रखनेवाले उन अहमिन्द्रों के उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या भी समान है तथा समान रूप से चारित्र के पालने से जायमान पुण्य के विपाक के समस्त अहमिन्द्र अत्यन्त सुन्दर होते हैं, इस रूप से समस्त अहमिन्द्र सब बातों में समान हैं; किसी प्रकार की हीनाधिकता नहीं तथा वे समस्त अहमिन्द्र मोक्षगामी हैं, अधिक से अधिक दो बार मनुष्य भव धारण कर वे नियम से मोक्ष चले जाते हैं ।।४१-४३।। स्वर्गों के अन्दर जो सुख देवरूप से इन्द्रों को प्राप्त हैं, उस सुख की अपेक्षा अपराजित विमानवासी अहमिन्द्रों का सुख असंख्यात गुणा अधिक है एवं वह सुख प्रवीचार (मैथुन) की अभिलाषा से रहित है, अर्थात् सोलह स्वर्ग पर्यन्त देवों का सुख तो प्रवीचारजनित है। उनमें सौधर्म एवं ऐशान स्वर्ग निवासी देव मनुष्यों के समान शरीर से मैथुन सेवन करते हैं, आगे के स्वर्गों के देवों में कोई-कोई अपनी देवागनाओं के स्पर्शमात्र से ही तृप्त हो जाते हैं, कोई-कोई रूप देख कर, तो कोई-कोई भूषणों का शब्द सुन कर एवं कोई-को अपनी देवांगनाओं का मन में स्मरण करने से ही तृप्त हो जाते हैं; किन्तु सोलह स्वर्गों के आगे के देवों में प्रवीचार || का कोई सम्बन्ध नहीं. वे प्रवीचार रहित हैं; इसलिए अपराजित विमानवासी देव भी प्रवीचार रहित दिव्य सुख के 464 Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शि भोगनेवाले हैं ।।४४।। पुण्य से जायमान संसार में जो भी उत्कृष्ट सुख माना गया है, वह समस्त शान्ति स्वरूप एवं अन्तरंग से जायमान सुख अहमिन्द्रों में वर्तमान है ।।४५।। मुनिराज वैश्रवण के जीव अहमिन्द्र का शरीर साक्षात् तेज का पुन्ज ही हो, ऐसा था । स्वभाव से ही सुन्दर था एवं सब प्रकार की माला, उत्तमोत्तम भूषणों एवं वस्त्रों से अत्यन्त सुशोभित था एवं वह एक हाथ ऊँचा था, महामनोहर था । अपनी अनुपम कान्ति से समस्त दिशाओं को जगमगा देनेवाला था, पुण्य की साक्षात् मूर्ति के समान अत्यन्त सुभग था एवं विक्रिया से रहित था ।।४६-४७।। उस अहमिन्द्र म | की आयु तैंतीस सागर की थी। सदा वह शुभ ध्यान में लीन रहता था एवं उसके नेत्र स्पन्दन क्रिया से रहित निर्निमेष थे; इसलिए वह ऐसा जान पड़ता था, मानो ध्यान क्रिया में तल्लीन कोई साक्षात् मुनि है.।।४८।। जिस समय तीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाते थे, उस समय वह मन से संकल्पित दिव्य आहार ग्रहण करता था, जो कि अत्यन्त सुख | प्रदान करनेवाला होता था ।।४६।। वह पुण्यात्मा अहमिन्द्र जब तैंतीस पक्ष बीत जाते थे, तब थोड़ा-सा उच्छ्वास लेता था एवं वह इतना उत्कट सुगन्धित होता था कि उसकी सुगन्धि से समस्त दिशाएँ भी महक जाती थीं--समस्त दिशाओं में सुगन्ध ही सुगन्ध फैल जाती थी ।।५०।। तीनसौ तैंतालीस योजन घनाकार लोक नाड़ी के अन्दर जितने स्थावर जंगम मूर्तिक पदार्थ भरे हुए हैं, उनके अन्दर का ऐसा कोई भी मूर्तिक पदार्थ बाकी नहीं बचा था, जिसे वह महाप्रतापी अहमिन्द्र अपने दिव्य अवधिज्ञान रूप नेत्र से सम्पूर्ण प्रकार से भलीभाँति नहीं जानता हो ।।५।। उस अहमिन्द्र के अवधिज्ञान का विषय लोकनाड़ी बतलाया गया है। इसलिए जितना क्षेत्र उसके अवधिज्ञान का विषय है, उतने क्षेत्र तक वह अपनी विक्रिया ऋद्धि के बल से गगन-आगमन आदि समस्त क्रियाओं को करने में समर्थ था, तथापि वह स्वभाव से ही स्थिर चित्त का धारक था, समस्त कार्य आदि से रहित था, उसे कोई भी कार्य करना नहीं था; इसलिए कभी भी विक्रिया शक्ति को वह काम में नहीं लाता था एवं कहीं भी जाने-आने की उसकी इच्छा नहीं होती थी; इसलिए वह कहीं पर भी जाना-आना नहीं करता था, अपने निजी स्थान में ही अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं को करता हुआ ||३५ आनन्द से रहता था ।।५२-५३।। अपने स्थान पर रह कर केवल क्रीड़ा-कौतूहलों में ही वह दिन नहीं बिताता था; किन्तु अपने अवधिज्ञान के बल से कृत्रिम, अकृत्रिम चैत्यालयों को सम्पूर्ण प्रकार से जान कर उनमें विराजमान भगवान श्री जिनेन्द्र के प्रतिबिम्बों को सदा भक्तिपूर्वक नमस्कार करता था ।।५४।। जिस समय तीर्थंकरों के FF Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान निर्वाणरूप पाँचों कल्याणकों का समारोह होता था, उस समय वह पुण्यात्मा अहमिन्द्र भी धर्म की प्राप्ति की अभिलाषा से तीर्थंकरों को भक्तिपूर्वक नमस्कार करता था एवं अपने चित्त के अन्दर उनके गुणों के प्रति बड़ी विनय करता था ।। ५५ ।। जिस समय उसे अवधिज्ञान के बल से सामान्य मुनियों के ज्ञान - कल्याणक का भी लगता था, उस समय उन्हें भी वह शक्ति के भार से नम्रीभूत होकर सदा मस्तक झुका कर नमस्कार करता था ।।५६।। इस प्रकार अनेक प्रकार से धर्म की आराधना करता हुआ वह महान् ऋद्धि का धारी अहमिन्द्र कल्याण के समुद्र स्वरूप उस अहमिन्द्र पद के सुख में सदा निमग्न रहता था एवं उस समय उसे किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी--वह वहाँ निश्चित होकर सुख से अपना काल व्यतीत करता था ।। ५७ ।। श्री म ल्लि रा ण अनेक महापुरुषों के स्थान - स्वरूप इसी भरत क्षेत्र में अत्यन्त मनोहर एक बंग (बंगाल) देश है, जो कि पृथ्वी पर अत्यन्त विख्यात है, धर्म का परम स्थान है एवं धन-धान्य आदि से समृद्ध होने के कारण अत्यन्त महान् है।। ५८ ।। उस समय उस देश के पत्तन, खेट, पुर एवं ग्राम आदि में धर्मात्मा लोग निवास करते थे । जगह-जगह पर भगवान श्री जिनेन्द्र के मन्दिर जगमगाते थे; इसलिये यह प्रदेश उस समय धर्म की खानि सरीखा जान पड़ता पुथा । इस बंग देश के स्वभावसिद्ध वन मुनियों के आचार सरीखे जान पड़ते थे; क्योंकि जिस प्रकार मुनियों के आचार मनोहर आनन्द को प्रदान करनेवाले होते हैं, उसी प्रकार ये वन भी अत्यन्त मनोहर थे । जिस प्रकार मुनियों के रा आचार फल विशिष्ट होते हैं, स्वर्ग-मोक्ष आदि फलों के प्रदान करनेवाले होते हैं, उसी प्रकार वे वन भी फल विशिष्ट थे--नारंगी, सन्तरा, अनार, अंगूर आदि उत्तमोत्तम फलों से सदा लदे रहते थे एवं जिस प्रकार मुनियों के आचार तुंग (उच्च) होते हैं, उसी प्रकार वे वन भी बड़े ऊँचे-ऊँचे एवं विशाल थे ।। ६० ।। उस बंग देश की वापियाँ भी मुनिराज के चित्तों के समान पवित्र थीं; क्योंकि जिस प्रकार मुनियों के चित्त तृष्णा एवं उससे जायमान क्लेश से रहित हैं, उसी प्रकार वे वापियाँ भी तृष्णा एवं उससे जायमान क्लेश से रहित थीं, अर्थात् उन्हें देखते ही लोगों की तृष्णा एवं उससे जायमान क्लेश दूर भाग जाता था । जिस प्रकार मुनियों के चित्त परम शीतल एवं निज स्वरूप में लीन रहते हैं, उसी प्रकार वे वापियाँ परम शीतल एवं अपने परिमित स्वरूप में विराजमान थीं ।। ६१ । । संसार में वास्तविक धर्म की प्रवृत्ति हो, इस अभिलाषा से मोक्षाभिलाषी भव्यों पर उपकार वृद्धि से प्रेरित हो सदा वहाँ अपने संघ के साथ श्री म लि ना थ ना 5555 थ पु ण ३६ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म॥ दवा का 44 मुनिगण विहार करते थे ।।६२।। वहाँ कोई-कोई पवित्र तीर्थों की यात्रा की तैयारियाँ करते थे। तो कोई-कोई धर्म की प्रभावना करनेवाले कार्य करते थे एवं कोई-कोई भगवान श्री जिनेन्द्र की पूजा आदि का बड़े ठाट-बाट से समारोह करते थे; इसलिए उस देश में तीर्थ-यात्रा, धर्म-प्रभावना एवं भगवान श्री जिनेन्द की पूजा आदि का उत्सव सदा होता रहता था ।।६३।। उस बंग देश में उत्पन्न होनेवाले कोई-कोई विद्वान पुरुष घोर तपों को तप कर मोक्ष प्राप्त करते एवं कोई वास्तविक रूप से गृहस्थ-धर्म के पालन करनेवाले पुरुष उस गृहस्थधर्म की कृपा से, जहाँ पर लौकान्तिक || देवों का निवास स्थान है, ऐसे पाँचवें स्वर्ग में जाकर जन्म धारण करते थे ।।६४।। कोई-कोई महानुभाव उत्तम पात्रों में आहार आदि दानों के देने से सदा सुखस्वरूप भोगभूमि के सुख का रसास्वादन करते थे एवं कोई-कोई पुण्यात्मा || भक्तिपूर्वक भगवान श्री जिनेन्द्र आदि की पूजा कर दिव्य इन्द्रपद प्राप्त करते थे ।।६।। बंग देश में उस समय जैनधर्म का ही सर्वत्र प्रचार था एवं उसके द्वारा लोग सदा स्वर्ग एवं मोक्ष पदों को प्राप्त करते थे; इसलिए परम धर्म के स्थान एवं स्वर्ग-मोक्ष के कारण उस देश में सदा अमृत पान करनेवाले देवगण भी जन्म धारण करने की अभिलाषा करते थे ।।६६।। __इस प्रकार उत्तम वर्णन के धारक बंग देश में एक मिथिला नाम की नगरी है, जो कि मनुष्य के शरीर में नाभि || (टुंडी) के समान ठीक उस देश के मध्य भाग में है । अपनी अनुपम शोभा से स्वर्गपुरी के समान है एवं सर्वत्र धर्मात्मा लोगों से भरी रहने के कारण अत्यन्त शोभायमान जान पड़ती है ।।६७।। जिस प्रकार ऊँचे-ऊँचे परकोटे, विस्तीर्ण वीथियाँ (गलियाँ) एवं गहरी खाईयों से भूषित अयोध्या की शोभा शास्त्र में वर्णित है, उसी प्रकार मिथिलापुरी में भी उस समय बड़े ऊँचे-ऊँचे परकोटे थे। विस्तीर्ण वीथयाँ थीं एवं चारों ओर गहरी खाई थी; इसलिए वह साक्षात् अयोध्या सरीखी जान पड़ती थी तब उसमें अयोध्या के समान बड़े-बड़े वीर पुरुषों का निवास स्थान था; इसलिए वह शत्रओं के लिए अगम्य थी, कोई भी शत्र उस समय उसकी ओर नेत्र उठा कर भी नहीं देख सकता था ।।६।। उस मिथिलापुरी के बड़े-बड़े महलों के अग्रभागों में रंग-बिरंगी अनेक ध्वजाएँ लगी हुई थीं जिनके वस्त्र पवन के झकोरों से फरहरा रहे थे, उससे ऐसा जान पड़ता था कि अनेक प्रकार की ऋद्धियों से शोभायमान मिथिलापुरी अपनी ऋद्धियों का भोग कराने के लिए देवों को बुला रही हो ।।६६।। बड़े-बड़े ऊँचे तोरणों से भूषित एवं अटारियों से Jain Education international Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म शोभायमान भगवान श्री जिनेन्द्र के मन्दिरों की पंक्तियाँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो वे साक्षात् धर्म की समुद्र हैं--कोई || भी आकर उनमें धर्मलाभ कर सकता है; इसलिए जिन-मन्दिरों की पंक्तियाँ से वह मिथिलापुरी उस समय अत्यन्त शोभायमान थी। मिथिलापुरी के जिन-मन्दिरों में सुवर्णमय एवं रत्नमय जिनबिम्ब विराजमान थे। उनमें सदा गीत, नृत्य एवं स्तवन आदि हुआ करते थे। छत्र, चमर आदि दिव्य उपकरण भी जगह-जगह मन्दिरों की शोभा बढ़ाते थे। नौबत (बाजे) फिरा करती थी एवं धर्मात्मा लोगों का सदा आवागमन बना रहता था; इसलिए वे मन्दिर बड़े श्रा रमणीक जान पड़ते थे ।।७०-७१।।. ____ उस समय मिथिलापुरी में उत्तम पात्रों को दान देने से तीव्र पुण्य का बन्ध होता था; इसलिए उसके फलस्वरूप || रत्न, पुष्प एवं गन्धोदक आदि की वर्षा होती रहती थी तथा अन्य भी नाना प्रकार के मांगलिक कार्य हुआ करते थे; इसलिए वह मिथिलापुरी अनेक महोत्सवों से सदा जगमगाती रहती थी ।।७२।। उस मिथिलापुरी के रहनेवाले पुरुष | श्री जिनेन्द्र भगवान एवं जैन मुनियों के परम भक्त थे; अनेक प्रकार एवं ज्ञान-विज्ञान के कला-कौशलों में प्रवीण थे। ||थ सदा आहार आदि दानों के देने से वे परम दानी थे, धर्मात्मा एवं शीलवान थे। उत्तमोत्तम व्रतों के आचरण करनेवाले थे। जो मार्ग पुण्य प्राप्ति करानेवाला था, उसी के अनुयायी थे, पापवर्धक मार्ग का कभी अनुगमन नहीं करते थे; || पु परम सम्यग्दृष्टि थे, जैन-धर्म के परम श्रद्धानी थे; अत्यन्त विनयी एवं सदा शुद्धचित्त के धारक थे, धर्मानुकूल भोगों | को भोगनेवाले थे, धर्म को ही सब कुछ माननेवाले थे, शूरवीर थे एवं अच्छे-बुरे विचारों की मीमांसा करने में अत्यन्त प्रवीण थे। जिस प्रकार पुरुषों के अन्दर गुण थे, उसी प्रकार स्त्रियों के अन्दर भी गुण थे, अर्थात् वे भी पुरुषों के ही समान श्री भगवान जिनेन्द्र एवं निग्रंथ गुरुओं की भक्त थीं एवं अनेक प्रकार के कला-कौशलों में सिद्धहस्त थीं। इस प्रकार पहिले जन्म में कमाए गए पुण्य के उदय से महान् कुलों में उत्पन्न वे स्त्री-पुरुष उस मिथिलापुरी के ऊँचे-ऊँचे महलों में बड़े आनन्द से निवास करते थे ।।७३-७५।। इस प्रकार उत्तम वर्णनों से सुप्रसिद्ध उस मिथिलापुरी का राजा कुम्भ था, जो कि अनेक राजाओं का शिरोमणि था, पृथ्वी पर प्रसिद्ध था एवं अत्यन्त पुण्यवान था ।।७६।। वह राजा कुम्भ मति, श्रुति, अवधि--इन तीनों ज्ञानों का धारक था। हितकारी एवं परिमित वचनों के बोलने के कारण वाग्मी था। इक्ष्वाकु वंशरूपी आकाश के लिए दैदीप्यमान Jain Education international For Private & Personal use only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य था । सदा न्याय-मार्ग का अनुसरण करनेवाला था एवं काश्यप गोत्र का तिलक स्वरूप था ।।७७।। समस्त लोक के आभूषण, दिव्य एवं मनोहर वस्त्र, माला, तेजस्विता एवं मनोहरता से उसका शरीर शोभायमान था । वह अत्यन्त धर्मात्मा था, उत्तम आचरण का पालनेवाला एवं पदार्थों के स्वरूप का भली प्रकार जानकार था ।।७८।। उत्तमोत्तम पात्रों को आहार आदि दान देने के कारण दाता था। धर्मानकल भोगों का भोगनेवाला होने के कारण भोक्ता था । राज-कार्य में अत्यन्त प्रवीण था । अहिंसादि पाँच अणुव्रत एवं तीन गुणव्रत एवं चार शिक्षाव्रत--इस प्रकार सात प्रकार का शीलव्रत एवं अन्यान्य व्रतों का भी ठीक प्रकार आचरण करनेवाला था। श्री भगवान जिनेन्द्र का परम भक्त था, विवेकी एवं सम्यग्दृष्टि था। समस्त लोक का प्यारा था एवं महान था ।।७६। वह महानुभाव कुम्भ नाम का राजा चक्रवर्ती के समान था, क्योंकि चक्रवर्ती जिस तरह समस्त प्रकार की ऋद्धियों से विभूषित रहता है, उसी प्रकार यह राजा भी अनेक प्रकारकी ऋद्धि-विभूतियों से विभूषित था । चक्रवर्ती का जिस प्रकार सब लोग आदर-सत्कार करते हैं, उसी प्रकार राजा कुम्भ का भी सब लोग आदर-सत्कार करते थे एवं उन्हें मानते थे । चक्रवर्ती जिस प्रकार नीति-मार्ग से प्रजा की रक्षा करता है, उसी प्रकार राजा कुम्भ भी नीति-मार्ग से प्रजा का पालन करता था । साथ ही वह राजा चक्रवर्ती के समान अत्यन्त पुण्यवान था एवं महान् जैन-धर्म का संसार में सर्वत्र प्रवर्तन करनेवाला था ॥८॥ ____ महानुभाव, राजा कुम्भ की प्राणों से भी अतिशय प्यारी प्रजावती नाम की पटरानी थी, जो कि समस्त शुभ-लक्षणों के कारण शरीर से शुभ थी एवं दैदीप्यमान प्रभा के धारक अनेक प्रकार के आभूषणों से भूषित थी । महादेवी प्रजावती के दशों नखरूपी चन्द्रमा की किरणों से शोभित एवं दिव्य दोनों चरण-कमल थे। केला के खम्भों के समान अत्यन्त मनोहर दोनों जंघाएँ थीं ।।८१-८२।। महामनोहर करधनी एवं सारभूत किरणों से उसका कटिभाग अत्यन्त जाज्वल्यमान था। उसका उदर अत्यन्त संकीर्ण होने से वह कशोदरी थी। उसकी नाभि भीतर में चक्करदार एवं गोल थी एवं दोनों उरोज अत्यन्त मनोहर थे ।।८।। उसका उदर व वृक्षःस्थल महामूल्यवान हीरों से युक्त होने के कारण जगमगाता था एवं उसके अत्यन्त कोमल महा-मनोहर दोनों हाथ मुद्रिका एवं कड़ों से अत्यन्त शोभायमान जान पड़ते थे ।।१४।। संसार के समस्त उत्तमोत्तम आभूषणों की कान्ति से उसका सारा अंग अत्यन्त दैदीप्यमान था। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कण्ठ (स्वर) अत्यन्त मनोहर था; इसलिए उसका उच्चारण बहुत ही कर्णप्रिय एवं मनोहर था । उसका महामनोहर मुख तेजोमयी लावण्य से दैदीप्यमान था एवं कान्ति के कपोलों से भूषित था ।।८।। उसके नेत्ररूपी कमल महा स्रोत-मनोहर थे, ऊँची नासिका थी, सुन्दर भृकुटियाँ थीं, उसके दोनों कान आभूषणों से जाज्वल्यमान थे, भौरों के समान काले केश थे एवं सुन्दर ललाट से वह शोभायमान थी।।१६।। वह महारानी प्रजावती महा-मनोहर वस्त्रों की पोशाक पहिनती थी। माला आदि का मण्डन करती थी, समस्त दिव्य गुणों से परिपूर्ण थी; अतएव महारूपवती एवं समस्त लोक में वन्दनीय थी ।।१७।। अनेक प्रकार की कलाएँ, विज्ञान, ज्ञान एवं सौभाग्य से वह शोभायमान थी। भगवान श्री जिनेन्द्र के गुणों में वह अत्यन्त भक्ति करती थी, सदाचार का आचरण करती थी, अत्यन्त विनय करनेवाली एवं महासती थी। पुण्य के उदय से उसे भाँति-भाँति के दिव्य भोग एवं उपभोग आदि प्राप्त थे; इसलिए उसके समस्त मनोरथों की सिद्धि हो जाती थी। वह महारानी प्रजावती समस्त पवित्र कार्यों को करनेवाली थी, हर एक बात में अत्यन्त चतुर थी एवं व्रत-शील आदि का सम्यक् प्रकार पालन करनेवाली थी ।।८८-८६। जिस प्रकार सरस्वती देवी का सब लोग आदर-सत्कार करते हैं एवं उसे मानते हैं, ठीक उसी प्रकार महारानी प्रजावती को भी सब लोग बड़े आदर की दृष्टि से देखते थे । वह रूप, लावण्य, सौभाग्य एवं सुखरूपी समुद्र के पार को प्राप्त थी अर्थात् परम रूपवती थी, परम लावण्यवती थी एवं परम सुख को भोगनेवाली थी ।।६०।। इस प्रकार उत्तमोत्तम गुणों की स्थान उस महारानी प्रजावती के साथ वह राजा कुम्भ तृप्ति के देनेवाले एवं निज पुण्य से अर्जित नाना प्रकार के भोगों को यथाकाल बड़े स्नेह के साथ निरन्तर भोगने लगा ।।६।। राजा वैश्रवण का जीव अपराजित विमान में जाकर अहमिन्द्र हुआ था, जब उसकी आयु की समाप्ति में केवल छ:मास का समय शेष रह गया--उस के उपरान्त वह श्री मल्लिनाथ तीर्थंकर होनेवाला था। तीर्थंकर भगवान के जन्म से पन्द्रह मास पहिले उनकी जन्म-भूमि में कुबेर द्वारा रत्नों की वर्षा होने लगती है । यह नियम है; इसलिए इन्द्र ने मिथिलापुरी जाने के लिए कुबेर को आज्ञा दी एवं इन्द्र की आज्ञानुसार वह शीघ्र ही मिथिलापुरी आकर उपस्थित हो गया ।।६२।। मिथिलापुरी में आकर उसने हस्ती के सूंड़ की आकार में पुष्प एवं जलकणों से व्याप्त अनेक प्रकार य रत्नों की मोटी-मोटी धारायें बरसानी प्रारम्भ कर दी, जिनमें बरसनेवाली मणियों की प्रभा से समस्त 844 Jain Education international Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्धकार नष्ट हो जाता था । इस प्रकार उस दिन से वह कुबेर राजा एवं रानी के मनोहर महल में बड़े आनन्द से रत्नों की वर्षा करने लगा ।।६३-६४।। उस समय राजा कुम्भ के समस्त आँगन को रत्न एवं सुवर्ण आदि से परिपूर्ण देख कर मनुष्यों ने उसे साक्षात् धर्म का प्रसाद समझा एवं उस दिन से उन्होंने धर्म के अन्दर विशेष रूप से चित्त लगाया ।।६५| वह कुबेर पुण्य फल की प्राप्ति की अभिलाषा से प्रतिदिन रत्न-वृष्टि करता था; इसलिए छः मास पर्यंत वह राजा कुम्भ के महल को सुवर्ण एवं रत्नों से प्रतिदिन भर दिया करता था ।।६।। कदाचित महारानी प्रजावती अपने शयनागार में अत्यन्त कोमल मनोहर शैय्या पर सो रही थी कि अकस्मात जब रात्रि का कुछ ही अंश शेष रह गया, तब उस समय उसने महा मनोहर सोलह स्वप्न देखे। सबसे पहिले स्वप्न में उसने इन्द्र का ऐरावत गजराज (१) देखा जो कि महामनोहर व अत्यन्त विशाल था। उसके बाद बडा ऊँचा बैल (२) देखा जो कि अत्यन्त श्वेत कांति का धारक था। उसके बाद अत्यन्त पराक्रमी सिंह (३) देखा जो कि चन्द्रमा की कांति के समान तेज का धारक था। उसके बाद लक्ष्मी (४) देखी जो कि महामनोहर सिंहासन पर दुग्ध के घड़ों के स्नान कराई जा रही थी। उसके बाद दो पुष्प मालाएँ (५) देखीं, जिनकी सुगंधि से समस्त दिशाएँ सुगंधित हो रही थीं। फिर आकाश में महामनोहर अखण्ड चंद्रमा (६) देखा, जो कि अपने परिकर ताराओं के समूह से विभूषित था । उसके बाद अत्यन्त दैदीप्यमान सूर्य (७) देखा, जिसकी प्रभा से समस्त अन्धकार विनष्ट हो रहा था। उसके बाद दो सुवर्णमयी घट (८) देखे, जिनका कि मुख कमलों से ढंका हुआ था। उसके बाद कमलों से परिपूर्ण सरोवर में किलोल करता हुआ मीनों का जोड़ा (E) देखा, तत्पश्चात् विशाल स्थिर सरोवर (१०) देखा, जो कि सर्वत्र कमलों से विभूषित था। उसके बाद उफनता हुआ समुद्र (११) देखा, जिसका जल तीर से भी ऊपर बहता था। उसके बाद एक सुवर्णमय महामनोहर सिंहासन (१२) देखा, उसके बाद देवों का स्थान स्वर्ग (१३) देखा, जो कि अपनी जगमगाती हुई कांति से अत्यन्त शोभायमान था, उसके बाद नागेन्द्र का भवन (१४) देखा, जो कि कांति से जगमगाता हुआ अत्यन्त विशाल था, उसके बाद जगमगाती हुई रत्नों की राशि (१५) देखी, जिनकी उग्र प्रभा से अन्धकार तक दीख नहीं पड़ता था, उसके बाद जलती हुई अग्नि की शिखा (१६) देखी, जिसमें धुवाँ का नामोनिशान तक भी न था ।।६७-१०।। जिस समय वह महादेवी उपर्युक्त सोलह स्वप्न देख चुकी, उस समय अन्त में उसने क्या देखा कि एक Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्यंत सुन्दर शरीर से शोभायमान विशाल गजराज उसके मुख-कमल में प्रवेश कर रहा है । रानी प्रजावती के तीव्र पुण्य के उदय से पहिले तो रत्न-सुवर्ण आदि पदार्थों की वर्षा हुई, जिससे उसके कुटुम्बीजन, अन्य मनुष्य, बड़े-बड़े देव उसका आदर-सत्कार करने लगे एवं उन्होंने समस्त सौभाग्य का सार प्राप्त किया। उसके बाद उस महारानी प्रजावती ने भगवान जिनेन्द्र की उत्पत्ति को सूचित करनेवाले उपर्युक्त सोलह स्वप्न देखे, जिससे रनिवास के अन्दर अनेक रानियों के रहते हुए भी उनकी शिरोमणि पटरानी वही हुई ।। १०३।। स्वर्ग || एवं मोक्ष को प्रदान करनेवाले समस्त विघ्नों के नाशक, मोक्षलक्ष्मी के अभिलाषी जीवों को धर्म-मार्ग पर ले चलनेवाले, ज्ञानावरण आदि समस्त कर्मरूपी बैरियों को मूल से नष्ट करनेवाले, अखण्ड ज्ञान के विधाता एवं जयशील भगवान श्री मल्लिनाथ हमारे लिए सिद्धि प्रदान करें ।। १०४।। इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति द्वारा कृत संस्कृत भाषा में भी मल्लिनाथ चरित्र की पं. गजाधरलालजी न्यायतीर्थ विरचित हिन्दी वचनिका में अहमिन्द्र भव का वर्णन करनेवाला तीसरा परिच्छेद समाप्त हुआ ।।३।। चतुर्थ परिच्छेद जिनके शरीर की कांति इन्द्रनील मणि के रंग के समान महामनोहर है, जो मोक्षरूपी लक्ष्मी के परम प्रिय हैं, तीनों लोक के स्वामी हैं एवं समस्त जगत् का हित करनेवाले हैं, ऐसे श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं मस्तक झुका कर नमस्कार करता हूँ ।।१।। यह प्राचीन प्रथा है कि महाराज एवं महारानियों का जो समय जागने का होता है. उस समय मधुर शब्द करनेवाले वाद्य बजाए जाते हैं एवं बंदीगण स्तुति गान करते हैं, उनके शब्द से महाराज एवं महारानी की निद्रा भंग होती है एवं उस समय वे उठ कर अपनी प्रातःकाल की नित्य क्रिया में प्रवृत्त होते हैं । प्रातःकाल में जिस समय महारानी प्रजावती के उठने का समय उपस्थित हुआ, उस समय उसे जगानेवाले उत्कृष्ट एवं महामनोहर शब्द ||४२ करनेवाले तूर्य जाति के वाद्य बजने लगे तथा बंदीगणों के द्वारा अत्यन्त मण्डल को सूचित करनेवाली महामनोहर अनेक प्रकार की स्तुतियाँ की जाने लगीं। महारानी प्रजावती उस समय सूक्ष्म निद्रा में निद्रित पर्यक पर लेटी हुई थीं। ज्यों ही प्रातःकाल में उसने महामनोहर भेरी का शब्द सुना, समस्त जगत का मंगल करनेवाली वह देवी पर्यक Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F42FFFF से उठ कर बैठ गई ।।२-३।। कुछ समय बाद शांतिपूर्वक उसने शैय्या का परित्याग किया एवं वह देवी समस्त जगत् के मंगल सिद्धि की कामना से सामायिक आदि क्रियाओं के द्वारा धर्मध्यान का आचरण करने लगी ।।४।। सामायिक आदि नित्य क्रियाओं के बाद उसने प्रसन्न चित्त से स्नान किया । उत्तमोत्तम आभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत किया एवं कछ विशिष्ट सेवकों के साथ हृदय में अत्यन्त प्रमोद धर कर वह राजसभा की ओर चल दी ।।