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________________ Fb PF उस नगर में यह बड़े ही आनन्द की बात थी कि बहुत से दानी पुरुष आहार की वेला के समय मुनियों को आहारदान देने के लिए अपने-अपने गृहों के द्वार देखते थे अर्थात् द्वाराप्रेक्षण करते थे एवं कोई-कोई मुनिरूप महापात्र (उत्तम पात्र) को भक्तिपूर्वक उत्तम दान देते थे ।।२१।। किन्हीं-किन्हीं पुण्यात्माओं के गृह में इस दान से अर्जित पुण्य से रत्नों की वर्षा होती थी एवं कोई-कोई पुरुष सत्पात्र को न पाकर दुःखित हो पश्चाताप भी करते थे ।।२२।। इस वीतशोका नगरी में दिव्यरूप के धारक स्त्री-पुरुषों के जोड़े जिस समय में जिन-मन्दिरों में भगवान जिनेन्द्र की पूजा में संलग्न होते थे, उस समय वे देव-देवियों के युगल (जोड़े) सरीखे जान पड़ते थे ।।२३।। धर्म की खान के सदृश उस नगर || की ऊँची-ऊँची एवं सुवर्णमयी जिन-मन्दिरों की श्रेणियाँ अपने मणिमयी तोरणों से, ऊँचे-ऊँचे मणिमयी प्रतिबिम्बों से, दैदीप्यमान रत्नमयी उपकरणों से गीत-नृत्य-वाद्य एवं स्तवनों से स्त्रियों एवं उत्तमोत्तम पुरुषों से अत्यन्त शोभायमान जान पड़ती थीं ।।२४-२५।। विशेष क्या ? धर्म की खान स्वरूप उस नगर में मोक्ष की प्राप्ति के लिए बड़े-बड़े ऋद्धि के धारक इन्द्र भी जन्म धारण करने की अभिलाषा करते थे, इसलिए उस नगर का जितना भी अधिक वर्णन किया जाए--वह थोड़ा है ।।२६।। इस प्रकार उत्तम वर्णन के धारक एवं धर्म के प्रधान कारण उस वीतशोका नगरी में वैश्रवण नाम का एक राजा था जो कि अत्यन्त प्रतापी होने पर भी धर्मात्मा था । कमनीय रूप एवं लावण्य से, महामनोहर वस्त्र एवं भूषणों से एवं दानशीलता एवं व्रतोपासना से वह राजा अत्यन्त शोभायमान था तथा इन्द्र के सदृश परम नीतिवान था। प्रधानरूप से वह प्रजाजन के कल्याण का करनेवाला था । वह सदा न्यायमार्ग का अनुसरण करनेवाला था, महान् था । वह समस्त शत्रुओं का विजेता एवं चतुर था तथा अपने राज्य का सुचारु रूप से पालन करता था। उस वैश्रवण राजा को यह सदा ध्यान रहता था कि धर्म से धन की प्राप्ति होती है। धन से काम पुरुषार्थ सिद्ध होता है एवं क्रम से मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि होती है, ऐसा मानकर वह सदा धर्मध्यान में लीन रहता था। वह शीलवान नरपाल प्रतिदिन दान-पूजा आदि को करता था। वह समस्त अष्टमी एवं चतुर्दशी पर्वो में उपवास रखता था एवं श्रावकों के समस्त व्रतों का अच्छी तरह पालन करता था ।।२७-३१।। पुण्य-कर्म के उदय से राजा वैश्रवण को अत्यन्त सुख देनेवाली राज्यलक्ष्मी प्राप्त थी जो कि पवित्र कामों में उपयुक्त (व्यय) होनेवाली थी, सारभूत थी एवं दासी के सदृश राजा वैश्रवण Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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