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________________ FEEFFFF समुद्र में बड़वानल होती है, उसी प्रकार इस संसार में घोर नर्करूपी बड़वानल मौजूद है--नरकों में जाकर नारकी सदा अग्नि के भयानक कुण्डों में जलते-उछलते रहते हैं। अतएव यह संसार समुद्र के समान सम्भीर है तथा जिस प्रकार समुद्र में अथाह जल होता है, उसी प्रकार यह संसार भी समस्त प्रकार के अकल्याणरूपी जल से भरा हुआ है । जिस प्रकार समुद्र में बड़े-बड़े मत्स्य होते हैं; उसी प्रकार यह समुद्र भी भयंकर रोगरूपी मत्स्यों से खचाखच भरा हुआ है । जिस प्रकार जहाजों को लूटने के लिए समुद्र में चोर-डाकुओं का जमघट रहता है, उसी प्रकार इस संसार में भी समस्त जीवों को लूटनेवाले पाँचों इन्द्रियरूपी पाँच चोर हैं, इनके जाल में फँस कर जीव निरन्तर ठगे जाते हैं । जिस प्रकार समुद्र भयंकर पवन से व्याप्त रहता है, उसी प्रकार यह संसार भी जन्म-मरण एवं वृद्धावस्था रूपी तीव्र पवन के झकोरों से व्याप्त है । समुद्र जिस प्रकार महाभयानक होता है, उसी प्रकार यह संसार भी महाभयानक है। समुद्र जिस प्रकार महाचन्चल, महाविषम, महाघोर, एवं असार होता है, उसी प्रकार यह संसार भी महाचन्चल, महाविषम महाघोर एवं निस्सार है। जिस प्रकार समुद्र का पार पाना कठिन है,उसी प्रकार इस संसार समुद्र का भी जल्दी पार नहीं पाया जा सकता एवं समुद्र जिस प्रकार अगम्य है, उसी प्रकार यह संसार भी महा अगम्य || है। संसार में रुलनेवाले जीव कभी शुभगति को प्राप्ति नहीं कर सकते । ऐसे इस महाभयानक संसार में धर्मरूपी जहाज में न बैठनेवाले ये दीन जीव निरन्तर डूबते एवं उछलते रहते हैं ।। ६५-६०।। प्रातःकाल में दर्भ-दाभ की अनी पर लगी हुई ओस की बूंद जिस प्रकार चन्चल है, थोड़ी ही देर में विनष्ट हो जानेवाली है, उसी प्रकार यह मनुष्यों का जीवन भी विनाशीक है, जल्द नष्ट हो जानेवाला है, जिस प्रकार विद्युत अत्यन्त चन्चल पदार्थ है, क्षणभर में विनष्ट हो जानेवाला है, उसी प्रकार मनुष्यों की सामर्थ्य शरीर, इन्द्रियों की क्षमता अत्यन्त चन्चल है--देखते-देखते विनष्ट हो जानेवाली है तथा अशुभ-कर्म का कारण होने से यह अशुभ है ।।६।। समय आदि काल के भेदों से प्रतिक्षण मनुष्यों की आयु क्षीण होती रहती है तथा जिस प्रकार छिद्रयुक्त हाथ में रक्खा हुआ जल प्रतिक्षण गिरता रहता है, उसी प्रकार मनुष्यों के यौवन आदि भी प्रतिक्षण विनष्ट होते रहते हैं ।।६। इसलिए जो पुरुष मोक्षाभिलाषी हैं--मोक्ष के अविनाशी सुख का अनुभव करना चाहते हैं, उन्हें जब तक आयु क्षीण नहीं हो जाए, लगातार कार्य करने की सामर्थ्य भी रहे, यौवन अवस्था भी शरीर में जाज्वल्यमान रहे, अपने-अपने विषयों का ज्ञान कराने में इन्द्रियाँ भी Jain Education interational For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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