५।। इस प्रकार ठाट-बाट से राजसभा में आनेवाली अपनी परम प्रिय महारानी प्रजावती को देख कर राजा कुम्भ बड़ा प्रसन्न हुआ। महामनोहर शिष्टाचारपूर्ण वचनों के द्वारा उसे परम सन्तुष्ट किया एवं बड़े आनन्द से आधा सिंहासन उसके बैठने के लिए प्रदान किया। अपने स्वामी राजा कुम्भ द्वारा इस प्रकार का सम्मान पाकर रानी प्रजावती का मुख आनन्द से पुलकित हो उठा, वह सुखपूर्वक आसन पर बैठ गई एवं उस दिव्य आसन से कुछ उठ कर अपनी दिव्य ना|| वाणी से आनन्द से गदगद होकर अपने स्वामी से निवेदन करने लगी--'हे देव ! आज प्रातःकाल जब कि रात्रि का कछ ही अंश शेष रह गया था. उस समय मैं पर्यंक पर सुखपूर्वक सो रही थी, तब अचानक ही अत्यन्त शभ फल के प्रदान करनेवाले गजेन्द्र आदि के सोलह स्वप्न मुझे दीख पड़े । स्वामिन ! उन पवित्र स्वप्नों का फल क्या है ? कृपा कर उन समस्त संकेतों को मुझे बतलाइए-- मुझे उनके बारे में जानने की बड़ी भारी अभिलाषा एवं उत्कण्ठा है।' स्वप्न-फलों को जानने के लिए रानी को इस प्रकार उत्कण्ठित देखकर राजा कुम्भ बड़ा प्रसन्न हुआ एवं प्रिय वचनों से वह इस प्रकार कहने लगा--'हे प्राणिप्रिये ! तम चित्त को स्थिर कर सुनो-- मैं उन स्वप्नों का विस्तार से फल कहता हूँ ।।७-६।। देवि ! स्वप्न में जो तुमने विशाल गजराज देखा है; उसका फल यह है कि तुम्हारे एक महान पुत्र होगा, जिसे बड़े-बड़े ऋद्धिधारी देव जाकर पूजेंगे एवं अपने को धन्य समझेंगे। विशाल बैल के देखने का यह फल है कि तुम्हारा पुत्र ज्येष्ठ होगा-- समस्त लोक उसे बड़ा मानेगा एवं उसकी आज्ञा का पालन करेगा एवं वह धर्म की धुरा का धारण ||४३ करनेवाला अर्थात् धर्म का स्वामी होगा । स्वप्न में जो सिंह देखा है, उसका फल यह है कि वह पुत्र, जिस प्रकार सिंह बलशाली होता है, उसी प्रकार अनन्त बल का धारक होगा; दो मालाएँ जो देखी हैं, उनका फल यह है, वह धर्म-तीर्थ का प्रवर्तक होगा । दुग्ध के घड़ों के स्नान करती हुई जो लक्ष्मी देखी है, उसका फल यह है कि बड़े-बड़े 44444 Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 देव आकर तुम्हारे पुत्र को मेरु पर्वत के शिखर पर ले जाकर अभिषेक करावेंगे । स्वप्न में जो पूर्ण चन्द्र देखा है, उसका फल यह है कि जिस प्रकार चन्द्रमा जीवों को आनन्द प्रदान करनेवाला है एवं अन्धकार का नाशक है, उसी प्रकार तुम्हारा पुत्र भी संसार को आनन्द का प्रदान करनेवाला एवं मोहरूपी अन्धकार का सर्वथा नाश करनेवाला होगा । सूर्य जो देखा है, उसका फल यह है कि जिस प्रकार सूर्य अन्धकार का नाशक है अर्थात् उसके उदय होते ही संसार के घट-पट आदि पदार्थ स्पष्ट रूप से दीख पड़ते हैं एवं सर्वत्र उसकी कांति दैदीप्यमान रहती है, उसी प्रकार म॥ तुम्हारा पुत्र भी समस्त अज्ञानरूपी अन्धकार का नाश करनेवाला होगा एवं सर्वत्र संसार में उसका प्रताप फैलेगा। दो सुवर्णमय घट जो देखे हैं, उसका फल यह है कि तुम्हारा पुत्र निधियों का स्वामी होगा । किलोल करती दो मीन देखी है, उसका फल यह है कि वह पुत्र परम सुख का स्थान होगा। जल से लबालब भरा हुआ जो सरोवर देखा हैं, उसका फल यह है कि वह पुत्र परमसमस्त मनोहर लक्षणों से पूर्ण होगा । तीर को भेद कर बहनेवाले जल से युक्त जो समुद्र देखा है, उसका फल यह है कि तुम्हारा पुत्र लोकालोक को प्रकाशित करनेवाले 'केवलज्ञान' का स्वामी होगा । सिंहासन के देखने का फल यह है कि वह साम्राज्य पद के योग्य होगा एवं समस्त जगत् उसे नमस्कार करेगा। स्वप्न में जो विमान देखा है, उसका फल यह होगा कि वह कल्पातीत विमान से तुम्हारे गर्भ में आवेगा । जगमगाता हुआ जो नागेन्द्र का भवन देखा है, उसका फल यह होगा कि वह अवधिज्ञानरूपी नेत्र का धारक होगा; रत्नराशि के देखने का यह फल है कि वह अखण्ड सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र का खजाना होगा । जाज्वल्यमान निघूम अग्नि जो देखी है, उसका फल यह है, समस्त जगत् का स्वामी तुम्हारा पुत्र शुक्लध्यानरूपी तीव्र अग्नि से कर्मरूपी काष्ठ को भस्म कर डालेगा तथा सोलह स्वप्नों के अन्त में मुख में प्रवेश करता हुआ जो गजेन्द्र देखा है, उसका फल यह है कि तुम्हारे निर्मल गर्भ में उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ जिनेन्द्र स्वयं अवतीर्ण होकर निश्चय से जन्म धारण करेंगे ।। १०-१७।। राजा कुम्भ अवधिज्ञान के धारक थे, इसलिए उनके मुख से स्वप्नों का इस प्रकार उत्तम फल सुन कर महारानी प्रजावती को परमानन्द हुआ एवं मारे आनन्द के उसको उस समय यह मालूम पड़ने लगा मानो साक्षात् पुत्र ही प्राप्त कर लिया हो ।।११८।। ___ अथानन्तर माता प्रजावती की सेवा के लिए सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र की आज्ञा से श्री, ही, धृति कीर्ति, बुद्धि एवं 4449 ॐ Jain Education international For Privale & Personal use only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42FFFF लक्ष्मी--ये छ: देवियाँ बड़ी भक्ति से शीघ्र ही मिथिलापुरी आ गईं। ये समस्त देवियाँ भरतक्षेत्र के पद्म आदि सरोवरों के कमलों में रहनेवाली हैं एवं परम धर्म का सदा सेवन करनेवाली हैं ।।१६।। मिथिलापुरी में आकर उन देवियों ने अत्यन्त निर्मल पदार्थों से माता प्रजावती के गर्भ का संशोधन किया एवं जिस समय में जिस कार्य के करने की आवश्यकता होती थी, उसे भक्तिपूर्वक कर वे माता की सेवा एवं आज्ञा का पालन करती थीं ।।२०।। श्री देवी माता के शरीर के अन्दर अनेक प्रकार की शोभा उत्पन्न करती थीं, ही देवी की सेवा से माता के हृदय के अन्दर विशेष रूप से लज्जा का सन्चार होता था, धृति देवी की कृपा से धीरता-वीरता उत्पन्न हो गई थी, कीर्ति देवी की सेवा से || म यह गुण प्रगट हुआ था कि सर्वत्र उनकी कीर्ति फैल गई थी; इसलिए सब लोग बड़ी भक्ति से उनकी स्तुति करते | थे। बुद्धि देवी की सेवा से माता के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र के अन्दर विशेष निर्मलता होने लगी थी एवं लक्ष्मी देवी की सेवा से माता को अनेक प्रकार के ऐश्वयों का लाभ हुआ था तथापि वह माता प्रजावती अपनी तीव्र पुण्य के उदय से व्यवहार से ही सुन्दर थी, तथा स्वभाव से निर्मल भी । मणि पर जिस प्रकार संस्कार (शोधन) कर देने से कई गुणा अधिक चमक आ जाती है, उसी प्रकार श्री आदि देवियों के द्वारा शोभा आदि गुणों से संस्कार युक्त की गई वह माता भी अब विशेष रूप से सुन्दर प्रतीत होने लगी ।।२१-२२।।। कदाचित् चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन जब कि शुभ लग्न था, अश्विनी नाम का शुभ नक्षत्र था एवं योग आदि शुभ थे, वह अहमिन्द्र (भगवान श्री मल्लिनाथ का जीव) अपराजित नाम के विमान से चयकर मति, श्रुति एवं अवधिरूप तीन ज्ञानों को धारे हुए मोक्षमार्ग को प्रगट करने के लिए अत्यन्त स्वच्छ स्फटिक पाषाण के समान माता प्रजावती के गर्भ में आकर अवतीर्ण हो गया ||२३-२४।। भगवान श्रीमल्लिनाथ के गर्भ में आते ही भवनवासी आदि चारों निकायों के देवों के घरों में घण्टा आदि बजने लगे एवं सिंहासन आदि कँप गए । घण्टा आदि का बजना एवं सिंहासन का कँपना आदि शुभ लक्षणों से उन्हें भगवान श्री मल्लिनाथ के गर्भ में आने का निश्चय ||४५ हो गया । वे अपने-अपने निकायों के इन्द्र एवं अपनी-अपनी देवांगनाओं के साथ शीघ्र ही अपने-अपने वाहनों पर सवार हो गए एवं अपनी दैदीप्यमान प्रभा से समस्त आकाश को प्रकाशमान करते हुए वे मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा से शीघ्र ही मिथिलापुरी आकर उपस्थित हो गए ।।२५-२६।। गर्भावतार नामक पहिले कल्याण में आये हुए सौधर्म For Privale & Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ग के इन्द्र ने समस्त देवों के साथ धर्म की प्राप्ति की अभिलाषा से गर्भ में आये हुए भगवान श्री जिनेन्द्र के गुणों का भक्तिभाव से स्मरण किया एवं गर्भवती माता प्रजावती के दोनों चरण कमलों को मणिमयी मुकुटों से चमचमाते हुए अपने मस्तकों से हर्षपूर्वक नमस्कार किया ।।२७-२८।। उसके बाद इन्द्र आदि देवों ने भगवान श्री मल्लिनाथ के माता-पिता दोनों की पूजा की; दिव्य भूषण आदि प्रदान कर सम्मान किया एवं इस प्रकार पवित्र कार्य को पूरा कर वे समस्त देव अपने-अपने स्थानों पर चले गए ।।२६।। उस दिन से छप्पन दिक्कुमारियाँ इन्द्र की आज्ञा से सदा म|| माता के पास रहने लगी एवं जिसे जो कार्य करने के लिए सौंपा जाता था, उसे आनन्दपूर्वक पूरा कर अपने को कल्याण की प्राप्ति हो, इस अभिलाषा से वे माता प्रजावती की बड़ी भक्ति से सेवा करने लगीं ।।३०।। उनमें बहुत-सी कुमारियाँ माता के चित्त को प्रसन्न करने के लिए मांगलिक पदार्थ हाथ में लेकर खड़ी रहती थीं । बहुत सी माता को भाँति-भाँति के भूषण पहिनाती थीं। कोई-कोई उन्हें वस्त्र पहिनाती थीं एवं मालाएँ प्रदान करती थीं, बहुत-सी | माता का श्रृंगार करती थीं। कोई-कोई उबटन आदि लगा कर माता के लिए स्नान की तैयारियाँ करती थीं । बहुत-सी || कुमारियाँ उनके शरीर की रक्षा करती थीं । बहुत-सी कुमारियाँ 'माता को सुख मिले' ऐसे उपायों को रचा करती थीं । कोई-कोई देवांगना माता के रहने के महल को झाड़-बुहार कर साफ करती थीं, बहुत-सी कुमारियाँ माता की इच्छानुसार बड़ी स्वादिष्ट रसोई करती थीं । कोई-कोई देवांगनाएँ माता के महल में मणिमयी दीपक जलाती थीं। कोई-कोई बालक के जन्मकाल में जो गीत गाए जाते हैं, उन गीतों को गाती थीं। कोई-कोई महामनोहर शब्द | करनेवाले वाद्य बजाती थीं। कोई-कोई महामनोहर नृत्य करती थीं एवं कोई-कोई कुमारियाँ नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ एवं मन को प्रसन्न करनेवाली कथाएँ कहती थीं । इस प्रकार वे समस्त कुमारियाँ भाँति-भाँति की मनोहर क्रियायें कर माता का चित्त अत्यन्त प्रसन्न रखती थीं ।।३१-३४।। भगवान श्री मल्निाथ के गर्भ में आते ही कुबेर को भी परमानन्द हुआ था। इसलिए नौ मास पर्यन्त बड़ी ऋद्धि के साथ वह निरन्तर प्रतिदिन उनके महल में सुवर्ण एवं ||४६ भाँति-भाँति के रत्नों की वर्षा करता रहता था।|३५| आठ महीनों के बीत जाने पर जब नवमें मास का आरम्भ हुआ, उस समय गर्भवती माता प्रजावती के समीप में बैठ कर वे देवांगनाएँ गूढार्थक अर्थात् जिनका अर्थ गूढ़ होता था, हर एक नहीं समझ सकता था, ऐसे श्लोकों से एवं नाना प्रकार के उत्तमोत्तम प्रश्नों से माता के मन को रिझाती थीं Jain Education interational . Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42FFFF ।।३६।। कोई-कोई कहती थी, “अच्छा माता ! इस पहेली का अर्थ बताओ-- ऐसा त्रि नेत्र--तीन नेत्रों का धारण करनेवाला संसार के अन्दर महादेव कौन है ? जो 'नित्यकान्ताविरक्तः' अर्थात् सदा स्त्रियों से विरक्त हो अथवा नित्यकांता--मोक्षरूपी स्त्री में विशेष रूप से अनुरक्त हो । प्रारम्भ में काम सहित हो, परन्तु पीछे से सर्वथा काम का विजय करनेवाला हो, बड़ा महान हो तथा प्रारम्भ में कुछ परिग्रह से आकांक्षा रखनेवाला हो; परन्तु पीछे से जो सर्वथा उनकी आकांक्षा से विमुख हो गया हो । यदि कहा जाएगा कि संसार के || अन्दर जो महादेव प्रसिद्ध हैं, वही इन गुणों का धारक महादेव हो सकता है, सो ठीक नहीं; क्योंकि वह पार्वती नाम | म की स्त्री को अपना आधा अंग बनाए हुए है; इसलिए स्त्री में अत्यन्त रत रहने के कारण वह सदा स्त्रियों से विरक्त । नहीं माना जा सकता तथा अत्यन्त विषयलोलुपी होने के कारण वह मोक्षरूपी स्त्री में भी विशेष रूप से रत नहीं हो | सकता; क्योंकि इस प्रकार की विषयवासना में लिप्त पुरुषों से मोक्ष-स्त्री सदैव दूर रहती है तथा वह आदि में काम सहित हो, पीछे से काम का जीतनेवाला हो, यह भी बात उसके अन्दर नहीं बन सकती। क्योंकि जो काम के अत्यन्त वशीभूत होकर पार्वती नाम की स्त्री को सदा पार्श्व में रखता है, वह कभी काम जीतनेवाला नहीं कहा जा सकता । इसलिए संसार में जो प्रसिद्ध महादेव को काम का बैरी माना जाता है, वह सर्वथा मिथ्या है तथा वह पहिले || परिग्रहों से आकांक्षा रखनेवाला हो तथा पीछे से उनकी आकांक्षा से विमुख हो, यह भी बात नहीं; क्योंकि वह स्त्री रा रूप परिग्रह को एक क्षण भी अपने से दूर नहीं रख सकता । प्रत्युत उनमें ऐसा लिप्त है कि स्त्री को ही अपना आधा अंग मानता है तथा उसी में अपनी शोभा समझता है ।" माता प्रजावती इस प्रश्न का उत्तर देती थी कि ऐसा महादेव तीर्थंकर भगवान ही हो सकते हैं; क्योंकि तीर्थंकर भगवान ही भावों की अपेक्षा से सदा स्त्रियों से विरक्त रहते हैं अथवा सदा विद्यमान रहनेवाले मोक्षस्त्री में वे ही अत्यन्त अनुरक्त रहते हैं। प्रारम्भ में कामदेव के जाल में फंस जाने पर भी अन्त में वे कामदेव को सर्वथा नष्ट करनेवाले होते हैं। प्रारम्भ में परिग्रह में कुछ आकांक्षा रखने पर || ४७ भी पीछे वे उससे सर्वथा रहित हो जाते हैं एवं जन्मते ही नियम से मति, श्रुति एवं अवधि इन तीन ज्ञानरूपी नेत्रों के धारक होते हैं ।।३७।।" कोई-कोई जिसमें क्रिया गुप्त है, ऐसा श्लोक कह कर इस प्रकार माता की प्रशंसा करती थी-- 444 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___“हे देवी ! मंगलमयी माता ! तुम्हारे गर्भ में भगवान श्री मल्लिनाथ ने जन्म धारण किया है, इसलिए उस विशिष्ट | गर्भ के द्वारा 'आदिहर्यादीनां मनः अहारि' अर्थात् प्रथम स्वर्ग के इन्द्र आदि को लेकर समस्त देवों का मन हरा गया है--वे भी तुम्हारे सेवक हो गए हैं, अतः तुम मनुष्य लोक के उत्तमोत्तम पदार्थों के भोग के साथ स्वर्गलोक के समस्त मांगलिक--उत्तमोत्तम पदार्थों का भी भोग करो। यहाँ पर “अहारि" यह क्रिया पद गुप्त है । कोई-कोई देवांगना जिनके उच्चारण करने में ओंठ आपस में न लगें, ऐसे अक्षरों का श्लोक बना कर इस प्रकार माता की प्रशंसा करने | 'लगी-'हे सखी ! अनन्त गुणों का धारणकरनेवाला तीनों लोक का नाथ, सकल संसार का गुरु एवं नित्य-स्त्री अर्थात् || शिवरूपी स्त्री के गुणों में सदा अनुराग रखनेवाला तेरा पुत्र चिरकाल तक जयवन्त हो।" इस श्लोक में ओष्ठ स्थानीय अर्थात् जिसका उच्चारण ओठों की सहायता से हो, ऐसा कोई भी वर्ण नहीं है ।।३८-३६।। बहुत-सी देवांगनाएँ माता के समीप बैठ कर अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम प्रश्न करती थीं तथा माता प्रजावती बुद्धिपूर्वक उनका स्पष्ट उत्तर देती थीं। उनमें कुछ प्रश्नोत्तर इस प्रकार के थे। प्रश्न--माता ! इस संसार में तुम्हारे समान परम सौभाग्यशाली अन्य कौन स्त्री हो सकती है ? उत्तर- जो स्त्री धर्म के स्वामी तीर्थंकरों को उत्पन्न करनेवाली हो । प्रश्न--संसार के अन्दर अज्ञान को दूर करनेवाला उत्तम गुरु कौन हो सकता है ? उत्तर--जो गुरु वास्तविक रूप से तत्वों का जानकार हो, बाह्य-आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों से रहित हो एवं अपने को तथा संसार-समुद्र में डूबते हुए प्राणियों के पापों को तारनेवाला हो। प्रश्न--संसार में कुगुरु (मिथ्या गुरु) कौन है ? उत्तर-- जो स्पर्शन, रसना आदि पाँचों इन्द्रियों के विषय में आसक्त हो, बाह्य-आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह में ममत्व रखनेवाला हो एवं क्रोधी-मानी आदि होने से अत्यन्त प्रमादी हो । प्रश्न--संसार में समस्त पुरुषों में उत्तम पुरुष कौन है ? उत्तर--जो मोह से रहित हों एवं मोक्ष के लिए सदा प्रयत्न करनेवाले हों ।।४०-४१।। प्रश्न--संसार के अन्दर सबसे नीच पुरुष कौन है ? उत्तर--जो अनेक प्रकार ||४८ के तपों का आचरण करनेवाला तो हो, परन्तु इन्द्रियरूपी शत्रुओं के घातने में असमर्थ हो अर्थात् विषयों का लम्पटी होने के कारण इन्द्रियों को वश में करनेवाला न हो । प्रश्न--संसार में विद्वान पुरुष कौन है ? उत्तर--जो हर एक पदार्थ का वास्तविक रूप से विचार करनेवाला हो, यह पदार्थ त्यागने योग्य है एवं यह पदार्थ ग्रहण करने योग्य है। F5 Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार का अच्छी तरह जानकार हो तथा आगम का भी जानकार हो ।।४२।। प्रश्न-- संसार के अन्दर मूर्ख कौन है ? उत्तर--जो अनेक प्रकार के शास्त्रों को जान कर भी अत्यन्त अहंकारी हो एवं सदा पापों का आचरण करनेवाला हो । प्रश्न--संसार में मनुष्यों को क्या कार्य शीघ्र करना चाहिए ? उत्तर--स्वर्ग एवं मोक्ष का साधन ।।४३।। प्रश्न--इस संसार में पथ्य-हितकारी पदार्थ क्या है ? उत्तर--तप, दान, व्रतों का पालन एवं सम्यग्दर्शन आदि का धारण । प्रश्न--संसार में सबसे बलवान पदार्थ क्या है ? उत्तर--उत्तम तप एवं दान आदि के द्वारा प्राप्त किया हुआ उत्कृष्ट धर्म । प्रश्न--संसार में कैसा वचन बोलना अच्छा माना जाता है ? उत्तर--हितकारी, सत्य, परिमित एवं शुभ । प्रश्न--संसार में जागनेवाला कौन है ? उत्तर-- जो महापुरुष सदा अपनी आत्मा के स्वरूप का चिन्तवन करनेवाला हो एवं मोह तथा निद्रा से रहित हो । प्रश्न--संसार में उत्तम कार्य क्या माना जाता है ? उत्तर--जो पुरुष अत्यन्त दुर्बल है, तप एवं दान करने में असमर्थ है, उनके द्वारा किया गया तप एवं दान । प्रश्न--संसार में सामान्य रूप से जीवों के बैरी कौन हैं ? उत्तर--क्रोध, मान, माया, लोभ--ये चारकषाय, निन्दित ध्यान तथा इन्द्रियों के विषय ।।४४-४६।। प्रश्न--संसार में वह पुरुष कौन है, जो मित्र हो ? उत्तर--जो धर्म का पालन करनेवाला, चरित्र का आचरण करनेवाला तथा पूजा आदि उत्तम कार्यों में सहायता करनेवाला हो । प्रश्न--शत्रु पुरुष कौन है ? उत्तर--जो धर्म करनेवाले को न तप का उपदेश देता है तथा न दान आदि देता है ।।४७।। प्रश्न--संसार में अमृत के समान पीने योग्य पदार्थ क्या है ? उत्तर-भगवान श्रीजिनेन्द्र का वचनरूपी अमृत । प्रश्न--संसार में सुखी पुरुष कौन है ? उत्तर--जो सन्तोष रखनेवाला है । प्रश्न--संसार में दुःखी पुरुष कौन है ? उत्तर--जो स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियों के विषय में लम्पट है ।।४८|| प्रश्न--संसार में अत्यन्त धनवान पुरुष कौन माना जाता है । उत्तर--धन तो जिसके पास कम हो; परन्तु दान आदि उत्तम कार्यों को अधिकता से करनेवाला हो । प्रश्न--संसार में निर्धन पुरुष कौन है? उत्तर--जो अत्यन्त धनवान होने पर भी धन की आशा से परदेशों में घूमता-फिरता हो एवं दान आदि उत्तम कार्यों || ४९ में धन खर्च करनेवाला न हो ।।४६।। प्रश्न--संसार में सबसे उत्कृष्ट पुरुष कौन है ? उत्तर--जिनके गर्भ-जन्म आदि पाँचों कल्याणक हों । प्रश्न--इस संसार में ऐसा पुरुष कौन है, जिसके सेवक बड़े-बड़े देवेन्द्र भी होते हैं ? उत्तर--मेरे पुत्र के अर्थात् तीर्थंकर भगवान के देवेन्द्र आदि सेवक रहते हैं । वे अन्य किसी के सेवक नहीं हो सकते।।५०।। 84494 Jain Education international Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न--संसार में उत्तम कार्य क्या माना जाता है ? उत्तर--जिसके करने से सर्वत्र यश विस्तरे, धर्म का लाभ हो तथा समस्त प्रकार के सुखों की प्राप्ति हो । प्रश्न--संसार में अकार्य या निन्दित कार्य क्या है ? उत्तर--जिससे पाप की उत्पत्ति हो । सर्वत्र निन्दा फैले एवं अनेक प्रकार के दुःखों की प्राप्ति हो ।।५।भगवान श्रीमल्लिनाथ की माता प्रजावती के प्रति देवियों ने ऊपर कहे गए प्रश्नों आदि को लेकर अन्य भी अनेक अत्यन्त कठिन-कठिन प्रश्न किए, जिनका कि उत्तर देना साधारण कार्य नहीं था तथापि उस माता के गर्भ में तीन ज्ञानरूपी नेत्रों के धारक स्वयं तीर्थंकर विराजमान थे; इसलिए देवियों के प्रश्नों का उत्तर उनके प्रभाव से माता ने बड़ी युक्ति एवं गम्भीरता के साथ स्पष्ट रूप से दिया था। गर्भ में विराजमान श्री तीर्थंकर भगवानके माहात्म्य से ऐसा कोई भी देवियों का प्रश्न नहीं बचा था, जिसका उत्तर माता से नहीं बन पड़ा हो ।।५२-५३।। यद्यपि वे तीन लोक के नाथ भगवान श्री मल्लिनाथ गर्भ के अन्दर विराजमान थे, गर्भ से बाहिर उनका कोई भी शरीर का अवयव प्रकट नहीं था तथापि जिस प्रकार रत्नों की प्रभा से दैदीप्यमान खानों की धारक पृथ्वी अत्यन्त शोभायमान जान पड़ती है, उसी प्रकार उस माता के शरीर में भी अलौकिक शोभा की छटा प्रगट होने लगी थी।।५४।। यद्यपि तीर्थंकर भगवान श्री मल्लिनाथ अपनी माता प्रजावती के उदर में विराजमान थे तथापि जिस प्रकार सीप के मध्य भाग में मोती रहता है--पर वह रन्चमात्र भी सीप को क्लेश का देनेवाला नहीं होता, उसी प्रकार माता प्रजावती को भी उनके गर्भ में रहने पर किसी प्रकार का || क्लेश नहीं था, अर्थात् गर्भ के भार से जैसा अन्य स्त्रियों को क्लेश उठाना पड़ता है, वैसा भगवान श्रीमल्लिनाथ को गर्भ में धारण करने से माता प्रजावती को रन्चमात्र भी क्लेश नहीं था।।५५।। गर्भ से पहिले माता प्रजावती का उदर त्रिवली से शोभायमान था । भगवान श्रीमल्लिनाथ के गर्भ में आने पर त्रिवली नष्ट होकर उदर को बढ़ना चाहिए था; परन्तु उन श्रीजिनेन्द्र के अनुपम प्रभाव से वह त्रिवली जैसी थी, वैसी की वैसी ही विद्यमान रही, रन्चमात्र भी उदर के अन्दर किसी प्रकार का विकार नहीं हुआ । परन्तु ऐसा होने पर भी गर्भ--गर्भ के अन्दर बालक भगवान ||५० का शरीर निरन्तर बढ़ ही रहा था अर्थात् उदर के नहीं बढ़ने से गर्भ नहीं बढ़ता था, यह बात नहीं थी।।६।। जब ठीक नवमा मास पूर्ण हो गया, उस समय अगहन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन जब कि अश्विनी नाम का शुभ नक्षत्र था, लग्न भी अत्यन्त सुन्दर था, योग भी शुभ था, माता प्रजावती ने मति-श्रुति 944 Jain Education international Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ अवधि रूप तीन ज्ञान के धारक एवं तीन लोक के स्वामी पुत्र--भगवान श्रीमल्लिनाथ को जन्म दिया ।।५७-५८।। परम पावन भगवान श्री मल्लिनाथ के जन्म के माहात्म्य से आकाश से देवों के द्वारा कल्पवृक्ष के पुष्पों की विपुल वर्षा होने लगी। मन्द-मन्द शीतल सुगन्धित पवन बहने लगी, बिना बजाये एवं गम्भीर शब्द करनेवाले देवों के वाद्य बजने लगे । अकस्मात् ही देवों के आसन कम्पायमान हो गए । उनके मुकुट नम्रीभूत हो गए एवं घण्टों का गम्भीर शब्द होने लगा। इसलिए इन शुभ चिन्हों से देवों को स्पष्ट रूप से मालूम पड़ गया कि भगवान श्रीमल्लिनाथ का जन्म हो गया है।।५६-६१।। उस समय भगवान श्री मल्लिनाथ के जन्मकाल में ज्योतिषी देवों के घरों में अपने-आप सिंहनाद नाम का वाद्य यंत्र तुमूल शब्द के साथ बजा । भवनवासी देवों के भवनों में अत्यन्त गम्भीर शंख का शब्द होने लगा था । व्यन्तर देवों के घरों में भेरी नगाड़े का शब्द होने लगा था। वैमानिक देवों के आसन कम्पायमान हो गये । इनके अतिरिक्त भगवान श्रीमल्लिनाथ के जन्मकाल में अन्य भी अनेक प्रकार के आश्चर्य होने लगे थे, जिससे हर एक निकाय के इन्द्रों ने उनके जन्म-कल्याणक में सम्मिलित हुए थे ।।६२-६३।। उसके बाद सैकड़ों प्रकार के महोत्सवों के करने में लालायित सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र को साथ लेकर चारों निकायों के समस्त इन्द्रों ने अपनी-अपनी आवश्यक वस्तुएँ अपने-अपने साथ ले लीं । अपने-अपने वाहनों पर वे सवार हो गये ।“ हे स्तुति करने योग्य भगवान ! आप सदा जयवंत रहें एवं सुदीर्घकाल जीवें । हे पूज्य ! आप फले-फूलें, वृद्धि को प्राप्त हों"--इस प्रकार उस समय बड़े जोर से कोलाहल होने लगा। अपने-अपने शरीरों के उत्तमोत्तम भूषणों की किरणों से उन्होंने समस्त दिशाएँ एवं आकाश जगमगा दिया। सैकड़ों प्रकार के वाद्यों के शब्दों से एवं मनोहर गीत, नृत्य एवं उत्साह से परिपूर्ण कार्यों द्वारा समस्त दिशाएँ तथा आकाश पूर दिया । इस प्रकार अपने-अपने आज्ञाकारी देव एवं अपनी-अपनी देवांगनाओं के साथ वे भगवान श्रीमल्लिनाथ का जन्म-कल्याणक मनाने के लिए विशाल विभूति एवं हर्ष के साथ मिथिलापुरी आकर उपस्थित हो गये ।।६४-६७।। जिस समय सौधर्म आदि इन्द्र एवं देवगण मिथिलापुरी में आ गए, | उस समय राजा कुम्भ के महल का आँगन, समस्त मिथिलापुरी मार्ग, वनप्रांत आदि में जहाँ देखो वहाँ देवांगना, देव एवं वाहन आदि की सेना ही सर्वत्र नजर आती थीं। इसलिए उस समय मिथिलापुरी में स्वर्गलोक का दृश्य दीख पड़ता था--मिथिलापुरी ही लोगों की दृष्टि में स्वर्गभूमि जान पड़ती थी ॥