SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शि भोगनेवाले हैं ।।४४।। पुण्य से जायमान संसार में जो भी उत्कृष्ट सुख माना गया है, वह समस्त शान्ति स्वरूप एवं अन्तरंग से जायमान सुख अहमिन्द्रों में वर्तमान है ।।४५।। मुनिराज वैश्रवण के जीव अहमिन्द्र का शरीर साक्षात् तेज का पुन्ज ही हो, ऐसा था । स्वभाव से ही सुन्दर था एवं सब प्रकार की माला, उत्तमोत्तम भूषणों एवं वस्त्रों से अत्यन्त सुशोभित था एवं वह एक हाथ ऊँचा था, महामनोहर था । अपनी अनुपम कान्ति से समस्त दिशाओं को जगमगा देनेवाला था, पुण्य की साक्षात् मूर्ति के समान अत्यन्त सुभग था एवं विक्रिया से रहित था ।।४६-४७।। उस अहमिन्द्र म | की आयु तैंतीस सागर की थी। सदा वह शुभ ध्यान में लीन रहता था एवं उसके नेत्र स्पन्दन क्रिया से रहित निर्निमेष थे; इसलिए वह ऐसा जान पड़ता था, मानो ध्यान क्रिया में तल्लीन कोई साक्षात् मुनि है.।।४८।। जिस समय तीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाते थे, उस समय वह मन से संकल्पित दिव्य आहार ग्रहण करता था, जो कि अत्यन्त सुख | प्रदान करनेवाला होता था ।।४६।। वह पुण्यात्मा अहमिन्द्र जब तैंतीस पक्ष बीत जाते थे, तब थोड़ा-सा उच्छ्वास लेता था एवं वह इतना उत्कट सुगन्धित होता था कि उसकी सुगन्धि से समस्त दिशाएँ भी महक जाती थीं--समस्त दिशाओं में सुगन्ध ही सुगन्ध फैल जाती थी ।।५०।। तीनसौ तैंतालीस योजन घनाकार लोक नाड़ी के अन्दर जितने स्थावर जंगम मूर्तिक पदार्थ भरे हुए हैं, उनके अन्दर का ऐसा कोई भी मूर्तिक पदार्थ बाकी नहीं बचा था, जिसे वह महाप्रतापी अहमिन्द्र अपने दिव्य अवधिज्ञान रूप नेत्र से सम्पूर्ण प्रकार से भलीभाँति नहीं जानता हो ।।५।। उस अहमिन्द्र के अवधिज्ञान का विषय लोकनाड़ी बतलाया गया है। इसलिए जितना क्षेत्र उसके अवधिज्ञान का विषय है, उतने क्षेत्र तक वह अपनी विक्रिया ऋद्धि के बल से गगन-आगमन आदि समस्त क्रियाओं को करने में समर्थ था, तथापि वह स्वभाव से ही स्थिर चित्त का धारक था, समस्त कार्य आदि से रहित था, उसे कोई भी कार्य करना नहीं था; इसलिए कभी भी विक्रिया शक्ति को वह काम में नहीं लाता था एवं कहीं भी जाने-आने की उसकी इच्छा नहीं होती थी; इसलिए वह कहीं पर भी जाना-आना नहीं करता था, अपने निजी स्थान में ही अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं को करता हुआ ||३५ आनन्द से रहता था ।।५२-५३।। अपने स्थान पर रह कर केवल क्रीड़ा-कौतूहलों में ही वह दिन नहीं बिताता था; किन्तु अपने अवधिज्ञान के बल से कृत्रिम, अकृत्रिम चैत्यालयों को सम्पूर्ण प्रकार से जान कर उनमें विराजमान भगवान श्री जिनेन्द्र के प्रतिबिम्बों को सदा भक्तिपूर्वक नमस्कार करता था ।।५४।। जिस समय तीर्थंकरों के FF Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy