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________________ 444 क्या निश्चय है ? मेरा तो यह निश्चय है कि जिस प्रकार यह बड़ वृक्ष मूल से लेकर शीर्ष पर्यंत विद्युत की तीव्र || ज्वाला से जल कर भस्म हो गया है, उसी प्रकार यमराजरूपी अग्नि से ये समस्त जीव--उनके शरीर भस्मीभूत हो जायेंगे, अर्थात् किसी जीव की पर्याय सदा काल स्थिर नहीं रह सकती ।।७७-७८|| जिस राज्य को पाकर लोग मद में मत्त हो जाते हैं, वह राज्य धूल के समान है, महा निन्द्य है, दुःख तथा चिन्ता आदि का समुद्र है । इसके निमित्त से अनेक प्रकार के आरम्भ करने पड़ते हैं एवं उनसे जायमान पापों की उत्पत्ति होती है तथा सदा इसके लिए निन्दित ध्यान ही बना रहता है; इसलिए ऐसे निन्दित राज्य का कोई बुद्धिमान पालन नहीं कर सकता ||७६।। लक्ष्मी का || घमण्ड लोगों को पागल कर देता है, सो यह लक्ष्मी छाया के समान चन्चल है। अर्थात् जिस प्रकार वृक्ष की छाया कभी पश्चिम की ओर तो कभी पूर्व की ओर हो जाती है, उसी प्रकार यह लक्ष्मी आज किसी की है, तो कल किसी की है तथा यह समस्त चिन्ताओं को उत्पन्न करनेवाली है, अर्थात् लक्ष्मी के सम्बन्ध से ही अनेक प्रकार की चिन्ता लगी रहती है, निर्धन को विशेष चिन्ता नहीं व्यापती तथा यह लक्ष्मी महा दुष्ट है एवं रागद्वेष, अहंकार, तथा उन्माद सबको उत्पन्न करनेवाली है; इसलिए जो पुरुष सज्जन हैं, वास्तविक रूप से हित-अहित के जानकार हैं, उन्हें यह लक्ष्मी कभी भी रन्जायमान नहीं कर सकती ।।८।। मोह के तीव्र जाल में जकड़ कर लोग भ्राता, पिता, पुत्र, स्त्री आदि बाँधवों को अपना मानते हैं; परन्तु वे बाँधव सर्वथा बन्धन स्वरूप ही हैं; क्योंकि स्त्री तो बेड़ी के समान है, | अर्थात् जिस पुरुष के पैर में बेड़ी पड़ी हुई है, वह पुरुष जिस प्रकार कहीं नहीं जा सकता एवं जाता है, वहाँ बेड़ी। सहित ही जाता है, उसी प्रकार जिस परुष की स्त्री मौजद है, वह परुष भी कहीं नहीं जा सकता तथा जहाँ जाता है, वहाँ स्त्री को भी साथ ही रखना पड़ता है, इसलिए दीक्षा आदि शुभ कर्मों में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती तथा गले में जिस प्रकार श्रृंखला (तोक) पड़ी रहती है, उसके समान पत्र हैं एवं समस्त कटम्ब पाश के समान है। यह गृहस्थाश्रम कारागार--कैद के समान है, घोर कष्टदायी है। नाना प्रकार की चिन्तायें एवं उनसे जायमान दुःख शोक ||२५ आदि से व्याप्त है, समस्त पापों का स्थान है। वास्तविक धर्म को जड़ से उखाड़ कर फेंक देनेवाला है एवं काम, कध, तीव्र मोह, रागद्वेष आदि का समुद्र है । साथ ही अनंत भवों का प्रदान करनेवाला है, अर्थात गृहस्थाश्रम का सम्बन्ध रहना अनन्तकाल पर्यंत मोक्ष सुख में बाधक है; इसलिए ऐसे महादुःखदायी पापी गृहस्थाश्रम से कोई बुद्धिमान Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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