६८।। जिस महल के अन्दर भगवान مي ه Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमल्लिनाथ का जन्म हुआ था, वह महल स्वयं अपनी प्रभा से जगमगा रहा था । राजमहल के आँगन में देवों के पहुँचते ही सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र की इन्द्राणी ने शीघ्र ही उस मनोहर महल के अन्दर प्रवेश किया एवं वहाँ पर शिशु भगवान श्रीमल्लिनाथ के साथ अत्यन्त कोमल शैय्या पर शयन करती हुई माता प्रजावती को बड़े हर्ष के साथ निरखा ।।६६।। आनन्द से पुलकित हो इन्द्राणी ने तीन लोक के गुरु भगवान श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्र की बारम्बार प्रदक्षिणा दी । तत्पश्चात् अत्यन्त भक्ति सहित नमस्कार किया । वह श्री जिनेन्द्र भगवान की माता के सामने विनयपूर्वक बैठ गई एवं मनोहर शब्दों में इस प्रकार उनकी स्तुति करने लगी- श्री म ल ना थ पु रा ण हे माता ! तीनों लोकों के गुरु भगवान श्री मल्लिनाथ को तुमने जन्म दिया है; इसलिए तुम समस्त लोक की माता हो । तुम्हीं ने देवों के देव महादेव पुत्र को उत्पन्न किया है; इसलिए हे माता ! तुम्हीं संसार के अन्दर महादेवी हो ।।७०-७१।। माता ! तुम्हारे समान तीनों लोक के अन्दर अन्य कोई भाग्यवती स्त्री नहीं; इसलिए तुम्ही तीनों लोक की स्त्रियों की शिरोमणि हो । तुम्हीं समस्त जगत् में उत्कृष्ट हो । तुम्ही तीनों लोक की स्वामिनी हो एवं तुम्हीं कल्याणरूपिणी एवं मंगलमयी हो ।। ७२ ।। इस प्रकार महामनोहर शब्दों से स्तुति कर इन्द्राणी ने अपनी माया माता प्रजावती को सुख निद्रा में निद्रित कर दिया । ठीक भगवान के ही आकार-प्रकार के एक मायामयी पुत्र का निर्माण कर उसे माता की गोद में सुला दिया। तीन लोक के गुरु भगवान श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्र को माता की शैय्या से अपने हाथों से उठा कर बड़े आश्चर्य से उनके महामनोहर रूप एवं सौंदर्य को देख कर मारे आनन्द के वह गद्गद् हो गई ।।७३-७४।। जहाँ पर सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र खड़ा हुआ था, श्री जिनेन्द्र भगवान को लेकर इन्द्राणी उसी ओर चली । समस्त जगत् के मंगल के कर्ता भगवान श्री मल्लिनाथ के आगे-आगे जिनके हाथों में छत्र, चमर आदि लगे हुए हैं, ऐसे मांगलिक द्रव्यों को धारण करनेवाली दिक्कुमारियाँ चलने लगीं ।। ७५ ।। पास में आकर इन्द्राणी ने सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र के शुभ हाथों में भगवान श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्र को सौंप दिया । वह भी श्री जिनेन्द्र भगवान का अद्वितीय रूप देख कर अत्यन्त प्रसन्न हुआ एवं आनन्द से गद्गद् होकर इस प्रकार भक्तिपूर्वक स्तुति करने लगा- हे भगवन् ! हे बालचन्द्र ! हम लोगों को परमानन्द प्रदान करने के लिए संसार में आपका उदय हुआ है, क्योंकि श्री म ल्लि ना थ पु रा ण ५२ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 में चन्द्रमा के उदय से लोगों का हर्ष होता है। यह प्रत्यक्ष सिद्ध है तथा जिस प्रकार चन्द्रमा अन्धकार का नाश करनेवाला होता है, उसी प्रकार मोहरूपी गाढ़ अन्धकार के आप नियम से नाश करनेवाली भी होंगे ।।७६।। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने का स्थान उदयाचल है, उसी प्रकार हे नाथ ! केवलज्ञानरूपी सूर्य के उदय होने के लिए आप उदयाचल हो तथा हे भगवन् ! विद्वान लोग आपको ही मिथ्याज्ञान एवं निद्रारूपी अन्धकार का नाश करनेवाला मानते हैं।।७७-७८।। हे भगवन् ! संसार के समस्त प्राणी मोहरूपी अन्धकार से परिपूर्ण कूप में पड़े हुए हैं, उनको धर्मरूपी | हाथ का अवलम्बन देकर आप ही उद्धार करेंगे, दूसरे किसी व्यक्ति में सामर्थ्य नहीं, जो उद्धार कर सके । इसलिए || संसार में बिना प्रयोजन के यदि बन्धु हैं तो आप ही हैं, अन्य कोई आपके समान निष्प्रयोजन बन्धु नहीं हो सकता ||७६|| __इसलिए हे नाथ ! आप समस्त लोक को आनन्द प्रदान करनेवाले हैं, अतः आपके लिए नमस्कार है। आप संसार में सबको प्रसन्न करनेवाले बालचन्द्रमा हैं । इसलिए आपके लिए नमस्कार है। आप आश्चर्यकारी मूर्ति के धारक हो; इसलिए आपके लिए नमस्कार है। हे प्रभो ! मोक्षरूपी स्त्री के चित्त को हरण करनेवाले आप ही हो एवं आप ही सुख-स्वरूप हो; इसलिए आपको नमस्कार है । हे देव ! आप ही समस्त लोक के स्वामी हो एवं आप ही | पु समस्त प्रकार के कल्याणकों को प्राप्त करनेवाले हो; इसलिए आपके लिए भक्तिपूर्वक नमस्कार है ।।८०-८१।। इस प्रकार भक्तिपूर्वक मनोहर शब्दों में स्तुति कर इन्द्र ने भगवान श्री मल्लिनाथ को ऐरावत हाथी पर बैठे ही बैठे अपनी | गोद में ले लिया एवं उनका अभिषेक करने के लिए अनेक देवों से वेष्टित वह मेरु पर्वत की ओर चल दिया ।।२।। भगवान श्रीमल्लिनाथ को इन्द्र की गोद में विराजमान देख कर समस्त देव मारे आनन्द के पुलकित हो गए एवं मन के अन्दर अपार प्रमोद धारण कर वे "हे स्वामी ! आप चिरकाल तक जीवो, नादो, विरदो" इस प्रकार गम्भीर शब्दों में प्रचण्ड कोलाहल करने लगे ।।८३।। तीन जगत् के गुरु भगवान श्री मल्लिनाथ को सौधर्म इन्द्र की गोदी में | विराजमान देखकर ऐशान स्वर्ग के इन्द्र को बड़ा भारी सन्तोष हुआ । आनन्द से गद्गद् होकर बड़े आदर से उसने भगवान पर छत्र लगा दिया ।।४।। सनत्कुमार एवं माहेन्द्र स्वर्गों के इन्द्र भी धर्म के चक्रवर्ती भगवान श्रीमल्लिनाथ पर चमर ढोरने लगे, जो (चमर) क्षीर समुद्र की तरंगों के समान महामनोहर एवं श्वेत थे ।।८५।। भगवान के पाँचों Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकों में समस्त देव सम्यग्दृष्टी ही आवें यह नियम नहीं, बहुत से मिथ्यादृष्टि देव भी आते हैं; क्योंकि वे इन्द्र के आज्ञाकारी होते हैं; इसलिए इन्द्र की आज्ञानुसार अवश्य उन्हें वहाँ पर आना पड़ता है । भगवान श्रीमल्लिनाथ के जन्मकाल में जो भी मिथ्यादृष्टि देव आये थे, वे भी यह निश्चय कर कि “जब स्वयं सौधर्म स्वर्ग का स्वामी भगवान श्रीमल्लिनाथ की सेवा में भक्तिपूर्वक लगा हुआ है, तब यही ठीक जान पड़ता है कि समस्त मतों में जैन मत ही पवित्र एवं कल्याण प्रदान करनेवाला है, अन्य मत नहीं", उनका जैन-धर्म पर प्रगाढ़ श्रद्धान हो गया ।।१६।। उस समय मेरु पर्वत पर जाने का अवसर था, इसलिए समस्त देव अपने-अपने इन्द्रों के संग अपने-अपने वाहनों पर सवार थे; भगवान श्री जिनेन्द्र के नाना प्रकार के महोत्सवों के करने में वे व्यग्र थे । वीणा, मृदड़, बाँसुरी सहस्रों प्रकार के वाद्य बज रहे थे। भगवान श्री जिनेन्द्र के उत्सव का गान गन्धर्व जाति के देव एवं किन्नर जाति की देवांगनाएँ महामनोहर ललित शब्दों में करती हुई चल रही थीं । उस समय अप्सराएँ नेत्रों को परमानन्द प्रदान करनेवाला महामनोहर नृत्य करती चली जाती थीं। ध्वजा एवं छत्र आदि उपकरणों की भरमार से उस समय सारा आकार ढंका सरीखा जान पड़ता था। इस प्रकार उत्कृष्ट एवं विपुल विभूति से उस समय सारा आकाश व्याप्त था ।।८७-८६।। जो अपने पीछे एवं आगे चलनेवाले असंख्यात देवों से व्याप्त था एवं परम धर्मात्मा था, ऐसा सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र उस समय मेरु पर्वत पर आया, भक्तिभाव से उसकी तीन प्रदक्षिणाएँ दी एवं अत्यन्त हर्ष के साथ तीन लोक के स्वामी भगवान श्री मल्लिनाथ को मेरु पर्वत पर ले आया ।।१०।। मेरु पर्वत के मस्तक पर ईशान कोण में एक पांडुक नाम की शिला है एवं उसके मध्य भाग में सिंहासन विद्यमान है । इन्द्राणी एवं अनेक इन्द्र आदि से वेष्टित सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र उस स्थान पर आया एवं तीर्थंकर भगवान श्री मल्लिनाथ का जन्माभिषेक करने की उत्कष्ट अभिलाषा से उन्हें वहाँ पर विराजमान कर दिया ।।६।। जिस पांडुक शिला पर ले जाकर इन्द्र ने भगवान श्री मल्लिनाथ को विराजमान किया था, उस शिला की प्रशंसा ||५४ करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि वह पांडुक शिला अत्यन्त शुद्ध स्फटिकमयी पाषाण की है एवं उस स्फटिक मणि से निकलनेवाली रत्नों की किरणों से व्याप्त है । उस शिला पर अनन्त तीर्थंकरों का अभिषेक किया जा चुका है; इसलिए क्षीर समुद्र के विपुल जल से वह अनेक बार प्रक्षालित की जा चुकी है; अर्थात् जब-जब तीर्थंकरों का अभिषेक हुआ Jain Education international For Private & Personal use only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FbFF ॥ है, तब-तब क्षीर समुद्र के विपुल जल से ही हुआ है; इसलिए उस पांडुकशिला पर जिन-जिन महापुरुष तीर्थंकरों का अभिषेक हुआ है, उनके अभिषेकों के साथ उस शिला का भी अनेक बार अभिषेक हो चुका है; अतएव पवित्रता से वह सिद्ध शिला के समान महापवित्र एवं उत्तम है। वह निर्मल शिला सौ योजन लम्बी है, आठ योजन प्रमाण ऊँची है एवं पचास योजन प्रमाण उसकी चौड़ाई है । सदा उसके ऊपर छत्र, चन्दोवे आदि मांगलिक द्रव्य तैयार रहते हैं; इसलिए उनकी प्रभा से सदा जगमगाती हुई वह अत्यन्त शोभायमान जान पड़ती है।।६।। उस महामनोहर शिला के || मध्यभाग में एक महामनोज्ञ सिंहासन है, जो अगणित उत्तमोत्तम रत्नों से व्याप्त है एवं सुवर्णमय है। भगवान श्री || जिनेन्द्र को उस पर ले जाकर विराजमान कर दिया गया । उस समय भगवान के दिव्य शरीर की प्रभा से समस्त दिशाएँ शोभायमान थी एवं इन्द्र आदि देवों से चारों ओर से वेष्टित वे भगवान श्री मल्लिनाथ उस समय महामनोहर जान पड़ते थे; इसलिए ऐसे तीनों लोक के जीवों को तारनेवाले भगवान को मैं उनकी गुण-सम्पदा की प्राप्ति की अभिलाषा से भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ एवं उनका गुणानुवाद करता हूँ।।६३।।। इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति द्वारा कृत संस्कृत भाषा में श्री मल्लिनाथ चरित्र की पं. गजाधरलालजी न्यायतीर्थ विरचित हिन्दी वचनिका में उनके गर्भ और जन्म इन दो कल्याणकों का वर्णन करनेवाला चौथा परिच्छेद समाप्त हुआ ||४|| पंचम परिच्छेद जो भगवान तीनों लोकों के जीवों को आनन्द प्रदान करनेवाले हैं तथा जो सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य स्वरूप भी हैं एवं महामोहरूपी अन्धकार को नष्ट करनेवाले चन्द्रमा स्वरूप भी हैं; अर्थात् जो चन्द्रमा है, वह सूर्य नहीं हो सकता एवं जो सूर्य है, वह चन्द्रमा नहीं हो सकता क्योंकि दोनों का स्वरूप परस्पर विरोधी एवं भिन्न है; इसलिए एक ही श्री जिनेन्द्र भगवान सर्य एवं चन्द्रमा दोनों स्वरूप में नहीं हो सकते, परन्तु ऐसा होने पर भी सर्य के समान अपने ज्ञान से पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले होने के कारण जो सूर्य स्वरूप भी हैं एवं चन्द्रमा जिस प्रकार अन्धकार का नाशक है. उसी प्रकार जो महामोहरूपी अन्धकार को नाश करनेवाले हैं, इसलिए चन्द्रमा स्वरूप भी हैं. ऐसी अदभत गति के धारक भगवान श्री जिनेन्द्र को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ।। १।। जिस पांडुक शिला का वर्णन ऊपर किया 9449 ॐ Jain Education international Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ जा चुका है, भगवान श्री जिनेन्द्र के अभिषेक का उत्सव देखने के लिए देवगण चारों ओर से उसे घेर कर बैठ गए तथा दिशाओं की रक्षा करनेवाले दिक्पाल देव भी उत्सव का ठाट-बाट देखने के लिए यथायोग्य अपनी-अपनी दिशाओं में सन्नद्ध हो गए। पांडुक शिला पर देवों ने श्री जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक के समय एक विशाल मण्डप का निर्माण किया था । देवियों ने महामनोहर गीत, उत्तमोत्तम वाद्य के शब्द एवं नृत्यों के साथ भगवान श्रीजिनेन्द्र के अभिषेक का महान उत्सव करना प्रारम्भ कर दिया ।।३।।भगवान के अभिषेक के समय देवगण सुवर्णमयी कुम्भों में क्षीरोदधि समुद्र का अत्यन्त स्वच्छ एवं पवित्र जल लाते हैं, उससे भगवान का अभिषेक किया जाता है । जिन || सवर्णमयी कलशों में भगवान के अभिषेक का जल लाया गया था, उन कलशों का मुख एक-एक योजन चौड़ा था, आठ योजन प्रमाण वे गहरे थे, मोतियों की माला आदि से भूषित थे एवं अनेक अर्थात् संख्या में एक हजार आठ थे। क्षीर समुद्र से जल लाते समय देवों के चित्त आनन्द से गद्गद् थे; इसलिए वे फैल कर उस समय लड़ीबद्ध |ना खड़े थे।।४-५।। भगवान श्री मल्लिनाथ के अभिषेक के समय सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र के हर्ष का पारावार नहीं था । अभिषेक के समय उसे दो भुजाओं से भगवान श्री जिनेन्द्र का अभिषक करना पसन्द नहीं आया; इसलिए शीघ्र ही ॥ उसने अनेक दिव्य आभूषणों से मण्डित हजार भुजाएँ बना लीं।।६।। सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने "हे भगवान जयवन्त रहो" ऐसा भक्तिपूर्वक उच्चारण कर जिनमें सुवर्णमयी कलश विद्यमान हैं, ऐसे अपने मनोहर हाथों से सबसे पहिले जल-धारा भगवान के मस्तक पर छोड़ी। उस प्रथम जलधारा के देते ही वहाँ पर विद्यमान असंख्यात सुर एवं असुरों को परमानन्द हुआ; इसलिए उनका तुमुल कोलाहल होने लगा एवं उसके बाद समस्त इन्द्रों ने मिल कर भगवान श्री जिनेन्द्र के मस्तक पर अगणित जल-धाराएँ छोड़ी ॥७-च। जिस समय इन्द्रगण उनके मस्तक पर जल-धारा छोड़ते थे, उस समय वे धाराएँ महान नदियों के समान उनके मस्तक पर गिरती थीं; प स प्रकार विशाल पर्वत पर पड़नेवाली नदियों की धाराओं से वह रन्चमात्र भी हिलता-डुलता नहीं था, उसी प्रकार अचिंत्य शक्ति के धारक भगवान श्रीमल्लिनाथ भी अपने अनुपम प्रभाव से उन्हें क्रीडापूर्वक झेलते थे, घबड़ा कर जरा भी वे हिलते-डुलते नहीं थे ।।६।। उस समय रंग-बिरंगी रत्नों की भूमियों पर पड़ने के कारण रंग-बिरंगी जल की बूंदों से व्याप्त आकाश इन्द्रधनुष की शोभा से व्याप्त जान पड़ता था। पांडुक वन में सर्वत्र क्षीर समुद्र का जल ही जल डोलता नजर आता था; इसलिए ८44 Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FFFFF पांडुक वन उस समय साक्षात् क्षीर समुद्र सरीखा जान पड़ता था ।।१०।। इस प्रकार जिनमें अनेक प्रकार के गीत एवं नृत्य आदि कार्य हो रहे हैं, अनेक प्रकार के करोड़ों वाद्य बज रहे हैं, जिनका आयोजन अनेक देवी-देवों के द्वारा किए गए हैं, ऐसे सैकड़ों महान उत्सवों के साथ क्षीर समुद्र के जल से जब भगवान का अभिषेक समाप्त हो चुका; तो उसके बाद धारा गिरते समय जिनसे 'जय जय' शब्द निकलता है, ऐसे सुगन्धित जल से भरे कलशों से देवेन्द्र ने भक्तिपूर्वक बड़े ठाट-बाट से भगवान श्री जिनेन्द्र के अभिषेक का आयोजन किया । नाना प्रकार के महामनोहर सुगन्धित द्रव्यों से मिश्रित सुगन्धित जल के भरे हुए कलशे रक्खे गए एवं उनसे समस्त प्रकार के विधानों के जानकार इन्द्र ने तीन जगत् के जीवों को मोक्ष-मार्ग का विधान सुझानेवाले तीर्थंकर का भक्तिपूर्वक अभिषेक किया ।।११-१२।। तीर्थंकर का शरीर स्वभाव से ही अत्यन्त सुगन्धित था; इसलिए उनके शरीर पर गिरती हुई वह सुगन्धित जल की | धारा अमृत की धारा के समान महा शोभायमान जान पड़ती थी ।।१४।। इस प्रकार सैकड़ों उत्सवों के साथ सबों को आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला वह सुगन्धित जल से किया गया अभिषेक भी समाप्त हो गया एवं भक्तिपूर्वक अभिषेक कर उन देवों ने महान पुण्य का सन्चय कर अपने को पवित्र बनाया ।।१५।। गंधोदक के सुगंधित जल से उस समय समस्त दिशाएँ व्याप्त थीं तथा वह गंधोदक की धारा महापवित्र सज्जनों के पण्यों की धारा सरीखी जा "वह पवित्र धारा हमें भी पवित्र करें" ऐसा उच्चारण कर देवों ने अपनी-अपनी विशुद्धि की कामना से स्वर्ग की || पैडियों स्वरूप वह गंधोदक का पवित्र जल अपने-अपने मस्तकों से लगाया, पीछे समस्त शरीर में लगा डाला ।।१६-१७।। सुगंधित जल से जिस समय भगवान का अभिषेक समाप्त हो गया, उस समय अनेक प्रकार के महोत्सवों के साथ देवों ने अगर-तगर आदि के उत्तमोत्तम सगंधित चर्णों से एवं सगंधित जलों से तीर्थंकर के शरीर का उबटन किया।।१८।। जब अभिषेक का कार्य एवं उबटन का समस्त कार्य समाप्त हो चुका, उस समय दिव्य एवं सुगंधित उत्तम पजन की सामग्री से तीर्थंकर को चारों ओर से वेष्टित कर देवों ने बडी भक्ति से उनकी पजा की ।।१६।। इस प्रकार ५७ देवों ने पूजा. शान्तिविधान एवं पष्टिविधान का कार्य समाप्त कर तीनों लोक के गरु भगवान श्री मल्लिनाथ की तीन प्रदक्षिणा दी एवं मस्तक झका कर उन्हें भक्तिपर्वक नमस्कार किया तथा अभिषेक आदि कार्यों के समाप्त हो जाने पर उनकी परम धीरता-वीरता देखकर आश्चर्य से उत्सुक होकर इन्द्राणी ने श्रृंगार के लिए आयोजन करना प्रारम्भ कर 44444 Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया ।।२०-२१।। जल से प्रक्षालित शरीर के धारक एवं स्वभाव से ही सन्दर भगवान के शरीर पर जो जल की बँदें || विद्यमान थीं, इन्द्राणी ने सूक्ष्म एवं निर्मल वस्त्रों से उन्हें पोंछ कर साफ कर दिया ।।२२।। जिसकी उपमा किसी भी शरीर से नहीं दी जा सकती. ऐसा भगवान का शरीर यद्यपि स्वभाव से ही महा सगंधित था, इसलि सुगंधित द्रव्यों से उसका लेप करना निरर्थक था; तथापि अपनी भक्ति प्रगट करने के लिए इन्द्राणी ने अत्यंत सुगंधित द्रव्यों का उनके अंग पर लेप किया था ।।२३।। तीन जगत् के स्वामी तीर्थंकर का ललाट समस्त अंगों में तिलकस्वरूप था अथवा संसार में जितने भी ललाटधारी पुरुष हैं, उन सबों के ललाटों में तिलकभूत था; इसलिए उस ललाट पर इन्द्राणी ने तिलक लगाया तथा मस्तक पर मन्दार जाति के कल्पवृक्ष की माला से शोभायमान मुकुट पहिनाया ।।२४।। नेत्रों में जो अन्जन लगाया जाता है, वह नेत्रोंकी दीप्ति बढ़ाने के लिए लगाया जाता है। भगवान श्रीमल्लिनाथ समस्त लोक के ज्ञाता थे एवं ज्ञानरूपी नेत्र के स्वामी थे; इसलिए उनके नेत्रों में अन्जन लगाने की कोई आवश्यकता नहीं थी, तथापि उनके उत्तम नेत्रों में इन्द्राणी ने जो अन्जन लगाया था, वह केवल शिष्टाचार प्रदर्शन करने के लिए ही था; अर्थात् उसने अपना कर्तव्य कर्म पूरा किया था ।।२५।। बेधे न जाने पर भी स्वभाव से ही उत्तम छिद्रों से शोभित भगवान श्री मल्लिनाथ के दोनों कानों को इन्द्राणी ने मनोहर कुण्डलों से भूषित किया एवं मणिमय महामनोहर हार पहिना कर उनका कण्ठ शोभायमान किया था ।।२६।। उनकी दोनों भुजाओं में महामनोज्ञ |रा अनन्त मुद्रिका एवं कड़े पहिनाए थे कटिभाग पर महामनोहर मणिमयी करधनी बाँधी थी, दोनों पैरों में मणिमयी घुघुरू पहिनाए थे, जो कि अनुपम थे एवं 'घुनुनु-घुनुनु' शब्द करनेवाले थे, सो ऐसे जान पड़ते थे मानो साक्षात् सरस्वती देवी उन दोनों घुघुरुओं की सेवा कर रही हैं ।।२७-२८|| उत्तमोत्तम वस्त्र, भूषण एवं माला आदि से सजाए गए एवं अपने शरीर की मनोहर कान्ति से दैदीप्यमान वे भगवान श्री मल्लिनाथ ऐसे जान पड़ते थे मानो साक्षात परम ब्रह्मस्वरूप हैं अथवा उदय को प्राप्त साक्षात् ज्ञान की मूर्ति हैं वा अत्यन्त सुन्दर होने के कारण साक्षात् रत्नाकर--समुद्रस्वरूप हैं वा साक्षात् धर्म की मूर्ति हैं अथवा लक्ष्मी के पुन्ज-स्वरूप हैं, वा तेजों के अद्भुत खजाने हैं अथवा यशों की राशि हैं वा संसार के अन्दर जितने भी पुण्य परमाणु हैं, उनके सर्वोत्कृष्ट स्थान हैं अथवा संसार में जितने गुण माने जाते हैं एवं कहे जाते हैं, उन सबके आधार ये ही हैं । इसरूप से भगवान श्री मल्लिनाथ की For Privale & Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस समय की शोभा अपरिमित थी ।।२६-३१।। भगवान श्री मल्लिनाथ की उस समय की अलौकिक शोभा देखकर सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र को तृप्ति नहीं हो सकी; इसलिए उनके महामनोज्ञ रूप को देखने की उत्कट लालसा से उसी समय उसने हजार नेत्र बना लिए एवं हजार नेत्रों से उनका स्वरूप निरखने लगा ।।३२।। भगवान के उस समय के अनुपम रूप को सुर-असुर एवं उनकी देवियाँ अपने पलक-रहित दिव्य नेत्रों से टकटकी लगा कर देखने लगे एवं | उनके उस प्रकार के अलौकिक रूप को देख कर अत्यन्त आश्चर्य करने लगे ।।३३।। तथा तीर्थंकर भगवान श्रीमल्लिनाथ का माहात्म्य प्रगट कर उनके गुणों की प्राप्ति की अभिलाषा से इन्द्रगण अत्यन्त सन्तोष के साथ उनकी || इस प्रकार स्तुति करने लगे-- जिस प्रकार बाल चन्द्रमा के उदय से लोगों को आनन्द होता है एवं समुद्र वृद्धि को प्राप्त होता है, उसी प्रकार हे भगवन् ! हम लोगों को परमानन्द प्रदान करने के लिए एवं धर्मरूपी विशाल समुद्र की वृद्धि हेतु बाल चन्द्रमा के समान आपका उदय हुआ है ।।३४-३५।। रतौंध आदि के द्वारा अन्ध कूप में पड़ा हुआ प्राणी थोड़ा-सा सहारा पाकर | ही ऊपर आ जाता है । हे देव ! मोह से मूढ़ ये प्राणी संसार के अन्दर मिथ्याज्ञानरूपी अंधेरे कुँए में पड़े हुए हैं। इस समय इन्हें उस कुँए से निकालने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है । हे करुणासागर भगवान ! आप ही दया से | गद्गद् हो अपने हाथ का सहारा दे उन्हें निकालेंगे एवं उनका उद्धार करेंगे ।।३६।। हे नाथ ! आप समस्त जगत् के भर्ता--पोषण करनेवाले हो । अचिंत्य एवं अनुपम शक्ति के धारक आप ही हो । हे देव मोक्षरूपी कन्या आपको अपना वर बनाने की इच्छा रखती है। हे तीन लोक के नाथ ! आप ही धर्मस्वरूप हो एवं आप ही धर्म-तीर्थ की प्रवृत्ति के करनेवाले हो ।।३७।। हे भगवान ! स्नान नहीं किए जाने पर भी आप पवित्र शरीर के धारक हो एवं सज्जनों को पवित्र करनेवले हो । हे नाथ ! आप ही समस्त लोक के अलौकिक भूषण हो एवं जिस पर कभी भी आवरण नहीं आ सकता, आप ही ऐसे दैदीप्यमान सूर्य हो ॥३८।। हे प्रभो ! संसार में तीनों लोक के नाथ आप ही हैं। समस्त जीवों के हित एवं कल्याण के कर्ता भी आप ही हैं; क्योंकि हे भगवन् ! बालक अवस्था में ही समस्त मोक्षाभिलाषी जीवों के मोहरूपी पाश को नष्ट करनेवाले आप ही होंगे ।।३६।। हे समस्त गुणों के समुद्र भगवान ! सम्यग्दर्शन आदि जितने भी संसार के अन्दर अनुपम एवं प्रशस्त गुण हैं, आपकी कृपा से ही वे वृद्धि को प्राप्त Jain Education international Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ना थ होंगे--अर्थात् आप अपने अनुपम ज्ञान से उनका स्वरूप समझावेंगे, तब सज्जन पुरुष उन्हें अखण्डरूप से प्राप्त करने की अभिलाषा करेंगे तथा संसार में डुबानेवाले जो राग आदि दोष सज्जनों के हैं, वे आपकी कृपा से ही नष्ट होंगे ।।४०।। हे देव ! संसार में न तो कोई आपके समान जगत् का बन्धु है; न आपके समान कोई समस्त जगत् का गुरु है; अपना एवं पराया हित करनेवाला भी आपके समान अन्य कोई नहीं । हे नाथ ! आपके समान पवित्र आत्मा का धारक भी कोई संसार के अन्दर दृष्टिगोचर नहीं होता ।।४१।। हे भगवान ! आपका शरीर स्वेद ( पसेव) रहित है; इसलिए पसेव रहित उत्तम शरीर के धारक आपके लिए नमस्कार है । आपका शरीर मल-मूत्र रहित --निर्मल है; ल्लि इसलिए आपके लिए नमस्कार है । आपके शरीर के अन्दर निन्दित रक्त नहीं; किंतु महामनोहर क्षीर के जल समुद्र के समान महास्वच्छ रक्त है; इसलिए क्षीर समुद्र के जल के समान रक्त से परिपूर्ण अंग के धारक आपके लिए नमस्कार है । हे नाथ ! आप समचतुरस्र संस्थान के धारक हैं; इसलिए आपके लिए नमस्कार है । हे भगवान ! आप आदि संहनन वज्रवृषभनाराच संहनन के धारक हैं एवं आपका दिव्य रूप है; इसलिए आपके लिए नमस्कार है । आपका शरीर अत्यन्त सुगन्धि का धारक है एवं १००८ शुभ लक्षणों से शोभायमान है; इसलिए आपके लिए नमस्कार है ।।