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पारणा करे । उसके बाद शुद्ध रत्नत्रय की तीव्र भक्ति तथा प्रेम से जिसकी आत्मा गद्गद् है, ऐसा वह रत्नत्रय का व्रत का आचरण करनेवाला व्रती पारणा के दिन के अवशिष्ट समय को तथा समस्त रात्रि का जिन-मन्दिर में ही जाकर व्यतीत करे ।।३४-३५।। इस प्रकार हे राजन् ! तुम्हारे सामने यह रत्नत्रय की पूजा का विधान विस्तार से कहा है। तम्हारे से भिन्न दसरे परुष के लिए वह संक्षेप से कहा जा सकता है। वह संक्षेप से कहा जानेवाला रत्नत्रय का विधान इस प्रकार है । तुम भी ध्यान से सुनो--
जो पुरुष रत्नत्रय व्रत का पालन करनेवाला है, उसे भगवान अरहनाथ, मल्लिनाथ एवं मुनिसुव्रतनाथ--इन तीनों तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का जिस रूप से शास्त्र में अभिषेक का विधान लिखा हआ है. उस विधान से भक्तिपूर्वक ||
अभिषेक करना चाहिए तथा इन तीनों प्रतिमाओं के सामने पहिले के समान भक्तिपूर्वकरत्नत्रय यन्त्रों को लिख कर रख देना चाहिए एवं एक साथ सबका पूजन करना चाहिए । इस रूप से भी रत्नत्रय का विधान संक्षेप से माना गया हैं । रत्नत्रय का विधान भाद्रपद मास में बतलाया गया है । इसलिए ग्रन्थकार भाद्रपद मास की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार मनुष्यों में श्रेष्ठ राजा माना जाता है, उसी प्रकार समस्त मासों के अन्दर भाद्रपद मास ही श्रेष्ठ | है; क्योंकि वह अनेक प्रकार के व्रतों का स्थान स्वरूप है एवं धर्म प्रधान कारण है ।।३६-३६।। इसलिए समस्त गृहारम्भ का परित्याग कर इस भाद्रपद मास में व्रती पुरुष पूजा, व्रत एवं उपवास आदि के द्वारा तथा धर्म के आचरण से पापों के नाश में प्रवृत्त होते हैं ।।४०।। जिस रूप से भाद्रपद मास में रत्नत्रय व्रत का विधान बतलाया है, उसी विधि से उसे माघ मास एवं चैत मास में भी आचरण करना चाहिए। क्योंकि यह अनुपम रत्नत्रय व्रत संसार के उत्तमोत्तम भोग प्रदान कर अन्त में मोक्षसुख को प्रदान करनेवाला है।॥४१।। जो महानुभाव तीन दिन पर्यंत उपवास करने के लिए असमर्थ हैं; किन्तु रत्नत्रय व्रत के पालन करने में पूरी-पूरी भक्ति एवं श्रद्धा रखते हैं, वे शक्ति के अनुसार एक प्रोषध आदि से ही रत्नत्रय व्रत के पालक माने जाते हैं । अर्थात् उनके लिए त्रयोदशी, चतुर्दशी एवं ||२० पूर्णिमा--इन तीनों दिन तक उपवास करने की कोई आवश्यकता नहीं । वे ऐसा भी कर सकते हैं कि त्रयोदशी के दिन एक बार भोजन कर सारा दिन एवं रात्रि का समय मन्दिर में ध्यान आदि कार्यों में व्यतीत करें । चतुर्दशी के दिन पूरा उपवास करें एवं मन्दिर के अन्दर ही स्वाध्याय आदि में दत्तचित्त होकर अपना समय व्यतीत करें।
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