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________________ शि तीनलोक के स्वामी भगवान मल्लिनाथ को मैं ग्रन्थकार (श्री सकलकीर्ति भट्टारक) सदा मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ ।। १।। भगवान मल्लिनाथ से पूर्व जो ऋषभ आदि तीर्थंकर हैं, उन्हें भी मैं ग्रन्थ के आदि में मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि वे समस्त तीर्थंकर भी भगवान मल्लिनाथ के ही सदृश धर्मचक्र के प्रवर्तक हैं । मोक्षाभिलाषी | समस्त जीवों को हितकारी मार्ग (मोक्षमार्ग) में लगानेवाले हैं एवं गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान एवं निर्वाण--इन पाँचों कल्याणकों के नायक हैं ।।२।। ज्ञानावरण-दर्शनावरण आदि घातिया-अघातिया कर्मों के नाश से प्राप्त सम्यक्त्व आदि | आठों गुणों के स्वामी, तीन लोक के अग्रभाग में विराजने वाले एवं मोक्षाभिलाषी भव्य जीव सदा जिनकी आनन्दमयी | मूर्ति का ध्यान करते हैं, उन सिद्ध भगवान का मैं भी अपने हृदय में स्मरण करता हूँ ।।३।। लोक एवं अलोक को स्पष्ट रूप से प्रकाशित करनेवाली एवं अरहन्त भगवान की दिव्य-ध्वनि से प्रकाशवान भगवती सरस्वती की भी मैं ग्रन्थ की आदि में अभिवन्दना करता हूँ तथा उनसे विनयपूर्वक यह प्रार्थना करता हूँ कि वह विघ्नों का नाश करने में मेरी बुद्धि को सदा प्रबल तथा निर्मल बनावें ।।४।। ग्रन्थ की आदि में आचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधुओं को भी मेरा || मस्तक झुकाकर नमस्कार है; क्योंकि ये पवित्रात्मा, ज्ञानाचार आदि आचारों के आचरण करनेवाले हैं-आगम के समुद्र हैं तथा ध्यान के धारण में प्रवीण हैं ।।५।। समस्त कर्मों का नाश करनेवाले तथा अनेक प्रकार के कल्याणकों के समुद्र उस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र स्वरूप रत्नत्रय को भी मैं प्रणाम करता हूँ तथा हृदय में यह तीव्र अभिलाषा रखता हूँ कि वह कल्याणकारी रत्नत्रय मुझे भी प्राप्त हो ।।६।। इस प्रकार कल्याण के कर्ता समस्त इष्ट देवों को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर मैं उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ के चरित्र का संक्षेप में वर्णन करता हूँ जो कि अत्यन्त पवित्र है तथा अपना एवं पराया हित सिद्ध करनेवाला है ।।७।। इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में धर्म का समुद्र अर्थात् जहाँ पर सदा वास्तविक धर्म की प्रवृत्ति रहती है, ऐसा कच्छकावती नाम का प्रसिद्ध देश है ।।८।। इस कच्छकावती देश के गाँव, खेट, पत्तन, पुर, मटम्ब आदि में || २ जगह-जगह जिन-मन्दिर शोभायमान हैं एवं मोक्षाभिलाषी धर्मात्मा लोगों के निवास स्थान बने हुए हैं--उनसे यह देश अत्यन्त मनोहर जान पड़ता है।।६।। इसी कच्छकावती देश के महामनोहर, अविनाशी, ऊँचे एवं नाना प्रकार के फलों से शोभायमान उद्यानों एवं वनों में जगह-जगह मुनिराज दीख पड़ते हैं जो कि घोर परीषहों के सहने में परम धीर-वीर 44444 ॐ ॐ 944 Jain Education international For Privale & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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