४२-४३।। देव ! जिसका किसी प्रकार का अनुमान नहीं किया जा सकता, ऐसे अनुपम पराक्रम के आप धारक हैं एवं सर्वदा हितकारी मार्ग सुझानेवाले हैं, इसलिए आपके लिए नमस्कार है । हे प्रभो ! आप परिमित एवं समीचीन बोलनेवाले हैं, इस प्रकार साथ-साथ ही उत्पन्न होनेवाले दश अतिशयों से अत्यन्त शोभायमान हैं, अर्थात् जन्म के समय आपके जो दश अतिशय होते हैं, वे अन्य किसी के नहीं हो सकते; इसलिए आपके लिए नमस्कार है ।। ४४।। हे भगवान ! ऊपर जितने गुणों का उल्लेख किया , उनसे भिन्न भी अपरिमित गुणों के आप भण्डार हैं एवं महादीप्तिमान ज्ञानरूपी नेत्र के धारक हैं; इसलिए आपके लिए नमस्कार है । हे प्रभो ! आप समस्त जगत् को अलौकिक आनन्द प्रदान करनेवाले हैं एवं अत्यन्त दुर्लभ मोक्षरूपी लक्ष्मी के प्यारे आप ही हैं; इसलिए आपके लिए नमस्कार है ।।४५।। हे जगन्नाथ ! आपकी स्तुति कर हम आपसे यह प्रार्थना करना नहीं चाहते कि आप हमें समस्त जगत् की लक्ष्मी प्रदान करें; परन्तु प्रभो ! प्रार्थना यही है कि जिस अलौकिक ऐश्वर्य को आपने प्राप्त किया है, जिसके सामने सारी संसार की विभूतियाँ तुच्छ हैं, कृपा कर उस परमोत्तम ऐश्वर्य को हमें भी प्रदान कीजिए।। ४६ ।। ण व श्री म ल्लि ना 5 5 5 5 थ पु रा ण ६० Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार तीन जगत् के नाथ भगवान श्री मल्लिनाथ की स्तुति कर परमानंद से गद्गद् होकर इंद्रों ने अपने आज्ञाकारी देव एवं देवांगनाओं के साथ उन्हें मस्तक झुका कर भक्तिपूर्वक नमस्कार किया ।। ४७।। कर्म आदि शत्रुओं के जीतनेवाले भगवान श्री मल्लिनाथ मल्लिका पुष्प की सुगन्धि से भी उत्कट सुगन्धिवाले दिव्य शरीर के धारक थे; इसलिए देवों ने उनका अन्वर्थ नाम श्रीमल्लिनाथ रक्खा था ।।४८।। देवगण मेरु पर्वत पर जिस समय समस्त कार्य समाप्त कर चुके, उस समय जो कुछ उनके जन्म-कल्याणक सम्बंधी कार्य शेष बचा था, उसे पूरा करने के लिए वे तीन जगत के गुरु भगवान श्रीमल्लिनाथ को लेकर पहिले के ही समान बड़े ठाट-बाट से पुनः मिथिलापुरी लौट आये ।।४६।। राजा कुम्भ के आँगन में एक महामनोहर विशाल सिंहासन विद्यमान था । समस्त अंगों में पहिने हुए भूषणों से भूषित भगवान श्रीमल्लिनाथ को इन्द्र ने बड़े आनन्द से उस पर विराजमान किया ।।५०।। इन्द्राणी भगवान के गर्भ गृह में गई एवं माता को जगाया तथा बन्धु-बांधवों के साथ राजा कुम्भ की मायामयी निद्रा दूर की । जहाँ पर भगवान श्रीमल्लिनाथ को विराजमान किया था, वहाँ पर वे आये एवं आनन्द से गद्गद् होकर उदय से प्राप्त तेजपुन्ज || के समान अपने पुत्र को देखा।।५।। मेरु पर्वत पर जो भी अभिषेक के समय कार्य किया गया था, वह सब भगवान के माता-पिता से इन्द्र ने आनन्दपूर्वक निवेदन किया । उत्तमोत्तम वस्त्र, आभूषण एवं माला आदि से समस्त देवों के | साथ भक्तिपूर्वक उनकी पूजा की तथा “आप समस्त लोक में धन्य हैं, पूज्य हैं, उत्कृष्ट हैं, मान्य हैं, स्तुति करने योग्य || हैं, सौभाग्य के पार को प्राप्त हैं । अर्थात् आपसे बढ़कर कोई भाग्यवान नहीं है । विशेष क्या ? जब आप स्वयं तीर्थंकर भगवान के माता-पिता हैं, तब समस्त लोक के आप माता-पिता हैं।" इस प्रकार मनोहर शब्दों में भक्तिपूर्वक इन्द्र ने उनकी स्तुति की ।।५२-५३।। तत्पश्चात् इन्द्र के कहे अनुसार भगवान श्री मल्लिनाथ के पिता राजा कुम्भ ने पुरवासी एवं अपने बन्ध-बांधवों के साथ श्री जिनेन्द्र भगवान के मंदिर में महापूजा एवं अभिषेक आदि का महान उत्सव किया ।।५४।। महोत्सव के बाद अनेक प्रकार की बन्दनवारें, ध्वजाएँ एवं गीत, नृत्य तथा वाद्य आदि से ||६१ मिथिलापरी में भी बड़ा उत्सव मनाया गया ।।५५।। भगवान के पिता राजा कुम्भ ने अनेक प्रकार के दान देकर अनेक बन्धुओं, दीन, अनाथ तथा बन्दियों आदि की भी इच्छाएँ अच्छी तरह पूर्ण कर दी थीं ।।५६।। जिस समय समस्त नगर निवासीजन आनंद में मग्न थे, उस समय भगवान के माता-पिता आदि के साथ विशिष्ट स्वानुभूति प्रदर्शित करने Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए इन्द्र ने अपनी देवियों के साथ अत्यंत आनन्दमयी नृत्य किया, जो कि सुहावना लगनेवाला बड़ा मनोहर था। नृत्य करते समय कभी छोटा आकार, तो कभी बड़ा आकार--इस प्रकार अनेक आकार मालूम पड़ते थे। कभी | अत्यंत निकट में जान पड़ता था तथा कभी अत्यंत दूर में जान पड़ता था। बीन, बाँसुरी, मृदंग आदि अनेक प्रकार के वाद्य बजते थे एवं अनेक प्रकार के गाने होते थे, अनेक प्रकार से शरीर का हिलना-डुलना होता था; इसलिए इन विशिष्ट बातों से वह नृत्य समस्त जगत् को आश्चर्यित करनेवाला महामनोहर जान पड़ता था ।।५७-५६।। जब नृत्य म | का कार्य समाप्त हो चुका, उस समय धात्री के वेषवाली देवियों को तथा भगवान की ही अवस्था वाले उनके ही समान || रूप के धारक तथा अनेक प्रकार के वेषों के धारण करनेवाले बहुत से देव कुमारों को उनकी सेवा, सुश्रुषा तथा साथ-साथ खेलने के लिए नियुक्त कर दिया । इसलिए वे बराबर उनकी सेवा, सुश्रुषा करने लगे एवं साथ-साथ खेलने लगे। इस प्रकार तीर्थंकर के प्रति अनेक प्रकार की भक्ति प्रदर्शित कर तथा उससे जायमान अनेक प्रकार का पुण्य उपार्जन कर समस्त देव स्वर्ग को एवं अपने-अपने स्थानों को चले गए ।।६०-६१।। जिन देव कुमारों को तीर्थंकर | की सेवा, सुश्रुषा तथा उनके साथ खेलने के लिए नियुक्त किया गया था; वे देव कभी गजराज का रूप बना कर, तो कभी अश्व का रूप बना कर, तो कभी बन्दर आदि का रूप बना कर तीर्थंकर के साथ क्रीड़ा करते थे तथा उनकी सेवा के लिए जो देवियाँ नियुक्त थीं, वे भी बड़ी भक्ति से उनका आदर-सत्कार करती थीं। उनमें कोई-कोई देवियाँ तो तीर्थंकर को अनेक प्रकार की मण्डन हेतु वस्तुओं से मण्डित करती थीं, बहुत-सी सुगन्धित जल से उन्हें स्नान कराती थीं एवं बहुत-सी अनेक प्रकार के भूषण उन्हें पहिनाती थीं ।।६२-६३।। वे भगवान श्री मल्लिनाथ मन्द-मन्द हास्य करते थे अर्थात् पुलकते थे। मणिमयी भूमि पर रेंगते थे, इसलिए बाल्य अवस्था की अनेक प्रकार की क्रीड़ा तथा पुलकन आदि से वे माता-पिता को परमानन्द प्रदान करते थे ।।६४।। जिस प्रकार चन्द्रमा नाना प्रकार की कलाओं से उज्ज्वल रहता है तथा देखनेवालों के नेत्रों को आनन्द तथा आमोद प्रदान करता है, उसी प्रकार उन ||६२ भगवान श्रीमल्लिनाथ का भी शैशव काल दिव्य था, चन्द्रमा के समान अनेक प्रकार के कला-कौशलों से दैदीप्यमान था एवं बन्धु-बांधव तथा देवों आदि के नेत्रों को अत्यंत आनन्द तथा उत्साह का प्रदान करनेवाला था ।।६५।। उन भगवान के मुखकमल से मन्मन् स्वरूप स्पष्ट भाषा निकलती थी एवं मणिमयी भूमि पर खेलते हुए वे पग-पग पर For Privale & Personal use only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ल्लि गिरते पड़ते थे ।। ६६ ।। अपने योग्य महामनोज्ञ अन्न-पान आदि के आहार से उनका शरीर क्रम से दिनों-दिन बढ़ता जाता था एवं जिस प्रकार शरीर बढ़ता चला जाता था, उसी प्रकार महामनोहर अंग-प्रत्यंग फैलते चले जाते थे एवं निरंतर बुद्धि, ज्ञान तथा गुण आदि की भी वृद्धि होती चली जाती थी ।। ६७।। मति, श्रुति एवं अवधिरूपी तीन ज्ञान धारक तीर्थंकर की बाल्यावस्था के बीत जाने पर जिस समय कुमार अवस्था प्रकट हुई थी, उस समय ज्ञान-विज्ञान तथा बुद्धि आदि गुण अपने-आप वृद्धि को प्राप्त होने लगे थे ।। ६८ ।। कुमार अवस्था में माता-पिता को परमानन्द श्री प्रदान करनेवाले तीर्थंकर ने अनेक निर्मल गुणों के साथ धीरे-धीरे क्रम से अत्यन्त शुभ यौवन अवस्था को भी प्राप्त म कर लिया था ।।६६।। उस समय सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र स्वयं कल्याण प्राप्ति की अभिलाषा से कभी-कभी वीणा आदि वाद्यों से, कभी-कभी नृत्य करनेवाले देवांगनाओं के कौतुक से, कभी-कभी काव्य आदि की गोष्ठियों से, कभी-कभी अनेक रूप एवं हाव-भाव आदि को धारण करनेवाली चेटक विद्याओं से एवं कभी-कभी अन्य प्रकार के विनोद एवं कौतूहलों से तीर्थंकर को अत्यन्त प्रसन्न रखता था ।। ७०-७१।। देवगण अवस्था एवं समय योग्य माला, वस्त्र एवं भूषण तीर्थंकर को पहिनाया करते थे, इसलिए अवस्था के योग्य देवों द्वारा पहिनाए गए वस्त्र एवं भूषणों से अलंकृत शरीर के धारक तीर्थंकर अपनी उग्र कान्ति से चन्द्रमा को जीतनेवाले थे; इसलिए उस समय वे अत्यन्त शोभायमान जान पड़ते थे । । ७२|| तीर्थंकर का शरीर एक हजार आठ लक्षणों से शोभायमान था, परम औदारिक था एवं उपमारहित था; इसलिए वह अत्यन्त शोभायमान जान पड़ता था || ७३ || नीले-नीले घुँघराले बालों से शोभायमान तीर्थंकर का मस्तक जिस समय मुकुट से अलंकृत होता था, उस समय वह देव सम्बन्धी माला को धारण करनेवाला महामनोहर मेरु पर्वत का श्रृंग सरीखा जान पड़ता था ।।७४ || अपनी अनुपम कान्ति समस्त दिशाओं को व्याप्त करनेवाला तीर्थंकर का अत्यन्त विशाल ललाट अतिशय शोभायमान जान पड़ता था एवं उनकी महामनोहर भृकुटियें एवं दोनों विशाल नेत्र अत्यन्त शोभित जान पड़ते थे ।। ७५ ।। तीर्थंकर के दोनों कान मणिमयी कुण्डलों की किरणों से अत्यन्त शोभायमान थे । अपनी अनुपम दीप्ति ने चन्द्रमा को जीतनेवाले उनके दोनों कपोल भी महामनोज्ञ थे एवं उनकी ऊपर को उठी हुई ऊँची नासिका महामनोहर थी ।। ७६ ।। जिस प्रकार चन्द्रमा से अमृत झरता था, एवं वह विष का हरनेवाला होता है (ऐसी प्रख्याति है ) उसी प्रकार तीर्थंकर के मुखचन्द्र से प्रतिदिन दिव्य भाषारूपी ६३ ल्लि ना थ पु रा ण ना थ पु रा ण Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FFFF अमृत झरता था, जो कि मृत्युरूपी महा हलाहल विष का हरण करनेवाला था, इसलिए अनुपम गुणों के धारक उन तीर्थंकर का जितना भी वर्णन किया जाए, सो थोड़ा है ।।७७।। तीर्थंकर अपने वक्षःस्थल में मणिमयी हार पहिनते थे एवं वह नाभिमंडल पर्यन्त लटकता रहता था; उस मणिमयी हार से उनके वक्षःस्थल एवं नाभि दोनों ही अत्यन्त शोभायमान जान पड़ते थे। उनकी दोनों भुजायें केयूरों (भुजबन्धों) से शोभायमान रहती थीं एवं वे कल्पवृक्ष की लता सरीखी जान पड़ती थीं ।।७८|| तीर्थंकर का महामनोहर कटिभाग करधनी एवं उत्तम वस्त्र से शोभायमान रहता था। उनकी दोनो जंघायें केले के खम्भों के समान अत्यन्त कोमल थीं ।।७६।। तीर्थंकर के चरणकमलों की सेवा तीनों लोक के इन्द्र सदा किया करते थे एवं वे नखरूपी चन्द्रमाओं से शोभायमान रहते थे; इसलिए उनके असली स्वरूप का वर्णन करने में कोई भी समर्थ नहीं था ।।८।। इस प्रकार ऊपर कहे गए अनेक प्रकार के वर्णनों से युक्त अत्यन्त मजबूत वज्रमयी हड्डियों से बना हुआ आदि संहनन--वज्रवृषभनाराच संहनन से युक्त आदि संस्थान-समचतुरन संस्थान से शोभायमान, पच्चीस धनुष प्रमाण ऊँचा, तपे हुए सुवर्ण के समान कांति का धारक, स्वभाव से ही सुन्दर, इसदिव्य संसार में जितने भी पुण्यस्वरूप परमाणु थे, उनके समूह-स्वरूप तीर्थंकर का अनुपम औदारिक शरीर दिव्य आभूषण, महा वस्त्र, कांति एवं यौवन आदि की परिपूर्ण शोभा से अत्यन्त लावण्यमान जान पड़ता था ।।८१-८३।। भगवान श्री मल्लिनाथ की आयु पचपन हजार वर्ष की थी वह समस्त प्रकार की बाधाओं से रहित थी, अपने-पराया का हित करनेवाली थी एवं अखण्डित थी ।।४।। तीर्थंकर ने सौ वर्ष पर्यंत उत्तमोत्तम भोग भोगे जो कि मनुष्य लोक में देवों के द्वारा उपनीत थे, कुमार तीर्थंकर के योग्य थे एवं उनका उदय अशुभ नहीं होकर शुभ था ।।८।। ___एक समय अपनी युवावस्था में अनेक देव, विद्याधर एवं राजाओं से सेवित भगवान श्रीमल्लिनाथ सानन्द विराजमान थे कि उनके पिता पुत्र-स्नेह से प्रेरित होकर उनके पास आये एवं “आगे भी वंश की वृद्धि हो" इस अभिलाषा से वे भक्तिपूर्वक उनसे यह कहने लगे-- "प्रिय पुत्र ! इसी पृथ्वीमण्डल पर पृथ्वीपुर नाम का एक नगर है । उसका पालन करनेवाला राजा भूपाल है, उनके एक “जगद्रति' नाम की कन्या है, जो कि अपने अनुपम रूप एवं गुणों से पृथ्वी पर प्रसिद्ध है--वह तुम्हारे सर्वथा योग्य है । मेरी यह हार्दिक इच्छा है कि तुम उसके साथ विवाह करना स्वीकार करो" ।।८६-८७।। समस्त प्रकार के चातुर्यों के जानकार भगवान श्रीमल्लिनाथ ने अपने पिता के र | ६४ For Privale & Personal use only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आग्रह से जगद्रति के साथ विवाह करना स्वीकार कर लिया एवं वे अनेक नृपों एवं देवों से वेष्टित होकर बड़ी विभूति के साथ विवाह के लिए चल दिए । मिथिलापुरी उस समय रंग-बिरंगी ध्वजाओं की पंक्तियों से, भाँति-भाँति के नृत्य एवं वाद्य आदि से जायमान सैकड़ों प्रकार के महोत्सवों से शोभित थी। राजद्वार से निकल कर तीर्थंकर पृथ्वीपुर की ओर जाने लगे । अपने पहिले जन्म में उन्होंने अपराजित विमान की विभूति का उपभोग किया था; इसलिए मिथिलापुरी की अद्वितीय शोभा देख कर उन्हें अपराजित विमान का स्मरण हो आया । उन्हें उसी संसार एवं शरीर भोगों से वैराग्य हो गया एवं अवधिज्ञान के धारक वे भगवान श्री मल्लिनाथ अपने चित्त में इस प्रकार का विचार करने लगे ।।८८-६०।। अपराजित विमान के अन्दर जिन भोगों का भोग किया गया, वे भोग महामनोज्ञ थे; तृप्ति को देनेवाले उत्कृष्ट ना थे, अनुपम थे एवं सुख के कारण थे। जब यह जीव उन विपुल भोगों से भी तृप्त नहीं हुआ, तब क्या यह इस || लोक के ऐसे भोगों से तृप्त हो सकता है ? जो भोग बड़े दुःख से प्राप्त होते हैं, अनेक प्रकार के दुःखों को देनेवाले || हैं, शरीर को नष्ट-भ्रष्ट करनेवाले हैं, अत्यन्त तुच्छ हैं एवं आधि-व्याधि आदि अनेक व्यथाओं के समुद्र हैं पु|| ॥६१-६२।। ईंधन के विपुल ढेर से अग्नि की तृप्ति नहीं हो सकती, परन्तु कदाचित् दैवयोग से उस ईंधन से अग्नि || पु की तृप्ति हो जाए; अनेक नदियों के प्रवाहों से समुद्र की तृप्ति नहीं होती । परन्तु कदाचित् दैवयोग से उसकी भी || रा तृप्ति हो जाए, अनेक प्रकार के धन के संग्रह से लोभी पुरुष की तृप्ति नहीं हो सकती, परन्तु दैवयोग से कदाचित उसकी भी तृप्ति हो जाए; परन्तु जो पुरुष विषयों में आसक्त (कामी) है, उसकी भले प्रकार भोगे जानेवाले अनन्त भवों से प्राप्त होनेवाले (जिनका मिलना बड़ी कठिनता से है एवं जिनको छोड़ते समय भी महाकष्ट जान पड़ता है) ऐसे भोगों से कभी भी तृप्ति नहीं हो सकती है ।।६३-६४।। मन में बहुत भोगों की लालसा रखने के कारण भी यह जीव इतने विपुल काल पर्यन्त अनेक प्रकार के दुःखों को भोगता-भोगता इस दुष्ट संसाररूपी महाभयानक वन के ||६५ अन्दर चक्कर लगाता फिर रहा है एवं भोगों में अत्यन्त आसक्त होने के कारण इसे वास्तविक मार्ग का ज्ञान नहीं होता ।६।। यह भोगों की तीव्र अभिलाषा संसार में अनेक प्रकार के अशुभों को उत्पन्न करनेवाली है, जबतक यह चित्त के अन्दर विद्यमान है, तबतक कभी भी जीवों को मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है एवं जबतक मोक्ष की प्राप्ति 4444934 - - Jain Education international For Privale & Personal use only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || नहीं होती है, तबतक वास्तविक सुख भी प्राप्त नहीं हो सकता है । इसलिए यह भोगों की अभिलाषा ही वास्तविक सुख की बाधक है ।।६६।। इसलिए जो पुरुष भोगों के स्वरूप के वास्तविक रूप से जानकार हैं एवं मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं । उन्हें चाहिए कि वे भोगों का स्वरूप अच्छी तरह जान कर सबसे पहिले इन भोगों को दूर से ही त्यागें । क्योंकि ये भोग साक्षात् सर्प के समान हैं; अर्थात् सर्प जिसे डॅस लेता है, वह फिर शीघ्र उछंगता नहीं, उसी प्रकार भोगरूपी सर्पो का डॅसा हुआ भी शीघ्र नहीं उछंगता तथा ये भोग हलाहल विष के समान हैं अर्थात् जिस प्रकार हलाहल विष को पीनेवाला बचता नहीं है, उसी प्रकार भोगों का काटा हुआ भी नहीं बचता । इसीलिए ये विषय || म शत्रु-स्वरूप हैं, क्योंकि इनसे किसी प्रकार की भलाई की आशा नहीं है ।।६७।। इसीलिए जो महानुभाव मुमुक्ष हैं, संसार के समस्त प्रकार के बन्धनों को तोड़ कर केवल मोक्ष ही चाहनेवाले हैं; उन्हें विवाह आदि का कार्य सर्वथा छोड़ देना चाहिए। क्योंकि यह विवाह आदि का कार्य अत्यन्त लज्जा का कारण है, मोक्ष सुख का घात करनेवाला है एवं || संसार में घुमानेवाला है ।।६८।। फिर भी यह बात है कि यह विवाह मिथ्या मंगलों से युक्त है; अर्थात् विवाह में जितने || भी मंगलाचरण किए जाते हैं, वे सब मिथ्या हैं । समस्त दुःख आदि विपत्तियों का समुद्र है एवं विवाह होते ही सैकड़ों प्रकार की चिन्ताएँ पीछे लग जाती हैं; इसलिये यह सैकड़ों प्रकार की चिन्ताओं का कारण है; इसलिये यह विवाह कभी || भी कल्याण का करनेवाला नहीं हो सकता--जो महानुभाव इसे कल्याण का करनेवाला समझते हैं, उन्हें केवल भ्रम | ही है ।।६६। मनुष्य आदि का शरीर साँकल से जकड़ कर बाँधा जाता है; परन्तु यह 'स्त्री' साँकल के बिना ही भीतर-बाहर दोनों प्रकार से बाँधनेवाली है; अर्थात् अन्तरंग में मोह की तीव्रता से मनुष्य स्त्री को छोड़कर नहीं जा सकता एवं बाहिर में जब छोड़ कर चलता है, तब वह उसके पीछे पड़ती है; इसलिये भी छोड़ कर नहीं जा सकता । यह स्त्री खोटे फलों को धारण करनेवाली संसाररूपी बेल है; अर्थात् बेल पर अच्छे-बुरे सब प्रकार के फल आते हैं; परन्तु स्त्रीरूपी संसार बेल से सदा दुष्ट फलों की ही प्राप्ति होती है । विशेष क्या ? यह स्त्री साक्षात् नरक का ||६६ मार्ग है ।। १००।। पुत्र जिनको कि संसार में उत्कृष्ट पदार्थ माना जाता है, वे महा शत्रु हैं एवं संसार के समस्त धन-धान्यों का भक्षण करनेवाले हैं । लक्ष्मी जो कि संसार में बहुत बड़ी वस्तु मानी जाती है, इन्द्रजाल के समान निस्सार है; क्योंकि जिस प्रकार इन्द्रजाल का ठाट-बाट देखते-देखते विलीन हो जाता है, उसी प्रकार लक्ष्मी का वैभव FF Jain Education international For Privale & Personal use only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FFFFFFF भी देखते-देखते विलीन हो जाता है तथा यह कुटुम्ब साक्षात् पाश के समान है ।। १०१।। प्रातःकाल में जिस प्रकार दर्भ की अनी पर लगी हुई जल की बूंद अत्यन्त चन्चल व क्षण में विनाशवान है, उसी प्रकार मनुष्यों का जीवन भी अत्यन्त चन्चल एवं विनाशवान तथा इन्द्रियों के विषय, बन्धु-बांधव आदि स्वजन एवं संसार के समस्त काम भोग क्षणभंगुर हैं ।।१०२।। इसलिए जो पुरुष विलक्षण हैं, वास्तविक रूप से संसार के स्वरूप के जानकार है, उन्हें बाल्यावास्था में ही सम्यक्चारित्र को ग्रहण कर लेना चाहिए एवं प्रतिक्षण अपनी मृत्यु की आशंका कर उन्हें बहुत शीघ्र मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए ।।१०३।। जब से जीव उत्पन्न होता है, तभी से यह यमराज दिन, पक्ष, मास आदि के हिसाब से जीव को मृत्यु के मुख में प्रविष्ट कराने का प्रयत्न करता है। इसलिए धर्म के विषय में इस प्रकार समय का विलम्ब नहीं करना चाहिए कि हम आज धर्म-सेवन न करेंगे, तो कल कर लेंगे या यह समय विषय-भोग भोगने का है, वृद्धावस्था में जाकर धर्म कर लेंगे; क्योंकि मृत्यु का कोई ठीक समय नहीं है ।। १०४।। संसार के अन्दर इन्द्रियाँ, आयु, गृह, राज्य, भोगोपभोग, परिवार एवं लक्ष्मी आदि जितने भी पदार्थ हैं; वे || सब--जिस प्रकार विद्युत चमक कर शीघ्र नष्ट हो जानेवाली है--उसी प्रकार नष्ट हो जानेवाले हैं। यदि संसार में शरणदाता है, तो वह एक समीचीन-धर्म ही है। धर्म के सिवाय मृत्यु के मुख से बचानेवाला कोई भी शरण नहीं || पु है। यह संसार अत्यन्त भयानक है; अतिशय चन्चल है। अनेक प्रकार के दुःखों का समुद्र है एवं अनेक प्रकार के || रा अकल्याणकों का करनेवाला है। ऐसे महा भयानक संसार में यह बिचारा दीन जीव अकेला ही अपने-आप कर्मों के | फल से महा दुःखित होकर भ्रमण करता फिरता है । इसे रन्चमात्र भी शान्ति नहीं मिलती है ।।१०।। आत्मा पदार्थज्ञानी है । आत्मा से भिन्न शरीर कुटुम्ब एवं समस्त कर्म स्वभाव से ही महा अज्ञानी हैं । यह शरीर जिसका कि लोगों को घमण्ड है, वह यमराज के रहने का स्थान है। अनेक प्रकार के दुःखों का समुद्र है एवं रक्त-मांस आदि जितने भी अपवित्र पदार्थ हैं, उन सबका खजाना है तथा कर्मों का आसव, मिथ्यात्व, अविरति आदि कारणों से ||६७ जायमान है, अनन्तकाल पर्यंत संसार में घुमानेवाला है एवं नाना प्रकार के दुःखों का देनेवाला है तथा संवर समस्त पाप कर्मों का रोकनेवाला है, दुःख का हरण करनेवाला है एवं मोक्ष को प्रदान करता है ।। १०६।। सम्वर के बाद निर्जरा समस्त अशुभ कर्मों की क्षय करनेवाली है । उत्कृष्ट तप से जायमान है एवं मोक्ष को प्रदान करनेवाली है तथा 44649 ॐ For Privale & Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री यह लोक दुःख एवं सुख का स्थान है, अत्यन्त विषम है, अनादि है एवं ऊर्ध्वलोक - मध्यलोक -पाताललोक के भेद से तीन प्रकार का सदा रहनेवाला है । संसार में मनुष्य भव का पाना, समस्त इन्द्रियों का पूरा होना, उत्तम कुल का मिलना एवं सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान- सम्यक् चारित्र स्वरूप 'बोधि' का होना महादुर्लभ है -- बड़ी कठिनता से इनकी प्राप्ति होती है । धर्म समस्त संसार के सुखों का स्थान है । १. उत्तम क्षमा २. उत्तम मार्दव ३.उत्तम आर्जव ४.उत्तम शौच ५.त्तम सत्य ६. उत्तम संयम ७. उत्तम तप ८. उत्तम त्याग ६. उत्तम आकिंचन्य एवं १०. उत्तम ब्रह्मचर्य, के भेद से दश प्रकार का है एवं संसार के अन्दर जितने भी दुःख हैं, उन सबका सर्वथा नाश करनेवाला है ।। १०७ ।। इस प्रकार १.अनित्य २.अशरणत्व ३.संसार ४. एकत्व ५. अन्यत्व ६ . अशुचित्व ७. आस्रव ८. सम्वर ६. निर्जरा १०. लोक ११. ल्लि बोधि दुर्लभ तथा १२. धर्म -- इन बारह भावनाओं का अपने निर्मल चित्त में विचार करने से उन कुमार भगवान श्रीमल्लिनाथ को संसार शरीर तथा विषय-सुख आदि से मोक्ष प्राप्ति का प्रधान कारण संवेग हो गया । उस समय से सिवाय आत्म-स्वरूप के कोई भी उन्हें अपना न सूझता था ।। १०८ ।। म ना थ इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति द्वारा कृत संस्कृत भाषा में श्री मल्लिनाथ चरित्र की पं. गजाधरलालजी न्यायतीर्थ पु विरचित हिन्दी वचनिका में भगवान श्री मल्लिनाथ की वैराग्य उत्पत्ति का वर्णन करनेवाला पाँचवाँ परिच्छेद समाप्त रा हुआ ।।५।। ण श्री म ल्लि ना थ छटवाँ परिच्छेद जिन भगवान श्रीमल्लिनाथ ने तपरूपी जाज्वल्यमान अग्नि के द्वारा विषयरूपी विस्तीर्ण वन को मयदुष्कर्म - रूपी वृक्षों की श्रेणी के बाल्य अवस्था में ही देखते-देखते भस्म कर डाला, उन बाल- ब्रह्मचारी श्रीजिनेन्द्र को मैं भक्ति-भाव प्रणाम करता हूँ || १|| संसार तथा शरीर - भोगों से विरक्त होकर जिस समय भगवान श्रीमल्लिनाथ बारह भावनाओं का चिन्तवन कर रहे थे, उसी समय लौकान्तिक देव, जो कि अपने परम पवित्र भावों से देवों में 'ऋषि' कहे जाते हैं, महा चतुर होते हैं, स्वभाव से ही ब्रह्मचारी होते हैं, एक भवावतारी होते हैं--अर्थात् मनुष्य भव धारण करके ही मोक्ष चले जाते हैं; अतएव पूज्य होते हैं, चौदह पूर्वों के धारक होते हैं एवं सारस्वत, आदित्य, आदि आठ जिनके भेद हैं, वे शीघ्र ही भगवान के समीप आये तथा मस्तक झुका कर नमस्कार किया एवं भक्ति से गद्गद् होकर भगवान पु रा ण ६८ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनेन्द्र की इस रूप से स्तुति करने लगे- श्री म ‘हे देव ! आप तीन जगत् के स्वामी हो, संसाररूपी अगाध समुद्र में डूबते हुए प्राणियों की रक्षा करनेवाले आप ही हैं । हे तीर्थों के राजा ! इस लोक में इस समय धर्म- तीर्थ के प्रवर्तक आप ही हैं ।। २४ ।। हे प्रभो ! आप समस्त जगत् के अकारण बन्धु हैं, कृपानाथ हैं एवं आप ही स्वयं मुक्तिरूपी स्त्री के स्वामी होनेवाले हैं ।।