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हैं एवं सदा ध्यान में लवलीन हैं ।।१०।। इसी कच्छकावती देश में असंख्यात भगवान जिनेन्द्र उत्पन्न होते हैं । असंख्यात ही चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण एवं कामदेव उत्पन्न होते हैं, जिनका बड़े-बड़े देव पूजा एवं सत्कार करते हैं ।।११।। इस कच्छकावती देश में केवल एक जैन-धर्म ही की प्रवृत्ति रहती है जो सदा दयास्वरूप है, यति एवं श्रावकों की विद्यमानता से जो शाश्वत है--सदाकाल विद्यमान रहता है एवं सारभूत है, किन्तु जैन-धर्म के सिवाय अन्य किसी धर्म की इस देश में प्रवृत्ति नहीं रहती ।।१२।। इस कच्छकावती देश में मोक्षाभिलाषी जीवों को धर्म का उपदेश सुनाने के लिए सदा, मुनिराज, गणधर एवं केवलियों का विहार होता रहता है । कुलिंगी अथवा मिथ्यात्वी । साधुओं का यहाँ पर विहार नहीं होता ।।१३।। इस देश में जहाँ देखो वहाँ ग्राम एवं नगर आदि में ऊँचे-ऊँचे जिन-मन्दिर ही दीख पड़ते हैं, मिथ्यादृष्टि देवों के मन्दिर कहीं भी दिखलाई नहीं पड़ते ।।१४।। इस देश में भगवान जिनेन्द्र के धर्म में सदा लवलीन क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र--तीनों वर्गों की प्रजा निवास करती है, यह प्रजा भगवान जिनेन्द्र एवं गुरुओं में सदा श्रद्धातु है एवं सदा उत्तम आचरण की करनेवाली है ।।१५।। इस देश में जहाँ सुनो वहाँ पर | भगवान जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित बारह अंग एवं चौदह पूर्व ही सत्पुरुषों के द्वारा सुनने में आते एवं पढ़े जाते हैं, मिथ्या शास्त्रों का वहाँ पर सुनना एवं पढ़ना नजर नहीं आता ।।१६।। विशेष क्या ? इस देश में उत्पन्न होनेवाले महानुभाव जप, तप, व्रत एवं दान आदि के द्वारा सुलभरूप से न प्राप्त होनेवाले स्वर्ग एवं मोक्ष को भी प्राप्त कर लेते हैं, तब इससे अधिक उसकी कीर्ति का क्या वर्णन हो सकता है ।। १७।।।
इस प्रकार के उत्तम वर्णन के धारक एवं समीचीन धर्म एवं उत्तमोत्तम कुलों के स्थान उस कच्छकावती देश में एक वीतशोका नाम की नगरी है जो कि अपनी शोभा से देवपुरी--स्वर्ग समान जान पड़ती है ।।१८।। विस्तीर्ण खाईयाँ, मनोहर ऊँचे-ऊँचे परकोट, सदर दरवाजे एवं तोरणों (वन्दनमालाओं) से वह नगर अत्यन्त शोभित होता है, सो ऐसा जान पड़ता है मानो वेदी एवं समुद्र से वेष्टित यह जम्बूद्वीप ही है ।।१६।। उत्तमोत्तम धनिकों को अटारियों के अग्रभाग में लगी हुई एवं पवन के झकोरों से दोलायमान जो ध्वजायें हैं, (उनसे ऐसा जान पड़ता था) मानो वे ही उठे हुए हाथ उस नगर की भूमि देवों को यह जतला कर बुला रही है कि भाई देवों ! यदि तुम्हें अपने निजस्थान स्वर्ग से मोक्ष की प्राप्त नहीं होती है तो तुम यहाँ से उसे प्राप्त करो। अतएव वह नगर अत्यन्त शोभायमान जान पड़ता था ।।२०।।
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