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________________ F4LFs_FFF हे स्वामिन् ! हे देव ! आप मोक्षलक्ष्मी प्राप्त करने के लिए सिधारें । कर्मरूपी शत्रुओं के नाश करने में आप समर्थ हों। हे प्रभो ! आपका मार्ग कल्याण का करनेवाला हो। आप जयवन्त हों--नादें, विरदें एवं समस्त प्रकार के कल्याणकों को प्राप्त करनेवाले हों ।।३२।। जिस समय भगवान तप के लिए जा रहे थे, उस समय उन्हें देख कर बहुत-से चतुर पुरुष आपस में अत्यन्त आश्चर्य प्रकट करते हुए कह रहे थे कि देखो ! यह बड़ी ही अचरज की बात है कि महान ऋद्धि के धारी, अद्भुत पराक्रमशाली ये श्रीजिनेन्द्र भगवान बाल्यावस्था में ही नारी आदि लुभानेवाले पदार्थों से ममत्व त्याग कर संयम धारण करने के लिए चले जा रहे हैं ।।३३-३४।। अन्य बहुत से मनुष्य यह कहते थे कि इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है । ये श्रीजिनेन्द्र भगवान कुछ कम समर्थ नहीं हैं, क्योंकि ये नियम ॥ से समस्त घातिया-कर्मों को नष्ट कर तीन लोक के राज्य को अपने वश में करना चाहते हैं एवं नियम से उसे अपने आधीन करेंगे ।।३।। बहुत से चतुर यह विचार प्रदर्शित करते थे कि इस संसार में विरले ही ऐसे पुरुष उत्पन्न होते हैं, जो कुमारावस्था में ही अपनी इन्द्रियों एवं कामदेवरूपी शत्रु को जीतने का पूरा-पूरा सामर्थ्य रखते हैं ।। ३६।। इस प्रकार भिन्न-भिन्न उदगार व्यक्त कर रहे परवासी जनों से प्रशंसित होकर संयमरूपी लक्ष्मी के वर सरीखे जान पड़नेवाले वे श्रीजिनेन्द्र भगवान उन पुरवासी जनों की दृष्टि से अदृश्य हो गए ।।३७।। जिस समय श्रीजिनेन्द्र भगवान दीक्षा के लिए चले गए, तब उनकी माता प्रजावती को बड़ा दुःख हुआ। शोक से विह्ल होकर वह अन्तःपुर की रानियों एवं अपने बन्धु-बाँधवों के साथ श्रीजिनेन्द्र भगवान के पीछे-पीछे चलने लगीं ॥३८।। रानी प्रजावती की दशा उस समय बड़ी करुण थी, दुःख की तीव्रता से उनके दोनों पैर लड़खड़ाते हुए जमीन पर गिरते थे, सिर के बाल बुरी तरह बिखर गए थे, शरीर की सारी कान्ति फीकी पड़ गई थी । 'हाय प्यारे पुत्र ! तू मुझ अभागिनी को छोड़कर क्यों दीक्षा के लिए चल दिया'--इस प्रकार वह बारम्बार रोती थी एवं अपनी छाती कूटती थी ।।३६।। श्रीजिनेन्द्र भगवान के बन्धुगण उनकी वियोगरूपी अग्नि से आपाद-मस्तक दग्ध होकर मूर्छा से || ७२ जमीन पर गिर पड़े एवं उन्हें उस समय इतना अधिक कष्ट हुआ कि उन्हें अपने शरीर की रंचमात्र भी सुध-बुध नहीं थी ।।४०।। उनके वियोग से अत्यन्त दुःखित चित्त बन्धुगण यह कह कर रुदन करते थे कि 'हे स्वामी श्रीजिनेन्द्र भगवान ! आप हमें छोड़ कर कहाँ चले गए। अब हमें कब आपके दर्शन होंगे एवं आपके वियोग से महा दुःखित Jain Education Interational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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