SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उस समय की शोभा अपरिमित थी ।।२६-३१।। भगवान श्री मल्लिनाथ की उस समय की अलौकिक शोभा देखकर सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र को तृप्ति नहीं हो सकी; इसलिए उनके महामनोज्ञ रूप को देखने की उत्कट लालसा से उसी समय उसने हजार नेत्र बना लिए एवं हजार नेत्रों से उनका स्वरूप निरखने लगा ।।३२।। भगवान के उस समय के अनुपम रूप को सुर-असुर एवं उनकी देवियाँ अपने पलक-रहित दिव्य नेत्रों से टकटकी लगा कर देखने लगे एवं | उनके उस प्रकार के अलौकिक रूप को देख कर अत्यन्त आश्चर्य करने लगे ।।३३।। तथा तीर्थंकर भगवान श्रीमल्लिनाथ का माहात्म्य प्रगट कर उनके गुणों की प्राप्ति की अभिलाषा से इन्द्रगण अत्यन्त सन्तोष के साथ उनकी || इस प्रकार स्तुति करने लगे-- जिस प्रकार बाल चन्द्रमा के उदय से लोगों को आनन्द होता है एवं समुद्र वृद्धि को प्राप्त होता है, उसी प्रकार हे भगवन् ! हम लोगों को परमानन्द प्रदान करने के लिए एवं धर्मरूपी विशाल समुद्र की वृद्धि हेतु बाल चन्द्रमा के समान आपका उदय हुआ है ।।३४-३५।। रतौंध आदि के द्वारा अन्ध कूप में पड़ा हुआ प्राणी थोड़ा-सा सहारा पाकर | ही ऊपर आ जाता है । हे देव ! मोह से मूढ़ ये प्राणी संसार के अन्दर मिथ्याज्ञानरूपी अंधेरे कुँए में पड़े हुए हैं। इस समय इन्हें उस कुँए से निकालने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है । हे करुणासागर भगवान ! आप ही दया से | गद्गद् हो अपने हाथ का सहारा दे उन्हें निकालेंगे एवं उनका उद्धार करेंगे ।।३६।। हे नाथ ! आप समस्त जगत् के भर्ता--पोषण करनेवाले हो । अचिंत्य एवं अनुपम शक्ति के धारक आप ही हो । हे देव मोक्षरूपी कन्या आपको अपना वर बनाने की इच्छा रखती है। हे तीन लोक के नाथ ! आप ही धर्मस्वरूप हो एवं आप ही धर्म-तीर्थ की प्रवृत्ति के करनेवाले हो ।।३७।। हे भगवान ! स्नान नहीं किए जाने पर भी आप पवित्र शरीर के धारक हो एवं सज्जनों को पवित्र करनेवले हो । हे नाथ ! आप ही समस्त लोक के अलौकिक भूषण हो एवं जिस पर कभी भी आवरण नहीं आ सकता, आप ही ऐसे दैदीप्यमान सूर्य हो ॥३८।। हे प्रभो ! संसार में तीनों लोक के नाथ आप ही हैं। समस्त जीवों के हित एवं कल्याण के कर्ता भी आप ही हैं; क्योंकि हे भगवन् ! बालक अवस्था में ही समस्त मोक्षाभिलाषी जीवों के मोहरूपी पाश को नष्ट करनेवाले आप ही होंगे ।।३६।। हे समस्त गुणों के समुद्र भगवान ! सम्यग्दर्शन आदि जितने भी संसार के अन्दर अनुपम एवं प्रशस्त गुण हैं, आपकी कृपा से ही वे वृद्धि को प्राप्त Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy