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की सदा आज्ञाकारिणी थी ।।३।।
कदाचित् दैदीप्यमान मुकुट से जिनका मस्तक चमचमा रहा था, ऐसे राजा वैश्रवण अपनी राजसभा में राजसिंहासन पर विराजमान थे कि उसी समय पुष्पों को साथ में लेकर अत्यन्त हर्ष से भरा वनपाल वहाँ पर आया एवं इस प्रकार निवेदन करने लगा--||३३।।
'हे देव ! महामनोहर चन्दन वन में मुनिराज सुगुप्त आकर विराजमान हैं । वे मुनिराज साधारण मुनिराज नहीं, श्रा समस्त मुनियों में श्रेष्ठ हैं। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति--इन तीनों गुप्तियों से उनकी आत्मा विभूषित है। म वे अवधिज्ञानरूपी नेत्र के धारक हैं, समस्त परिग्रह के त्यागी हैं, गुणरूप सम्पत्ति के धारक हैं । मोक्ष प्राप्त करनेवाले
भव्यप्राणी समीचीन ज्ञान प्राप्त करें, अर्थात्--संसार में जो पदार्थ सारभूत है उसकी ओर झुके, यही समझाने के लिए ना। वे विशेष रूप से ध्यान एवं अध्ययन में अत्यन्त लीन हैं' ।।३४-३५।। वनपाल के मुख से परमानन्द देनेवाला समाचार | थ|| सुन राजा वैश्रवण की आत्मा मारे आनन्द के गद्गद् हो गई । वह आनन्द से पुलकित हो शीघ्र ही राजसिंहासन से
उठा । जिस पवित्र दिशा की ओर मुनिराज सुगुप्त विराजमान थे, वह सात पैंड़ उस दिशा की ओर गया एवं बड़ी भक्ति के साथ उस दिशा में साष्टांग नमस्कार किया ।।३६।। मुनिराज के दर्शनों की तीव्र उत्कण्ठा से उसने शीघ्र ही || नगर में आनन्द भेरी बजवाई । अपने सर्व कुटुम्बीजनों को इकट्ठा किया एवं धर्मोपदेश श्रवण की अभिलाषा से | मुनिराज सुगुप्त के पूजनार्थ वह तत्काल ही चन्दन वन में पहुँच गया ।।३७।। परम हितकारी मार्ग के उपदेश देनेवाले, समस्त परिग्रह के त्यागी, गुणों के समुद्र एवं पूज्य मुनिराज सुगुप्त एक विशाल शिला पर विराजमान थे। राजा वैश्रवण शीघ्र ही उनके समीप जा पहुँचा, तीन प्रदक्षिणा दीं । अपने परिवार के साथ उत्तमोत्तम सामग्री से मुनिराज के चरण कमलों की भक्ति पूर्वक पूजा की एवं पूजा के अन्त में उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम किया ।।३८-३६।। मुनिराज लौकिक शिष्टाचार के विशेष ज्ञाता थे, इसलिये उन्होंने यह आशीर्वाद दिया-'हे समस्त कल्याण के स्थान राजन् ! मोक्षलक्ष्मी को प्रदान करनेवाली तुम्हारी निरन्तर धर्मवृद्धि हो ।।४०।। राजा वैश्रवण को इस प्रकार अपने लिए धर्मवृद्धि का सूचक मुनिराज का वचन सुन कर यथार्थ धर्म के जानने की इच्छा प्रगट हो गई, इसलिए प्रणाम पूर्वक उसने मुनिराज से यह निवेदन किया ।।४।।
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