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________________ श्री म ल्लि ना ध्यान के द्वारा जो स्वयं अपना आचरण करना है, वह परमाश्चर्यकारी निश्चय चारित्र माना गया है ।। १०७ - १०८ ।। ग्रन्थकार रत्नत्रय की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि जिस रत्नत्रय का ऊपर वर्णन किया गया है, वह रत्नत्रय बाह्य क्रियाओं की चिन्ता आदि से रहित है, अर्थात् जबतक चित्त में बाह्य क्रियाओं की चिन्ता का समावेश रहेगा, तबतक कभी भी रत्नत्रय का पालन नहीं हो सकता । समस्त प्रकार के राग आदि भावों से रहित है एवं जिस भव में रत्नत्रय की प्राप्ति हुई, उसी भव में वह मोक्ष प्रदान करनेवाला है ।। १०६ ।। यह निश्चय रत्नत्रय अनन्त कल्याण का प्रदान करनेवाला है । ध्यान के द्वारा जाना जाता है, महान् अमूल्य है तथा वीतरागी मुनियों के ही होता है, रागियों के कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता ।। ११० ।। जिस प्रकार सूर्य के उदय से प्रगाढ़ अन्धकार भी क्षणभर में तितर-बितर होकर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार इस संसार में रत्नत्रय का आराधन करने से योगियों के ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय तथा अन्तराय नामक चार घातिया कर्म भी क्षणमात्र में नष्ट हो जाते हैं || 999 ।। जो महानुभाव उत्कृष्ट आत्मा परमात्मा का ध्यान धरते हैं, उन सबको यह पवित्र रत्नत्रय प्राप्त होता है, इसलिये जो पुरुष इस परम हितकारी रत्नत्रय के वाँछक हैं, उन्हें चाहिये कि वे अवश्य चैतन्यस्वरूप परमात्मा का ध्यान करें, क्योंकि जिस प्रकार अग्नि की तीव्र ज्वाला से अपार काष्ठ भी देखते-देखते राख हो जाता है, उसी प्रकार ध्यानरूपी अग्नि से अनन्त कर्मपिण्ड भी देखते-देखते भस्म हो जाते हैं। इसलिए हे राजन् ! तुम्हारे लिए यह उपदेश है कि तुम मोहरूपी महायोद्धा को नष्ट कर चैतन्य स्वरूप आत्मा के ध्यान के साथ व्यवहार तथा निश्चय के भेद से जो दो प्रकार का रत्नत्रय ऊपर बतलाया है, उसका अवश्य सेवन करो, बिना उसका सेवन किए कभी भी संसार से उद्धार नहीं हो सकता ।।११३ - ११४।। थ पु रा ण श्री. म ल ना थ Jain Education International पु रा ण १५ इस प्रकार परिच्छेद के अन्त में ग्रन्थकार प्रेरणा करते हैं कि हे आर्यों ! मोक्षाभिलाषी सज्जनों ! तुम्हें अवश्य प्रयत्नपूर्वक रत्नत्रय का आराधन करना चाहिए ; क्योंकि यह रत्नत्रय निरूपम पदार्थ है, कोई भी पदार्थ संसार में इसकी तुलना नहीं कर सकता । धर्मरूपी मनोहर उद्यान का उत्पादक कारण है; क्योंकि रत्नत्रय के सेवन से ही धर्मरूपी आश्रय फलता-फूलता है । जिस प्रकार का अन्धकार मेटनेवाला सूर्य है, उसी प्रकार यह रत्नत्रय भी पापरूपी अन्धकार के नाश करने के लिए सूर्य समान है । दावानल को जिस प्रकार मेघ शान्त कर देता है, उसी प्रकार यह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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