५।। लोग ऐसा समझते हैं कि जिस समय भगवान तीर्थंकर को वैराग्य होता है, उस समय लौकान्तिक देव उन्हें आकर सम्बोधित करते हैं तथा उनके वैराग्य को दृढ़ करते हैं । परन्तु हे भगवान ! यह कहना कल्पनामात्र है; क्योंकि जिस प्रकार ल्लि अखण्ड दीप्ति का भण्डार सूर्य स्वयं प्रकाशमान है, उसे प्रकाशित करने के लिए दीपक की आवश्यकता नहीं पड़ती, उसी प्रकार हे नाथ ! उत्तम ज्ञान के धारक आप इन सबों को सम्बोधित करनेवाले हैं-- हमें समीचीन मार्ग के सुझानेवाले हैं, हमारे द्वारा कभी भी आप सम्बोधित नहीं किए जा सकते; अर्थात् हमें आपको सम्बोधन करनेवाला कहना, सूर्य को दीपक दिखाना है ।। ६ ।। हे भगवान ! आप स्वयं उत्पन्न होनेवाले है; इसलिए स्वयम्भू हैं । आपको सम्बोधन करनेवाला कोई अन्य नहीं - - स्वयं को सम्बोधन करनेवाले आप ही हैं; इसलिए आप स्वयंबुद्ध हैं; समस्त लोक- अलोक को जानने के कारण आप सर्वज्ञ हैं; ज्ञानरूपी नेत्र के धारक हैं । हे देव ! आपने जो विचार किया है, वह अपना-पराया हित करनेवाला है, इसलिए वह सर्वथा उपर्युक्त है; क्योंकि हे दयासागर भगवान ! बाल्यावस्था में ही आपने वैराग्यरूपी तीक्ष्ण खड्ग के द्वारा अत्यन्त भयंकर कामदेव आदि के साथ मोहरूपी शत्रु को नष्ट कर महा कठिन सम्यक्चारित्र को धारण करने का साहस किया है ।। ७-८ ।। अनेक प्रकार के भोगों को भोग कर जो पुरुष तृप्त होने पर भी उनसे विरक्त नहीं होते, यह आश्चर्य है, अर्थात् तृप्ति हो जाने पर भोगों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए; किंतु जो ऐसा नहीं करते, वे बड़े आश्चर्य का काम करते हैं । परन्तु मोक्ष प्राप्ति के लिए सर्वथा उद्यत आपने भोगों को बिना भोगे ही उनका सर्वथा त्याग कर दिया, यह सबसे बढ़कर आश्चर्य की बात है । इसलिए हे नाथ ! इस संसार में सबसे अधिक धन्यवाद के पात्र आप ही हैं। हे भगवान ! बाल्यावस्था ही में आप राग को जीतनेवाले हैं; अर्थात् किसी भी पदार्थ में आपका राग नहीं । सबसे अधिक राग का कारण स्त्री है, सो उसका बन्धन भी आपने नष्ट कर दिया--विवाह से ही विरक्त हो गए; इसलिए मुख में पहुँचते हुए ग्रास के त्याग के कारण अर्थात् राग के ६९ थ पु रा ण श्री म ल ना थ पु रा ण Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान तीव्र बन्धन विवाह से सर्वथा मुंह मोड़ने तथा सम्यक्चारित्र में प्रवृत्त होने के कारण आप एक अद्वितीय व्यक्ति हैं; आपके समान कोई भी नर-रत्न संसार के अन्दर नहीं है ।।६-१०।। हे प्रभो ! आपके अन्दर महाज्ञान 'केवलज्ञान' का उदय होगा । उस केवलज्ञानरूपी जहाज का आश्रय लेकर अर्थात् उस केवलज्ञान की कृपा से यथार्थ उपदेश पाकर ये विद्वान भव्य प्राणी संसार-रूपी बड़े गहरे समुद्र को तैर जावेंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।।११।। गहरे जल से भरा हुआ गंगा आदि का तीर्थ जिस प्रकार मैल का काटनेवाला माना जाता है, उसी प्रकार आपके वचनरूपी अमृत से परिपूर्ण विशाल धर्मरूपी तीर्थ को पाकर भव्य जीवों के दुष्कर्मरूपी मैल का समूह नियम से धुल जाएगा ।।१२।। हे देव ! आपके ज्ञानरूपी ज्योत्स्ना की ही कृपा से मोह रूपादि विपुल अन्धकार को नष्ट कर ये भव्य जीव इस संसार में मोक्ष के मार्ग को भली प्रकार देखेंगे ।।१३।। जिस प्रकार रत्नों के व्यापारी सेठ जहाज की सहायता से अपने अभीष्ट ते हैं, उसी प्रकार जो योगी रत्नत्रयरूपी विशिष्ट धन के स्वामी हैं, वे जहाज के समान आपकी सहायता पाकर मोक्ष को प्राप्त होंगे ।।१४।। हे भगवन् ! आपके द्वारा समीचीन धर्म का उपदेश सुन कर उत्तम धर्म का उपार्जन कर कोई-कोई भव्य 'सर्वार्थसिद्धि' प्राप्त करेंगे। बहुत-से स्वर्ग जायेंगे एवं बहुत-से आपके समान मोक्ष-लक्ष्मी प्राप्त करेंगे; अर्थात् आपके समान तीर्थंकर होकर अनन्त विभूति प्राप्त करेंगे ।।१५।। कोई-कोई दिव्य ग्रैवेयक में जन्म धारण करेंगे, कोई-कोई अत्यन्त पुण्यशाली चक्रवर्ती को होनेवाले वैभव को प्राप्त करेंगे एवं कोई-कोई महानुभाव नियम से मोक्ष प्राप्त करेंगे; किन्तु बिना उपदेश के ‘सर्वार्थसिद्धि' आदि विशिष्ट अभ्युदय के कारण स्थानों की प्राप्ति नहीं हो सकती ।।१६।। इसलिए हे देव ! हमारी यह विनम्र प्रार्थना है कि आप अल्प-काल भी विलम्ब नहीं कर शीघ्र ही संयम धारण करें, जिससे अपना-पराया अलौकिक हित हो; क्योंकि जब तक आप संयम नहीं धारण करेंगे, तब तक न तो आप अपना ही हित कर सकते हैं एवं न किसी दूसरे का ही ।।१७।।" इस प्रकार तीर्थंकर के दीक्षा-कल्याणक की प्रशंसा करनेवाले लौकान्तिक देवों ने पूर्वोक्त प्रकार से भगवान श्रीमल्लिनाथ की स्तुति कर, 'आपको जो कुछ विभूति प्राप्त है, वह विभूति हमें भी प्राप्त हो' ऐसी प्रार्थना कर बारम्बार नमस्कार कर एवं मनोहर दिव्य वाक्यों से प्रशंसा कर अपना नियोग समाप्त किया तथा इन शुभ चेष्टाओं के द्वारा बहुत प्रकार से पुण्य उपार्जन कर वे अपने निवासस्थान ब्रह्म लोक को सानंद चले गये ।।१८-१६।। ७० Jain Education international Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लौकान्तिक देवों के चले जाने के बाद चारों निकाय के इन्द्रगण उनके तप-कल्याणक की पूजा के लिए आये । वे देव उस समय बड़ी विशाल विभूति से मण्डित थे। गीत, नृत्य एवं वाद्य आदि से समस्त जगत् को चकित करनेवाले थे, अपनी-अपनी देवांगनाओं एवं आज्ञाकारी देवों से परिव्याप्त थे एवं अत्यन्त धर्मात्मा थे ।।२०-२२।। मिथिलापुरी में आकर चारों निकाय के इन्द्रों ने अपने साथ में आये हुए देवों के साथ दीक्षा कल्याणक के उपलक्ष में क्षीरोदधि से भरे हुए मनोहर कलशों से तीर्थंकर का बड़े ठाट-बाट के साथ अभिषेक किया, उन्हें सिंहासन पर विराजमान कर उत्तमोत्तम भूषण, मालायें एवं मलयागिरि के वस्त्रों से उनका श्रृंगार किया ।।२२-२३।। तीर्थंकर का | इस प्रकार जिन-दीक्षा के लिए उत्साह देख कर परम मोही उनके माता-पिता महाशोक एवं महादुःख प्रगट करने लगे। तीर्थंकर ने बड़े यत्न से उन्हें मनोहर वाणी से समझाया एवं दिलासा दी। तत्पश्चात् उन्होंने जीर्ण तृण के समान समस्त वैभव का परित्याग कर दिया एवं संयम धारण करने के लिए सर्वथा तत्पर हो गये ।।२५।। भूषणों से शोभायमान वे तीर्थंकर इन्द्र के हाथ का सहारा लेकर उत्तमोत्तम मणियों से निर्मित जयन्ती नाम की | पालकी में शीघ्र ही सवार हो गये ।।२६।। जिस समय वे पालकी में बैठ गये, उस समय देवगण अपने श्वेत चमर हाथों में धारण कर उन पर ढोरने लगे; इसलिये उस समय वे ऐसे जान पड़ते लगे मानो तपरूपी लक्ष्मी के ये साक्षात् पति हैं ।।२७।। सबसे पहिले सात पैड़ तक तो राजा लोग कन्धों पर रख कर उनकी पालकी को ले गए । उनके बाद आकाश में सात पैड़ तक उनकी पालकी विद्याधरगण लेगए । उनके पीछे सुर एवं असुरों ने उनकी पालकी अपने-अपने कन्धों पर रक्खी एवं आनन्द से गद्गद् हो वे मनुष्यों को दृष्टिगोचर होकर (दिखते हुए) आकाश में चलने लगे ।।२८।। उस समय मोहरूपी शत्रु पर विजय सम्बन्धी गीत, प्रस्थान मंगल, नाना प्रकार के बजनेवाले वाद्य एवं नृत्य आदि करोड़ों उत्सवों के साथ तीन जगत् के गुरु तीर्थंकर के मोहरूपी शत्रु पर विजय की घोषणा करते हुए वे देव उस समय आनन्द से पुलकित थे एवं बड़े हर्ष से “हे देव ! आपकी जय हो, जय हो", इस प्रकार उनके || ७१ आगे-आगे 'जय-जय' शब्द का कोलाहल करते चल रहे थे ।।२६-३०।। चारों ओर से घेर कर खड़े रहनेवाले देवेन्द्रों द्वारा जिनका उपयुक्त रूप से माहात्म्य प्रकट किया गया है, ऐसे वे भगवान श्रीजिनेन्द्र जिस समय मिथिलापुरी से बाहर निकले थे, उस समय पुरवासी लोगों ने उनका इस प्रकार अभिनन्दन किया था-- Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F4LFs_FFF हे स्वामिन् ! हे देव ! आप मोक्षलक्ष्मी प्राप्त करने के लिए सिधारें । कर्मरूपी शत्रुओं के नाश करने में आप समर्थ हों। हे प्रभो ! आपका मार्ग कल्याण का करनेवाला हो। आप जयवन्त हों--नादें, विरदें एवं समस्त प्रकार के कल्याणकों को प्राप्त करनेवाले हों ।।३२।। जिस समय भगवान तप के लिए जा रहे थे, उस समय उन्हें देख कर बहुत-से चतुर पुरुष आपस में अत्यन्त आश्चर्य प्रकट करते हुए कह रहे थे कि देखो ! यह बड़ी ही अचरज की बात है कि महान ऋद्धि के धारी, अद्भुत पराक्रमशाली ये श्रीजिनेन्द्र भगवान बाल्यावस्था में ही नारी आदि लुभानेवाले पदार्थों से ममत्व त्याग कर संयम धारण करने के लिए चले जा रहे हैं ।।३३-३४।। अन्य बहुत से मनुष्य यह कहते थे कि इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है । ये श्रीजिनेन्द्र भगवान कुछ कम समर्थ नहीं हैं, क्योंकि ये नियम ॥ से समस्त घातिया-कर्मों को नष्ट कर तीन लोक के राज्य को अपने वश में करना चाहते हैं एवं नियम से उसे अपने आधीन करेंगे ।।३।। बहुत से चतुर यह विचार प्रदर्शित करते थे कि इस संसार में विरले ही ऐसे पुरुष उत्पन्न होते हैं, जो कुमारावस्था में ही अपनी इन्द्रियों एवं कामदेवरूपी शत्रु को जीतने का पूरा-पूरा सामर्थ्य रखते हैं ।। ३६।। इस प्रकार भिन्न-भिन्न उदगार व्यक्त कर रहे परवासी जनों से प्रशंसित होकर संयमरूपी लक्ष्मी के वर सरीखे जान पड़नेवाले वे श्रीजिनेन्द्र भगवान उन पुरवासी जनों की दृष्टि से अदृश्य हो गए ।।३७।। जिस समय श्रीजिनेन्द्र भगवान दीक्षा के लिए चले गए, तब उनकी माता प्रजावती को बड़ा दुःख हुआ। शोक से विह्ल होकर वह अन्तःपुर की रानियों एवं अपने बन्धु-बाँधवों के साथ श्रीजिनेन्द्र भगवान के पीछे-पीछे चलने लगीं ॥३८।। रानी प्रजावती की दशा उस समय बड़ी करुण थी, दुःख की तीव्रता से उनके दोनों पैर लड़खड़ाते हुए जमीन पर गिरते थे, सिर के बाल बुरी तरह बिखर गए थे, शरीर की सारी कान्ति फीकी पड़ गई थी । 'हाय प्यारे पुत्र ! तू मुझ अभागिनी को छोड़कर क्यों दीक्षा के लिए चल दिया'--इस प्रकार वह बारम्बार रोती थी एवं अपनी छाती कूटती थी ।।३६।। श्रीजिनेन्द्र भगवान के बन्धुगण उनकी वियोगरूपी अग्नि से आपाद-मस्तक दग्ध होकर मूर्छा से || ७२ जमीन पर गिर पड़े एवं उन्हें उस समय इतना अधिक कष्ट हुआ कि उन्हें अपने शरीर की रंचमात्र भी सुध-बुध नहीं थी ।।४०।। उनके वियोग से अत्यन्त दुःखित चित्त बन्धुगण यह कह कर रुदन करते थे कि 'हे स्वामी श्रीजिनेन्द्र भगवान ! आप हमें छोड़ कर कहाँ चले गए। अब हमें कब आपके दर्शन होंगे एवं आपके वियोग से महा दुःखित Jain Education Interational For Private & Personal use only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FE Fb PFF हम कैसे संसार में जीवित रह सकेंगे ।।४१।। इस प्रकार अत्यन्त शोक परिपूर्ण वाक्यों से श्रीजिनेन्द्र भगवान के भृत्य, बन्धु-बांधव तथा उनकी माता आदि स्त्रियाँ बड़े ऊँचे स्वरों में रोते-चिल्लाते थे तथा श्री जिनेन्द्र भगवान जिस मार्ग से दीक्षा-वन को गए थे, उसी मार्ग पर शोक से विहल होकर दौड़ते चले जाते थे ।।४२।। वैमानिक देवों में एक महत्तर जाति के देव हैं। शोक से विहल हो माता प्रजावती को इस प्रकार जाते हुए देखकर वे महत्तर देव उनके समीप आये तथा उन्हें रोककर इस प्रकार नम्र निवेदन करने लगे-- 'हे देवी ! आप जो इस तरह शोक से विहल हो रही हो. सो आपको कदापि शोभा नहीं देता। श्रीजिनेन्द्र भगवान तीनों लोक के स्वामी हैं । समस्त हित-अहित के जानकार हैं । क्या आप उनके चरित्र को बिल्कुल नहीं समझती हो ? ।।४३।। मृग जिस प्रकार पाश के अन्दर फंस कर बँध जाता है, उस प्रकार सिंह पाश के अन्दर जकड़ कर नहीं रह सकता । हे माता ! आपके पुत्र श्रीजिनेन्द्र भगवान वीतराग हैं--समस्त संसार की सम्पत्ति से उनका राग छट चका है तथा ममक्ष हैं--मोक्ष प्राप्ति के लिए परी अभिलाषा चित्त में ठान ली है। इसलिए भोगों की रमणीयता देख कर जिस प्रकार मुर्ख मनष्य उनमें उलझ जाता है एवं उन्हें दिन-रात्रि भोगता है, उसी प्रकार वे अब नहीं भोग सकते । उनके कार्य पर किसी प्रकार का शोक करना वृथा है'।।४४।। जब महत्तर जाति के देवों ने इस प्रकार मधुर वचनों में माता प्रजावती को समझाया, तो उनकी समझ में आ गया एवं वह राजमाता अपने बन्धुओं के साथ बड़े कष्ट से राजमहल की ओर लौट गईं ।।४।। श्रीजिनेन्द्र भगवान ने जिस वन में जिन-दीक्षा धारण की थी, उस वन का नाम 'श्वेतवन' था । श्वेतवन का उद्यान उस समय बड़ा ही मनोहर था एवं जगह-जगह भाँति-भाँति के पुष्प एवं फल उसकी शोभा बढ़ाते थे। देवों. ने वहाँ पर पहिले से ही एक शिला का निर्माण कर रक्खा था। वह शिला अत्यन्त शुद्ध थी, मणिमयी मंडप से अत्यन्त शोभायमान थी। उसके पसवाड़ों में कलश, झाड़ी आदि मांगलिक द्रव्य विद्यमान थे, वह स्फटिकमणि की बनी थी तथा ७३ गोलाकार थी। शिला के समीप आते ही जिस पालकी को देवगण लाए थे, श्रीजिनेन्द्र भगवान उससे उतर पड़े। उसी समय श्रीजिनेन्द्र भगवान ने १.क्षेत्र २.वास्तु ३.हिरण्य ४.सुवर्ण ५.धन ६.धान्य ७. दासी ८. दास ६. कुप्य १०. भांड--इस प्रकार दश प्रकार का बाह्य परिग्रह एवं १.मिथ्यात्व २.स्त्रीवेद ३.पुरुषवेद ४.नपुंसकवेद ५.हास्य ६.रति ७. For Privale & Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरति ८.शोक ६.भय १०.जुगुप्सा ११.क्रोध १२.मान १३.माया एवं १४.लोभ--इस प्रकार यह चौदह प्रकार का || अन्तरंग परिग्रह-- कुल योग चौबीस प्रकार के बाह्य एवं आभ्यन्तर परिग्रहों का मन-वचन एवं काय की विशुद्धता से सर्वथा त्याग कर दिया । वे श्रीमल्लिनाथ भगवान उसी समय पूर्व दिशा की ओर मुख कर बैठ गए । आठों कर्मों के सम्बन्ध से रहित भगवान ने सिद्ध-परमेष्ठी को नमस्कार किया एवं पल्यंक आसन (पलोती मारकर पाँच मुष्टियों से शीघ्र ही केशलुंच कर फेंक दिए ।।४६-४८।। उन श्रीमल्लिनाथ भगवान ने अत्यन्त शुभ अगहन सुदी एकादशी | म|| के दिन जब कि अत्यन्त कल्याणकारी अश्विनी नाम का नक्षत्र था “ॐ नमः सिद्धेभ्यः, सिद्ध भगवान को नमस्कार हो"--ऐसा उच्चारण किया एवं सिद्धों की साक्षीपूर्वक मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति की अभिलाषा से उन्होंने अट्ठाईस प्रकार के मूलगुणों को धारण किया एवं सायंकाल के समय वीतरागी मोक्षाभिलाषी एवं महादक्ष तीनसौ राजाओं के साथ शीघ्र ही मोक्षरूपी लक्ष्मी की सखीस्वरूप दिगम्बर जैन दीक्षा धारण कर ली । उन श्री जिनेन्द्र भगवान ने दो उपवासों का नियम लिया। मन-वचन-काय की क्रियारूप योग तथा संकल्पों का निरोध किया । वास्तविक आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए समस्त सावद्य योगों का परिहार कर दिया एवं परमात्मा के स्वरूप में उन्होंने ध्यान लगाया ।।५०-५३।। तीर्थंकर ने जो केश उखाड़ कर फेंक दिए थे, इन्द्र ने उन्हे बड़ी भक्ति एवं आदर से रत्नमयी पिटारी में रखा, अतिशय उत्तम वस्त्र से ढंक लिया एवं बड़े ठाट-बाट के साथ क्षीरोदधि समुद्र के जल में जाकर क्षेपण कर दिया ।।५४।। जिनके मुख-मस्तक नम्रीभूत हैं एवं भगवान के गुणों पर जिनका पूरा-पूरा अनुराग है; ऐसे वे इन्द्र उस समय के अनुकूल उत्तमोत्तम वाक्यों से तीर्थंकर की इस प्रकार भक्तिपूर्वक स्तुति करने लगे-- 'हे देव ! आप तीनों लोक के स्वामी हो । जो योगी लोग बड़े-बड़े लोगों के भी गुरु हैं; उन पूज्य योगियों के भी आप गुरु हैं। समीचीन-धर्म के स्वरूप के सब प्रकार जानकार हैं । जिनके पूजन करने से सैकड़ों भव्य जीव तर जाते हैं--संसार से छूट कर मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति कर लेते हैं, उन पवित्र तीर्थों के आप प्रवर्तक हैं एवं समस्त ||७४ जीवों पर कृपा करनेवाले कृपानाथ आप हैं ।।५५।। हे भगवान ! अन्तरंग एवं बाह्य मैल के दूर हो जाने पर जिस प्रकार चिन्तामणि रत्न चमचमा उठते हैं, उसी प्रकार अन्तरंग एवं बाह्य मल के नाश हो जाने से आज आपके निर्मल एवं अपरिमित गुण चमचमा रहे हैं ।।१६।। प्रभो ! यद्यपि आप स्वर्गों के सुखों में सर्वथा अभिलाषा रहित हैं; परंतु 44444 Jain Education increational ___wiww.jainelibrary.org Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42FFFF अनन्त कल्याण स्वरूप मोक्ष के सुखों में आप पूरी-पूरी अभिलाषा रखनेवाले हैं; बाह्य-आभ्यन्तर समस्त प्रकार के परिग्रह से रहित हैं परन्तु रत्नत्रयरूपी अचिंत्य धन के आप स्वामी हैं । संसार की समस्त स्त्रियों में यद्यपि आप अभिलाषा रहित हैं तथापि मोक्षरूपी स्त्री के साथ संगम करने के लिए आपकी पूरी-पूरी इच्छा है । हे देव ! यद्यपि आपने यहाँ की राज्य-विभूति का सर्वथा त्याग कर दिया है; परन्तु तीन लोक के राज्य प्राप्त करने में लोलुपता पूरी | है। आपने दो उपवासों का नियम ले रक्खा है. इसलिए यद्यपि आप उपवासयक्त हैं तथापि निरन्तर समीचीन ध्यानरूपी अमत का आप पान करते रहते हैं। यद्यपि सब बातों में आप धीर-वीर हैं; किसी आपत्ति के आ जाने क्षोभ को प्राप्त नहीं होते. इसलिए अक्षोभ्य हैं तथा अत्यन्त चतर हैं; परन्त कर्मों के बन्ध करने में कातर--डरनेवाले हैं अर्थात यह आप को सदा भय लगा रहता है कि कहीं मेरे कर्मों का बन्ध नहीं हो जाए; इसलिए उनके बन्ध नहीं होने के लिए आप पूरी-पूरी चेष्टा रखते हैं। उस समय कर्मों के बाँधने में आपकी धीरता-वीरता एक ओर किनारा कर जाती है एवं कर्मों के बन्ध से चित्त उथल-पुथल हो जाता है ।।५७-६०।। हे भगवान ! आप राग-द्वेष आदि के अन्दर वीतराग हैं --उन्हें अपनाना नहीं चाहते; परन्तु मोक्ष के सिद्ध करने में अत्यन्त रार्ग हैं--सदा मोक्ष की प्राप्ति के कारणों की आप चेष्टा करते रहते हैं; यद्यपि शत्र तथा मित्रों के समान मानने के कारण आप क्षमावान हैं तथापि कर्मरूपी बैरियों को आप अपने पास तक नहीं फटकने देना चाहते, सदा उनका नाश करने के लिए प्रवत्त रहते हैं ।।६।। हे भगवान ! यद्यपि संसार की तुच्छ लक्ष्मी में आपका किसी प्रकार का लाभ नहीं इसीलिए उसे त्याग कर आपने पवित्र जिन-दीक्षा धारण की है तथापि तपरूपी लक्ष्मी के लिए आप बड़े लोभी हैं-- एक क्षण के लिए भी तपरूपी लक्ष्मी से विमुख होना नहीं चाहते । आप अपने शरीर आदि में सर्वथा ममत्वरहित निर्मोही हैं; परन्तु मोक्षरूपी स्त्री पर आपका पूरा-पूरा स्नेह है। उसकी प्राप्ति के लिए आप कोई भी बात उठा रखनेवाले नहीं हैं ।।६।। हे स्वामी ! कुमारावस्था में कामदेव का जीतना अत्यन्त कठिन है, परन्तु आपने कुमारावस्था || ७५ में ही मोह तथा इन्द्रियरूपी बैरियों के साथ कामदेवरूपी बलवान शत्रु को देखते-देखते नष्ट कर डाला । आपके समान अन्य कोई महापुरुष नहीं है, अतएव हे देव ! आप उत्तमकोटि के बाल-ब्रह्मचारी हैं, इसलिए आपको नमस्कार है । आप मोह के विकारों से रहित निर्मोह हैं, अत्यन्त शान्त हैं एवं तपरूपी लक्ष्मी से शोभित हैं, इसलिए आपको Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार है ।।६३-६४।। आप दिव्यरूप हैं, इसलिए आपको नमस्कार है । मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिए आपकी पूरी इच्छा है, इसलिए आपको नमस्कार । आप हितात्मा हैं--दूसरे जीवों का एवं अपना भी हित करनेवाले हैं; इसलिए आपको नमस्कार है एवं आप समस्त गुणों के समुद्र हैं, इसलिए आप नमस्कार करने योग्य हैं ।।६।। हे देव ! यह विनयपूर्वक प्रार्थना है कि यह भी हमने आपकी भक्ति एवं स्तुति की है, उसका फल हम यही चाहते हैं कि बाल्यावस्था में भी संयम की प्राप्ति के लिए जिस प्रकार आपके अन्दर अचिंत्य शक्ति विद्यमान है, वह शक्ति आपकी कृपा से हमें भी प्राप्त हो' ।।६६।। इस प्रकार भक्तिपूर्वक भगवान श्रीमल्लिनाथ की स्तुति कर देवेन्द्रों ने बारम्बार उन्हें नमस्कार किया एवं उनकी महिमा की प्रशंसा करते हुए वे लोग अत्यन्त प्रसन्नता के साथ अपने-अपने स्थान लौट गये।।६७।। दीक्षा के समय परिणामों की इतनी उज्ज्वलता रहती है कि उस समय सातवें गुणस्थान के परिणाम हो जाते हैं, सातवें गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र होने से पीछे वे छठे गुणस्थान में आते-जाते रहते हैं । समस्त बाह्य आभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग कर जिस समय श्रीमल्लिनाथ भगवान ध्यान के अन्दर निश्चल हुए थे, उस समय उत्कट ध्यान की सामर्थ्य से उनके 'मनःपर्ययज्ञान' नाम का चौथा ज्ञानरूपी सूर्य प्रकट हो गया था एवं उस समय वे मतिज्ञान, श्रुतिज्ञान, अवधिज्ञान एवं मनःपर्ययज्ञान--इस प्रकार चार ज्ञानों के धारक बन गये थे। जो दिन उनके पारणा का था, उस दिन उन्होंने संयम करते-करते ही यह विचारा कि शरीर की स्थिति के लिए आहार लेना भी सुनिश्चित मार्ग है; अर्थात संयम का साधक है; इसलिए आहार का लेना उन्होंने निश्चित कर लिया। वे श्रीजिनेन्द्र भगवा में संसार एवं शरीर भोगों से वैराग्य की भावना का चिन्तवन करते-करते जूरा प्रमाण जमीन को देखते-देखते आहार के लिए चल दिये एवं दानियों को सन्तोष प्रदान करने के लिए मिथिलापुरी में प्रवेश कर गये ।।६८-६६।। तब मिथिलापुरी में सुवर्ण के समान महामनोज्ञ कान्ति का धारक नन्दिषेण नाम का एक राजा रहता था। आहार की अभिलाषा से घूमते हुए श्री जिनेन्द्र भगवान को देखकर एवं हृदय में यह विचार कर कि जिस प्रकार खजाने मिलना अत्यन्त दुर्लभ है--सामान्य भाग्यवान को वह नहीं प्राप्त हो सकता, उसी प्रकार उत्तम पात्र (मुनि) का मिलना भी कठिन है, तब महान तपस्वी तीर्थंकर का मिलना तो अत्यन्त कठिन ही है। हरएक समय हरएक को उनका मिलना सम्भव नहीं हो सकता, तीर्थंकर को देख कर उसे बड़ा हर्ष हुआ। दोनों हाथ जोड़ कर उनके चरणकमलों 44 ७६ Jain Education Wemational Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया एवं 'हे प्रभो ! तिष्ठ-तिष्ठ' ऐसा कह कर उसी क्षण उन्हें ठहराया ।।७०-७१।। श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति आदि दाता के सात गुणों से भूषित एवं पुण्य के उत्पन्न होने के कारण पडिगाहन, उच्चासन प्रदान करना, प्रक्षाल, पूजा आदि नवधा भक्ति से विभूषित राजा नन्दिषेण ने उत्तम पात्र तीर्थंकर के लिए क्षीरान्न (खीर) का भक्तिपूर्वक आहार दिया; जो दोषरहित मधुर था, मनोहर था, तृप्ति दायक था, उत्कृष्ट था, प्रासुक था एवं अपने-पराये का कल्याण करनेवाला था ।।७२-७३।। उत्तम पात्र तीर्थंकर को दान देने से उत्पन्न हुए पुण्य का उपार्जन कर राजा नन्दिषेण ने स्वयं तीर्थंकर को आहारदान देने से अपने गृहस्थाश्रम को सफल समझा एवं अपना धन तथा जीवन भी सफल एवं उत्कृष्ट माना ।।७४।। __वे तीर्थंकर सदा संयम एवं वैराग्य की भावना का चिन्तवन करते थे, ध्यान एवं अध्ययन में सदा प्रवृत्त रहते थे तथा जंगल, खण्डहर आदि निर्जन स्थानों में सदा उनका निवास रहता था ।।७।। पराक्रम के साथ निर्ग्रन्थ होकर वे पृथ्वी पर विहार करते थे। इस प्रकार छः दिन तक सिर कर तीर्थंकर ने जहाँ पर दीक्षा धारण की थी, उसी दीक्षावन (श्वेतवन) में वे आ गये ।।७६।। श्वेतवन में आकर अशोक वृक्ष के नीचे उन्होंने अच्छी तरह ध्यान का अवलम्बन किया। सम्यक्त्व, ज्ञान, वीर्य आदि जो सिद्धों के आठ गुण कहे गये हैं, उन्हें प्राप्त करने की अभिलाषा से सबसे पहिले उन्होंने सिद्धों के आठ गुणों का ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया ।।७७।। उसके बाद परम जितेन्द्रिय एवं प्रमादरहित वे तीर्थंकर चित्त को स्थिर कर उत्कृष्ट, ध्यान, धर्म्यध्यान के आज्ञाविचय आदि चारों पायों का स्फुट रूप से ध्यान करने लगे।७।। स्थिर चित्त के धारक वीतराग तीर्थंकर ने उस धर्म्यध्यान के बल से बहुत से कर्मों को शिथिल कर डाला एवं बहुत से कर्मों का क्षय भी कर डाला एवं उस ध्यान के सम्बन्ध से मोक्षरूपी महल में जाने के लिए सीधी सीढ़ी स्वरूप क्षपकश्रेणी में पदार्पण कर दिया एवं 'पृथक्त्ववितर्क' नामक प्रथम शुक्लध्यान के द्वारा मोहनीय-कर्म की इक्कीस प्रकृतियों का सर्वथा क्षय कर उसे उखाड़ कर फेंक दिया ।।