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________________ FE Fb की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि यह रत्नत्रय ही आत्मा या शास्त्र का सर्वस्व है, अर्थात् आत्मा का सारभाग रत्नत्रय ही है; क्योंकि कर्मरहित अवस्था में स्व-स्वरूप में लीन होती हुई आत्मा रत्नत्रय के अन्दर ही आकर लीन होती है तथा शास्त्र का सारभाग ही रत्नत्रय है; क्योंकि जिस शास्त्र में रत्नत्रय का वर्णन है, वही शास्त्र सु-शास्त्र है; किन्तु जिसमें रत्नत्रय का वर्णन नहीं वह शास्त्र नहीं, कु-शास्त्र है तथा यही रत्नत्रय सिद्धान्त का प्राण है, क्योंकि सिद्धान्त का अर्थ शास्त्र का निचोड़ भाग है, जो निचोड़ भाग रत्नत्रय स्वरूप न हो, वह सिद्धान्त नहीं हो सकता तथा यह रत्नत्रय ही मोक्षरूपी वृक्ष का उत्पन्न करनेवाला बीज है एवं मोक्षस्थान में ले जानेवाला रत्नत्रय ही उत्तम मार्ग है।' इस प्रकार व्यवहार रत्नत्रय का संक्षेप से स्वरूप वर्णन कर राजा वैश्रवण से मुनिराज सुगुप्त ने कहा--'हे राजन! ऊपर कही गई रीति के अनुसार व्यवहार रत्नत्रय का स्वरूप अच्छी तरह समझ कर तुम्हें परम धर्म की सिद्धि के लिए अवश्य इस रत्नत्रय को धारण करना चाहिए, क्योंकि यह व्यवहार रत्नत्रय ही संसार में सार पदार्थ है तथा इस व्यवहार रत्नत्रय की पूर्णता के बाद निश्चय रत्नत्रय धारण करना चाहिए । अब हे नरनाथ ! मैं निश्चय रत्नत्रय का भी स्वरूप वर्णन करता हूँ, तुम ध्यानपूर्वक सुनो--क्योंकि सम्यग्दर्शन आदि निश्चय रत्नत्रय साक्षात् मोक्ष का कारण है, समस्त कर्म आदि को मूल से उखाड़ कर नष्ट करनेवाला है एवं परम उत्तम है ।। १००-१०२।। ____ अपनी यह आत्मा ही तीन लोक की नाथ है, अनन्त अविनाशी गुणों की समुद्र है । ध्यान मार्ग से उसका स्वरूप जाना जाता है एवं जिस प्रकार समस्त कर्मों से रहित सिद्धों का स्वरूप शुद्ध है, उसी प्रकार हमारी आत्मा भी शुद्ध है। इस प्रकार अपने अन्तरंग परमात्मा में जो श्रद्धान होता है, वह निश्चय सम्यग्दर्शन है। यह निश्चय सम्यग्दर्शन परम उत्कृष्ट है एवं मोक्षलक्ष्मी का संगम करानेवाला है ।।१०३-१०४।। परमात्मा (उत्कृष्ट आत्मा) ज्ञानस्वरूप है तथा वह लोक एवं अलोक के समस्त पदार्थों का प्रकाश करनेवाला है, इस उत्कृष्ट आत्मा को छोड़ कर ज्ञान कोई पदार्थ नहीं; किन्तु वह उत्कृष्ट आत्मा ही ज्ञान है, ऐसा विचार कर जो स्व-संवेदन स्वरूप आत्मा का ज्ञान करता है, वही | ||१४ निश्चय सम्यग्ज्ञान है एवं यह निश्चय सम्यग्ज्ञान केवलज्ञान को प्राप्त करानेवाला है ।।१०५-१०६।। यह निजात्मा सम्यक्चारित्र स्वरूप है। हलन-चलन आदि क्रिया से रहित होने के कारण स्वभाव से ही निष्क्रिय है। कर्मजनित कालिमा से रहित होने से निरंजन है एवं कर्मों के आवागमन से रहित है। ऐसा वास्तविक रूप से जान कर अन्तरंग Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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