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खिरती थी जो कि मेघ की गर्जना के समान गम्भीर थी व मधुर थी एवं समस्त लोक का हित करनेवाली थी तथा अज्ञानरूप अन्धकार का नाश करनेवाली थी एवं समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने में दीपक के समान थी, ४. देवगण भगवान के ऊपर चौंसठ चमर ढोरते थे, ५ . प्रभु का भाँति-भाँति की मणियों से जुड़ा हुआ सुवर्णमय दिव्य सिंहासन था, ६. भगवान के पीछे भामण्डल विद्यमान था जो कि करोड़ सूर्यों की प्रभा से अधिक प्रभा का धारक था, ७. साढ़े बारह करोड़ वाद्यों के साथ - साथ दुन्दुभी ध्वनि होती थी तथा ८. शीश पर तीन छत्र थे, जो कि तीन चन्द्रमा सरीखे जान पड़ते थे एवं मोतियों की मालाओं से शोभायमान थे । इस प्रकार ये आठ प्रातिहार्य श्रीजिनेन्द्र भगवान की अपूर्व शोभा बढ़ा रहे थे ।। १२२ - १२६ ।। भगवान के १. अनन्तज्ञान -- केवलज्ञान २. २. अनन्तदर्शन -- केवलदर्शन ३ . अनन्तवीर्य एवं ४.अनन्तसुख--ये चार अनन्त चतुष्टय शोभायमान थे । इस प्रकार चौंतीस अतिशय, आठ प्रातिहार्य एवं चार अनन्त चतुष्टय--इन कुल छियालीस गुणों के धारक वे श्रीमल्लिनाथ भगवान अत्यन्त शोभायमान जान पड़ते थे । वे श्रीजिनेन्द्र भगवान समस्त भव्य जीवों को सन्तोष उपजाते एवं मेघ के समान अपने दिव्य वचनरूपी अमृत से सबको आनन्दित करते हुए समस्त पृथ्वी पर विहार करने लगे ।। १२७ - १२८ । । जिस प्रकार सूर्य अपनी उग्र किरणों से अन्धकार को नष्ट करता है एवं समस्त जगत् को प्रकाशमान करता है, उसी प्रकार वे श्रीजिनेन्द्ररूपी भगवान सूर्य भी अपने वचनरूपी किरणों से मिथ्या - मोहरूपी अन्धकार का सर्वथा नाश कर संसार में तत्वों के स्वरूप का प्रकाश करने लगे ।। १२६ || श्रीमल्लिनाथ भगवान के विशाख आदि अट्ठाइस गणधर थे, जो कि समस्त प्रकार की ऋद्धियों से शोभायमान थे एवं भगवान के चरणकमलों को प्रणाम करते थे ।। १३०|| श्रीजिनेन्द्र भगवान के साथ में ग्यारह अंग चौदह पूर्व के धारी साढ़े पाँच सौ ( ५५० ) मुनि थे । शिक्षक जाति के मुनि उनतीस हजार थे । जो मुनि अवधिज्ञान के धारक थे, वे बाईस सौ ( २२०० ) प्रमाण थे । जितने प्रमाण ये अवधिज्ञानी थे, उतने ही प्रमाण अर्थात् बाईस सौ ही केवलज्ञानी मुनि थे, जो कि अपने केवलज्ञान से समस्त लोक - आलोक को स्पष्ट रूप से देखते थे । मिथ्यात्व को सर्वथा नष्ट करनेवाले परम सम्यग्दृष्टिवादी मुनि चौदह सौ ( १४०० ) थे । विक्रिया ऋद्धि के धारक उनतीस सौ (२६००) थे । मन:पर्ययज्ञानी मुनि श्रीजिनेन्द्र भगवान के समवशरण में साढ़े सत्रह सौ (१७५०) थे, जो कि श्रीजिनेन्द्र भगवान के परम भक्त थे एवं सूक्ष्मरूप से पदार्थों के देखनेवाले थे । इस प्रकार ये समस्त विद्वान मुनि
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