७६-८०|| महायुद्ध में शत्रु को मार कर तीक्ष्ण खड्ग का धारक महाभ? जिस प्रकार शोभित होता है, उसी प्रकार चारित्ररूपी संग्राम में ध्यानरूपी तीक्ष्ण खड्ग के धारक महातपस्वी तीर्थंकर भी मोहरूपी मल्ल को मार कर महाभट्ठ के समान अत्यन्त शोभित होने लगे ।।८।। पौष बदी द्वितीय का दिन पूर्वान्ह के समय जब कि पुनर्वसु नाम के शुभ नक्षत्र का उदय था, भगवान 44444 थ مي ه For Privale & Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F42 ॐ | श्री जिनेन्द्र ने बारहवें गुणस्थान में पदार्पण किया । बारहवें गुणस्थान का काल अंतर्मुहूर्त था एवं वहाँ पर “एकत्ववितर्कविचार' नाम का दूसरा शुक्लध्यान प्रगट होता है; इसलिए बारहवें गुणस्थान में ‘एकत्ववितर्कविचार' नामक दूसरे शुक्लध्यान की कृपा से मोहनीय-कर्म के सिवाय शेष के कर्म--अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तराय-- इन तीन घातिया-कर्मों का भी सर्वथा नाश कर दिया। चारों घातिया-कर्मों के सर्वथा नाश से उन तीन जगत् के स्वामी तीर्थंकर के समस्त लोक एवं अलोक के चर-अचर पदार्थों को साक्षात् प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान प्रगट हो गया, जो कि अपने स्वरूप से समस्त जगत् को आश्चर्यित करनेवाला था एवं जिस क्षण में उत्पन्न हुआ था, उसी क्षण || में मुक्ति के लिए दर्पण स्वरूप था; अर्थात् जिस प्रकार दर्पण में मुक्ति का स्वरूप साक्षात् प्रतिभाषित होता है, उसी तरह वस्तु का स्वरूप साक्षात् उसके अन्दर प्रतिभाषित होता था ।।८२-८४।। तीर्थंकर को केवलज्ञान की प्राप्ति होते ही उसके माहात्म्य से स्वर्गों के अन्दर घण्टे अपने-आप बजने लगे। ज्योतिषी देवों के भवनों में शंख-ध्वनि होने लगी, भवनवासी देवों के भवनों के अन्दर शंखनाद होने लगा एवं व्यन्तर निकाय के देवों के भवनों में भेरियों का उन्नत शब्द होने लगा, जिससे भगवान के केवलज्ञान की सूचना सर्वत्र हो गई। उस समय कल्पवृक्षों से नवीन पुष्पों की वृष्टि होने लगी। शीतल मंद सुंगध पवन बहने लगा । समस्त दिशायें निर्मल हो गई एवं वैमानिक देवों के आसन चल-विचल हो उठे ।।८५-६७।। इस प्रकार के अनेक आश्चर्यों को देख कर इन्द्रों ने यह निश्चय कर लिया कि तीर्थंकर को 'केवलज्ञान' प्राप्त हो गया है। वे शीघ्र ही अपने-अपने आसनों से उठे एवं तीन जगत् के गुरु तीर्थंकर को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया ।।१८।। सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने श्री मल्लिनाथ भगवान का केवलज्ञान महोत्सव करने के लिए तैयारियाँ की एवं जिस प्रकार सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने तैयारियाँ की, उसी प्रकार जितने भी इन्द्र श्री मल्लिनाथ भगवानके केवलज्ञान महोत्सव में आनेवाले थे, सबों ने तैयारियाँ करनी प्रारम्भ कर दी ।।६।। भगवान के केवलज्ञान महोत्सव में जाते समय 'वलाहक' नाम के देव ने 'कामक' नाम के विमान की रचना की। यह विमान एक लाख | || ७८ योजन चौड़ा था एवं महामनोज्ञ मोतियों की मालाओं से शोभायमान था ।।६।। अत्यन्त चतुर 'नागदत्त' नाम के अभियोग्य जाति के देव ने उस समय ऐरावत गजराज की रचना की, जो कि लाख योजन प्रमाण अत्यन्त सुडौल शरीर का धारक था, बजते हुए घण्टों के शब्द से अत्यन्त शोभायमान था, छोटी-छोटी घण्टियों एवं चमरों से अलंकृत था, 444 Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म वि विक्रिया से इच्छापूर्वक रचा गया था, बड़े ठाट-बाट से सजाया गया था, महामनोहर तथा श्वेतवर्ण का था ।।६१-६२।। || इस ऐरावत गजराज के मुख बत्तीस थे, हरएक मुख में आठ-आठ दाँत थे, हर एक दाँत पर एक-एक सरोबर विद्यमान था, हरएक सरोवर में एक-एक कमलिनी थी (कमलों की बेल थी), प्रत्येक कमलिनी में बत्तीस-बत्तीस कमल थे, हरएक कमल के बत्तीस-बत्तीस पत्ते थे, प्रत्येक पत्ते में नाचनेवाली बत्तीस-बत्तीस देवियाँ थीं, जो कि पूर्ण श्रृंगार से शोभायमान थीं तथा लीलापूर्वक बड़े हाव-भाव के साथ नृत्य करती थीं ।।६३-६५।। इस प्रकार के उत्तम वर्णनों | के धारक उस ऐरावत गजराज पर सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र सवार हो गया एवं श्रीजिनेन्द्र भगवान की पूजा के लिए चल | म दिया ।।६६।। श्रीजिनेन्द्र भगवान की पूजा के लिए इन्द्र को इस प्रकार तैयार देखकर सामानिक देव आदि भी | अपने-अपने वाहनों पर सवार हो गये एवं अपनी विभूति के साथ चारों ओर से इन्द्र को वेष्टित कर बड़े हर्ष से | खड़े हो गये ।।६७।। ऐशान इन्द्र को आगे करके अन्य स्वर्गों के इन्द्र अपने-अपने वाहनों पर सवार हो गये तथा || अपनी-अपनी विभूति के साथ ज्योतिषी आदि निकायों के इन्द्र भी अपने-अपने भवनों से निकल पड़े। जिस समय चारों निकायों के देवेन्द्र तीर्थंकर की पूजा के लिए निकल पड़े, उस समय 'हे देव ! आप जयवन्त हों, नादें एवं विरदें इत्यादि अनेक कोलाहलों से तथा अनेक प्रकार के वाद्यों से समस्त दिशायें व्याप्त हो गई थीं। शरीर पर पहिने हुए भूषणों की कान्ति से समस्त आकाश जगमगा उठा था एवं उत्तमोत्तम विमान एवं वाहन आदि से सारा आकाश ढंका सरीखा जान पड़ता था। इस प्रकार सैकड़ों महोत्सवों के साथ वे देव जिस वन में श्रीमल्लिनाथ भगवान को केवलज्ञान हुआ था, उस वन की भूमि पर आकर पहुँच गये ।।६६-१००।। शिल्पकला में पूर्ण चातुर्य रखनेवाला कुबेर पहिले ही इन्द्र की आज्ञा से वहाँ पहुँच चुका था एवं उसने बड़ी सुन्दरता के साथ समवशरण की रचना कर रक्खी थी। जिस समय देवेन्द्रगण भूमि पर उतरे, तब उन्होंने दूर से ही साक्षात् तेजों से पुन्ज स्वरूप तीर्थंकर का 'समवशरण' देखा एवं बडा हर्ष प्रकट करने लगे ।।१०१।। समवशरण की रचना सज्जनों को परमानन्द प्रदान करनेवाली होती है. | अनुपम एवं समस्त प्रकार की ऋद्धियों से व्याप्त रहती है; इसलिए सज्जन पुरुषों को आनन्दित करने के लिए समस्त प्रकार की ऋद्धियों से व्याप्त उस अनुपम समवशरण का मैं (ग्रन्थकार) संक्षेप में वर्णन करता हूँ-- जिस भूमि पर तीर्थंकर का समवशरण रचा गया था, उस भूमि का विस्तार तीन योजन प्रमाण था, वह इन्द्रनील | FFb PF S4 Jain Education international Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणि के समान कान्ति की धारक एवं गोलाकार थी ।। १०२-१०३।। कान्ति से जाज्वल्यमान उस पृथ्वी का तीन योजन पर्यन्त भाग धूलीशाल (परकोट) से चारों ओर से वेष्टित था, जो रत्नमयी था एवं बड़ा विशाल था ।। १०४।। धूलीशाल की चारों दिशाओं में सुवर्णमयी स्तम्भों के अग्रभाग में बहुत मनोहर तोरण, मीनाकारी तथा रत्नों से अलंकृत मालाएँ लटक रही थीं, जिनसे उन स्तम्भों की अद्वितीय शोभा देखते ही बनती थी ।। १०४।। कुछ दूरी पर उस भूमि के भीतर जाकर गलियों के मध्य भाग में मानस्तम्भ विद्यमान थे जो कि सवर्णमयी थे। निचले भाग एवं बीच के भाग में तीर्थंकर की प्रतिमाओं के रहने के कारण वे पूज्य एवं पवित्र थे, ध्वजा एवं छत्र आदि से शोभायमान थे; जिनके अन्दर || म चार-चार विशाल गोपुर (सदर दरवाजे) विद्यमान हैं, ऐसे तीन प्राकारों से वेष्टित थे एवं महामनोहर जान पड़ते थे ।।१०६-१०७।। स्तम्भों तक की भूमि भागों पर प्रत्येक दिशा में चार वापियाँ थीं, जो कि मणिमयी सीढियों से || शोभायमान थीं एवं नन्दा, नन्दोत्तरा आदि उनके शुभ नाम थे ।।१०।। मानस्तम्भों की जगह से थोड़ी दूर जाकर मानस्तम्भों की भूमि को चारों ओर से घेर कर रखनेवाली एक विस्तीर्ण खाई थी, जो कि अत्यन्त निर्मल जल से भरी हुई थी एवं पवन वेग से उत्पन्न होनेवाली चंचल तंरगों से व्याप्त थी। खाई के मध्यभाग की भूमि को घेर कर रखनेवाला एक आम्रवन था, जो कि महामनोहर क्रीड़ा पर्वत एवं लता मण्डपों से युक्त था एवं समस्त ऋतुओं में खिलनेवाले महामनोहर पुष्पों से शोभायमान था ।। १०६-११०।। आम्रवन से कुछ दूर पर सबसे पहिला विशाल प्राकार था, जो कि मुक्तामाला आदि से भूषित था, अत्यन्त उन्नत था तथा सुवर्णमयी था ।।१११।। इस प्रकार की चारों दिशाओं में चार सदर दरवाजे थे, जो कि चाँदी के बने हुए थे। तीन-तीन खण्डों के थे एवं विशाल पर्वत के शिखर सरीखे जान पड़ते थे ।।११२।। हरएक सदर दरवाजे के अन्दर झाड़ी, कलश आदि मांगलिक द्रव्य एक सौ आठ-आठ शोभायमान थे ।।११३।। हर एक दरवाजे पर सौ-सौ तोरण लटक रहे थे, जो कि अत्यन्त शोभायमान जान पड़ते थे। उन द्वारों के भीतर रत्नमयी आभरणों से युक्त नौ निधियाँ जगमगा रहीं थीं ।।११४।। गोपुरों के भीतर जाकर एक विशाल वीथि (गली) थी तथा उस वीथि के दोनों पसवाड़ों में दो नाट्यशालायें थीं, जो कि रत्नयमयी स्तम्भों से शोभायमान थीं तथा तिखनी बनी हुई थीं ।।११५।। उन महावीथियों की दोनों दिशाओं में दो-दो धूपघट विद्यमान थे तथा उनसे आगे गलियों में चार मनोहर वन थे, जो कि सब ऋतुओं में होनेवाले फल तथा पुष्पों से शोभायमान थे। 44649 Jain Education Interational For Privale & Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे लता, गृह, वापी आदि से महामनोहर जान पड़ते थे एवं १. अशोकवन २. सप्तवर्णवन ३. चम्पकवन एवं ४. आम्रवन -- ये उन चार मनोहर वनों के नाम थे ।। ११६ - ११७ ।। अशोक आदि चारों वनों में से अशोकवन के अन्दर बहुतायत से अशोकवृक्ष थे । सप्तवर्ण वन में सप्तवर्ण जाति के वृक्ष थे | चम्पकवन में चम्पा के वृक्ष एवं आम्रवन में महामनोहर आम्रवृक्ष विद्यमान थे एवं ये समस्त वृक्ष सुवर्णमयी तीन कटनीवाले पीठों (थामरों) से शोभायमान थे ।।११८।। १. माला २. मगर ३. मयूर ४. कमल ५. हंस ६ वीन - गरुड़ ७. सिंह ८. बैल ६. गज एवं १०. चक्र -- इस प्रकार उत्कृष्ट ध्वजायें दश प्रकार की मानी जाती हैं ।। ११६ । । मोहरूपी मल्ल के जीतने से उन्नत पालि ध्वजायें (प्रधान ल्लि बजायें) एक-एक दिशा में एकसौ आठ करके थीं तथा सामान्य रूप एक-एक दिशा में समस्त ध्वजायें प्रत्येक एक ल्लि श्री श्री म म हजार अस्सी थीं तथा सब मिलकर चार हजार तीनसौ बीस (४३२० ) थीं ।। १२० - १२१।। ना ना थ थ पु रा ण से चारों वनों के भीतर जाकर पुनः एक दूसरा प्राकार था, जो कि पहिले प्राकार के समान ही चार सदर दरवाजों युक्त था । जिस प्रकार पहिले प्राकार में तोरण आदि की विभूति बतलाई गई है, उसी प्रकार की विभूति से युक्त था, चाँदी के वर्ण का एवं विशाल था। इस प्राकार के भी दोनों पसवाड़ों में पहिले प्राकार के पसवाड़ों के समान दो नाट्यशालायें थीं तथा धूप से जायमान धूँवा से समस्त दिशाओं को व्याप्त करनेवाले धूपघुड़े विद्यमान थे । धूप घड़ों के आगे दूसरी वीथी में कल्पवृक्षों का एक विशाल वन था, जो कि रत्नों की फैली हुई उग्र प्रभा से सम अन्धकार का नाश करनेवाला था ।।१२२ - १२४ ।। कल्पवृक्षों के उस वन के अन्दर अशोक आदि चार चैत्यवृक्ष थे, जो कि अपनी महामनोहर कान्ति से अत्यन्त दैदीप्यमान थे । उनके नीचे के भाग में श्रीजिनेन्द्र भगवान की प्रतिमायें थीं तथा वे वृक्षमय सिंहासन तथा छत्रों से युक्त होने के कारण अत्यन्त शोभायमान थे ।। १२५ ।। उन अशोक आदि वृक्षों से परिपूर्ण वनों के पर्यन्त भाग में एक वनवेदी थी, जो कि कलश, झाड़ी आदि मांगलिक द्रव्यों से परिपूर्ण परमोत्तम चार सदर दरवाजों से शोभायमान थी । । १२६ । । उससे आगे की भूमि में नाना प्रकार के रत्नयमी चबूतरों के धारक स्तम्भों के अग्रभाग में नाना प्रकार की ध्वजायें फहरा रहीं थीं, जो कि अत्यन्त शुभ थीं तथा बहुत ऊँची-ऊँची थीं, जिनसे कि वह भूमि अत्यन्त शोभायमान जान पड़ती थी । । १२७ । । समोवशरण के अन्दर रहनेवाले प्राकार, चैत्यवृक्ष, ध्वजायें, वन-वेदियाँ स्तूप, तोरणों से अलंकृत स्तम्भ तथा मानस्तम्भ -- इस सबकी ऊँचाई तीर्थंकरों पु रा ण ८१ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की ऊँचाई से बारह गुणी अधिक होती है; अर्थात् जिस तीर्थंकर का समवशरण होगा, उस तीर्थंकर के शरीर की जो ऊँचाई होगी, उस ऊँचाई से समवशरण के अन्दर रहनेवाले परकोट आदि की ऊँचाई नियम से बारह गुणी होगी तथा जितनी ऊँचाई होती है, उसी के अनुकूल उनकी चौडाई होती है। यह समवशरण उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान श्री मल्लिनाथ का था; इसलिए उनके शरीर की जितनी ऊँचाई थी, उससे बारह गुणी इस समवशरण के प्राकार आदि की ऊँचाई थी तथा ऊँचाई के अनुकूल चौड़ाई थी ।।१२६।। क्रीड़ा-पर्वत, लता-गृह तथा वनों की ऊँचाई आगम के जानकार पुरुषों ने आगम में एक-सी ही बतलाई है ।। १३०।। पुराणों के जानकार समस्त आगम के पारगामियों ने पर्वतों की चौड़ाई अपनी-अपनी ऊँचाई की अपेक्षा आठ-आठ गुणी मानी है। स्तूपों की जो ऊँचाई कही गई है, उससे कुछ अधिक उनकी चौड़ाई मानी है तथा वनवेदी आदि का विस्तार उनकी ऊँचाई से चौथा भाग माना है ।।१३१-१३२।। | वनवेदियों के भीतर की भूमि में प्रासादों की पंक्तियाँ थीं, जो कि दो खण्ड, तीन खण्ड तथा चार खण्डवाली थीं, महामनोहर ऊँची-ऊँची तथा रत्नमयी थीं ।। १३३।। गलियों के मध्य भाग में नौ स्तूप थे, जो कि पद्मराग मणिमय थे तथा सिद्ध भगवान की प्रतिमाओं से अलंकृत थे ।। १३४।। स्तूपों के मध्य भागों में रत्नमयी तोरण तथा मालिका थीं, जिन्होंने कि अपनी कान्ति से समस्त आकाश को व्याप्त कर रक्खा था, अतएव वे इन्द्र धनुषमयी सरीखी जान पड़ती थीं ।।१३५।। स्तूपों की भूमि के बाद एक स्फटिकमयी परकोटा था, जो कि शुद्ध स्फटिक रत्न का बना हुआ था तथा अपनी प्रभा से समस्त दिशाओं को धवल करनेवाला था, अतएव जो आकाश-सा बना हुआ जान पड़ता था ।।१३६।। इस स्फटिकमयी परकोटे की भी चारों दिशाओं में पहिले के समान चार सदर दरवाजे थे, जो कि अत्यन्त शोभायमान थे। वे दरवाजे पद्मराग मणियों से बने हुए थे तथा पहिले प्राकारों के दरवाजों के समान ही निधियों, कलश तथा झाड़ी आदि मांगलिक द्रव्यों से युक्त थे ।।१३७।। सदर दरवाजों पर गदा आदि शस्त्रों को हाथों में लिए ||८२ हुए देव थे, उनमें भी पहिले परकोट के दरवाजों पर हाथों में शस्त्र लिए व्यन्तर देव खड़े थे । दूसरे परकोट के दरवाजों पर भवनवासी देव थे तथा तीसरे परकोट के सदर दरवाजों पर वैमानिक देव हाथ में हथियार लिए द्वारपालों का कार्य कर रहे थे ।।१३।। समवशरण की भूमि के मध्य एवं आदि के भाग से सटी हुई परकोटों के अन्त तक Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 सोलह भीतियाँ थीं, जो कि स्फटिक रत्नों की बनी थीं एवं विशाल गलियारों के अन्तरालों में विद्यमान थीं ।।१३६।। उन स्फटिक मणिमयी भीतों के ऊपर विशाल 'श्रीमण्डप' बना हुआ था, जो कि विस्तृत था, रत्नमयी स्तम्भों से वेष्टित था एवं निर्मल स्फटिक पाषाण का बना हुआ था; अतएव साक्षात् आकाश का बना हुआ जान पड़ता था ।।१४०।। श्रीमण्डप से जितना क्षेत्र रुका हुआ था, उस क्षेत्र के ठीक मध्यभाग में पहिली पीठिका (पीठ) थी, जो कि वैडूर्य जाति की हरी मणियों से बनी थी, अत्यन्त शुभ थी एवं मांगलिक द्रव्यों तथा अन्य विभूतियों से शोभायमान थी ।।१४१।। इस पीठिका के अन्दर धर्मचक्र विद्यमान थे, जिन्हें यक्षगण अपने मस्तकों पर रक्खे हुए थे, जो महा दैदीप्यमान थे, हजार-हजार अराओं के धारक थे एवं सूर्य के प्रतिबिम्बों सरीखे जान पड़ते थे ।। १४२।। उसी जगह पर सोलह सीढ़ियों के अन्तर से सोलह सोपान मार्ग 1, जिनसे कि चारों दिशाओं में विद्यमान कोठों के अन्दर प्रवेश किया जाता था ।। १४३।। उस समय पीठ के ऊपर दूसरा पीठ था, जो कि सुवर्णमयी था एवं आठों दिशाओं में चक्र एवं गजराज आदि के चिन्हों की धारक आठ ध्वजाओं से शोभायमान था ।। १४४।। इस दूसरे पीठ के ऊपर तीसरा पीठ था, जो कि दैदीप्यमान मणियों का बना हुआ था, तीन कटिनियों से शोभायमान था, उन्नत था एवं उसकी प्रचण्ड कान्ति से समस्त दिशायें जगमगाती थीं ।। १४५।। इस तृतीय पीठ पर गन्धकुटी थी, जो कि अपनी उत्कट सुगन्धि से समस्त दिशाओं को सुगन्धित करनेवाली थी, दिव्य सुगन्धि की धारक थी, उत्कृष्ट थी एवं भाँति-भाँति से पुष्पों के समूह से व्याप्त थी ।।१४६।। इस गन्धकुटी के मध्य भाग में महामनोहर सिंहासन विद्यमान था, जो कि नाना प्रकार के दैदीप्यमान रत्नों की प्रभा से समस्त आकाश को व्याप्त करनेवाला था, दिव्य था एवं मेरु पर्वत का शिखर सरीखा प्रतीत होता था, अतएव वह अत्यन्त शोभायमान जान पड़ता था।।१४७।। इसी पवित्र सिंहासन को दिव्य रूप के धारक तीन जगत् के गुरु श्रीजिनेन्द्र भगवान ने सुशोभित कर रक्खा था एवं वे अपने अलौकिक माहात्म्य से उसके तल भाग का स्पर्श न कर चार अंगुल प्रमाण आकाश में विराजते थे ।। १४८।। इस दिव्य सिंहासन के चारों ओर देव, मनुष्य आदि के बैठने के बारह कोठे थे। उनमें से पहिले कोठे में मुनिगण विराजते थे, दूसरे में कल्पवासी देवियाँ तीसरे में आर्यिकायें, चौथे में ज्योतिषी देवों की देवांगनायें, पाँचवें में व्यन्तर देवों की देवियाँ, छठे में भवनवासी देवों की देवांगनायें सातवें ८३ Jain Education Intemational For Privale & Personal use only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FFFF में भवनवासी देव, आठवें में व्यन्तर देव, नौवें में समस्त ज्योतिषी देव, दशवें में वैमानिक देव, ग्यारहवें मनुष्य एवं बारहवें में तिर्यन्च बैठे थे ।। १४६-१५१।। इस प्रकार श्रीमल्लिनाथ भगवान की चारों ओर से घेर कर ये बारह कोठों में बैठनेवाले अतिशय भक्ति रखनेवाले जीव धर्मरूपी अमृत के पीने की इच्छा से उनके सम्मुख आनन्द से उत्फुल्ल नेत्रों के धारक देवों ने जिस समय समवशरण के मण्डप में प्रवेश किया, उस समय श्रीजिनेन्द भगवान को देखा । वे भगवान उस समय बारह कोठों में बैठनेवाले प्राणीजनों से शोभायमान थे, अनेक प्रकार की विभूतियों से व्याप्त थे। १.अशोकवृक्ष का होना २.रत्नमयी सिंहासन ३.भगवान के शिर पर तीन छत्रों का होना ४.भगवान के पीछे | भामण्डल का होना ५.भगवान के मुख से निरक्षरी दिव्य-ध्वनि का खिरना ६.देवों के द्वारा पुष्पवृष्टि का होना ७. यक्ष देवों के द्वारा चौंसठ चमरो का दुरना एवं ८.दुन्दुभी वाद्यों का बजना-- इस प्रकार आठ प्रातिहार्यों से शोभायमान थे। १.क्षायिकज्ञान २.क्षायिकदर्शन ३.क्षायिकदान ४.क्षायिकलाभ ५.क्षायिकभोग ६.क्षायिकउपभोग ७.क्षायिकवीर्य ८. क्षायिकसम्यक्त्व एवं ६.क्षायिकचारित्र--इस प्रकार नौ केवललब्धियों से भूषित थे। समस्त प्रकार की वांछाओं को पूरण करनेवाले थे, संसार के दुःखों से तारनेवाले तीर्थ के स्वामी थे, सम्यक्त्व आदि गुणों के समुद्र थे, उपमातीत थे एवं दिव्य आसन पर विराजमान थे ।। १५३।। उसके बाद तीनों लोक के गुरु, गुणों के समुद्र, समस्त प्रकार की ऋद्धियों एवं धर्म के स्थान श्री जिनेन्द्रभगवान की समस्त इन्द्रों ने भक्तिपूर्वक अपने सहचारी देव एवं देवांगनाओं के साथ तीन प्रदक्षिणा दीं एवं उनके गुणों में अनुरक्त होकर सबों ने अपने-अपने हाथ जोड़कर चूड़ामणियों से जगमगानेवाले अपने मस्तकों को झुका कर भक्तिपूर्वक नमस्कार किया ।। १५४।। इस प्रकार समस्त अनुपम गुणों के समुद्र, समस्त तत्व के प्रकाशित करनेवाले, समस्त दोषों से रहित, ज्ञानावरण आदि घातिया-कर्म-रूपी बैरियों के नाशक, मोक्षाभिलाषी तीनों लोक के इन्द्रों से सेवित एवं वन्दित वे भगवान अपने समान असाधारण ऐश्वर्य हमें भी प्रदान करें ।।१५।। इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति कृत संस्कृत भाषा में श्री मल्लिनाथ चरित्र की पं० गजाधरलालजी न्यायतीर्थ विरचित हिन्दी वचनिका में श्री मल्लिनाथ भगवान का दीक्षा कल्याणक और केवलज्ञान कल्याणक का वर्णन करनेवाला छठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ।।६।। रा Jain Education irmational Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम परिच्छेद भव्यों की सभा (समवशरण) के अन्दर विराजमान, समीचीन-धर्म के उपदेश देने के लिए उद्यत, बाह्य अन्तरंग दोनों प्रकार की लक्ष्मी के स्वामी, त्रिभुवन के गुरु एवं अगणित गुणों के समुद्र देवाधिदेव श्रीमल्लिनाथ भगवान को मैं (ग्रन्थकार) मस्तक झुका कर भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ ।।१।। इन्द्रगण जिस समय नमस्कार कर उठे, उस समय उन्होंने देवों के साथ पवित्र स्वच्छ जल, दिव्य चन्दन, मुक्ताफलों के अक्षत, कल्पवृक्षों के पुष्पों की मालायें, अमृत || म के पिंडस्वरूप नैवेद्य, स्वर्गलोक में प्रयुक्त रत्नमयी दीपक, धूम, उत्तम फल, पुष्पों की अन्जली गीत एवं नृत्य रूप - उत्कृष्ट दिव्य सामग्री से श्रीजिनेन्द्र भगवान के चरणकमलों की भक्तिभाव से सानन्द पूजा की ।।१-४।। सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र की इन्द्राणी ने श्रीजिनेन्द्र भगवान के सामने नाना प्रकार के वर्णवाले अत्यन्त शोभा से अलंकृत रत्नमयीचूर्णों ना|| से दैदीप्यमान बलि (माढना) माड़ा ।।५।। जिस समय यह कार्य समाप्त हो चुका, उस समय भक्ति के भार से वशीभूत थ|| एवं प्रसन्न चित्त देवेन्द्रों ने श्री जिनेन्द्र भगवान के असाधारण गुणों की इस प्रकार स्तुति करनी प्रारम्भ कर दी-- "तीव्र पुण्य के उदय से आपके चरणकमलों का आज हमें दर्शन हुआ है; इसलिए आज हम धन्य हैं एवं हमारा | जीवन सफल है ।।५-६।। हे देव ! आप तीन जगत् के नाथ हो । गुरुओं के महागुरु हो । तीन जगत् के स्वामियों के अर्थात् देवेन्द्र, नरेन्द्र एवं नागेन्द्रों के आप स्वामी हो एवं जिन योगियों को बड़े-बड़े पदवीधारी भी पूजते हैं, वे | पूज्य योगी भी आपकी सेवा करते हैं । हे भगवान ! ज्ञानियों में आप सर्वज्ञ हैं, प्रचण्ड तप तपनेवाले तपस्वियों में | महा तपस्वी हैं, योगियों के अन्दर महायोगी एवं कर्मों के जीतनेवाले 'जिनो' में आप श्रेष्ठ 'जिन' हैं ।।७-६।। हे भगवान ! आपका चित्त संसार के दुःखों से समस्त जगत का उद्धार करने का है, आपकी संसार के किसी भी पदार्थ में इच्छा नहीं; इसलिए आप निरीह हैं, समस्त जगत का हित करनेवाले हैं, बहिरंग एवं अन्तरंग दोनों प्रकार की लक्ष्मी से शोभायमान हैं एवं संसार में समस्त निर्ग्रन्थों के आप राजा हैं ।।१०।। हे भगवान ! यह बड़े अचरज की बात है कि इन्द्राणी तुल्य आपके चरणकमलों की सेवा करती हैं, तब भी आप ब्रह्मचारी हैं; यद्यपि आप समस्त संसार के पदार्थों के ज्ञाता हैं; तथापि इन्द्रियों के ज्ञान से आप दूर हैं अर्थात् इन्द्रियजन्य ज्ञान आपके अन्दर नहीं है ।।११।। हे भगवान ! जिस प्रकार सूर्य के द्वारा अन्धकार का नाश होता है, उसी प्रकार आपके दर्शनरूपी किरणों से हमारा PRE का बात ||८५ For Privale & Personal use only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fb अज्ञानरूपी अन्धकार एवं पापों का क्षय हो गया ।।१२।। हे भगवान ! आप गुणों के समुद्र हैं; इसलिए स्वर्ग एवं मोक्ष की अभिलाषा से आपको नमस्कार है, आप दिव्य शरीर के धारक हैं एवं घातिया-कर्मों का नाश करनेवाले है; इसलिए आपको नमस्कार है ।। १३।। विशेष क्या ? बस ! सविनय प्रार्थना यही है कि आपने जिस अलौकिक विभूति को प्राप्त किया है, वह कृपा कर बहुत शीघ्र हमें भी प्रदान करें; क्योंकि आप संसार के अन्दर कृपानाथ हैं एवं याचकों के लिए कल्पवृक्ष हैं ।।१४।। इस प्रकार देवेन्द्रों ने भक्तिपूर्वक श्रीजिनेन्द्र भगवान की स्तुति की, जिस अभीष्ट वस्तु की उन्हें म || प्रार्थना करनी थी, वह प्रार्थना की एवं वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने के लिए वे श्री जिनेन्द्र भगवान के सन्मुख | अपने-अपने कोठों में जाकर बैठ गए ।।१५।। श्रीमल्लिनाथ भगवान के सबसे प्रधान गणधर विशाख थे, जो कि पूर्ण | बुद्धि के धारक थे, नाना प्रकार की ऋद्धियों को प्राप्त थे। जिस समय उन्होंने देखा कि कोठों में बैठनेवाले समस्त भव्य जीव धर्म का स्वरूप जानने के लिए उत्सुक हैं, तब वे उठे । हाथों को जोड़कर उन्होंने तीन जगत् के गुरु श्री | जिनेन्द्र भगवान को भक्तिभाव से नमस्कार किया । सैकड़ों प्रकार के स्तुति परिपूर्ण वचनों से स्तुति की एवं स्वयं इस | थ प्रकार श्री जिनेन्द्र भगवान से पूछने लगे-- 'हे देव ! आप सर्वज्ञ हैं, इसलिए तत्वों का स्वरूप, धर्म का अखण्ड लक्षण एवं बारह अंगों के अन्दर जो-जो || पु बातें बतलाई गईं है, उन सब बातों के जानकार हैं । कृपा कर उन सब बातों का हमारे जानने के लिए स्वरूप वर्णन || रा करिए' ।।