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________________ | के दिन पूजा आदि आवश्यक कर्मों के समाप्त हो जाने पर एक बार भोजन करें एवं फिर मन्दिर में ही जाकर दिन | का एवं रात्रि का समस्त समय स्वाध्याय आदि में लगावें, प्रतिपदा के दिन घर आयें तथा जो भी विधि ऊपर कही गई है, उसे करें । यहाँ पर यह शंका नहीं करनी चाहिए कि व्रत की जो पूरी विधि बतलाई है, उसी से अभीष्ट फल की सिद्धि हो सकती है तथा न्यूनता होने से वह फल प्राप्त नहीं हो सकता; क्योंकि शक्ति के अनुसार किए जानेवाले दान तथा तप भी संसार में अनेक अभीष्ट फलों के प्रदान करने में कारण माने गए हैं-उनसे भी संसार में अनेक प्रकार के अभीष्ट तथा उत्तमोत्तम फलों की प्राप्ति होती है ।।४२-४३।। जिस रत्नत्रय व्रत का ऊपर खुलासा रूप से वर्णन किया गया है, वह व्रत श्रावक, श्राविका, मुनि तथा आर्यिका सबों को पालन करना चाहिए; क्योंकि वह पवित्र | व्रत पापों का सर्वथा नाश करनेवाला है एवं नाना प्रकार के सुखों की इससे प्राप्ति होती है ।।४४।। यह परमोत्तम रत्नत्रय व्रत तीन वर्ष पर्यंत बराबर पालना चाहिए, जिस समय तीन वर्ष समाप्त हो जाए तथा व्रत भी पूरा हो जाए, उस समय जिसकी जैसी शक्ति हो भक्तिपूर्वक उद्यापन करना चाहिए ।।४५।। उद्यापन की विधि इस प्रकार है--खूब ऊँचे-ऊँचे विशाल तथा रत्नों की दीप्ति से दैदीप्यामान जिन चैत्यालय बनावे तथा उनमें अरहनाथ, मल्लिनाथ आदि की प्रतिमाओं की ठाट-बाट से प्रतिष्ठा कर उन्हें उन चैत्यालय में विराजमान करें। तत्पश्चात् श्रावक श्राविका एवं || मुनि तथा आर्यिका-इस चार प्रकार के संघ को साथ लेकर जिन-मन्दिरों में सबों को अभिभूत करनेवाला महा | अभिषेक करावे तथा बड़े समारोह के साथ महा पूजा आदि का उत्सव करना प्रारम्भ करे । घण्टा, चमर, चाँदनी, झाड़ी तथा आरती आदि जितने भी धर्म के अनेक प्रकार के उपकरण हैं, उनमें हर एक को तीन-तीन कर दे ।।४६-४८।। पक्व अन्न, लाडू, घेवर, फेनी आदि जो भी पूजा के द्रव्य हैं, अपनी शक्ति के अनुसार भक्तिपूर्वक उन्हें प्रदान करे तथा महामनोहर नारियल, केला आदि के उत्तमोत्तम फलों को दे ।।४६।। इस प्रकार पक्व अन्न तथा नारियल के फल आदि पूजा के कारणों को तथा घण्टा, चमर, चाँदनी आदि शोभा के कारणों को जिन-मन्दिर में प्रदान ||२१ कर उत्तमोत्तम वाद्य, गीत तथा नृत्य आदि के विपुल आयोजन से जिन-मन्दिर में महान् उत्सव भी करे ।।५०।। जो महानुभाव रत्नत्रय व्रत से विभूषित हैं, उन्हें अपनी शक्ति के अनुसार यथायोग्य धर्म के प्रधान कारण ग्रन्थ भी आचार्यों को भक्तिपूर्वक भेंट करने चाहिए । श्रावक, श्राविका तथा मुनि, आर्यिका के भेद से जो ऊपर चार प्रकार का संघ Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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