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प्रेम नहीं कर सकता ।। ८२-८३।।
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जिनके जाल में निरन्तर यह जीव फँसा रहता है, ऐसे ये योग काले भुजंग के समान हैं, क्योंकि जिस प्रकार भुजंग ऊपर अच्छा जान पड़ता पर भीतर से महादुष्ट है, उसी प्रकार ये भोग भी भोगते समय तो मधुर जान पड़ते हैं, परन्तु अन्त में ये महादुःखदायी होते हैं । भुजंग जिस प्रकार महादुष्ट होता है, उसी प्रकार ये भोग भी महादुष्ट हैं । भुजंग भी जिस प्रकार काटते ही शीघ्र प्राणों का नाश करनेवाला है, उसी प्रकार ये भोग भी प्राणों का नाश करनेवाले हैं । भुजंग का संयोग जिस प्रकार महान् कष्टपूर्वक होता है, उसी प्रकार विषय-भोगों की प्राप्ति भी अनेक प्रकार के दुःखों को झेल कर ही होती है । भुजंग का काटना जिस प्रकार अनेक प्रकार के दुःखों का कारण ल्लि होता है, उसी प्रकार ये विषय भोग भी अनन्त दुःखों के कारण हैं । सर्प जिस प्रकार अत्यन्त चन्चल होता है, उसी प्रकार ये भोग भी अत्यन्त चन्चल हैं, क्षणभर में आने-जानेवाले हैं । भुजंग जिस प्रकार किसी को सन्तोष प्रदान नहीं कर सकता, उसी प्रकार ये भोग भी किसी प्रकार का सन्तोष उत्पन्न नहीं कर सकते। जितने-जितने अधिक भोग भोगे जाते हैं, उतनी-उतनी ही अशान्ति बढ़ती चली जाती है । भुजंग जिस प्रकार क्रूर होता है एवं सदा क्रूर कर्मों पु का करनेवाला होता है, उसी प्रकार ये विषय-भोग भी अत्यन्त क्रूर हैं एवं इनको भोगने से सर्वदा महा क्रूर कर्मों का पु आनव होता रहता है । भुजंग जिस प्रकार शरीर के कदर्थन से उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार ये विषय भोग भी शरीर के कुत्सित ं आचरण से पैदा होते हैं । इनके भोगने से शरीर का सर्वनाश होता है; इसलिए ऐसे महा दुःखदायी भोगों का बुद्धिमान कभी सेवन नहीं कर सकता ।। ८४-८५।। यह शरीर रूपी झोपड़ा माता के रज तथा पुरुष के वीर्य से उत्पन्न हुआ है । हड्डी, मज्जा आदि सात धातु स्वरूप है । महा अशुभ है। भूख, प्यास, काम, वृद्धावस्था, क्रोध एवं अनेक प्रकार के रोगों का ज्वालाओं से व्याप्त है तथा विष्टादि महा अपवित्र पदार्थों का घर है, अत्यन्त निन्दनीय है । पीव सरीखी सड़ी इससे दुर्गन्धि छूटती रहती है, यमराज का आश्रम है -- जिस समय यमराज का प्रकोप होता है, तत्काल इसे खाक में मिल जाना होता है एवं क्षणभर में विनाशीक है । ऐसे इस शरीररूपी झोपड़े में विद्वान कभी ठहरने की लालसा नहीं कर सकता तथा न वह शरीर को ही सर्वस्व मान कर इत्र, तेल आदि से उसकी सेवा कर सकता है ।।८६-८७।। यह संसार जिसका न आदि है, न अन्त है, ऐसा विशाल समुद्र है; क्योंकि जिस प्रकार
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