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________________ नि ऋद्धियों से व्याप्त उत्कृष्ट तथा संख्यात योजन चौड़े अपने विमान में स्थित, उत्तमोत्तम वन तथा उपवन आदि में, पर्वतों में तथा ऊँचे-ऊँचे महलों में अहमिन्द्रों के साथ मनमानी आनन्द क्रीड़ा करता था, कभी-कभी बिना बुलाये स्वयं आये हुए अन्य अहमिन्द्रों के साथ महान 'जैन-धर्म' पर विचार करने गोष्ठी आयोजित करता था १३६-३८।। स्वभाव से ही सुन्दर अतएव मनोहर उस विमान में जितना उन अहमिन्द्रों का घनिष्ठ प्रेम था, उतना पृथ्वी के अन्य किसी स्थान पर उनका प्रेम नहीं था ॥३६।। वहाँ पर 'अहमिन्द्रः, अहमिन्द्रः' अर्थात् 'मैं इन्द्र हूँ, मैं इन्द्र हूँ', मुझसे बढ़कर कोई भी इन्द्र नहीं, सदा ऐसा विचार हृदय में उछलता रहता है-- इसलिए सर्वदा ऐसा मन के अन्दर विचार रखने से वे अपनी उन्नति से उत्पन्न स्वाधीन सुख का भोग करते हैं ।।४०।। समस्त इन्द्रों के भोग तथा उपभोग समान रूप से होते हैं-- रन्चमात्र कमी-बेशी नहीं होती। उनकी दिव्य मूर्ति भी समान होती है--जो एक की मूर्ति होगी, वही दूसरे की होगी, रन्चमात्र भी उसमें भेद नहीं हो सकता। समस्त अहमिन्द्रों का ज्ञान भी समान रहता है । कला, प्रताप, कीर्ति, कल्याण एवं उत्तम गुण भी सबों के समान ही होते हैं । सबों का प्रेम भी समान ही होता है । महान ऋद्धिओं का स्वामीपन भी सबों का एक-सा है। धर्म में तत्परता भी सबों की एक समान है। सदा शुद्ध आशय रखनेवाले उन अहमिन्द्रों के उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या भी समान है तथा समान रूप से चारित्र के पालने से जायमान पुण्य के विपाक के समस्त अहमिन्द्र अत्यन्त सुन्दर होते हैं, इस रूप से समस्त अहमिन्द्र सब बातों में समान हैं; किसी प्रकार की हीनाधिकता नहीं तथा वे समस्त अहमिन्द्र मोक्षगामी हैं, अधिक से अधिक दो बार मनुष्य भव धारण कर वे नियम से मोक्ष चले जाते हैं ।।४१-४३।। स्वर्गों के अन्दर जो सुख देवरूप से इन्द्रों को प्राप्त हैं, उस सुख की अपेक्षा अपराजित विमानवासी अहमिन्द्रों का सुख असंख्यात गुणा अधिक है एवं वह सुख प्रवीचार (मैथुन) की अभिलाषा से रहित है, अर्थात् सोलह स्वर्ग पर्यन्त देवों का सुख तो प्रवीचारजनित है। उनमें सौधर्म एवं ऐशान स्वर्ग निवासी देव मनुष्यों के समान शरीर से मैथुन सेवन करते हैं, आगे के स्वर्गों के देवों में कोई-कोई अपनी देवागनाओं के स्पर्शमात्र से ही तृप्त हो जाते हैं, कोई-कोई रूप देख कर, तो कोई-कोई भूषणों का शब्द सुन कर एवं कोई-को अपनी देवांगनाओं का मन में स्मरण करने से ही तृप्त हो जाते हैं; किन्तु सोलह स्वर्गों के आगे के देवों में प्रवीचार || का कोई सम्बन्ध नहीं. वे प्रवीचार रहित हैं; इसलिए अपराजित विमानवासी देव भी प्रवीचार रहित दिव्य सुख के 464 Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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