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________________ गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान निर्वाणरूप पाँचों कल्याणकों का समारोह होता था, उस समय वह पुण्यात्मा अहमिन्द्र भी धर्म की प्राप्ति की अभिलाषा से तीर्थंकरों को भक्तिपूर्वक नमस्कार करता था एवं अपने चित्त के अन्दर उनके गुणों के प्रति बड़ी विनय करता था ।। ५५ ।। जिस समय उसे अवधिज्ञान के बल से सामान्य मुनियों के ज्ञान - कल्याणक का भी लगता था, उस समय उन्हें भी वह शक्ति के भार से नम्रीभूत होकर सदा मस्तक झुका कर नमस्कार करता था ।।५६।। इस प्रकार अनेक प्रकार से धर्म की आराधना करता हुआ वह महान् ऋद्धि का धारी अहमिन्द्र कल्याण के समुद्र स्वरूप उस अहमिन्द्र पद के सुख में सदा निमग्न रहता था एवं उस समय उसे किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी--वह वहाँ निश्चित होकर सुख से अपना काल व्यतीत करता था ।। ५७ ।। श्री म ल्लि रा ण अनेक महापुरुषों के स्थान - स्वरूप इसी भरत क्षेत्र में अत्यन्त मनोहर एक बंग (बंगाल) देश है, जो कि पृथ्वी पर अत्यन्त विख्यात है, धर्म का परम स्थान है एवं धन-धान्य आदि से समृद्ध होने के कारण अत्यन्त महान् है।। ५८ ।। उस समय उस देश के पत्तन, खेट, पुर एवं ग्राम आदि में धर्मात्मा लोग निवास करते थे । जगह-जगह पर भगवान श्री जिनेन्द्र के मन्दिर जगमगाते थे; इसलिये यह प्रदेश उस समय धर्म की खानि सरीखा जान पड़ता पुथा । इस बंग देश के स्वभावसिद्ध वन मुनियों के आचार सरीखे जान पड़ते थे; क्योंकि जिस प्रकार मुनियों के आचार मनोहर आनन्द को प्रदान करनेवाले होते हैं, उसी प्रकार ये वन भी अत्यन्त मनोहर थे । जिस प्रकार मुनियों के रा आचार फल विशिष्ट होते हैं, स्वर्ग-मोक्ष आदि फलों के प्रदान करनेवाले होते हैं, उसी प्रकार वे वन भी फल विशिष्ट थे--नारंगी, सन्तरा, अनार, अंगूर आदि उत्तमोत्तम फलों से सदा लदे रहते थे एवं जिस प्रकार मुनियों के आचार तुंग (उच्च) होते हैं, उसी प्रकार वे वन भी बड़े ऊँचे-ऊँचे एवं विशाल थे ।। ६० ।। उस बंग देश की वापियाँ भी मुनिराज के चित्तों के समान पवित्र थीं; क्योंकि जिस प्रकार मुनियों के चित्त तृष्णा एवं उससे जायमान क्लेश से रहित हैं, उसी प्रकार वे वापियाँ भी तृष्णा एवं उससे जायमान क्लेश से रहित थीं, अर्थात् उन्हें देखते ही लोगों की तृष्णा एवं उससे जायमान क्लेश दूर भाग जाता था । जिस प्रकार मुनियों के चित्त परम शीतल एवं निज स्वरूप में लीन रहते हैं, उसी प्रकार वे वापियाँ परम शीतल एवं अपने परिमित स्वरूप में विराजमान थीं ।। ६१ । । संसार में वास्तविक धर्म की प्रवृत्ति हो, इस अभिलाषा से मोक्षाभिलाषी भव्यों पर उपकार वृद्धि से प्रेरित हो सदा वहाँ अपने संघ के साथ For Private & Personal Use Only श्री म लि ना थ Jain Education International ना 5555 थ पु ण ३६ www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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