१६-१७।। गणधर विशाख की इस प्रकार की पवित्र धर्म-जिज्ञासा सुन कर समस्त प्राणियों का हित सम्पादन करने के लिए एवं मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति प्रकट करने के लिए “जीवों को वास्तविक ज्ञान हो" इस कृपा से प्रेरित वे श्री जिनेन्द्र भगवान धर्मोपदेश के लिए प्रवृत्त हो गए ।।१६।। यह नियम है कि वक्ता जिस समय बोलता है, उसके मुख पर कुछ विकार एवं तालु अथवा ओठों का हलन-चलन होने लगता है। परन्तु जिस समय भगवान धर्मोपदेश के लिए प्रवृत्त हुए थे, उस समय उनके मुख पर किसी प्रकार का विकार प्रतीत नहीं होता था एवं तालु-ओंठ आदि ||८६ का हलन-चलन भी किसी प्रकार से नहीं होता था; इसलिए इस आश्चर्यकारी रूप से श्री जिनेन्द्र भगवान के मुख से वचन-भंगी निकलती थी। वे श्री जिनेन्द्र भगवान, गणधर विशाख को उत्तर में इस प्रकार कहने लगे--'हे बुद्धिमान समस्त गण सभासदों के स्वामी ! मैं आगम के स्वरूप का विस्तार से वर्णन करता हूँ, वह तुम्हें एवं समस्त गण को Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42FFFF चित्त एकाग्र कर ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए । जीव, अजीव, आसव, बंध, संवर निर्जरा एवं मोक्ष--ये सात तत्व हैं । इन जीव-अजीव आदि तत्वों के भेद, उनका विस्तार, कौन तत्व हेय है एवं कौन उपादेय है यह बात; जीव-अजीव आदि का लक्षण एवं द्रव्य पर्यायों के भेद, इन सब बातों को उन्होंने कहा ।।२०-२३।। तथा बोले कि यह संसाररूपी समुद्र अपार है, इस अपार संसाररूपी समुद्र से उठा कर जो जीवों को मोक्ष में ले जाकर रक्खे, उसे 'धर्म' कहा जाता है एवं वह अनन्त सुखों का समुद्र स्वरूप है ।।२४।। यह दयामय धर्म, 'सकल' एवं 'विकल' के भेद से दो प्रकार का है--सकल-धर्म को धारण करनेवाले मुनि होते हैं एवं विकल-धर्म को धारण करनेवाले श्रावक होते हैं एवं वह स्वर्ग तथा मोक्ष के सुखों को प्रदान करनेवाला || है ।।२५।। गृहस्थों को ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन करते हुए श्रीजिनेन्द्र कहने लगे--धर्म का मूल कारण समस्त दोषों से रहित सम्यग्दर्शन है एवं वह मोक्ष की परम प्यारी वस्तु है । जो महानुभाव धर्म को धारण कर मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं, वे चाहे गृहस्थ या मुनि कोई हों, उन्हें सबसे पहिले सम्यग्दर्शन धारण करना चाहिए। मद्य, माँस, मधु एवं पाँच उदम्बर (अर्थात् ऊमर, कठूमर, कटहर, पीपर एवं पाकर)--इन आठों का त्याग गृहस्थों के आठ मूलगुण हैं । जो महानुभाव अणुव्रत एवं महाव्रतों को धारण करने के अभिलाषी हैं, उन्हें पहिले इन आठ मूलगुणों को धारण करना चाहिए। खेलना २.शराब पीना ३.माँस खाना ४.वेश्या गमन करना ५.पर नारी-सेवन करना ६.चोरी करना एवं ७.शिकार खेलना-- ये सात व्यसन माने गए हैं । इन सातों प्रकार के व्यसनों का सर्वथा त्याग कर जो पुरुष आठ मूलगुणों को धारण करता है, वह सम्यग्दर्शन से शुद्ध कहा जाता है एवं जो महानुभाव इस प्रकार सात व्यसनों का त्याग कर आठ मूलगुणों को धारण करता है, वह 'दर्शन' नामक पहिली प्रतिमा का धारक माना जाता है ।।२६-२८।। १.हिंसा २.चोरी ३.झूठ ४.कुशील एवं ५.परिग्रह-- स्थूल रूप से इन पाँचों पापों का त्याग करना पाँच प्रकार का अणुव्रत है । दिग्वत, अनर्थदण्डव्रत तथा भोगोपभोग परिमाणव्रत--इस प्रकार ये तीन गुणव्रत हैं एवं ८७ १.देशावकाशिक २.सामायिक ३.प्रोषधोपवास तथा ४.अतिथिसंविभागवत--ये चार शिक्षाव्रत हैं; इस प्रकार ये बारह व्रत श्रावकों के हैं ।।२६।। मन से करना-कराना तथा करने की अनुमोदना करना, वचन से करना-कराना तथा अनुमोदना करना एवं शरीर से करना-कराना तथा अनुमोदना करना, इस प्रकार मन-वचन-काय तथा कृत-कारित Jain Education international Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमोदना से जो दो इन्द्रिय आदि त्रस जीवों का घात नहीं करना है, वह पहिला अहिंसा अणुव्रत कहा जाता है ।।३०।। यह अहिंसा समस्त व्रतों की जननी है अर्थात् जबतक हृदय में अहिंसा की सत्ता नहीं है, तबतक किसी भी व्रत का पालन नहीं हो सकता । यह समस्त गुणों की खान है। अहिंसा का पालन करने से ही आत्मा में समस्त गुणों की प्राप्ति होती है एवं वह धर्मरूपी वृक्षों को उत्पन्न करनेवाली उत्तम भूमि है--अहिंसा के पालन से ही वास्तविक धर्म की उत्पत्ति होती है ।।३१।। मन-वचन-काय एवं कृत-कारित-अनुमोदना से दूसरे को पीड़ा पहुँचानेवाले स्थूल झूठ का न बोलना सत्य अणुव्रत कहा जाता है, जो महानुभाव सत्य अणुव्रत के पालन करनेवाले हैं, उन्हें चाहिए कि जब बोलें, उस समय सत्य ही बोलें, हितकारी बोलें-बहुत थोड़ा परिमित बोलें, पक्षपात् रहित निर्दोष बोलें, “मारो-बाँधो" इत्यादि शब्द कभी न बोलें एवं बहुत मीठा तथा धर्म के स्वरूप को सूचित करनेवाला वचन बोलें ।।३२-३३।। जो सोना-चाँदी आदि वस्तुयें नष्ट हों अर्थात् जमीन आदि के अन्दर गड़ी आदि हों या मार्ग आदि में गिरी पड़ी हों या किसी कारणवश भूली हुई हों, उन्हें मन-वचन-काय तथा कृत-कारित-अनुमोदना से जो ग्रहण नहीं करना है, वह तीसरा 'अचौर्य' नाम का अणुव्रत है । पर स्त्रियों को जो माता आदि के समान समझता है अर्थात् अपने से छोटी स्त्री में पुत्री के भाव, बराबर वाली में बहिन सरीखे भाव एवं बड़ी में माता सरीखे भाव होना है एवं उन्हें देख कर जरा भी राग-भाव का न होना है, वह 'ब्रह्मचर्य (स्वदारासन्तोष) नाम का अणुव्रत है ।।३।। तथा सन्तोष को हृदय में धारण कर एवं लोभ का सर्वथा त्याग कर ऊपर जो क्षेत्र-वस्तु आदि दश प्रकार के परिग्रह कहे गये हैं, उनका परिमाण कर लेना है अर्थात् हम अमुक वस्तु इनती ही रक्खेंगे; इस प्रकार की मर्यादा बाँध लेना है, वह पाँचवाँ 'परिग्रह परिमाण' नाम का अणुद्रत है । ।।३६।। इन पाँचों अणुव्रतों के पालन करने का फल यह है कि पंचाणुव्रती महानुभाव पवित्र पुण्य उपार्जन कर सोलहवें स्वर्ग तक के सुखों को भोगते हैं एवं पाप के आगमन को रोकते हैं ।।३७।। दिशाओं की मर्यादा कर उनसे आगे न जाना दिग्विरति कही जाती है। जीवों के घात आदि न हो, इस पवित्र अभिलाषा से जो दिशाओं के अन्दर यह परिमाण कर लेना कि अमुक दिशा में मैं इतने कोस तक जाऊँगा, उससे आगे न जाऊँगा. 'दिग्विरति' नाम का गणव्रत है ।।३।। जिन-जिन कार्यों से व्यर्थ ही पाप का आस्रव होता हो, 44640 से ८८ Jain Education international For Privale & Personal use only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 949 को उन कार्यों का जहाँ पर त्याग हो एवं अपध्यान-खोटेध्यान आदि का भी त्याग हो, वह अनर्थदण्ड व्रत है । इसका विशेष तात्पर्य यह है-- बिना प्रयोजन ही जीवों को दण्ड देना, अनर्थदण्ड कहा जाता है एवं उसका त्याग कर देना, 'अनर्थ दण्डव्रत नाम का गुणव्रत है। अनर्थदण्ड के १.पापोपदेश २.हिंसादान ३.अपध्यान ४.दुःश्रुति एवं ५.प्रमादचर्या--ये पाँच भेद हैं । मारना, बाँधना, बहुत बोझा लादना आदि रूप से तिर्यन्चों को क्लेश देनेवाला उपदेश देना, व्यापार का उपदेश देना, जिस कार्य के करने में षट काय के जीवों की हिंसा होती हो, ऐसा हिंसा परिपूर्ण उपदेश देना या महल आदि || का बनवाना रूप आरम्भ का उपदेश देना एवं छल, कपट, धोखेबाजी का उपदेश देना; इस प्रकार पाप का कारण | उपदेश देना 'पापोपदेश' नाम का अनर्थदण्ड है। फरसा, तलवार, फावड़ा, अग्नि, आयुध तथा बेड़ी आदि हिंसा उपकरणों को दूसरे को प्रदान करना, 'हिंसादान' नाम का अनर्थदण्ड है। तीव्र द्वेष या तीव्र राग से परायी स्त्री-पुत्र आदि के विषय में यह चिन्तवन करना कि यह बँध जाए या मर जाए या छिद जाए आदि तो अच्छा हो, ऐसे खोटे चिन्तवन का नाम 'अपध्यान' नाम का अनर्थदण्ड है। जो शास्त्र, असि, मसि, कृषि आदि आरम्भ, धन-धान्य आदिक परिग्रह, रौद्र कामों का साहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, अहंकार तथा काम के विकारों का उत्पन्न करनेवाले हों, ऐसे खोटे शास्त्रों का सुनना-विचारना 'दुःश्रुति' नाम का अनर्थदण्ड है । पृथ्वी खोदना, जल बहाना, अग्नि का जलाना तथा पवन || का फूंकना--इस प्रकार व्यर्थ आरम्भ करना, बिना कारण वनस्पति का छेदना, स्वयं चलना तथा दूसरों को चलाना, यह सब 'प्रमादचर्या' नाम का अनर्थदण्ड है। इन पाँचों प्रकार के अनर्थदण्डों का त्यागना अनर्थदण्डव्रत कहा जाता __आगे तांबूल, अन्न आदि भोगरूप पदार्थों का तथा स्त्री, भूषण, वस्त्र आदि उपभोग स्वरूप पदार्थों का जो प्रमाण करना है, वह 'भोगोपभोग परिमाण' नाम का गुणव्रत है। जो वस्तु एक बार भोग कर पुनः भोगने में न आवे, वह || ८९ भोग तथा जो बारम्बार भोगने में आवे, वह उपभोग स्वरूप कहलाती है। पान, इलायची, भोजन आदि पदार्थ एक ही बार भोगने में आते हैं; इसलिए ये भोगस्वरूप हैं एवं स्त्री-भूषण आदि पदार्थ बारम्बार भोगने में आते हैं; इसलिए नये उपभोग स्वरूप हैं । इन तीनों दिग्व्रतों के साथ-साथ अनन्त जीवों से व्याप्त अदरख आदि कन्दमूलों को; जिनके Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मूल भाग में कीड़े हों, ऐसे फलों को तथा निन्द्य पुष्प आदि वस्तुओं को भी विष के समान अहितकारी जान कर त्यांग देना चाहिये ।।३६-४१।। पूर्व दिशा में सौ कोस तक जाऊँगा या उत्तर दिशा में मैं पचास कोस आदि तक जाऊँगा, ऐसा परिमाण करना तो दिग्व्रत का विषय है; परन्तु इसी परिमाण में से क्षेत्र की मर्यादा बाँध कर जो प्रतिदिन यह परिमाण कर लेना है कि आज मैं अमुक घर तक जाऊँगा अथवा मन्दिर तक जाऊँगा, मन्दिर से बाहर नहीं जाऊँगा, वह 'देशावकाशिक' नाम का शिक्षाव्रत कहलाता है। यह 'देशावकाशिक' शिक्षाव्रत विशेष रूप से जीव की हिंसा का निरोधक होने से निर्मलता का कारण है; इसलिए मोक्ष को प्राप्त करानेवाला माना जाता है ।।४२।। सामायिक का विधान तीनों काल माना जाता है, जो महानुभाव मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा से मन-वचन-काय की शुद्धता से तीनों काल सामायिक करते हैं, उनके 'सामायिक' नाम का दूसरा शिक्षाव्रत होता है ।।४३।। प्रत्येक मास की अष्टमी-चतुर्दशी के दिन किसी प्रकार के आरम्भ को न कर नियम से उपवास करना है, वह 'प्रोषधोपवास' नाम का तीसरा शिक्षाव्रत है ।।४४।। उत्तम पात्रों आदि को दान देने के लिए जो प्रतिदिन अपने घर का द्वार देखते हैं, द्वाराप्रेक्षण करते हैं, तथा पात्रों के प्राप्त होने पर उन्हें आहार, औषधि आदि चारों प्रकार का दान करते हैं; वे महानुभाव ‘अतिथिसंविभाग' नाम के चौथे शिक्षाव्रत के धारक हैं । जिसकी कोई निश्चित तिथि न हो, वह 'अतिथि कहलाता है एवं 'संविभाग' का अर्थ निर्दोष वस्तु का देना है अर्थात् मुनि आदि अतिथियों के लिए जो आहार, औषधि आदि का प्रदान करना है, वह 'अतिथिसंविभाग' का अन्वर्थ है ।।४५।। 'ग्रन्थकार' फल प्रदर्शन करते हुए कहते हैं कि जो महानुभाव उपर्युक्त व्रतों का अतिचार रहित पालन करते हैं, उन्हें सोलहवें स्वर्ग के दिव्य सुख भोगने के लिए प्राप्त होते हैं ।।४६।। व्रतों का पालन करनेवालों के लिए अन्त समय में सल्लेखना का भी विधान है। सल्लेखना का लक्षण यह बतलाया गया है कि तीव्र उपसर्ग आने पर या दुर्भिक्ष उपस्थित होने पर या अत्यन्त वृद्धावस्था होने पर अथवा तीव्र रोग के उपस्थित होने पर जिसका कि किसी प्रकार से प्रतीकार न हो सके--मृत्यु का ही समय आकर उपस्थित हो जाए, उस समय किसी कषाय आदि से प्रेरित न होकर धर्म के लिए जो सन्यासपूर्वक शरीर का त्याग करना है, वह 'सल्लेखना व्रत' है । जो महानुभाव बारह व्रतों के पालन करनेवाले हैं, उन्हें उपर्युक्त व्रतों का यावज्जीवन पालन कर अन्त में मृत्यु के समय उन समस्त व्रतों के पवित्र फल की प्राप्ति के लिए शुद्ध भावों से सल्लेखना करनी चाहिए 44 944 Jain Education international For Private & Personal use only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।।४७।। इस प्रकार जो महानुभाव इन बारह व्रतों का अतिचाररहित विशुद्ध भावों से पालन करता है, उनके दूसरी प्रतिमा होती है, जो कि स्वर्गरूपी लक्ष्मी की सखी स्वरूप मानी गई ।।४।। तीसरी सामायिक प्रतिमा है, जो पुरुष प्रत्येक दिशा में तीन-तीन आवर्त इस प्रकार बारह आवर्तो को कर एवं चारों दिशाओं में चार प्रणाम कर स्थित होनेवाला हो, यथाजात रूप का धारक हो, दोनों प्रकार के आसनों से युक्त हो, मन-वचन-काय को शुद्ध रखनेवाला हो एवं तीनों काल सामायिक करनेवाला हो, वह सामायिक प्रतिमा का धारक है । चौथी प्रतिमा का नाम 'सत्प्रोषधोपवास' है । जो महानुभाव प्रत्येक मास की अष्टमी एवं चतुर्दशी को शक्ति को न छिपा कर प्रोषधों का पालन करनेवाला है, वह कर्मों को नाश करनेवाली 'सत्प्रोषधोपवास' प्रतिमा का क है । पाँचवी प्रतिमा का नाम 'सचित्तविरत' है, जो महानुभाव इस पाँचवी प्रतिमा का पालन करना चाहें, उन्हें मन-वचन एवं काय से सचित्त पत्र, बीज तथा फल आदि का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए एवं उन्हें अप्रासुक जल भी ग्रहण नहीं करना चाहिए ।।४६-५०।। छठी प्रतिमा 'रात्रिभुक्तिविरत' है । जो महानुभाव रात्रिभुक्ति विरत प्रतिमा के धारक हैं उन्हें दया-धर्म की प्राप्ति के लिए जिस प्रकार अखाद्य--नहीं खाने योग्य वस्तु का सर्वथा त्याग कर दिया जाता है, उसी प्रकार रात्रि में अन्न, पान, खाद्य एवं स्वाद्य--इन चारों प्रकारों के आहार का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । अन्न से यहाँ पर भोजन लिया गया है। पान से दूध, शबेत आदि पीने योग्य पदार्थ का ग्रहण करना है । खाद्य से खाने योग्य पदार्थ पेड़ा, लाडू आदि लिए हैं एवं स्वाद्य से इलायची, पान, सुपारी आदि पदार्थों का ग्रहण है।।५१।। इस महानुभाव पहिली प्रतिमा से छठी प्रतिमा पर्यंत इन प्रतिमाओं का निर्दोष रूप से पालन करनेवाला है, सम्यग्दर्शन से वह महानुभाव जघन्य श्रावक माना गया है ।। ५२।। सातवीं 'ब्रह्मचर्य' प्रतिमा है। जो महानुभाव अपनी-पराई समस्त स्त्रियों को अपनी माता के समान मानता है एवं उनसे रन्चमात्र भी राग का स्पर्श नहीं रखता, वह महानुभाव 'ब्रह्मचर्य' प्रतिमा का पालन करनेवाला ब्रह्मचारी है ।।५३।। घर का समस्त आरम्भ अनेक प्रकार के पापों का कारण है; अर्थात् सेवा, खेती, व्यापार आदि कोई भी आरम्भ किया जाए, नियम से उससे पापों की उत्पत्ति होती है । 3 इस प्रकार पाप के कारण स्वरूप घर के आरम्भ का मन-वचन एवं काय की शुद्धतापूर्वक त्याग करनेवाले हैं, उन || महानुभाव श्रावक के 'आरम्भ-त्याग' नामक आठवीं प्रतिमा होती है ।।५४।। नवमी प्रतिमा का नाम 'परिचित-परिग्रह-त्याग' Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। है । परिग्रह समस्त अनर्थों का मूल कारण है । जो श्रावक वस्त्र एवं पात्र के सिवाय शेष समस्त प्रकार के परिग्रह || का त्यागी है अर्थात क्षेत्र, वस्तु आदि ऊपर कहे गए दश प्रकार के परिग्रह से ममत्व हटा कर जो श्रावक निर्ममत्व परिणाम में लीन है एवं अपने आत्मस्वरूप के अन्दर विराजमान है तथा सन्तोषी है, वह पुरुष 'परिचित-परिग्रह-त्याग' नामक नवमी प्रतिमा का धारक है ।।५५।। इस प्रकार जो सम्यग्दृष्टि, रागरहित एवं धर्म में लीन होकर इन नौ प्रतिमाओं का निर्दोष रूप से पालन करनेवाला है, वह मध्यम श्रावक कहा जाता है ।।५६।। दशमी प्रतिमा का नाम || म|| 'अनुमति-त्याग' है । जो श्रावक घर आदि के कार्यों में एवं आहार आदि में रन्चमात्र भी अपनी अनुमति (सलाह) || म नहीं देता अर्थात् सदा मध्यस्थ भाव रखता है, वह श्रावक 'अनुमति-त्याग' नामक दशमी प्रतिमा का धारक कहा जाता | है।।५७।। तथा ग्यारहवीं प्रतिमा का नाम 'उत्कृष्ट श्रावक' है। जो श्रावक अपने निमित्त से होनेवाले 'सदोष' आहार ना को अखाद्य के समान निन्दनीय जान कर उसे ग्रहण नहीं करता एवं क्षोभि वृत्ति से आहार ग्रहण करता है अर्थात् थ घर-बार से विरक्त होकर जहाँ मुनिराज विराजमान हों, उस वन में जाकर एवं गुरु के समीप में व्रतों को धारण कर तप का आचरण करता है, भिक्षाचर्या से आहार ग्रहण करता है एवं चैलखण्ड-कोपीन मात्र परिग्रह का धारक है, वह पुरुष 'उत्कृष्ट श्रावक' नामक ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक है ।।५८।। इस प्रकार जो सम्यग्दृष्टि मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा से इन ग्यारह प्रतिमाओं का निर्दोष रूप से पालन करता है, वह 'उत्कृष्ट श्रावक' है एवं वह स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति का पात्र है ।।५६।। इस प्रकार गृहस्थ-धर्म का उपदेश देकर श्रीजिनेन्द्र भगवान ने कहा कि गृहस्थों को आनन्द प्रदान करने के लिए गृहस्थ-धर्म का वर्णन कर दिया गया; अब यतियों को आनन्द प्रदान करने के लिए यति-धर्म का व्याख्यान किया जाता है-- अहिंसा आदि पाँच महाव्रत, ईर्या आदि पाँच समितियाँ, पाँचों इन्द्रियों का निरोध १५, केशों का लोंच करना १६, समता आदि छ:आवश्यक २२, समस्त वस्त्र का त्याग २३, यावजीवन स्नान का न करना २४, भूमि पर शयन | २५, दन्तधावन नहीं करना २६, रागरहित खड़े-खड़े आहार लेना २७, एवं एक बार लघु भोजन का करना २८-ये अट्ठाईस मुनियों के मूलगुण हैं । समीचीन-धर्म के मूल कारण होने से इनकी मूलगुण संज्ञा है एवं ये मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। ।।६०-६३।। मूलगुणों की प्रशंसा करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि वे मूलगुण वास्तविक धर्म के मूल Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण हैं एवं यम-नियम आदि की उत्पत्ति के भी प्रधान कारण हैं एवं इन मूलगुणों के पूर्ण रूप से पालन करने से ही चौरासी लाख उत्तर गुणों की सिद्धि होती है; इसलिए जो पुरुष उत्तर गुणों को प्राप्ति के अभिलाषी हैं, उन्हें प्राणों के जाने पर भी कभी भी इन मूलगुणों का परित्याग नहीं करना चाहिए तथा इन समस्त मूलगुणों का आचरण करने से वास्तविक धर्म की प्राप्ति होती है, उस धर्म की कृपा से तीनों लोक का महान कल्याण प्राप्त होता है एवं क्रम से मोक्ष भी मिलता है । इसलिए जो श्रावक धर्म को प्राप्त करना चाहते हैं एवं अनन्त सुखमय मोक्ष प्राप्ति की पूरी-पूरी || अभिलाषा रखते हैं, उन्हें दिगम्बरी जैन दीक्षा धारण कर मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक समस्त मूलगुणों की अच्छी || म तरह आराधना करनी चाहिए । उनके पालन करने में किसी प्रकार की विराधना न हो, यह हर समय ध्यान में रखना चाहिए ।।६४-६६।। उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य एवं ब्रह्मचर्य--ये दश लक्षण वास्तविक धर्मरूपी कल्पवृक्ष के बीज स्वरूप हैं--इनको धारण करने से वास्तविक धर्म की नियम से उत्पत्ति होती है । इसलिए जो पुरुष धर्म प्राप्त करना चाहते हैं एवं मोक्ष प्राप्ति की हृदय में पूरी-पूरी अभिलाषा. रखते हैं, उन्हें वास्तविक धर्म के कारण स्वरूप उत्तम क्षमा आदि लक्षणों का नियम से सेवन करना चाहिए एवं कभी भी उनसे विमुख नहीं रहना चाहिए ।।६७-६६।। जिस उत्तम क्षमा आदि धर्म का ऊपर उल्लेख किया गया है, वह समस्त निर्दोष धर्म निर्दोष तपों के द्वारा होता है। उत्तम आचरण, ध्यान, अध्ययन, वैराग्य भावना, शुद्ध मन-वचन-काय की क्रियायें, निर्दोष समता। भाव एवं धर्मानुकूल संवेग की भावनाओं से होता है । इसलिए जो महानुभाव धर्म के अभिलाषी हैं, उन्हें धर्म की वृद्धि के लिए बारह प्रकार का तप, ध्यान, अध्ययन, शुभयोग एवं आहार आदि का सदा ध्यान रखना चाहिए ।।७०-७२।। इस परम पावन धर्म की कपा से ही पत्र-पौत्र आदि की प्राप्ति होती है। इष्ट भोगों का मिलना भी धर्म से ही होता है। सज्जन एवं मित्र के समान सेवक भी धर्म की कृपा से प्राप्त होते हैं। माता-पिता आदि बाँधवों की प्राप्ति भी धर्म की ही कृपा से होती है । श्रृंगार की खानि एवं धर्म कार्यों में पूरी सहायता पहुँचाने वाली स्त्रियाँ, पर्वत के समान विशाल गजराज. ऊँचे-ऊँचे रथ एवं अच्छी तरह प्रशिक्षित अश्व भी धर्म की कपा से प्राप्त होते हैं; छत्र, चमर, राज्य आदि पदार्थ, उत्तमोत्तम भूषण, ऊँचे-ऊँचे मकान तथा अन्य उत्तमोत्तम पदार्थ धर्मात्माओं को स्वतः सिद्ध (प्राप्त) होते FFFFEB |९३ Jain Education international For Privale & Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। जो परुष धर्मात्मा हैं. उनके समस्त प्रकार के कल्याणकों को प्रदान करनेवाली लक्ष्मी धर्मरूपी मन्त्र से वश की || गई गहदासी के समान रहती है। अहमिन्द्रपद, इन्द्रपद, सर्वार्थसिद्धि विमान की विभूति, उत्तम स्वर्ग का सुख भी १ गर्म की कपा से प्राप्त होता है। जो मनष्य धर्मात्मा हैं. धर्म की कपा से उनके षट खण्ड की विभति. नौ निधि. चौदह | रत्न. संदर्शन-चक्र आदि चक्रवर्ती की समस्त विभति प्राप्त होती है और भी अनेक प्रकार की लक्ष्मी प्राप्त होती है। सबसे पवित्र एवं प्रधान तीर्थंकर की विभूति है; परन्तु धर्मात्माओं को धर्म की कृपा से वह भी प्राप्त हो जाती है । गणधर पद एवं ऋद्धि आदि अनेक प्रकार की विद्यायें भी धर्म की कृपा से प्राप्त होती हैं । विशेष क्या ? तीनों || लोक में जो वस्तु बहुत दूर है, अत्यन्त दुर्लभ है एवं अमूल्य है, वह वस्तु भी धर्म की कृपा से अपने-आप हाथ पर आकर विराज जाती है। मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति संसार में अत्यन्त कष्टसाध्य है; परन्तु जो महानुभाव धर्मरूपी धन के स्वामी हैं, वह मुक्ति-लक्ष्मी भी उन पर रीझ जाती है एवं पास आकर प्राप्त हो जाती है, फिर अन्य देवांगनाओं की || तो बात ही क्या है अर्थात् धर्म की कृपा से उनका प्राप्त होना अत्यन्त सुलभ है । इसलिए ग्रन्थकार उपदेश देते हैं || कि जो महानुभाव धार्मिक हैं--परम धर्मात्मा हैं, उन्हें यत्नपूर्वक सदा धर्म का सेवन करना चाहिए । जो महानुभाव पूर्व पुण्य के उदय से संसार में सुखी हैं, उन्हें भी धर्म-वृद्धि, सुख-वृद्धि एवं मोक्ष के लिए धर्म धारण करना || || चाहिए। जो दःखी हैं, उन्हें दःख दूर करने के लिए सदा उत्तम धर्म धारण करना चाहिए । पापी जीवों को पाप की हानि के लिए धर्म धारण करना परमावश्यक है एवं जो संसार की दुष्ट दशा से भयभीत हैं, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति के लिए धर्म का सेवन करना चाहिए । संसार में मनुष्य-जन्म का पाना अत्यन्त दुर्लभ है--बड़ी कठिनता से प्राप्त होता हैं; इसलिए जो मनुष्य विद्वान हैं--संसार की परिस्थिति के वास्तविक रूप से जानकार हैं, उन्हें काल का एक क्षणमात्र भी धर्म कार्य के बिना नहीं बिताना चाहिए ।।७३-६४।। इस प्रकार जिस समय श्रीजिनेन्द्र भगवान ने समीचीन-धर्म, उसका फल एवं उसके भेद आदि का विस्तार से ||९४ वर्णन किया, उस समय समवशरण के अन्दर जितने भी भव्य बैठे थे, सबकी परिणति धर्म कार्यों की ओर झुक: ।।८५|| धर्मोपदेश के साथ-साथ श्रीजिनेन्द्र भगवान ने मोक्ष, मोक्ष का फल, मोक्ष का मार्ग एवं मोक्ष के कारणों का भी विस्तार से निरूपण किया । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव एवं भाव-इस प्रकार पाँचों परावर्तनों का भी स्पष्ट रूप से Jain Education international For Privale & Personal Use Only . Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ bPF प्रतिपादन किया ।।