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________________ विमान में महान ऋद्धि के धारक अहमिन्द्र देव हुए, फिर वहाँ से चय कर मोक्षरूपी लक्ष्मी के भर्त्ता : हुए; वे श्रीमल्लिनाथ भगवान सदा तुम्हारा कल्याण करें ।। १५६ ।। बाल्य अवस्था में ही जिन श्रीमल्लिनाथ भगवान ने उत्तम तपरूपी तीक्ष्ण खड्ग से मोह आदि समस्त कर्मों का सर्वथा नाश कर अनन्त सुख प्रदान करनेवाली मोक्षरूपी लक्ष्मी को प्राप्त किया, उन श्री मल्लिनाथ भगवान का इस श्री मल्लिनाथपुराण में जो मैंने स्तवन एवं विनय किया है, वह उनकी विभूति की प्राप्ति की अभिलाषा से किया है । अब प्रार्थना यही है कि वे भगवान शीघ्र ही मुझे अपने समस्त गुणों को प्रदान करें एवं उन गुणों के विरोधी जितने भी कर्म हैं, वे मेरे सर्वथा क्षीण हो जायें ।। १५७ ।। ग्रन्थकार श्री सकलकीर्ति ल्लि भट्टारक अन्त में मंगल की कामना करते कहते हैं-हुए श्री म ना थ ‘तीन लोक द्वारा पूज्य, समस्त तीर्थंकर शरीर के सम्बन्ध से रहित अशरीरी सिद्ध, दूसरों के प्रयोजन सिद्ध करनेवाले परम विद्वान आचार्य, शास्त्रों के अर्थ निरूपण करने में चतुर तथा उत्कृष्ट उपाध्याय एवं धीर-वीर, पूर्ण ध्यान के धरनेवाले, घोर तपों के तपनेवाले तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्नशील साधुगण जिनकी कि समस्त लोक स्तुति तथा विनय करता है एवं मैंने भी इस ग्रन्थ में जिनकी स्तुति तथा विनय की है, वे तुम्हारे मंगल के कर्त्ता हों, तुम्हें सर्व प्रकार से मंगल प्रदान करें ।। १५८ ।। समस्त प्रकार के रागभावों से रहित, धर्म का स्वरूप एवं संवेग भावना से परिपूर्ण अनुपम तथा उत्कृष्ट जो श्री मल्लिनाथ भगवान का चरित्र मुझ श्रीसकलकीर्ति भट्टारक के मुख से इस पृथ्वी पर प्रगट हुआ है, वह जब तक संसार में श्रेष्ठ - धर्म (जैन-धर्म) की सत्ता विद्यमान रहे, तब तक भव्य जीवों के साथ जयवन्त रहे ।। १५६ ।। पु रा ण श्री म ल्लि ना थ Jain Education International पु रा ण इस संसार में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र स्वरूप जो 'रत्नत्रय' है - वह स्वर्ग एवं मोक्ष का प्रधान कारण है, समस्त पापों का सर्वथा नाश करनेवाला है, धर्मरूपी अमृत का एक अद्वितीय समुद्र है, संसार के समस्त अनर्थों का निवारण करनेवाला है, समस्त सुख की निधि है, भव्य लोगों के लिए मस्तक पर धारण करने के लिए १०२ एक अद्वितीय चूड़ामणि है, अनन्त गुणों का आकर हैं तथा समस्त कर्मों का नाश करनेवाला है, वह रत्नत्रय मुझे भी प्राप्त हो एवं उसके फलस्वरूप सारे गुण मेरे अन्दर आकर प्रगट हों, इस अभिलाषा से मैं उस रत्नत्रय को रात-दिन मस्तक झुका कर नमस्कार करता हूँ ।। १६० ।। इस पुराण के अन्दर जो रत्नत्रय व्रत की विधि बतलाई गई For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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