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करना तथा रखना आदान निक्षेपणसमिति है तथा नेत्रों से अच्छी तरह देख-भाल कर भूमि पर मल-मूत्र आदि का क्षेपण करना प्रतिष्ठापन नाम की समिति है, इसका दूसरा नाम उत्सर्ग भी है । पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति तथा पाँच समिति-इस प्रकार यह तेरह प्रकार का चारित्र संसार के समस्त भोगों को प्रदान कर अन्त में मोक्ष सुख प्रदान करनेवाला है--परम धर्म का कार्य है तथा निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यकूज्ञान तथा सम्यकचारित्र स्वरूप रत्नत्रय का साधक है। इस सम्यक्चारित्र के बिना सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान के अन्दर यह सामर्थ्य नहीं कि वे मोक्ष की प्राप्ति करा सकें, इसलिये सम्यक्चारित्र की जितनी भी प्रशंसा की जाए थोड़ी है ।।८२-८७।। ग्रन्थकार सम्यक्चारित्र की | वास्तविक प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि सम्यक्चारित्र से युक्त हो एक मुहूर्त ही जीवित रहना अच्छा है, परन्तु उसके ||लि बिना करोड़ों वर्ष पर्यंत भी जीवित रहना अच्छा नहीं । अर्थात् सम्यक्चारित्र के बिना जीवन की सफलता नहीं हो सकती, इसलिये जीवन में सफलता पाने के लिए सम्यक्चारित्र सहित मुहूर्तमात्र भी जीवन अच्छा है, परन्तु उसके || ना बिना करोड़ों वर्ष तक भी जीता रहना अच्छा नहीं ।।८८।। जो महात्मा दृढ़व्रतात्मा हैं अर्थात् जिनकी आत्मा | सम्यक्चारित्र के अन्दर दृढ़ है, उन महानुभावों को जो कर्म पुरातन है अर्थात् पहिले से आत्मा के साथ बन्ध को प्राप्त है, वह हर एक क्षण में नष्ट होता चला जाता है एवं उस महापुरुष की आत्मा के साथ नवीन कर्मों का || पु बन्ध भी नहीं होता, इसलिये धीरे-धीरे समस्त कर्मों के नष्ट हो जाने से उन्हें बहुत जल्दी मोक्षलक्ष्मी का समागम प्राप्त | हो जाता है।
जो महानुभाव चारित्ररूपी सिंहासन पर विराजमान हैं, अर्थात् दृढ़रूप से सम्यक्चारित्र को पालता है, उसे बड़े-बड़े इन्द्र आदि भी सेवक की तरह आकर नमस्कार करते हैं; फिर इस सम्यक्चारित्र का जितना भी वर्णन किया जाय थोड़ा है ।।६।। जो पुरुष निश्चितरूप से चारित्ररूपी रत्न का धारण करनेवाला है, वह इसी संसार में सर्वप्रकार के द्वन्द्वों से रहित, अपनी आत्मा से जायमान अगणित सुख का लाभ करता है; ऊर्ध्व, मध्य तथा पाताल लोक के ||१२ लोग आकर उसे नमस्कार करते हैं, उसकी पूजा अभ्यर्थना करते हैं तथा अत्यन्त सम्मान की दृष्टि से देखते हैं तथा उस सम्यक्चारित्र को पालन करनेवाले पुरुष को परभव में भी महाकल्याण का कर्ता स्वर्ग-मोक्ष आदि का सुख निश्चय से प्राप्त होता है ।।६१-६२।। इस प्रकार भिन्न-भिन्न रूप से सम्यग्दर्शन आदि का स्वरूप तथा प्रयोजन बतला कर
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