१६।। अधोलोक, मध्यलोक एवं ऊर्ध्वलोक के भेद से लोक तीन प्रकार का है। श्री जिनेन्द्र भगवान ने तीनों प्रकार के लोक का भी विस्तार से वर्णन किया । लोक के बाद अलोक है । सिवाय आकाश-द्रव्य के उसके अन्दर कोई भी द्रव्य नहीं रहता, श्रीजिनेन्द्र भगवान ने अपनी दिव्य वाणी से उसका भी निःशंकित रूप से वर्णन किया ।१७।। उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी के भेद से काल दो प्रकार का माना जाता है। जिस काल में मनुष्यों के बल, वीर्य आदि की निरन्तर वृद्धि होती जाए, उसका नाम ‘उत्सर्पिणी' है एवं जिस काल में उनकी हीनता होती जाए, उस काल को ‘अवसर्पिणी' माना गया है । उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी दोनों कालों में से प्रत्येक काल के छ:-छः भेद माने गए || म हैं । वे १.सुषमा-सुषमा २.सुषमा ३.सुषमा-दुःषमा ४.दुःषमा-सुषमा ५.दुःषमा एवं ६.दुःषमा-दुःषमा--इस रूप से हैं। || श्रीजिनेन्द्र भगवान ने किस रूप से किस काल की हानि होती है एवं किस रूप से किस काल की वृद्धि होती है, विस्तार से यह बात बतलाई तथा किस-किस काल में कितना-कितना आयु, काय आदि का परिमाण होता है, यह बात श्रीजिनेन्द्र भगवान ने अच्छी तरह प्रतिपादित की ।।१८।। तीर्थंकर, बलभद्र, चक्रवर्ती, नारायण एवं प्रतिनारायणों के चरित्रों का भी वर्णन किया एवं उनके कैसे शरीर थे, कैसी-कैसी ऋद्धियाँ थीं, कैसे-कैसे उन्हें सुख प्राप्त थे एवं कैसी-कैसी उनके शरीर आदि की सामर्थ्य थी--यह सब भी भलीभाँति वर्णन किया ।।६। द्वादशांग श्रुतज्ञान के अन्दर तीनों काल सम्बन्धी पदार्थों का जो भी वर्णन था, वह भी श्री जिनेन्द्र भगवान ने गणधरों के लिए व्यक्त कर बतलाया ।।६०।। श्रीजिनेन्द्र भगवान के मुख से निकले हुए महामिष्ट वचनरूपी धर्मामृत का पान कर समस्त गण अथवा संघ ने उस समय अपने को जन्मरूपी दाह से रहित समझा एवं वे अपने को परम सुखी अनुभव करने लगे ।।६।। श्री जिनेन्द्र भगवान का उपदेश सुन कर बहुत से धर्मात्मा भव्य जीवों को संसार से उदासीनता हो गई । उन्होंने धर्म-सम्बन्धी कार्यों के अन्दर मन लगाया एवं वैराग्यरूपी वज्र से मोहरूपी पर्वत को खण्ड-खण्ड कर पवित्र तप धारण कर लिया ।।६२।। श्रीजिनेन्द्र भगवान के मुख से धर्मोपदेश पाकर बहुत से पशु एवं मनुष्यों ने 'श्रावक ||९५ व्रत' अर्थात् 'अणुव्रतों' को धारण कर लिया एवं तप, दान, पूजन आदि पवित्र कार्यों में उन्होंने अपने भावों को दृढ़ किया ।।६३।। बहुत से देवों ने काल-लब्धि की कृपा से श्रीजिनेन्द भगवान के मुख से धर्मामृत का पान कर मिथ्यादर्शनरूपी विष का वमन कर दिया एवं सम्यग्दर्शन को धारण कर लिया ।।६४|| गणधरों में प्रधान गणधर 42Fb PF Jain Education interational Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाख ने भी समस्त भव्य जीवों का उपकार हो, मोक्ष - मार्ग की प्राप्ति हो एवं अहिंसारूपी धर्म - तीर्थ की प्रवृत्ति हो, इस अभिलाषा से अपनी निरूपम प्रखर बुद्धि से श्रीजिनेन्द्र के मुख 'तत्व-स्वरूप प्राप्त कर उसे करोड़ों नयों की भंगियों के साथ द्वादशांग महासमुद्र रूप रच दिया ।। ६५-६६ ।। भगवान की दिव्य - ध्वनि का खिरना जिस समय समाप्त हुआ एवं मनुष्यों का कोलाहल शान्त हो गया, उस समय धर्म - तीर्थों में श्रीजिनेन्द्र भगवान का विहार हो, इस पवित्र अभिलाषा को हृदय में धारण कर समस्त प्राणियों के हित के इच्छुक सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने बड़े आनन्द से श्री जिनेन्द्र भगवान के दोनों चरणकमलों में प्रणाम किया एवं धर्मोपदेश से जायमान जो गुण हैं, उन्हें लक्ष्य कर वह श्रीजिनेन्द्र भगवान की इस प्रकार स्तुति करने लगा -- थ हे भगवन् ! आपकी वचनरूपी किरणों से मोह एवं अज्ञानरूपी अन्धकार आज सर्वथा नष्ट हो रहा है, जिससे भव्य जीवों को वास्तविक मार्ग का ज्ञान हो रहा है। इसलिए तीनों लोक के भरण-पोषण करनेवाले आप ही हैं एवं आप ही समस्त भव्य जीवों के बन्ध - स्वरूप हैं ।। ६७-६६ ।। गम्भीर समुद्र के अन्दर पड़नेवाले जीव जिस प्रकार जहाज के सहारे अपने अभीष्ट स्थान पर पहुँच जाते हैं, उसी प्रकार हे स्वामी ! यह संसाररूपी समुद्र दुस्तर है--जल्दी तिरा पु नहीं जा सकता, इसमें गोता मारते हुए प्राणियों को धर्मोपदेशरूपी जहाज की सहायता से आप ही तार सकते हो एवं पु उन प्राणियों की अभिलाषा मोक्षरूपी पत्तन को प्राप्त करने की है, सो उस पत्तन में आप ही उन्हें पहुँचा सकते हो, अन्य किसी की इस समय वैसी सामर्थ्य नहीं ।। १०० । संसार में तारागण, कन्दमूल के अन्दर रहनेवाले जीव, समुद्र की लहरें, आकाश के प्रदेश एवं एकेन्द्रिय आदि जीवों की गणना नहीं की जा सकती -- कितना भी कोई प्रयत्न क्यों न करें, उन्हें गिन नहीं सकता । उसी प्रकार हे भगवन् ! आपके गुण समुद्र हैं; इसलिए आपके अगणित गुणों को भी गिना नहीं जा सकता अर्थात् आप अनन्त गुणों के पिण्ड स्वरूप हैं ।। १०१ । इसलिए हे नाथ ! आपके गुण अनन्त हैं एवं हमारे सरीखे हीन-शक्ति के पुरुष उन्हें वर्णन करने की सामर्थ्य नहीं रखते; अतः आपके गुणों का वर्णन करने के लिए हम किसी प्रकार का परिश्रम नहीं उठाना चाहते ।। १०२ ।। हे तीनों लोक के स्वामी भगवन् ! जिस प्रकार सूर्य के उग्र ताप से मुरझाये हुए धान्यों के पौधों को जल की फुहार से सींचा जाता है; उस समय वे उत्तम फलों को प्रदान करते हैं, उसी प्रकार ये भव्यरूपी धान्य पाप के आताप आदि से मुरझाए हुए हैं-- पाप की तीव्रता से इनकी श्री म लि 9464 ण श्री म ल्लि ना 5 2 55 थ रा ण ९६ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-शक्ति हीन हो चुकी है, आप धर्मामृत प्रदान कर इन्हें सबल बनावें, जिससे ये उत्तम फलों को प्राप्त कर लें ।।१०३।। हे प्रभो ! समस्त प्रकार के अनर्थों को करनेवाले बलवान शत्रु मोहनीय-कर्म की सेना को आपने सर्वथा नष्ट कर दिया है एवं सन्मार्ग के उपदेश करने की आपमें परिपूर्ण योग्यता प्रगट हो गई है। अब यह समय उस वास्तविक मार्ग के उपदेश का आकर उपस्थित हो गया है, जब आप भव्य जीवों को धर्मोपदेश प्रदान करें। विशेष कहना व्यर्थ है। हे प्रभो ! प्रार्थना यही है कि भव्य-जीवों के आप शरण बनें--उन्हें वास्तविक मार्ग का उपदेश प्रदान करें; क्योंकि इस संसार में भव्य-जीवों के शरण आप ही हैं--आपके सिवाय अन्य कोई शरण नहीं हो सकता।' इस प्रकार विनयपूर्वक निवेदन कर वह धर्मात्मा सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र अपनी जगह पर आकर बैठ गया ।। १०४-१०।। जिस प्रकार सूर्य कमलों को प्रस्फुटित कर उनका उपकार करता है एवं समस्त जीवों के हित में उद्यत रहता है अर्थात् सूर्य के उदयकाल में ही समस्त प्राणी अपने-अपने हितकारी कार्यों में प्रवृत्त होते हैं, उसी प्रकार धर्म के सूर्य-स्वरूप वे श्रीजिनेन्द्र भगवान समस्त जीवों के हित में उद्यत होकर समस्त भव्य जीवरूपी कमलों के उपकार की अभिलाषा से इन्द्र की प्रार्थना के अनुसार शीघ्र ही अपने आसन से उठ खड़े हुए एवं चक्रवर्ती जिस प्रकार विशाल विभूति एवं सेना आदि के साथ दिग्विजय करने के लिए जाता है एवं चक्र उसके आगे चलता है, उसी प्रकार धर्म के चक्रवर्ती वे श्रीजिनेन्द्र भगवान मुनि-आर्यिका आदि संघ एवं अनेक देवों के साथ विशाल विभूति से मण्डित होकर दिग्विजय करने के लिए अर्थात् समस्त आर्य क्षेत्र में धर्मोपदेश करने के लिए चल दिए एवं धर्मचक्र उनके आगे-आगे चलने लगा ।। १०६-१०७।। उस समय भगवान के प्रस्थान करने पर पटह आदि अगणित वाद्यों की तुमुल ध्वनि से एवं 'हे देव ! जीवें, नादें, विरदे' इत्यादि मनोहर शब्दों से समस्त आकाश को व्याप्त करते हुए देवगण अत्यन्त आनन्दित होकर उनके साथ-साथ चलने लगे।। १०८।। अहंत भगवान को चौंतीस (३४) अतिशय माने गए हैं। उनमें दश जन्म के अतिशय हैं, उनका वर्णन तो उनके जन्म के समय कर दिया गया है। केवलज्ञान के समय दश अतिशय होते हैं, वे इस प्रकार हैं-- १.जिस स्थान पर श्रीजिनेन्द्र भगवान का समवशरण है, उसके चारों ओर एक सौ योजन पर्यंत सुभिक्षता का होना, २.आकाश में गमन, ३.व्याघ्र आदि क्रूर जीवों के द्वारा अन्य निर्बल प्राणियों का न मारा जाना अर्थात् अदया 4444 थ |९७ Jain Education international For Privale & Personal use only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्री म ल्लि थ थ म १.भगवान की भाषा अर्धमागधी थी जो कि पशु- देव एवं मनुष्यों को भिन्न-भिन्न रूप से समस्त अर्थों को सूचित करती थी । २.स्वभाव से ही ‘बध्यघातक' नाम का विरोध रखनेवाले सर्प-नेवला आदि जीवों की परस्पर मित्रता थी, ल्लि ३. वृक्षों की पंक्तियाँ समस्त ऋतुओं के फल-पुष्पों से युक्त थीं, ४. दर्पण के मध्य भाग के समान अत्यन्त निर्मल मणिमयी ना पृथ्वी थी, ५. वातकुमार देवों के द्वारा शीतल मन्द सुगन्ध पवन बहती थी, ६. श्रीजिनेन्द्र भगवान के समीप रहनेवाले ना समस्त जीवों को परमानन्द था, ७. पवनकुमार देवों ने जमीन को तृण, कंटक आदि से रहित कर दिया था, ८. स्तनितकुमार जाति के भवनवासी देवों ने भगवान के समीप की सौ योजन प्रमाण पृथ्वी सुगन्धित जल की वर्षा से सुगन्धित कर रक्खी थी, ६.चलते समय श्रीजिनेन्द्र भगवान के चरणकमलों तले देवगण सुवर्णमयी कमलों की रचना करते चले जाते थे, १०.शालि आदि धान्यों के वृक्ष फलों के भार से नम्रीभूत थे, ११. श्रीजिनेन्द्र भगवान के समीप में आकाश एवं दिशायें निर्मल थीं, १२. इन्द्र की आज्ञा से देवगण आपस में एक-दूसरे को बुलाते थे, १३. भगवान के आगे-आगे धर्मचक्र चलता था जो कि हजार अरों का धारक था एवं अपनी दैदीप्यमान किरणों से समस्त दिशाओं को जगमगाता था एवं अन्धकार का नाशक था एवं चारों ओर से देवों से वेष्टित था तथा १४. भगवान के चारों ओर दर्पण-कलश-झारी आदि आठ मांगलिक द्रव्य शोभायमान थे --इस प्रकार भगवान के ये चौदह अतिशय देवकृत पु रा का अभाव, ४.अलौकिक कल्याण के धारक केवली के भोजन का न होना अर्थात् कवलाहार रहितपना, ५. उपसर्ग का अभाव, ६.चारों दिशाओं में चार मुखों का दिखना, ७. समस्त विद्याओं का स्वामीपना, ८. छाया रहित शरीर का होना, ६.नेत्रों के पलकों का न हिलना एवं १०. नख- केशों का न बढ़ना--इस प्रकार ज्ञानावरण आदि चार घातिया कर्मों के नाश से ये दश अतिशय केवली भगवान के प्रगट होते हैं, जो कि निरौपम्य होते हैं, उनकी उपमा नहीं दी जा सकती । इनके सिवाय शेष चौदह अतिशय देवकृत होते हैं, एवं वे इस प्रकार हैं- ण ।।१०६-१२१ ।। श्री जिनेन्द्र भगवान के समीप में आठ प्रातिहार्यों की भी अपूर्व शोभा थी एवं ये प्रातिहार्य इस प्रकार थे -- १.श्रीजिनेन्द्र भगवान के समीप में अशोक वृक्ष विद्यमान था जो कि शोक का नाश करनेवाला था एवं दैदीप्यमान रत्नमय था, २ . कल्पवृक्षों से जायमान पुष्पों के समूहों से देवगण पुष्प वृष्टि करते थे, ३. भगवान की दिव्य-ध्वनि पु रा ण ९८ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री म लि ना थ 9469 पु रा ण खिरती थी जो कि मेघ की गर्जना के समान गम्भीर थी व मधुर थी एवं समस्त लोक का हित करनेवाली थी तथा अज्ञानरूप अन्धकार का नाश करनेवाली थी एवं समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने में दीपक के समान थी, ४. देवगण भगवान के ऊपर चौंसठ चमर ढोरते थे, ५ . प्रभु का भाँति-भाँति की मणियों से जुड़ा हुआ सुवर्णमय दिव्य सिंहासन था, ६. भगवान के पीछे भामण्डल विद्यमान था जो कि करोड़ सूर्यों की प्रभा से अधिक प्रभा का धारक था, ७. साढ़े बारह करोड़ वाद्यों के साथ - साथ दुन्दुभी ध्वनि होती थी तथा ८. शीश पर तीन छत्र थे, जो कि तीन चन्द्रमा सरीखे जान पड़ते थे एवं मोतियों की मालाओं से शोभायमान थे । इस प्रकार ये आठ प्रातिहार्य श्रीजिनेन्द्र भगवान की अपूर्व शोभा बढ़ा रहे थे ।। १२२ - १२६ ।। भगवान के १. अनन्तज्ञान -- केवलज्ञान २. २. अनन्तदर्शन -- केवलदर्शन ३ . अनन्तवीर्य एवं ४.अनन्तसुख--ये चार अनन्त चतुष्टय शोभायमान थे । इस प्रकार चौंतीस अतिशय, आठ प्रातिहार्य एवं चार अनन्त चतुष्टय--इन कुल छियालीस गुणों के धारक वे श्रीमल्लिनाथ भगवान अत्यन्त शोभायमान जान पड़ते थे । वे श्रीजिनेन्द्र भगवान समस्त भव्य जीवों को सन्तोष उपजाते एवं मेघ के समान अपने दिव्य वचनरूपी अमृत से सबको आनन्दित करते हुए समस्त पृथ्वी पर विहार करने लगे ।। १२७ - १२८ । । जिस प्रकार सूर्य अपनी उग्र किरणों से अन्धकार को नष्ट करता है एवं समस्त जगत् को प्रकाशमान करता है, उसी प्रकार वे श्रीजिनेन्द्ररूपी भगवान सूर्य भी अपने वचनरूपी किरणों से मिथ्या - मोहरूपी अन्धकार का सर्वथा नाश कर संसार में तत्वों के स्वरूप का प्रकाश करने लगे ।। १२६ || श्रीमल्लिनाथ भगवान के विशाख आदि अट्ठाइस गणधर थे, जो कि समस्त प्रकार की ऋद्धियों से शोभायमान थे एवं भगवान के चरणकमलों को प्रणाम करते थे ।। १३०|| श्रीजिनेन्द्र भगवान के साथ में ग्यारह अंग चौदह पूर्व के धारी साढ़े पाँच सौ ( ५५० ) मुनि थे । शिक्षक जाति के मुनि उनतीस हजार थे । जो मुनि अवधिज्ञान के धारक थे, वे बाईस सौ ( २२०० ) प्रमाण थे । जितने प्रमाण ये अवधिज्ञानी थे, उतने ही प्रमाण अर्थात् बाईस सौ ही केवलज्ञानी मुनि थे, जो कि अपने केवलज्ञान से समस्त लोक - आलोक को स्पष्ट रूप से देखते थे । मिथ्यात्व को सर्वथा नष्ट करनेवाले परम सम्यग्दृष्टिवादी मुनि चौदह सौ ( १४०० ) थे । विक्रिया ऋद्धि के धारक उनतीस सौ (२६००) थे । मन:पर्ययज्ञानी मुनि श्रीजिनेन्द्र भगवान के समवशरण में साढ़े सत्रह सौ (१७५०) थे, जो कि श्रीजिनेन्द्र भगवान के परम भक्त थे एवं सूक्ष्मरूप से पदार्थों के देखनेवाले थे । इस प्रकार ये समस्त विद्वान मुनि ९९ श्री म ल्लि ना थ पु रा ण Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलकर चालीस हजार (४०००० ) प्रमाण थे। ये मुनिगण मोहांधकार के सर्वथा नाश करनेवाले थे एवं संसार की शोभा ।। १३५ ।। श्री श्री श्रीजिनेन्द्र भगवान की सभा में बन्धुषेणा आर्यिका आदि को लेकर पचपन हजार (५५०००) आर्यिकायें थीं, जो कि सम्यग्दृष्टि एवं मूलगुणों को धारण करनेवाली थीं एवं श्री जिनेन्द्र भगवान के चरणकमलों को प्रणाम करनेवाली थीं ।। १३६ ।। एक लाख (१००००० ) श्रावक थे एवं तीन लाख श्राविकायें थीं जो कि सम्यग्दृष्टि थे, श्रावकों के व्रतों के धारक थे एवं श्री जिनेन्द्र भगवान की पूजा तथा भक्ति में सदा तत्पर थे ।। १३७ ।। श्रीमल्लिनाथ भगवान की सभा में देव एवं उनकी देवियाँ असंख्यात थे, असंख्यात पशु थे । ये समस्त सम्यग्दृष्टि एवं श्रावकों के व्रतों से तथा श्रीजिनेन्द्र भगवान के चरणों की पूजा करनेवाले थे ।। १३८ । । इस रूप से वे श्री मल्लिनाथ केवली भगवान ना उपर्युक्त बारह गणों से परिवेष्टित थे; भव्यों को मोक्ष स्थान में ले जानेवाले थे, वास्तविक धर्म का मार्ग प्रकाशन करते ना म म ल्लि थे युक्त ल्लि थ पु रा रा ण ण थे । इस प्रकार आर्यखण्ड में रहनेवाले समस्त देश एवं नगर आदि में उन्होंने छत्तीस दिन सौ वर्ष कम पचपन हजार वर्ष पर्यंत विहार किया था । जब आयु के अन्त में केवल एक मास का समय शेष रह गया, उस समय वे श्रीजिनेन्द्र पु भगवान सम्मेदशिखर पहाड़ पर जाकर विराजमान हो गए || १४१। वहाँ पर आकर श्रीजिनेन्द्र भगवान ने अपनी दिव्य-ध्वनि एवं योग को सकुंचित कर दिया, निष्क्रिय हो गए एवं शेष चार अघातिया कर्म अर्थात् वेदनीय, आयु, नाम एवं गोत्र--इन चारों कर्मों को नष्ट करने के लिए 'प्रतिमायोग' धारण कर लिया तथा जबतक आयु का अन्त न हुआ, तबतक उसी स्थान पर पाँच हजार मुनियोंके साथ अपनी आत्मा में 'सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती' नामक तीसरे शुक्लध्यान को धारण कर विराजमान हो गए । । १४२ - १४३ । । वहाँ विराजमान होकर मणिमयी दीपक के समान 'व्युपरतक्रियानिवृत्ति' नामक चौथे शुक्लध्यान से श्री जिनेन्द्र भगवान ने चारों अघातिया कर्मों का सर्वथा नाश कर दिया । ' अयोगकेवली' नाम के चौदहवें गुणस्थान में उन्होंने औदारिक, तैजस एवं कार्माण -- इन तीनों शरीरों का सर्वथा नाश कर दिया एवं १०० जिस प्रकार एरण्ड के बीज का स्वभाव बन्ध के नष्ट हो जाने पर ऊपर को ही जाने का है, उसी प्रकार समस्त कर्मों से रहित आत्मा का भी ऊर्ध्वमान स्वभाव होने से वे ज्ञानमूर्ति श्रीजिनेन्द्र भगवान फागुन सुदी पंचमी के दिन जब कि 'भरणी' नामक शुभ नक्षत्र था, पूर्व रात्रि के समय लोक के अग्रभाग में जाकर विराजमान हो गए ।।१४४-१४६।। 5 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व आदि आठों गुणों को प्राप्त कर तथा सिद्ध होकर अनन्तकाल पर्यन्त वहाँ पर वे विराज गए एवं उस अलौकिक सुख का अनुभव करने लगे कि जो कि अन्त-रहित अनन्त है, उपमा-रहित है, दिव्य है, समस्त प्रकार के क्लेशों से रहित है, स्वाधीन है, विनाश-रहित अविनाशी है, उत्कृष्ट है, इन्द्रियों से जायमान नहीं है, समस्त प्रकार की बाधाओं से रहित है तथा महान है ।।१४७-१४६।। जिस समय भगवान मुक्त हो गए, देवों को ज्ञात हो गया। भगवान की भक्ति के करने में सदा दत्तचित्त वे समस्त देव अपने-अपने इन्द्रों तथा परिवार के देवों के साथ शीघ्र ही उनकी निर्वाणभूमि सम्मेदाचल पर आ गए । श्रीजिनेन्द्र || म भगवान उसी शरीर से मोक्ष गए थे; इसलिए उनका वह शरीर साक्षात् मोक्ष का कारण होने से परम पवित्र था । | अतः देवों ने बड़ी भक्ति से उनका शरीर अनेक प्रकार के रत्नों से शोभायमान पालकी में विराजमान कर दिया । महासुगन्धित उत्तमोत्तम द्रव्यों से उसे पूजा एवं अन्त में देवों ने शीश झुका कर बड़े विनय से उसे नमस्कार किया ।। १४६-१५१।। अग्निकुमार जाति के भवनवासी देवों के मुकुट से जायमान अग्नि से भगवान का शरीर दूसरी पर्याय को प्राप्त हो गया; अर्थात् भस्म हो गया। जिस समय वह दूसरी पर्याय को प्राप्त हो रहा था, उस समय उसकी उत्कट सुगन्धि से समस्त दिशायें सुगन्धित हो गई थीं। उनके शरीर की जो भस्म हुई थी, देवों ने यह कहकर कि “जिस प्रकार यह अवस्था श्रीमल्लिनाथ भगवान की हुई है, उसी प्रकार हमारी भी हो"--उसे श्रीमल्लिनाथ भगवान के स्वरूप की प्राप्ति की अभिलाषा से अपने-अपने मस्तक तथा समस्त शरीर से लगा लिया । पुनः समस्त इन्द्रों ने मिल कर 'आनन्द' नामक नाटक किया, अन्त में अपना समस्त कार्य समाप्त कर वे श्री जिनेन्द्र भगवान के गुणों की प्रशंसा करते हुए अपने-अपने स्थानों पर चले गए ।।। १५२-१५४।। जिन श्रीमल्लिनाथ भगवान ने पुण्य के तीव्र विपाक से पहिले तो मनुष्य एवं देवगति के अन्दर होनेवाले उत्तम सुख का सानन्द भोग किया; उसके बाद तीन लोक के इन्द्रों द्वारा वन्दनीय परम पावन तीर्थंकर पदवी प्राप्त की; पश्चात् समस्त चारित्र को धारण कर ज्ञानावरण आदि समस्त कर्मों को नष्टकर मोक्ष पद पाया; वे श्रीमल्लिनाथ भगवान हमारी रक्षा करें ।।१५५।। जो श्रीमल्लिनाथ भगवान पहिले तो 'वैश्रवण' नाम के राजा हुए, वहाँ पर 'रत्नत्रय' नाम का पवित्र व्रत आचरण कर पीछे संयम ले उत्तम तपों की कृपा से दिव्य पाँच अनुत्तर विमानों में से चौथे 'अपराजित' नाम के JFFFF في 4 و Jain Education international Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमान में महान ऋद्धि के धारक अहमिन्द्र देव हुए, फिर वहाँ से चय कर मोक्षरूपी लक्ष्मी के भर्त्ता : हुए; वे श्रीमल्लिनाथ भगवान सदा तुम्हारा कल्याण करें ।। १५६ ।। बाल्य अवस्था में ही जिन श्रीमल्लिनाथ भगवान ने उत्तम तपरूपी तीक्ष्ण खड्ग से मोह आदि समस्त कर्मों का सर्वथा नाश कर अनन्त सुख प्रदान करनेवाली मोक्षरूपी लक्ष्मी को प्राप्त किया, उन श्री मल्लिनाथ भगवान का इस श्री मल्लिनाथपुराण में जो मैंने स्तवन एवं विनय किया है, वह उनकी विभूति की प्राप्ति की अभिलाषा से किया है । अब प्रार्थना यही है कि वे भगवान शीघ्र ही मुझे अपने समस्त गुणों को प्रदान करें एवं उन गुणों के विरोधी जितने भी कर्म हैं, वे मेरे सर्वथा क्षीण हो जायें ।। १५७ ।। ग्रन्थकार श्री सकलकीर्ति ल्लि भट्टारक अन्त में मंगल की कामना करते कहते हैं-हुए श्री म ना थ ‘तीन लोक द्वारा पूज्य, समस्त तीर्थंकर शरीर के सम्बन्ध से रहित अशरीरी सिद्ध, दूसरों के प्रयोजन सिद्ध करनेवाले परम विद्वान आचार्य, शास्त्रों के अर्थ निरूपण करने में चतुर तथा उत्कृष्ट उपाध्याय एवं धीर-वीर, पूर्ण ध्यान के धरनेवाले, घोर तपों के तपनेवाले तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्नशील साधुगण जिनकी कि समस्त लोक स्तुति तथा विनय करता है एवं मैंने भी इस ग्रन्थ में जिनकी स्तुति तथा विनय की है, वे तुम्हारे मंगल के कर्त्ता हों, तुम्हें सर्व प्रकार से मंगल प्रदान करें ।। १५८ ।। समस्त प्रकार के रागभावों से रहित, धर्म का स्वरूप एवं संवेग भावना से परिपूर्ण अनुपम तथा उत्कृष्ट जो श्री मल्लिनाथ भगवान का चरित्र मुझ श्रीसकलकीर्ति भट्टारक के मुख से इस पृथ्वी पर प्रगट हुआ है, वह जब तक संसार में श्रेष्ठ - धर्म (जैन-धर्म) की सत्ता विद्यमान रहे, तब तक भव्य जीवों के साथ जयवन्त रहे ।। १५६ ।। पु रा ण श्री म ल्लि ना थ पु रा ण इस संसार में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र स्वरूप जो 'रत्नत्रय' है - वह स्वर्ग एवं मोक्ष का प्रधान कारण है, समस्त पापों का सर्वथा नाश करनेवाला है, धर्मरूपी अमृत का एक अद्वितीय समुद्र है, संसार के समस्त अनर्थों का निवारण करनेवाला है, समस्त सुख की निधि है, भव्य लोगों के लिए मस्तक पर धारण करने के लिए १०२ एक अद्वितीय चूड़ामणि है, अनन्त गुणों का आकर हैं तथा समस्त कर्मों का नाश करनेवाला है, वह रत्नत्रय मुझे भी प्राप्त हो एवं उसके फलस्वरूप सारे गुण मेरे अन्दर आकर प्रगट हों, इस अभिलाषा से मैं उस रत्नत्रय को रात-दिन मस्तक झुका कर नमस्कार करता हूँ ।। १६० ।। इस पुराण के अन्दर जो रत्नत्रय व्रत की विधि बतलाई गई Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, उस उत्तम विधि को जो विद्वान महानुभाव भक्तिपूर्वक करते हैं, वे उसके फलस्वरूप मनुष्य तथा देवलोक सम्बन्धी अनुपम सुख को प्राप्त करते हैं । उग्र तप से समस्त कर्मों को खपा (विनष्ट) कर श्रीमल्लिनाथ भगवान के समान तीनों लोक के जीवों से पूजित होते हैं, तत्पश्चात् चारों ओर से सिद्धों से भरी हुई मोक्षगति को प्राप्त करते हैं ।। १६१।। संसार में यह दिव्य रत्नत्रय असाधारण गुणों का पिटारा है, तीनों लोक के नाथों (स्वामियों) द्वारा बन्दनीक संसाररूपी महाभयंकर भुजंग को वश में करनेवाला उत्तम मन्त्र है । इस परम पावन रत्नत्रय की मैंने जो इस ग्रन्थ में वन्दना एवं स्तुति की है, वह समस्त पाप कर्मों के नाश के लिए, पूर्ण रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए एवं मुझे लिपरम सुमति की प्राप्ति हो, इस अभिलाषा से की है; इसलिए मेरी यह सविनय प्रार्थना है कि रत्नत्रय की स्तुति एवं ल्लि वन्दना से मेरे समस्त दुष्कर्मों का सर्वथा नाश हो । मुझे पूर्ण रत्नत्रय का लाभ हो तथा मुझे परम सुमति की प्राप्ति हो ।। १६२ ।। श्री श्री म इस श्री मल्लिनाथ पुराण के अन्दर समस्त आठ सौ चौहत्तर श्लोक हैं, जो कि श्री मल्लिनाथ भगवान का चरित्र वर्णन करने के कारण सारभूत हैं ।। १६३।। इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीर्ति द्वारा विरचित मल्लिनाथ पुराण में श्री मल्लिनाथ भगवान का धर्मोपदेश और पु निर्वाण गमनका वर्णन करने वाला सातवां परिच्छेद समाप्त हुआ । ना 5555 थ पु रा ण Jain Education mational For Private Personal Use Only ना F5555 थ रा ण १०३ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISBN No. 81-88313-14-9. मुद्रक : अरिहन्त ऑफसेट प्रिन्टर्स, टीकमगढ़, (म.प्र.,