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मिलकर चालीस हजार (४०००० ) प्रमाण थे। ये मुनिगण मोहांधकार के सर्वथा नाश करनेवाले थे एवं संसार की शोभा
।। १३५ ।।
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श्रीजिनेन्द्र भगवान की सभा में बन्धुषेणा आर्यिका आदि को लेकर पचपन हजार (५५०००) आर्यिकायें थीं, जो कि सम्यग्दृष्टि एवं मूलगुणों को धारण करनेवाली थीं एवं श्री जिनेन्द्र भगवान के चरणकमलों को प्रणाम करनेवाली थीं ।। १३६ ।। एक लाख (१००००० ) श्रावक थे एवं तीन लाख श्राविकायें थीं जो कि सम्यग्दृष्टि थे, श्रावकों के व्रतों के धारक थे एवं श्री जिनेन्द्र भगवान की पूजा तथा भक्ति में सदा तत्पर थे ।। १३७ ।। श्रीमल्लिनाथ भगवान की सभा में देव एवं उनकी देवियाँ असंख्यात थे, असंख्यात पशु थे । ये समस्त सम्यग्दृष्टि एवं श्रावकों के व्रतों से तथा श्रीजिनेन्द्र भगवान के चरणों की पूजा करनेवाले थे ।। १३८ । । इस रूप से वे श्री मल्लिनाथ केवली भगवान ना उपर्युक्त बारह गणों से परिवेष्टित थे; भव्यों को मोक्ष स्थान में ले जानेवाले थे, वास्तविक धर्म का मार्ग प्रकाशन करते ना
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थे । इस प्रकार आर्यखण्ड में रहनेवाले समस्त देश एवं नगर आदि में उन्होंने छत्तीस दिन सौ वर्ष कम पचपन हजार वर्ष पर्यंत विहार किया था । जब आयु के अन्त में केवल एक मास का समय शेष रह गया, उस समय वे श्रीजिनेन्द्र पु भगवान सम्मेदशिखर पहाड़ पर जाकर विराजमान हो गए || १४१। वहाँ पर आकर श्रीजिनेन्द्र भगवान ने अपनी दिव्य-ध्वनि एवं योग को सकुंचित कर दिया, निष्क्रिय हो गए एवं शेष चार अघातिया कर्म अर्थात् वेदनीय, आयु, नाम एवं गोत्र--इन चारों कर्मों को नष्ट करने के लिए 'प्रतिमायोग' धारण कर लिया तथा जबतक आयु का अन्त न हुआ, तबतक उसी स्थान पर पाँच हजार मुनियोंके साथ अपनी आत्मा में 'सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती' नामक तीसरे शुक्लध्यान को धारण कर विराजमान हो गए । । १४२ - १४३ । । वहाँ विराजमान होकर मणिमयी दीपक के समान 'व्युपरतक्रियानिवृत्ति' नामक चौथे शुक्लध्यान से श्री जिनेन्द्र भगवान ने चारों अघातिया कर्मों का सर्वथा नाश कर दिया । ' अयोगकेवली' नाम के चौदहवें गुणस्थान में उन्होंने औदारिक, तैजस एवं कार्माण -- इन तीनों शरीरों का सर्वथा नाश कर दिया एवं १०० जिस प्रकार एरण्ड के बीज का स्वभाव बन्ध के नष्ट हो जाने पर ऊपर को ही जाने का है, उसी प्रकार समस्त कर्मों से रहित आत्मा का भी ऊर्ध्वमान स्वभाव होने से वे ज्ञानमूर्ति श्रीजिनेन्द्र भगवान फागुन सुदी पंचमी के दिन जब कि 'भरणी' नामक शुभ नक्षत्र था, पूर्व रात्रि के समय लोक के अग्रभाग में जाकर विराजमान हो गए ।।१४४-१४६।।
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